07 March, 2011

दारुण!

ओ कवि,
सुनती हूँ की तुम्हारे ऊपर हैं
जिम्मेदारियां बहुत सी 

समाज, देश को आइना दिखाना
विषमताओं पर लिखना
गरीबों के लिए आवाज़ उठाना 
विद्रोह की आंच जलाये रखना 

कवि रे,
सुनती हूँ की उम्मीद, हिम्मत 
सिर्फ तुम्हारे पास हैं इनके बीज 

की लहू की फसलें उगाई जा रही हैं
काटे जा रहे हैं रिश्तों के जंगल 
बोई जा रही है त्रासदी
जोते जा रहे हैं अबोध, जुए में  

आह मेरे कवि!
सत्य को पल पल खरा करते 
तप रहे हो, गल रहे हो 

संसार का सबसे बड़ा दुःख है प्रेम
शायद भूख के बाद...मुझे मालूम नहीं 
फिर भी, मुझे जिलाने के लिए लिखो...कवितायें
क्योंकि तुम नहीं जानते ओ कवि

प्रेम और भूख से भी बड़ा एक दुःख है...
तुमसे प्रेम करने का दुःख...ओ कवि!

17 comments:

  1. सागर से होती हुई यहाँ तक पहुची ....ऊपरी पंक्तियाँ कुछ ख़ास नहीं लगी, लगा कि कुछ नया तो नहीं...हाँ! होती है कवि पर ये सब जिम्मेदारियां....अंत तक आते-आते....होटों पर मुस्कार तैर गई....हाँ! हमने भी किया है प्रेम कवि और उसकी कविता से :-)

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  2. प्रोडक्‍ट नहीं सीधे खदान पर निशाना.

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  3. खूबसूरत भावाभिव्यक्ति

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  4. हर बार कवि के लिए अलग संबोधन नवीनता प्रदान करता है.. ये अच्छा लगा

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  5. न जाने कितनी आशायें हम कवि से लगाये रहते हैं, कितनी हों पायें पूरी?

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  6. अंतिम दो पंक्तियाँ कविता को कमजोर करती हैं। यह मेरी समझ है मैं गलत भी हो सकता हूँ।

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  7. plz wo geeta dat wali post konsi thi mai kafi dund chuka par mili nahi aap plz wo post konsi hai wo bataiye na

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  8. @honey sharma...
    here is the link
    http://laharein.blogspot.com/2010/12/blog-post_20.html

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  9. बेहतरीन...अपेक्षाओं की कथा कहती कविता...

    डा.अजीत
    www.shesh-fir.blogspot.com
    www.meajeet.blogspot.com

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  10. प्रिय पूजा जी , सादर प्रणाम

    आपके बारे में हमें "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" पर शिखा कौशिक व शालिनी कौशिक जी द्वारा लिखे गए पोस्ट के माध्यम से जानकारी मिली, जिसका लिंक है...... http://www.upkhabar.in/2011/03/jay-ho-part-2.html

    इस ब्लॉग की परिकल्पना हमने एक भारतीय ब्लॉग परिवार के रूप में की है. हम चाहते है की इस परिवार से प्रत्येक वह भारतीय जुड़े जिसे अपने देश के प्रति प्रेम, समाज को एक नजरिये से देखने की चाहत, हिन्दू-मुस्लिम न होकर पहले वह भारतीय हो, जिसे खुद को हिन्दुस्तानी कहने पर गर्व हो, जो इंसानियत धर्म को मानता हो. और जो अन्याय, जुल्म की खिलाफत करना जानता हो, जो विवादित बातों से परे हो, जो दूसरी की भावनाओ का सम्मान करना जानता हो.

    और इस परिवार में दोस्त, भाई,बहन, माँ, बेटी जैसे मर्यादित रिश्तो का मान रख सके.

    धार्मिक विवादों से परे एक ऐसा परिवार जिसमे आत्मिक लगाव हो..........

    मैं इस बृहद परिवार का एक छोटा सा सदस्य आपको निमंत्रण देने आया हूँ. यदि इस परिवार को अपना आशीर्वाद व सहयोग देने के लिए follower व लेखक बन कर हमारा मान बढ़ाएं...साथ ही मार्गदर्शन करें.


    आपकी प्रतीक्षा में...........

    हरीश सिंह


    संस्थापक/संयोजक -- "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच" www.upkhabar.in/

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  11. प्रेम और भूख से भी बड़ा एक दुःख है...
    तुमसे प्रेम करने का दुःख...ओ कवि!

    तो अल्‍टीमेटली अन्‍तत: प्रेम ही सबसे बड़ा है, कि‍सी अन्‍य भूख से...इसलि‍ये प्रेम ही ईश्‍वर भी कहा ...जीसस ने। अलग बात है कि‍ हम ईश्‍वर को कवि‍ कहें और फि‍र उससे प्रेम करें।

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  12. This comment has been removed by the author.

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  13. ईश्वर का शुक्रिया जो उसने आपको दुःख दिया और हमें प्रेम की कवितायेँ मिली...

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  14. जिन्होंने उम्र भर तलवार का गीत गाया है
    उनके शब्द लहू के होते हैं
    लहू लोहे का होता है
    जो मौत के किनारे जीते हैं
    उनकी मौत से जिंदगी का सफ़र शुरू होता है
    जिनका लहू और पसीना मिटटी में गिर जाता है
    वे मिटटी में दब कर उग आते हैं ----- पाश

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  15. उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
    कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
    और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं –
    आदत बन चुकी है
    वह किसी गँवार आदमी की ऊब से
    पैदा हुई थी और
    एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ
    शहर में चली गयी

    एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही
    गर्भाधान कि क्रिया से गुज़रते हुए
    उसने जाना कि प्यार
    घनी आबादी वाली बस्तियों में
    मकान की तलाश है
    लगातार बारिश में भीगते हुए
    उसने जाना कि हर लड़की
    तीसरे गर्भपात के बाद
    धर्मशाला हो जाती है और कविता
    हर तीसरे पाठ के बाद

    नहीं – अब वहाँ अर्थ खोजना व्यर्थ है
    पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
    और बैलमुत्ती इबारतों में
    अर्थ खोजना व्यर्थ है
    हाँ, अगर हो सके तो बगल के गुज़रते हुए आदमी से कहो –
    लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
    यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था

    इस वक़्त इतना ही काफ़ी है

    वह बहुत पहले की बात है
    जब कहीं किसी निर्जन में
    आदिम पशुता चीख़ती थी और
    सारा नगर चौंक पड़ता था
    मगर अब –
    अब उसे मालूम है कि कविता
    घेराव में
    किसी बौखलाए हुए आदमी का
    संक्षिप्त एकालाप है
    --Dhumil

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