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17 April, 2019

मैं precious, और तुम, बेशक़ीमत

उसे क़रीब से जानना थोड़ा unsettling है। अस्थिर। जैसे अपनी धुरी पर घूमते घूमते अचानक से थोड़ा डिस्को करने का मन करने लगे। जैसे बाइक उठा के घर से बाहर निकलें तो सब्ज़ी ख़रीदने के लिए और उड़ते उड़ते चले जाएँ एयरपोर्ट और दो चार घंटे वहाँ कॉफ़ी पीते और सोचते रहें कि उसके शहर चले जाएँ टिकट कटा के या कि किसी शहर जाएँ और उसको वहाँ बुला लें।  इस सारे सोचने और क़िस्सों का शहर रचते हुए काग़ज़ पर लिखते जाएँ ख़त, उसको ही। कि जैसे मेरे लिखने से हम ज़रा से याद रहेंगे उसको, हमेशा के लिए। कि जैसे कई टकीला शॉट्स के बाद भी होश में रहें और वो हँस के कहे कि पानी नीट मत पीना, थोड़ी सी विस्की मिला लेना तो उस आवाज़ के ख़ुमार में बौरा जाएँ। कि उसकी हँसी सम्हाल के रखें। कि इसी हँसी की छनक होगी न जब उसके इश्क़ में दिल टूटेगा।

हम बहुत हद तक एक जैसे हैं। जैसे आज शाम बात कर रहे थे तो उसने बताया कि मौसम इतना अच्छा था कि दोपहर में छत पर  कुर्सी निकाल कर बैठा और रेलिंग पर पैर टिका दिए और किताब ख़त्म की। इस तरह जगह की डिटेलिंग सिर्फ़ मैं करती हूँ। कि यहाँ घूम रही हूँ, ये कर रही हूँ, सामने फ़लाना पेड़ है, हवा चल रही है, विंड चाइम पगला रही है। इट्सेटरा इट्सेटरा। फिर ये भी लगता है कि सुनने वाले को ये डिटेल्ज़ बोरिंग तो नहीं लगते। कि मैं क्या ही कह रही हूँ फ़ालतू बातें। क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर खिड़की के सामने नारियल का पेड़ है या आम का या डेकोरेटिव पाम का… लेकिन मुझे फ़र्क़ पड़ता है तो मैं कहती हूँ ऐसे। लेकिन पहली बार कोई ऐसा था, जिसने इतनी छोटी सी डिटेलिंग की ताकि मैं देख सकूँ ठीक उस रंग में जैसी उसकी दोपहर थी। बात सिर्फ़ इतनी भी होती तो ठीक था…बात ख़ास इसलिए है कि मैंने पूछा नहीं था। उसने ख़ुद से बताया। वो शहर में होता तो उड़ते उड़ते जाती बाइक पर, सिर्फ़ उसे ज़ोर से hug करने के लिए।

वो पूछता है, तुम्हें मैं समझ में आता हूँ। मैं सोचती हूँ, क्या कहूँ। थीसीस की है तुमपर। तुम्हारे हर शब्द को लिख के रखा है। तुम्हारी आँखों का रंग हर क़िस्से में झलकता है। तुम्हारे कहे बिना बात समझती हूँ। तुम्हारे आधे सेंटेन्सेज़ सही सही पूरे करती हूँ और तुम नाराज़ नहीं होते हो। तुम्हारी याद में अटकी फ़िल्मों के नाम मुझे सूझते हैं। लेकिन, यूँ तो कोई किसी को ताउम्र साथ रह के भी नहीं जान सकता और किसी को जानने के लिए एक मुलाक़ात ही काफ़ी होती है। एक बात बताऊँ वैसे, मुझे कभी नहीं मालूम था कि तुमने कॉलेज में कितनी लड़ाई वग़ैरह की थी...लेकिन तुम्हारे साथ चलते हुए एक एकदम ही स्ट्रेंज सी निश्चिन्तता होती थी। जैसे कि कोई मुझे नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। ये सिर्फ़ एक दिन की छोटी सी बात से आयी थी। वो दिल्ली का अजीब सा मुहल्ला था...लड़के जैसे लड़कियाँ घूरने के लिए ही पैदा हुए थे। बहुत अजीब जगह, जहाँ डर लगे। तुमने बिना कुछ कहे, मेरा हाथ पकड़ा और साथ में चलने लगे। तुम्हारे हाथ की पकड़ में आश्वस्ति थी। कुछ चीज़ें जो हम शब्दों के बग़ैर कहते हैं। स्पर्श की भाषा में। उस दिन पता चला मुझे। तुम्हारे साथ डर नहीं लगेगा, कभी भी।

मुझे उसकी हँसी अच्छी लगती है। और उसकी आँखें। और उसकी बातें। और उसका शब्दों का एकदम ठीक ठीक इस्तेमाल करना। कि ग़लती से भी, कभी भी एक शब्द ग़लत नहीं बोल सकता। इम्पॉसिबल। कि इसपर शर्त लगायी जा सकती है। हार जाने वाली शर्त। पर उससे हारना अच्छा लगता है। उसके कम शब्दों में कुछ शब्द जो मेरे नाम के इर्द गिर्द गमकते हैं। precious. कितना साधारण सा शब्द है। लेकिन वो कहता है तो ख़ास लगता है। कि भले ही वो मेरे लिए बेशक़ीमत हो। मैं उसके लिए सिर्फ़ क़ीमती हूँ, तो भी चलेगा। कि वो आप कहता है, मुझे नहीं मालूम, ग़ुस्से में कि दुलार में। पर कहता है तो अच्छा लगता है। कि मुझे आप सिर्फ़ पापा कहते हैं।

अजीब सी किताब है। Norwegian Wood। लेकिन जब वो कहता है कि वो मुझे कभी नहीं भूलेगा। उसका उसकी पसंद की भाषा में कहना। I will always remember you. बहुत प्यारा महसूस होता है। जैसे किसी एक साल मैथ के इग्ज़ैम में सच में 99 मार्क्स आ गए हों। कि ग़लती से सारे सवाल सही बन गए थे।

द लेकहाउस याद आ रही है। जिसमें वो लड़की के लिए शहर के नक़्शे में एक रूट चार्ट करता है कि यहाँ जाओ, ये देखो… और लड़की उस रास्ते पर चलती है, सोचती हुयी… कि काश हम सच में साथ होते… फिर सामने वो बड़ी सी दीवार आती है, जिसपर कमोबेश दो साल पुरानी ग्रफ़ीटी बनी हुयी है। कि केट, मैं तुम्हारे साथ हूँ, इस ख़ूबसूरत शनिवार की शाम का शुक्रिया। कैमरा ‘together’ शब्द पर जा के ठहरता है। प्यार में कैसी कैसी चीज़ें लोगों को क़रीब ले आती हैं। कि दूरी सिर्फ़ मन में होती है। मैं सोचती हूँ कि ऐसा हो सकता है कि उसके शहर में बारिश हो और यहाँ की हवा में खुनक आए।

फिर द ब्लूबेरी नाइट्स का वो सीन, जब कि लड़की पूरी दुनिया में भटकती हुयी भी उस कोने की छोटी वाली दुकान के लड़के को पोस्टकार्ड भेजती है। कहती है उससे, पता नहीं तुम मुझे कैसे याद करोगे। उस लड़की की तरह जिसे ब्लूबेरी पाई पसंद थी, या उस लड़की की तरह, जिसका दिल टूटा हुआ था।

मैं सोचती हूँ कि मुझे क्या याद रहेगा। इमारत से पीठ टिकाए बैठना। आसमान को देखते हुए हँसना। दिल्ली मेट्रो के स्टेशन पर विदा कहते हुए फ़्लाइइंग किस देना। क्या क्या। कि कहानी और सच के बीच अंतर करना सीखना ज़रूरी है वरना मैं भी किसी पागलपन की कगार पर तो हूँ ही। कब से एक कहानी के बाहर भीतर कर रही हूँ। किरदार मेरे साथ साथ शहर घूमते हैं और मैं जाने क्या कुछ महसूसती हूँ। कि कोई एक शहर हो जिसमें मेरी पसंद की सारी जगहें हों। वो कॉफ़ीशॉप्स जहाँ मेरे पसंद की कॉफ़ी मिलती है। वो पोस्ट बॉक्स जहाँ से तुम्हें पोस्टकार्ड गिराया था। पतझर का सुनहले पत्तों वाला मौसम। डाकटिकटों में रचे-बसे शहर जहाँ में जाना चाहती हूँ एक शाम कभी।

मुझे लिखने से डर लगने लगा है। लिखे हुए लोग ज़िंदगी में मिल जाते हैं। जब तीन रोज़ इश्क़ लिखा था तो उसमें लड़की एक घंटे में एक पैग विस्की पीती है...विस्की के पैग से समय नापा जा सकता है। मैंने तब तक ऐसे किसी इंसान को नहीं जाना था जो ड्रिंक्स के हिसाब से घंटे माप सके। और फिर मैं तुमसे मिली। उस दिन पता है, मन किया तुम्हें वो पूरी कहानी पढ़ के सुनाऊँ... कि देखो, अनजाने में ऐसा लिखा है।

तुम हो मेरे इंतज़ार में? या कि सिर्फ़ मैंने लिखे हैं इतने सारे शहर कि जिनका कोई सही डाक पता नहीं। तुम मुझे चिट्ठियाँ लिखने से मना करो। मेरी चिट्ठियों से सबको ही प्यार हो जाता है। without exception। मेरी चिट्ठियाँ उतनी ही पर्फ़ेक्ट हैं, जितनी मैं flawed। फिर चिट्ठियों से प्यार करोगे और लड़की से नफ़रत। क्या करेंगे फिर हम।

मैं पूछती हूँ उससे। तुम जानते हो न, मैं क्यूँ चाहती हूँ कि किसी को याद रहूँ। कि मुझे मालूम है किसी दिन आसान होगा मेरे लिए कलाइयाँ काट कर मर जाना। उसकी आवाज़ में फ़िक्र है। कि ऐसी बातें मत करो। मुझे नहीं चाहिए प्यार मुहब्बत। मुझे बस, थोड़ी सी फ़िक्र चाहिए उसकी…बस। मैं उसकी आँखें याद करूँगी और दुनिया के सबसे फ़ेवरिट सूयसायड पोईंट से कूदना मुल्तवी कर दूँगी। हाँ इसे प्यार नहीं कहते। लेकिन इतना काफ़ी है, कि इसे ज़िंदगी कहते हैं। और तुम्हारे होने से ज़िंदगी ख़ूबसूरत है और मेरी हँसी में जादू। इससे ज़्यादा मुझे नहीं चाहिए। 

15 April, 2012

अनलिखे की डायरी

डिस्क्लेमर: मुझे लिख के एडिट करना न आया है न आएगा...कुछ वाक्य थे जो सोने नहीं दे रहे थे...इनमें कोई काम की बात नहीं है...आप इस पोस्ट को पढ़ना स्किप कर सकते हैं.
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रतजगे का सोचना...इसे आधी रात का जागना भी नहीं कह सकते...आधी रात को तो मैं हमेशा नींद में होती हूँ...जाग जाती हूँ कुछ २ बजे से चार बजे के बीच. नींद मेरी हमेशा से कम रही है...बचपन से बहुत सारा पढ़ने की आदत और बहुत कुछ सकेर लेने का मोह. इधर इंटरव्यू में शायद किसी ने सवाल पूछा था...इतना सारा कुछ करने के लिए वक़्त कैसे निकाल लेती हो...और मेरा जवाब था...आई स्लीप लेस. यानि मैं कम सोती हूँ...चार से पांच घंटे हमेशा मेरे लिए काफी रहे हैं. स्कूल के दिनों में रात ग्यारह बारह तक सिलेबस पढ़ना होता था और उसके बाद एक दो घंटे अपने पसंद का कुछ...मुझे आज भी रात को बिना कुछ पढ़े नींद नहीं आती.

कोलेज में आकर तो और आदत ही हो गयी रात दो बजे सोने की...आदत दिल्ली तक बरकरार रही...उसपर सुबह छह से सात बजे तक हर हाल और हर मौसम में उठ जाने की भी आदत बनी रही. इधर तीन चार सालों से थोड़ा रूटीन भी गड़बड़ था और नींद भी ज्यादा आती थी. अभी फिर पिछले तीन चार महीनों से वही पहले वाला हाल...चार घंटे, पांच घंटे की नींद. कल रात भी कोई १२ बजे सोयी होउंगी...तीन बजे नींद खुल गयी...और कितना भी चाहूं नींद आएगी नहीं. 

सब अच्छा रहता और इतना दर्द न रहता तो हमेशा की तरह इस वक़्त तुम्हें एक चिट्ठी जरूर लिखती...ब्लॉग पर यूँ अलाय बलाय लिखने के बजाये या फिर लिखने के पहले...पर आजकल मुझे जाने क्या हो गया है...एक एक शब्द को पकड़ कर रखती हूँ. मुझे तुम्हारी बहुत याद भी आ रही है अभी...अकेले तुम्हारी नहीं, कुछ और अजीज दोस्तों की भी...तो कह सकती हूँ कि तुम्हारे लिए मेरे मन में कोई खास कोर्नर या कोना नहीं है जिसके लिए मैं या तुम परेशान होना चाहो. 

मुझे लिखे बिना रहना नहीं आता...मेरी आदत है...मुझे लोग बहुत समझाते हैं कि हर बात लिखनी नहीं चाहिए...कुछ मन में भी रखना चाहिए...उसे गुनना चाहिए...फिर जाके अच्छा लिखना होता है. इसी तरह लोग बोलने के बारे में भी समझाते हैं कि कभी चुप भी रहना चाहिए...मुझसे नहीं होता. मैं क्या करूँ...कितना चाहती हूँ हाथ रोकूँ...मुझसे होता नहीं...पर हर बार जब ये कोशिश करती हूँ मैं बेहद उदास हो जाती हूँ...कलम की सारी सियाही आँखों में बहने लगती है और फिर रात रात नींद नहीं आती. 

एक बार ऐसे ही उदासी में अनुपम से कह दिया था...राइटिंग इज अ कर्स टु मी...उसने बहुत डांटा था कि ऐसे कभी नहीं कहते...कि काश वो मेरी तरह होता...कि उसे एक लाइन लिखने में कितनी दिक्कत होती है, कितना सोचना होता है तब जा के लिखता है. मैं जब ऑफिस में थी तब भी ऐसी ही थी. उसने कहा कि उसके साथ जितने ट्रेनी लोगों ने काम किया है सिर्फ मैं ऐसी थी कि वो निश्चिंत रहता था कि बॉडी कॉपी अगले दिन तैयार रहेगी. परसों से अनुपम की बहुत याद आ रही है...और ऐसा हो जा रहा है कि उससे बात करने का टाइम नहीं मिल पा रहा. जब मैं फ्री रहती हूँ वो नहीं रहता...जब वो फ्री रहता है मैं नींद में बेहोश. अभी सोच रही थी कि मंडे को उसे चिट्ठी लिखूंगी...बहुत दिन हो गए. 
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बहुत चाह रही हूँ कि सोचूँ उसके शब्दों के बारे में...मगर आज ही पहली बार तस्वीर देखी है और बाकी शब्द धुंधलाते दिख रहे हैं...मन एक ही बात पर अटका है...कवि कितना खूबसूरत है...बेहद से भी ज्यादा. दुनिया की फिलोसफी मुझे कभी जमी नहीं...मेरे जिंदगी के अपने फंडे रहे हैं...तो मन की खूबसूरती जैसी बकवास बातों पर कभी मेरा यकीन नहीं रहा...ये और बात है कि दोस्त हमेशा कहते थे कि तेरी खूबसूरती का पैमाना बायस्ड है. मुझे जो लोग अच्छे लगते हैं वो मुझे खूबसूरत लगने लगते हैं, आम से लोग पर मुझसे सुनोगे कि वो कैसे दिखते हैं तो लगेगा दुनिया में उनसे अच्छा कोई है ही नहीं. 
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मैं बेहद थक गयी हूँ अब...बहुत साल हो गए मेरे नाम एक भी चिट्ठी नहीं आई...मैं यूँ तनहा दीवारों से बातें करते थक गयी हूँ...मैं तुम्हारे नाम लगातार चिट्ठियां लिखते लिखते थक गयी हूँ...पूरी पूरी जिंदगी मौत का इंतज़ार करते करते थक गयी हूँ. मैं दो ही चीज़ों से ओब्सेस्ड हूँ...जिंदगी और मौत. बार बार सोचती हूँ कि कोई तुम्हारे जैसा कैसे होता है...समझ नहीं आता...शायद मैं बहुत आत्मकेंद्रित हूँ कि मुझे अपने से अलग लोग समझ नहीं आते...मुझे लगता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि आपको किसी की याद आये और आप उसे बताएं नहीं...किसी से प्यार हो और उसी से छुपा ले जाएँ...किसी से प्यार ख़त्म हो चुका हो और झूठ उसे यकीन दिलाते जायें...कैसे जी लेते हैं लोग झूठ के मुखोटे में. 

मुझे किसी की याद आती है तो बता देती हूँ...किसी से प्यार होता है तो जता देती हूँ...कभी प्यार टूटता है तो समझा देती हूँ...किसी को भूल जाती हूँ तो माफ़ी मांग लेती हूँ...मुझे कॉम्प्लीकेटेड होना नहीं आता. पर आज तकलीफ है बहुत...बेहद...जिंदगी हम जैसे लोगों के लिए नहीं है...और मैं क्या करूँ कि मुझे तो झूठ का हँसना भी नहीं आता...तुमने बहुत हर्ट किया है मुझे...जितना मैं तुम्हें बताउंगी नहीं...और जितना मेरे शब्दों में खुल कर दिखता है उससे कहीं ज्यादा. 

पर मैं क्या करूँ...मैं ही कहती थी न...कोई आपको दुःख सिर्फ और सिर्फ तब पहुंचा सकता है जब वो आपसे प्यार करता हो...उलझी हूँ...कोई सुझा दे...गिरहें. 

19 August, 2011

शोर...

जिंदगी के सबसे खुशहाल दिनों में
कहीं, एक नदी सी खिलखिलाती है
सुनहरी धूपों में 

गिरती रहती है मन के किसी गहरे ताल में
झूमती है अपने साथ लेकर सब
नयी पायल की तरह 

कहीं तुम्हारी आँखों में संवरती हूँ तो  
मन का रीता कोना भरने लगता है 
धान के खेत की गंध से 

पल याद बहती है, माँ की लोरी जैसी
पोंछ दिया करती है गीली कोर
टूटता है एक बूँद आँसू

उलीचती हूँ अंजुली भर भर उदासियाँ 
मन का ताल मगर खाली नहीं होता 
मेरी हथेलियाँ छोटी हैं 

लिखने को कितनी तो कहानियां 
सुनाने को कितनी खामोशियाँ
पर, मेरी आवाज़ अच्छी नहीं है 

14 July, 2011

गुज़र जायें करार आते आते

मेरा एक काम करोगे? बस आईने के सामने खड़े हो जाओ और अपनी आँखों में आँखें डाल कर कह दो कि मुझे दुःख पहुँचाने पर तुम्हारी आत्मा तुम्हें नहीं कचोटती है...क्यूंकि मुझे अब भी यकीन है कि दुनिया में अगर कुछ लोगों के अंदर आत्मा बची हुयी है तो तुम हो उनमें से एक...मेरे इस विश्वास को बार बार झुठला कर तुम्हीं क्या मिलता है?

पता है...अच्छा बनना बहुत मुश्किल है, दुनिया के हिसाब से तो बाद में चला जाए सबसे पहले हमें अपने खुद के हिसाब से चलना होता है. क्यूंकि अभी भी वो वक्त नहीं आया है कि हम अपने अंदर के इंसान को गला घोंट कर मार सकें...बहुत दुःख उठाने पड़ते हैं. लोग आते हैं चोट देकर चले जाते हैं और हम कुछ कर नहीं पाते...इसलिए नहीं कि हम चोट पहुँचाने के काबिल नहीं है...लेकिन इसलिए क्यूंकि हम चाह कर भी किसी को उस तरह से तोड़ नहीं सकते. अपनी अपनी फितरत होती है.

कितना अच्छा लगता है न कि तुम इस काबिल हो कि किसी को चोट पहुंचा सको...बहुत पॉवरफुल महसूस होता है...कि किसी को कुछ बोल दिया और लड़की रो पड़ी...तोड़ना सबसे आसान काम है...मुश्किल तो बनाना होता है. किसी रिश्ते को खून के आंसू सींच कर भी जिलाए रखना...सहना होता है...धरती की तरह तपना, जलना और फिर भी जीवन देना. सिर्फ इसलिए कि तुम जानते हो कि किसी को तुम्हारी जरुरत है...भले छोटी सी ही सही तुम उसकी जिंदगी का हिस्सा हो...उसे इस बात का और भी शिद्दत से अहसास दिलाना. अरे जी तो लोग भगवान से भी नाराज़ होकर लेते हैं...क्या फर्क पड़ता है किसी के होने न होने से.

बुरा बनना आसान है...कोई कुछ भी कहे तो कह दो कि हम ऐसे ही हैं...तुम्हें पता होना चाहिए था  कि हम बुरे हैं. बुरा होना कुछ नहीं होता...बस अपनी गलतियों के लिए बहाना होता है. कुछ लोग राशि को ब्लेम करते हैं और कुछ फितरत को. वाकई अच्छा बुरा कुछ नहीं होता...होती है बस जिद- दिखने की कि तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं हो. अंग्रेजी में कुछ शब्द वाकई बड़े सटीक हैं जैसे Status-Quo यानि पलड़ा बराबर का रखना. कुछ देना तो बदले में कुछ लेना भी. पता नहीं हमारे संस्कार ही कुछ ऐसे हो जाते हैं कि रिश्तों में इतना मोलतोल नहीं कर पाते.

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पता नहीं क्यूँ आज शाम बारिश ने कई पुराने ज़ख्म धुला कर नए कर दिए. कितने शिकवे गीले हुए तार पर पड़े हैं...आज दुपहर ही सुखाने डाला था...बस ऐसे ही.
होता है न जब आप सबसे खुश होते हो...तभी आप सबसे ज्यादा उदास होने का स्कोप रखते हो.

04 March, 2011

नीले पांवों वाली लड़की

बहुत सालों पहले जब घर बनवाया गया था तो सड़क से लगभग दो फुट ऊंचा बनवाया गया था...अनगिन घपलों और सावनों के कारण सड़क साल दर साल बनती रही...अब हालात ये थे कि हर बारिश में पानी बहकर अन्दर चला आता था और वो लड़की जो सिर्फ खिड़की से ही बारिश देखा करती थी उसके तलवे हमेशा सीले रहने के कारण पपड़ियों से उखड़ने लगे थे. 

उसे कुरूप होते अपने पैरों से बेहद लगाव होने लगा था...वैसे ही जैसे गालों से लुढ़ककर गर्दन के गड्ढे में जो आँसू ठहरता था उससे होता था. वो अक्सर दीवार में सर टिका कर रोती थी...पलंग भी नीचा था तो उसके पैर गीले फर्श से ठंढे होने लगते थे...खून की गर्मी का उबाल भी सालों पहले ठंढा हो गया था, बात बेबात तुनकने वाली लड़की अचानक से शांत हो गयी थी. उसी साल पहली बार सड़क के ऊंचे होने के कारण पानी घर में रिसना शुरू हुआ था.

लड़की ने बहुत कोशिश की...टाट के बोरे, प्लास्टिक दरवाजे के बीच में फंसा कर पानी अन्दर आने से रोकने की...पर ये पानी भी आँखों के पानी जैसा बाँध में एक सुराख ढूंढ ही लेता था. अगले साल तो पानी में उसकी चप्पल तैर कर इस कमरे से उस कमरे हो जाती थी. देर रात चप्पल ढूंढना छोड़ कर उसने नंगे पाँव ही चलना शुरू कर दिया. वो पहला साल था जब उसके पाँव ठंढ में गर्म नहीं हो पाए थे...वो पहला साल भी तो था जब बारिश के बाद धूप नहीं निकली थी...सीधे कोहरा गिरने लगा था...वो पहला ऐसा साल भी था जब वसंत में उसकी खिड़की पर टेसू के फूल नहीं मिले थे.

उसने वसंत के कुछ दिन खुद को बहलाए रखा कि शायद इनारावरण* में जंगलों की कटाई हो गयी हो, भू माफिया ने जमीन पर मकान बना दिए हों...वो चाह कर भी नहीं सोच पायी की वो लड़का जिसका कि नाम अरनव था और जिसने कि वादा किया था उसके लिए हर वसंत टेसू के फूल लाने का...वो अब बैंक पीओ है और चाहे उसे हर चीज़ के लिए फुर्सत मिले, हर सुख सुविधा उपलब्ध हो...वो अब दस किलोमीटर साईकिल चला कर उसके लिए टेसू नहीं लाएगा...लड़की को यक़ीनन सुकून होता जान कर कि जिसे वो हर लम्हा उम्मीद बंधाती आई है उसके सपने सच हो गए.

लड़की के कुछ अपने सपने भी थे...होली में टेसू के फूल के बिना रंग नहीं बने...होली फीकी रह गयी, वो इतनी बेसुध थी कि मालपुए में चीनी, दही बड़े में नमक...सब भूल गयी. उसकी आँखें काजल तो क्या ख्वाबों से भी खाली हो गयीं...इस बार सबने बस पानी से होली खेली. जब रंग न हों तो होली में गर्माहट नहीं रहती बिलकुल भी...वो घंटों थरथराती रही, पर उसके गालों को दहकाने अरनव नहीं आया.

सरकार ने सिंचाई की किसी परियोजना के तहत एक नदी का रुख दूसरी तरफ मोड़ दिया...इसमें इक छोटी धारा ठीक उसके घर के सामने वाली सड़क पर भी बहने लगी...उसके कागज़ की नाव तैराने के दिन बीत चुके थे...वैसे भी बिना खेवैया के कब तक बहती नाव...यादों में जब वो डूबती उतराती है तो उसे बहुत साल पहले की एक शाम याद आती है जब अरनव ने जाने कैसे हिम्मत कर के उससे पुछा था 'एक बार तुम्हें गले लगा सकता हूँ, प्लीज' और लड़की कुछ शर्म, कुछ हडबडाहट में एकदम चार कदम पीछे हट गयी थी. आज इन भीगी, सर्द रातों में वो एक लम्हा तो होता...उसकी लौ में हौले हौले पिघल जाने वाला एक लम्हा...एक खून में गर्मी घोल देने वाला लम्हा...कि तब ऐसी ठंढ शायद नहीं लगती कभी भी.

उसके पैर नीले पड़ने लगे थे...चप्पल जाने कहाँ खो गयी थी...सामने का रास्ता नदी बन गया था. वो अपने ही जिस्म में कैद हो के रह गयी थी...जिंदगी भर के लिए. 

17 January, 2011

किनारे पर डूबने की जिद

गहरे लाल सूरज के काँधे से
रात उतारती है लिबास उदासी का 
और दुपट्टे की तरह फैला देती है आसमान पर
हर बुझती किरण से कोहरे की तरह
बरस रही है उदासी

हर डूबते लम्हे में डूबती हूँ मैं
बुझती किरण का आँखों को छू जाना
जैसे सागर किनारे रेत पर
लेटी हुयी हूँ मैं
महसूसती हूँ लहरों को
चेहरे के ऊपर से जाते हुए
साँस-साँस खारा पानी
लहर गुज़र जाने तक

किनारे पर डूबने की जिद के मुख्तलिफ
तेरी याद जिरह करती है
उतरती हूँ गहरे ख़ामोशी में
गर्म कोलतार सी रात
पैर रोकती है

तनहा...उदास...सहमी सी
मौत का इंतज़ार करती हूँ
'जिंदगी' कितना बेमानी लफ्ज़ हो गया है.

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