वे दिन बहुत खूबसूरत थे
जो कि बेक़रार थे
सुलगते होठों को चूमने में गुजरी वो शामें
थीं सबसे खूबसूरत
झुलसते जिस्म को सहलाते हुए
बर्फ से ठंढे पानी से नहाया करती थी
दिल्ली की जनवरी वाली ठंढ में
ठीक आधी रात को
और तवे को उतार लेती थी बिना चिमटे के
उँगलियों पर फफोले पड़ते थे
जुबान पर चढ़ता था बुखार
तुम्हारे नाम का
खटकता था तुम्हारा नाम
किसी और के होठों पर
जैसे कोई भद्दी गाली
मन को बेध जाती थी
सच में तुम्हारा प्यार बहुत बेरहम था
कि उसने मेरे कई टुकड़े किये
दिल को ठीक से धड़कने नहीं देती थी
सीने के ठीक बीचो बीच चुभती थी
हर धड़कन
कातिल अगर रहमदिल हो
तो तकलीफ बारहा बढ़ जाती है
या कि कातिल अगर नया हो तो भी
तुम मुझे रेत कर मारते थे
फिर तुम्हें दया आ जाती थी
तुम मुझे मरता हुआ छोड़ जाते थे
सांस लेने के लिए
फिर तुम्हें मेरे दर्द पर दया आ जाती थी
इस तरह कितने ही किस्तों में तुमने मेरी जान ली
इश्क मेरे जिस्म पर त्वचा की तरह था
सुरक्षा परत...तुम्हारी बांहों में होने के छल जैसा
इश्क का जाना
जैसे जीते जी खाल उतार ले गयी हो
वो आवाज़...मेरी चीखें...खून...मैं
सब अलग अलग...टुकड़ों में
जैसे कि तुम तितलियाँ रखते थे किताबों में
जिन्दा तितलियाँ...
बचपन की क्रूरता की निशानी
वैसे ही तुम रखोगे मुझे
अपनी हथेलियों में बंद करके
मेरा चेहरा तुम्हें तितली के परों जैसा लगता है
और तुम मुझे किसी किताब में चिन देना चाहते हो
तुम मुझे अपनी कविताओं में दफनाना चाहते हो
तुम मुझे अपने शब्दों में जला देना चाहते हो
और फिर मेरी आत्मा से प्यार करने के दंभ में
गर्वित और उदास जीवन जीना चाहते हो.
मैं तुमसे नफरत करती हूँ ओ कवि!
बहुत खूब............
ReplyDeleteनिःशब्द कर दिया आपकी रचना ने...
कभी प्यार में पीड़ा का लावा और कभी पीड़ा को शब्दों में व्यक्त करने वाले कवि को उलाहना। यह कैसा चुम्बकीय अन्धकूप हैं प्रेम जिसमें हम जैसे प्रेम के लघु-चुम्बक अपनी दिशा खो देते हैं।
ReplyDeleteअनुपम वर्णन..
प्रेमपाश में बंधे व्यकित्व और उसकी पीड़ा को कवि के शब्दों का जामा पहना दिया ...बहुत खूब
ReplyDeleteकितना सुन्दर नफरत है ! हम भी ऐसा नफरत करेंगे
ReplyDeleteइसी पर कहा गया है " मैं कुछ कुछ भूलता जाता हूँ तुझको".... और फिर शिद्दत से याद किया जाता है.
एक और
"अंदाज़ अपने देखते हैं आईने में वो
और ये भी देखते हैं कोई देखता ना हो"
निशब्द करती उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
पर मैं तुमसे प्यार और बस प्यार करती हूँ
ReplyDeletez.. मेरे कवि
वो भी बेइन्तिहा
मरने के जैसा
या शायद मर ही जाऊँ कुछ दिन में
तुमने जो किया .. जो भी
मेरे सर माथे ..
मेरा चेहरा तुम्हें तितली के परों जैसा लगता है
ReplyDeleteऔर तुम मुझे किसी किताब में चिन देना चाहते हो
तुम मुझे अपनी कविताओं में दफनाना चाहते हो
तुम मुझे अपने शब्दों में जला देना चाहते हो
वाह अद्भुत भाव एवं प्रवाह बधाई
वे दिन बहुत खूबसूरत थे
ReplyDeleteजो कि बेक़रार थे
सुलगते होठों को चूमने में गुजरी वो शामें
थीं सबसे खूबसूरत
झुलसते जिस्म को सहलाते हुए
बर्फ से ठंढे पानी से नहाया करती थी
दिल्ली की जनवरी वाली ठंढ में
ठीक आधी रात को
और तवे को उतार लेती थी बिना चिमटे के
उँगलियों पर फफोले पड़ते थे
जुबान पर चढ़ता था बुखार
तुम्हारे नाम का
behad umda..... humesha ki tarah...
dhanywad
avinash001.blogspot.com
भँवरा जो हूँ इक कली से प्यार करता हूँ...
ReplyDeleteमौत है वो मेरी , ये ऐतबार करता हूँ...
भींच लेगी मुझे आगोश में, और अंत कर देगी..
फिर भी अपनी मौत से, में प्यार करता हूँ....
जब भावना पिघल कर शब्द बन जाए तो ही ऐसे कलाकृति बनती है,,,, बहुत खूबसूरत
unbelievable outburst of emotions ...splendid....
ReplyDeleteआह!
ReplyDeleteबहुत बेहतर बहुत आला
ReplyDeleteनफरत है या प्यार की इंतहा...
ReplyDeleteखूबसूरत रचना।
स्वप्नजीवी कवि के
ReplyDeleteप्रेम की तिजारत से बेहतर है
किसी यथार्थजीवी निष्ठुर की नफ़रत
कम से कम वह ज़मीन पर तो है
कभी भी मना लेंगे उसे.
पूजा ! तुम हर बार निःशब्द कर देती हो .....हुंकारी भरने के लिए शब्द खोजने पड़ते हैं ......ऐसी समस्या से अब तो रोज ही दो-चार होना पड़ा रहा है.......यह कैसा एंटीओक्सिडेंट है जो सारी ओक्सिजन ख़त्म कर देता है ?
वाह..... बेजोड़ रचना ...बेजोड़ प्रस्तुति ...बधाई
ReplyDeleteनीरज