आज का दौर बंद होते काफी हॉउस का है...पुरानी ठहरी हुयी इमारतों की जगह रौशनी और शोर वाली जगहें ले रही हैं जहाँ कुछ स्थिर नहीं रहता, सब कुछ लम्हे भर को होता है. वैसे वो इस लम्हे भर की जिंदगी की की जियादा खिलाफत नहीं करती फिर भी सीसीडी में भी दिन भर बैठ के कॉफ़ी पीने का पैकेज पर ध्यान नहीं देती...उसे कभी इतनी नफासत पसंद नहीं आई.
बंगलोर का कॉफी हॉउस बंद हुए एक साल से ऊपर होने हो आया...और इतने दिनों से वो वैसी दूसरी जगह तलाश कर रही है जहाँ वो इत्मीनान से कुछ देर खुद से मिल सके. कॉफी हॉउस में आखिरी टेबल की एक टांग थोड़ी हिली हुयी थी...उन खास दिनों जब उसे कुछ स्केच करने का मन करता...वो पहले घंटों अपने बैग में ढूंढ कर कोई फ़ालतू कागज़ निकलती और टेबल का लड़खड़ाना बंद करती और जाने किन आँखों की तलाश शुरू करती पेंसिल के पतले रास्तों पर.
यूँ तो कई कारणों से उसे इस जगह से लगाव था...मगर गहरे उतरो तो वजह एक ही नज़र आती थी, ये बंगलोर की कुछ उन जगहों में से थी जिसकी याद उसे शादी से पहले की थी. बहुत पहले बचपन में पापा के साथ जब बंगलोर आई थी, तब की...ताज़ा बनी फ़िल्टर कॉफी की खुशबू...पहली बारिश की खुशबू के बाद उसे सबसे जियादा पसंद थी.
घर और ऑफिस के बीच जब वो एकदम ही खो जाने वाली होती थी तो अपनी तलाश करने के लिए कॉफी हॉउस आया करती थी. तीन चार घंटों में वो वहां की हवा में एकदम घुल जाया करती थी...वापस आने पर हफ़्तों उसके बालों से फ्रेशली ब्रूड कॉफी की महक आती थी और उसकी आँखों में गज़ब की उर्जा. उसके अन्दर जो दूसरी लड़की थी उसकी कभी उम्र ही नहीं बढ़ी...जिन्दा, धड़कती हुए नज़्म सी वो लड़की...जिसके होटों पर बसे दिन खूबसूरत हो जाए. उससे मिल कर किसी को भी अच्छा लगता.
कॉफी हाउस में अक्सर एक काम और किया करती थी वो...छद्म नाम से कहानियां और लेख लिखने का...यूँ तो उसके करीबी कुछ लोगों को मालूम था की वो किसी और नाम से भी लिखती है...पर चूँकि उनमें से किसी को बहुत ज्यादा लिखने पढने में दिलचस्पी नहीं थी...उन्होंने पूछा नहीं...इसने बताया नहीं. शादी, परिवार...बच्चे इन सब में उसने बहुत कुछ समझा था और अपने आप को बदला था...ऐसा ढाला था की सब कुछ सुनियोजित ढंग से चले. इस सबमें भी उसके अन्दर की लड़की के बागी तेवर कभी कम नहीं हुए...उसने बेहद मेहनत से लड़की को खुद के अन्दर खामोश रहना सिखाया...और वादा किया की वो ताउम्र उससे मिलने आती रहेगी...उसी कॉफी हाउस में.
वादे की मियाद पूरी होने ही को है...कल ऑनलाइन ऑक्शन था कॉफी हाउस की काफी चीज़ों का. उसने आखिरी टेबल खरीद ली है...अब उसे रखने को एक कोना चाहिए...पर इतने बड़े शहर में उसे कोई जगह नहीं मिल रही.
आप किसी ऐसी जगह को जानते हैं जहाँ एक पुराना, टूटी टांग वाली कॉफी टेबल और एक बागी लड़की एक साथ चैन से रह सकें...कोई ताउम्र जैसे समय के लिए?
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वैसे सीन तो अच्छा यही बना है 'टूटी टांग वाली कॉफी टेबल और एक बागी लड़की, आशियाने की तलाश में'
ReplyDeleteकॉफी हाउस का वातावरण, उसमें घुली एक मदिर सी महक, मानसिक ढलान का निश्चेष्ट हल्कापन, ये सब बहुत सुहाता है। आप भाग्यशाली हैं कि आपको वहाँ बैठने का समय मिल जाता है, हम तो समय-रथ में दबे हैं।
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट।
ReplyDeleteशब्द चयन लाजवाब।
बधाई हो आपको।
...टूटी टांग वाली काफी टेबल...
वाह।
पूरी पोस्ट पढकर ऐसा लगा मानों हम भी किसी काफी हाऊस के किसी कोने में बैठे हों।
शीर्षक अपने आप में ही एक नोस्टेलेजिक मूड सेट करता है ..
ReplyDeleteपहली और आखिरी चार लाईन्स जबरदस्त है ..
haan pooja ji ---- internet connesction ke aage waale computer ke kamre me ..... hai ek aisi jagah ... jahan kursi aur baaghi ladki dono aa sakein
ReplyDelete"वादे की मियाद पूरी होने ही को है...कल ऑनलाइन ऑक्शन था कॉफी हाउस की काफी चीज़ों का. उसने आखिरी टेबल खरीद ली है...अब उसे रखने को एक कोना चाहिए...पर इतने बड़े शहर में उसे कोई जगह नहीं मिल रही.
ReplyDeleteआप किसी ऐसी जगह को जानते हैं जहाँ एक पुराना, टूटी टांग वाली कॉफी टेबल और एक बागी लड़की एक साथ चैन से रह सकें...कोई ताउम्र जैसे समय के लिए?"
सुन्दर व्यंजना है आपकी . साभार -अवनीश सिंह चौहान
दिल्ली का काफी हाउस भी बंद हो गया है... वहां की आखिरी टेबल पर शाम को सूरज खिड़की से छन कर आता था...
ReplyDeleteकाफी हाउस घर के मोहल्ले में ही था सो वहां तो बैठ नहीं सकते थे, क्योंकि किसी को भी अच्छा नहीं लगता कि वो काफी हाउस जैसी आम जगह में बैठे और शराबखाने में बैठे व्यक्ित की तरह बदनाम हो जाये। अकेले झकमारी करने के लिए बहुतेरी जगहे होती हैं, जिन्हें हम जानते ही हैं, जिनमें हम रहते ही हैं, कोकून से।
ReplyDeleteहाँ एक जगह है दिल का कोई सुनसान कोना... वो बाज़ारवाद की चपेट में कभी नहीं आयेगा ....
ReplyDeleteबहुत खूब पोस्ट.. कॉफी हाउस में हमने भी कई पल साथ गुजारें हैं.. http://manojkhatrijaipur.blogspot.com/2010/10/blog-post_24.html
ReplyDeleteमैं ऐसी एक जगह जानता हूँ, वहां पीपल के पत्ते आपस में बात करते हैं, टेबल की जरुरत नहीं होती. शब्द मन की कागज़ पर टंकित होते जाते हैं धडाधड...
ReplyDeleteतुम फुर्सत से आना, दिखाऊंगा.
मैं ऐसी एक जगह जानता हूँ, वहां पीपल के पत्ते आपस में बात करते हैं, टेबल की जरुरत नहीं होती. शब्द मन की कागज़ पर टंकित होते जाते हैं धडाधड...
ReplyDeleteतुम फुर्सत से आना, दिखाऊंगा.
फुर्सत...
ReplyDeleteठीक है.
ऐसी ही कुछ याद अपनी भी है, बैंगलोर नहीं, एक ऐसे जगह से जहाँ से मैंने अपनी पढाई की थी...छोटा सा शहर..और उस शहर का एक कोना...
ReplyDeleteशायद आप उसी कोफ़ी हाउस की बात कर रही हैं, जो मैं सोच रहा हूँ..अगर हां, तो मैं वहां कभी नहीं गया(अफ़सोस)..
i like this blog........kya hua uas baagi ladki ka......
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