राजमार्ग की वो एक बेहद खूबसूरत सड़क थी...दोनों तरफ कतार में अनुशाषित पेड़ खड़े थे, कई दशकों तक वहां खड़े रहते हुए पेड़ भी अपनाप को उस राजमार्ग की शान का हिस्सा समझने लगे थे जैसे सचिवालय का दरबान...कोई जान न होते हुए भी बेहद अकड़ के खड़ा रहता था. सुबह और शाम के वक़्त साफ़ यूनिफार्म पहने सरकारी मुलाजिम सड़क पर झाड़ू लगाते थे...ये वही लोग थे जिन्होंने बचपन की किताबों में पढ़ा था की झाड़ू भी लगाओ तो ऐसे लगाओ जैसे दुनिया का सबसे महत्वपर्ण काम कर रहे हो. इस ख़ास सड़क के पेड़ समझते थे कि कई महत्वपूर्ण व्यक्ति इस राह से गुज़रते हैं...और इन लोगों को सफाई बेहद पसंद है...अपने पीले, उदास पत्तों को भी बूढ़ी टहनियां देर तक थामी रहती थी...पत्तों के गिरने का वक़्त तय था, दिन की दो शिफ्ट में सुबह और शाम, सरकारी मुलाजिमो के आने से कुछ ही उन्हें रुखसत होना होता था. सड़क पर गिरते ही पत्ते ऐसे ठिकाने लगा दिए जाते जैसे गरीब, विस्थापित गाँवों में बड़ी होती लड़कियां. हर शाम तयशुदा कोने में आग लगा कर पत्तों में मौजूद जरा भी जिजीविषा को राख बना दिया जाता.
ऐसी शाम के बाद आने वाली किसी रात एक लेखक इस सड़क पर चल रहा था...भटकना भी कह सकते हैं क्योंकि उसकी कि मंजिल नहीं थी. किसी से मिलने का वादा नहीं था. लेखक बहुत बेचैन था और मन को भटकाने के लिए उसे कुछ मिल नहीं रहा था...कोई सूखे पत्ते नहीं जिन्हें जूते से मसल कर कुछ काम करने का अहसास हो...या कि जिनकी बेज़ुबानी पर कुछ कहानियां ही लिखी मिल जाएँ. सड़क की कंगाली का आलम ये था कि एक यायावर पत्थर तक नहीं था बेठिकाने कि जिसे पैरों से ठोकर मारते हुए किसी मंजिल पर पहुँचाने की कवायद की जाये.
शुरूआती मार्च का महीना था...अभी होली नहीं आई थी पर मौसम में गर्मी थी. हवा में एक बेरुखी, उदासी और कठोरता थी...लेखक को अपने कवि होने के आखिरी दिन याद आ रहे थे. वो दहकते दिन जबकि बदन अक्सर सौ डिग्री बुखार में तड़पता रहता था और जबान आग उगलती कविताओं से झुलसी रहती थी. वो परेशान होने और छटपटाने के दिन थे...तीस पहुँचती उम्र में अपने समाज में कुछ बदलने की अभीप्सा उसे जिलाए जाती थी और जलाए डालती थी. घर से रोज़ ही शादी करके घर बसाने का दबाव होता था...उसे लगता था कि दिमाग की नसें फट जायेंगी. दुनियादारी के नाम पर कोई भी उसका अपना नहीं था, सिर्फ किताबों के बीच एक अलग ही साधना कर रहा था वह.
उसने एक छोटी सी संस्था खोली थी जिसमें बाहर से आये मजदूरों के बच्चों के लिए स्कूल जाने का इन्तेजाम करता था. उसे इसमें संतोष मिलता था मगर वह जानता था कि उसे कुछ बड़ा करना होगा...वह अपनी सीमाएं जानता था और अपनी ताकत भी. वह जनता था कि उसे अपनी कलम के दम पर ही कुछ ऐसा करना है ताकि वो बड़े स्तर पर कुछ अच्छा कर सके. इन्ही दिनों उसने कहानियां लिखनी शुरू की थीं, लोगों से ज्यादा बात नहीं करने के बावजूद उसमें एक ऐसी दृष्टि थी जो इंसान के भीतर झांक के देख लेती थी. कहानियों में उसे अप्रत्याशित सफलता मिली...लोग उसके लेखन को कालजयी कहने लगे थे, कि वो समाज की नब्ज़ को पहचानता है.
जैसे जैसे प्रसिद्धि बढ़ी उसके संस्था को सम्हालने वाले लोग आ गए, उसने अपनी खुद की प्रकाशन कंपनी भी शुरू की जिसमें वो सिर्फ बच्चों के लिए कम कीमत में किताबें छापने का काम करता. माँ की इच्छा पूरी करने के लिए उसने शादी भी कर ली और वक़्त में दो बेटे भी हुए. एक आम मध्यम वर्गीय परिवार से उठ कर वो काफी बड़ा आदमी बन गया था पर उसने सब कुछ अपने फ़र्ज़ की तरह किया, जैसे घर का बड़ा बेटा घर के लिए करता है उसने वैसे ही समाज के लिए किया. लोग उसे अक्सर समारोहों में बुलाते हैं, उसे अजीब सा लगता है स्टेज पर बैठ कर अपना बखान सुनना.
ऐसे ही एक समारोह के लिए वो दिल्ली गया था...और देर रात अपने होटल से निकल कर राजमार्ग पर टहल रहा था. हर समारोह के बाद उसे लगता था कि वो बहुत बूढ़ा होता जा रहा है...कि उसकी जिंदगी में अब कोई उद्देश्य नहीं रहा. उसने जो करना चाहा था उसने कर लिया है. उसे अब बड़ी शिद्दत से किसी और मंजिल की तलाश थी. जिंदगी ताउम्र तलाश ही तो है...पा लेने पर ठहराव आ जाता है...और ठहराव यानि कि मौत.
आज उसके पास बहुत फुर्सत थी...इसमें उसने पाया कि जीवन में सारे सुर मौजूद हैं पर लय ख़त्म हो गयी है...उसे अचानक याद आया कि उसने कई दिनों से कोई कविता नहीं लिखी...कविता लिखने में कहीं न कहीं रूमानियत बची रहती है...कविता इस बात का सबूत है कि कहीं न कहीं कोई राग है जो आत्मा के तारों को छेड़ सकता है. जबसे कविता लिखनी बंद की उसने जिंदगी में सब कुछ सधा हुआ किया; गिन कर कदम रखे, पूछ कर रास्ते पर निकला यहाँ तक कि प्यार भी पूरी शिद्दत से नहीं किया...अपना कुछ बचा के रखा हमेशा. यही बचा हुआ कुछ टुकड़े टुकड़े में अब उसे अन्दर से तोड़ रहा है.
उसने दरबान से मांग कर बीड़ी पी और रात भर जगे रहने वाले शहर में भटका...अच्छी शराब ले कर आया और भोर होने तक शराब में घुलता रहा...लिखता रहा...अगली सुबह पहली फ्लाईट से घर गया. अपनी बीवी को हाथ पकड़ कर सामने बिठाया और कहा...तुम दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत हो और मैं तुमसे उतना ही प्यार करता हूँ कि जितना लोककथाओं के मर कर अमर हो जाने वाले नायक करते हैं. मैंने कल दशकों बाद कवितायें लिखी हैं...वो इसलिए कि बिना कहे भी तुम्हारा प्यार हमेशा मेरा हाथ थामे रहा. अगर मैं कविता लिखना भूल जाऊं तो मुझे याद दिला देना...मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ.
---------------------
अगले महीने अपनी एक नयी किताब के सिलसिले में उसका फिर राजधानी जाना हुआ...इस बार वो अकेला नहीं गया था...पेड़ों पर भी तो वसंत आया हुआ था...चाँद भी पूरा था, चांदनी सावन के मौसम कि तरह बरस रही थी.
कवि कोई गीत गुनगुना रहा था.
पेड़ों की फुनगी पर...पत्तों की ओट से...सबरंगी मौसम में...फाग गाते हुए लौटा बसंत है!
Bahut pyaree kahanee! Sajeev itnee ki laga mai sab dekh rahee hun!
ReplyDeletekamaal hai :) :)
ReplyDeleteसिर्फ एक शब्द ...
ReplyDeleteबहुत खूब !
प्यर का एहसास हो तो वसंत, चाँद, चाँदनी सभी साथ चलते हैं।..बहुत खूब।
ReplyDeleteसघन जीवन के बीच स्निग्ध तरलता.
ReplyDeleteअहा, हिमालयी भावों की बर्फ अपनी अकड़न छोड़ जब पिघलना प्रारम्भ करती है तो प्रवाह के पहाड़ी, मैदानी और सागरीय अध्याय लिखे जाते हैं। आनन्द सराबोर हो गये पढ़कर।
ReplyDeleteवाह बसंत ऐसे आता है क्या...?... कहानी और कविता की तरह... ये भी तो मुझे सिक्के के ही दो पहलु लगते हैं....
ReplyDeleteaapki khubsoorat post par प्रवीण पाण्डेय ji ki khubsoorat teep..
ReplyDeletebehtreen.....
sahi mein fursat mein hee kavita aati hai or apne pyaare bhi.
पहले कवितायेँ कवि को लिखती है
ReplyDeleteफिर कवि कविता लिखने की कोशिश करता है...
धीर-धीरे कविता कवि को छोड़ कर चली जाती है
फिर वह ताउम्र उसे तलाशता रहता है
Really very interesting post.
ReplyDeleteहर पैराग्राफ अपनेआप में पूर्ण है ...एक कहानी हो कर भी मुक्तलिफ़ बात कहता है.....अच्छी कहानी है अंत तक रीडर को बाँध कर रखी है ...जरा ये गीत पूरा कर दो .....तो बात बने :-)
ReplyDeletebahut umda likhti hai ap....alfaaz nahi tareef ke liye
ReplyDeleteसच में वसन्त लौटा है!
ReplyDeleteपूजा जी रचना बहुत प्रिय है , इस रूपात्मक उतार-चढ़ाव में कलम एक पात्र के पीछे अनेक नयी लौ जला रही है. जहाँ, मैं स्वंम में स्वंम को तलाश रहा है .
ReplyDeleteवाह, ऐसा प्रतीत हुआ जिसकी कल्पना को मैं जरूर तरसता रहता हूँ .
डेढ़ पैरे में तो मैं था... देखें आगे क्या होता है !
ReplyDelete