बहुत सालों पहले जब घर बनवाया गया था तो सड़क से लगभग दो फुट ऊंचा बनवाया गया था...अनगिन घपलों और सावनों के कारण सड़क साल दर साल बनती रही...अब हालात ये थे कि हर बारिश में पानी बहकर अन्दर चला आता था और वो लड़की जो सिर्फ खिड़की से ही बारिश देखा करती थी उसके तलवे हमेशा सीले रहने के कारण पपड़ियों से उखड़ने लगे थे.
उसे कुरूप होते अपने पैरों से बेहद लगाव होने लगा था...वैसे ही जैसे गालों से लुढ़ककर गर्दन के गड्ढे में जो आँसू ठहरता था उससे होता था. वो अक्सर दीवार में सर टिका कर रोती थी...पलंग भी नीचा था तो उसके पैर गीले फर्श से ठंढे होने लगते थे...खून की गर्मी का उबाल भी सालों पहले ठंढा हो गया था, बात बेबात तुनकने वाली लड़की अचानक से शांत हो गयी थी. उसी साल पहली बार सड़क के ऊंचे होने के कारण पानी घर में रिसना शुरू हुआ था.
लड़की ने बहुत कोशिश की...टाट के बोरे, प्लास्टिक दरवाजे के बीच में फंसा कर पानी अन्दर आने से रोकने की...पर ये पानी भी आँखों के पानी जैसा बाँध में एक सुराख ढूंढ ही लेता था. अगले साल तो पानी में उसकी चप्पल तैर कर इस कमरे से उस कमरे हो जाती थी. देर रात चप्पल ढूंढना छोड़ कर उसने नंगे पाँव ही चलना शुरू कर दिया. वो पहला साल था जब उसके पाँव ठंढ में गर्म नहीं हो पाए थे...वो पहला साल भी तो था जब बारिश के बाद धूप नहीं निकली थी...सीधे कोहरा गिरने लगा था...वो पहला ऐसा साल भी था जब वसंत में उसकी खिड़की पर टेसू के फूल नहीं मिले थे.
उसने वसंत के कुछ दिन खुद को बहलाए रखा कि शायद इनारावरण* में जंगलों की कटाई हो गयी हो, भू माफिया ने जमीन पर मकान बना दिए हों...वो चाह कर भी नहीं सोच पायी की वो लड़का जिसका कि नाम अरनव था और जिसने कि वादा किया था उसके लिए हर वसंत टेसू के फूल लाने का...वो अब बैंक पीओ है और चाहे उसे हर चीज़ के लिए फुर्सत मिले, हर सुख सुविधा उपलब्ध हो...वो अब दस किलोमीटर साईकिल चला कर उसके लिए टेसू नहीं लाएगा...लड़की को यक़ीनन सुकून होता जान कर कि जिसे वो हर लम्हा उम्मीद बंधाती आई है उसके सपने सच हो गए.
लड़की के कुछ अपने सपने भी थे...होली में टेसू के फूल के बिना रंग नहीं बने...होली फीकी रह गयी, वो इतनी बेसुध थी कि मालपुए में चीनी, दही बड़े में नमक...सब भूल गयी. उसकी आँखें काजल तो क्या ख्वाबों से भी खाली हो गयीं...इस बार सबने बस पानी से होली खेली. जब रंग न हों तो होली में गर्माहट नहीं रहती बिलकुल भी...वो घंटों थरथराती रही, पर उसके गालों को दहकाने अरनव नहीं आया.
सरकार ने सिंचाई की किसी परियोजना के तहत एक नदी का रुख दूसरी तरफ मोड़ दिया...इसमें इक छोटी धारा ठीक उसके घर के सामने वाली सड़क पर भी बहने लगी...उसके कागज़ की नाव तैराने के दिन बीत चुके थे...वैसे भी बिना खेवैया के कब तक बहती नाव...यादों में जब वो डूबती उतराती है तो उसे बहुत साल पहले की एक शाम याद आती है जब अरनव ने जाने कैसे हिम्मत कर के उससे पुछा था 'एक बार तुम्हें गले लगा सकता हूँ, प्लीज' और लड़की कुछ शर्म, कुछ हडबडाहट में एकदम चार कदम पीछे हट गयी थी. आज इन भीगी, सर्द रातों में वो एक लम्हा तो होता...उसकी लौ में हौले हौले पिघल जाने वाला एक लम्हा...एक खून में गर्मी घोल देने वाला लम्हा...कि तब ऐसी ठंढ शायद नहीं लगती कभी भी.
उसके पैर नीले पड़ने लगे थे...चप्पल जाने कहाँ खो गयी थी...सामने का रास्ता नदी बन गया था. वो अपने ही जिस्म में कैद हो के रह गयी थी...जिंदगी भर के लिए.
धीर और मंथर प्रवाहित नदी...
ReplyDeletesundar post
ReplyDeleteसच!एक लम्हा तो होता...पर लम्हा खोने वाली लड़कियां भीतर -बाहर से उतनी ही सुंदर होती हैं जितनी इस पोस्ट में है... सब कुछः अपने जिस्म में जो कैद रखती हैं...
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteकुछ सुख जो कभी लौट कर नहीं आयेंगे
ReplyDeleteकुछ दुःख जो कभी छोड़ कर नहीं जायेंगे
मगर भूल जाने की आदत हमें हमेशा बचा लेगी
बस भूलने की आदत बची रहे
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (05.03.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
ReplyDeleteचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
मैं पहले भी कह चुका हूँ फिर कहता हूँ…… आपकी कही हर बात में बहुत कुछ अनकहा छुपा होता है जो हर उस पाठक से जुड़ जाता है जो आपके लिखे से गुजरता है।
ReplyDeleteपुन: मन्त्र-मुग्ध हूँ !
नीरा जी की टिपण्णी इस पोस्ट को एक खूबसूरत टच दे कर गुजरी है ....
ReplyDeleteपर लम्हा खोने वाली लड़कियां भीतर -बाहर से उतनी ही सुंदर होती हैं. सब कुछः अपने जिस्म में जो कैद रखती हैं...
awesome.....
Lovely and very impressive story..
ReplyDeleteLot of congratulations for you and your good thinking .
Your hearty welcome in my blogs.
Please come ...and give your valuable comments on my posts.
Thanks in advance ...
काश, गहरा उतर कर पाँवों का नीलापन समझ पाता।
ReplyDeleteAah!Pata nahee kya kuchh dard sama ke rah rahi hogee wo ladki??
ReplyDeleteपूजा उपाध्याय जी ,
ReplyDeleteनीले पांवों वाली लड़की....
अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई तथा शुभकामनाएं|
लड़की थोड़ी सी बुद्धू है ....और बेशक खूबसूरत भी....नीले सागर में जितने कैद मछ्ली होती है दूर गगन में उतनी ही कैद चिड़िया....अपना घर उचान पे उसे भी बनाना ही पड़ता है .....और हाँ! अनरव , वो तो याद कर खुश होने का वाकया है.....क्योंकि अनरव सबकी जिंदगी में तो होते नहीं....और ये सरकार भी ना कब क्या कर बैठे पता ही नही:-) कहानी खूबसूरत है... हमने भी अपनी मर्जी डाल दी
ReplyDeleteलम्हां खोने वाली लड़कियाँ उन्हीं यादों को बनाती हैं माझी.. बहती हैं नदी में.. कागज की नाव पर..
ReplyDeletehaar baar ki tarah apko parhna accha lagta hai. apke khayalon ki udaan bahut unchi hai. jo har kisi k paas nahi hoti
ReplyDeleteshukriya
बेशक अर्नव नहीं आया पर उसका नीर ज़रूर बरसात बनकर, नदी बनकर उसके पैरों को चूम रहा है.
ReplyDeleteनीरा जी की टिप्पणी लाजवाब है - "सच!एक लम्हा तो होता...पर लम्हा खोने वाली लड़कियां भीतर -बाहर से उतनी ही सुंदर होती हैं जितनी इस पोस्ट में है... सब कुछः अपने जिस्म में जो कैद रखती हैं.."
ReplyDeleteनीले पांवों वाली लड़की - Awesome!!
बधाई
ReplyDeleteआपको यह जान कर निश्चित ही प्रसन्नता होगी कि आपका यह आलेख प्रिंट मीडिया द्वारा पसंद कर छापा गया है। इसकी अधिक जानकारी आप यहाँ क्लिक कर देख सकते हैं
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लाज़वाब. अप्रतिम, अभिराम और बेहतर अभिव्यक्ति. और क्या कहूं? निःशब्द हूँ, अभी तक इस सशक्त गध्य की क़ैद से छूट नहीं पा रहा हूँ. भावों को चमत्कृत करने वाले शब्दों के साथ गूंथ कर जो आपने बेमिसाल सृजन किया है, सशुवाद सम्मानिया पूजा जी !
ReplyDeleteजनसत्ता में आपका ये बेहद ही ख़ूबसूरत शब्दचित्र प्रकाशित होने पर शत-शत बधाइयाँ. नमन !