07 January, 2012

कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े

मैं उसे रोक लेना चाहती थी
सिर्फ इसलिए कि रात के इस पहर
अकेले रोने का जी नहीं कर रहा था
मगर कोई हक कहाँ बनता था उस पर
मर रही होती तो बात दूसरी थी
तब शायद पुकार सकती थी
एक बार और


इन्टरनेट की इस निर्जीव दुनिया में
जहाँ सब शब्द एक जैसे होते हैं
मुझे उससे वादा चाहिए था
कि वो मुझे याद रखेगा
मेरे शब्दों से ज्यादा
मगर मैं वादा नहीं मांग सकती थी
सिर्फ मुस्कराहट की खातिर
वादे नहीं ख़रीदे जाते
मर रही होती तो बात दूसरी थी

मुझे याद रखना रे
मेरे टेढ़े मेरे अक्षरों में
फोन पर की आधा टुकड़ा आवाज़ से
तस्वीरों की झूठी-सच्ची मुस्कराहट से
और तुमसे जितना झूठ बोलती हूँ उससे
जो पेनकिलर खाती हूँ उससे
कि ज़ख्मों पर मरहम कहाँ लगाने देती हूँ
कि किसने टाँके हैं मन के टूटे टुकड़े

अगली बार जब मैं कहूँ चलती हूँ
मुझे जाने मत देना
बिना बहुत सी बातें कहे हुए
मैं शायद लौट के कभी न आऊँ
मर जाऊं तो भी
मुझे भूलना मत


मुझे जब याद करोगे
तो याद रखना ये वाली रात
जब कि रात के इस डेढ़ पहर
कोई पागल लड़की
स्क्रीन के इस तरफ
रो पड़ी थी तुमसे बात करते हुए
फिर भी उसने तुम्हें नहीं रोका

उसे लगता है मुझे एक कन्धा चाहिए
मैं कहती हूँ कि चार चाहिए
हँसना झूठ होता है
पर रोना कभी झूठ नहीं होता

उसने वादा तो नहीं किया
पर शायद याद रखेगा मुझे

दोहराती हूँ
बार बार, बार बार बार
बस इतना ही
मर जाऊं तो मुझे याद रखना...

6 comments:

  1. तस्वीरों की झूठी-सच्ची मुस्कराहट

    the simple imagery of these words did cast a spell on me... keep writing:)

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  2. bejubaani ko jhijhod diyaa aapne ...likhti rahiye :)

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  3. धुंध हटे, सूरज चमकेगा..

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  4. एक बार फिर आपकी कलम ने अपना लोहा मनवाया है...कमाल की रचना...बधाई...

    नीरज

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  5. दोहराती हूँ
    बार बार, बार बार बार
    बस इतना ही
    मर जाऊं तो मुझे याद रखना...

    Itni si dua koi sun le to lagta hai jaise k saanso ko manzil mil gayi...

    Behad bhaavpurna rachna...!

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