वो एक गुलाबी फूलों वाला पेड़ है. उसके पार से नीला आसमान दिखता है...सड़क पर करीने से गिरे हुए गुलाबी फूल हैं. दिल अगर कोई फूल होता तो इसी रंग का होता...ऐसा ही नर्म और नाज़ुक कि तोड़ते हुए आप खुद टूट जाओ. हलकी हवा चलती है तो बहुत से गुलाबी फूल हौले हौले गिरते हैं. रंग इतना हल्का है कि कैमरा में कैद नहीं हो पाता. कुछ हलकी भूरी आँखें याद आती हैं...उनका रंग जैसा मेरी यादों में है, किसी तस्वीर में नहीं है.
मैं रोज बाईक से आती हुयी उस पेड़ को देखती हूँ...हफ्ते भर का मौसम है...गुलाबी. रोज सोचती हूँ कि कैमरा ले आउंगी...इस खूबसूरती को कैद करने की कोशिश करूंगी मगर उनकी खूबसूरती आँखों में खिलती है...मूड का मौसम है उस पेड़ पर. कुछ बैलाड बजाती हूँ. कुछ आवाजें हैं कि वापस दुनिया में लौटा लाती हैं.
बहुत सी देखे हुए दृश्यों के रंग नहीं होते...बचपन में घुटने पर चोट लगी तो खून बह रहा था मगर खून का रंग सियाह याद आता है. एक बार तुम्हारी दवात गिर गयी थी, किस रंग से लिखते थे तुम? इतना दर्द लिखते हो अब तक, उस समय तो शायद गहरी नीली सियाही इस्तेमाल करते होगे या कि उम्र थी कच्ची...हरे रंग का था क्या? फिर मेरे खतों में तुम्हारा सिग्नेचर सिर्फ काले रंग में क्यूँ मिलता है? यादों का कौन सा फ़िल्टर है कि सारे रंग एक बार में ही खो जाते हैं.
मैंने तुम्हारे कमरे पर जो फूल लगाए थे गुलदान में, वो कैसे हो सकते हैं काले...कम से कम रजनीगंधा का कोई तो रंग होगा...हल्का गुलाबी...नर्म पीला...खामोश नीला...कोई तो रंग होगा...ऐसा कैसे हो सकता है कि कमरे की दीवारें काले रंग की हों...ऐसा तो सिर्फ इतना था न कि मेरी आँखों में लगा काजल था काले रंग का. साल में कितने दिन थे...दिन में कितने लम्हे...कितने लम्हों में तुम थे मेरी जान? बाकी लम्हों का रंग क्या था? उस साल क्या मैंने सारे दुपट्टे काले रंग के ख़रीदे थे...कहाँ थे रंग मेरी जिंदगी के.
सिर्फ सड़कें याद आती हैं मुझे...मगर कच्ची पगडंडियाँ तो भूरे रंग की होनी चाहिए थीं...काली मिट्टी तो उस जगह नहीं होती...वरना उस मिट्टी में लोग खेती करते. काली मिट्टी बहुत उर्वर होती है. डार्क चोकलेट उन दिनों भी काले रंग की नहीं हो सकती...कत्थई रंग की होती है. तुमने जब हाथ पकड़ा था तो निशान पड़ गए थे...मुझे याद है कि वे निशान काले रंग के थे. मैंने कहा था कि मैं लौट कर नहीं आउंगी...मेरे जाने का रंग क्या था मुझे मालूम नहीं...मगर उस दिन के बाद शायद कमरे में बत्ती नहीं जली कभी. दिन को सूरज का भी रंग होता था न...तुम्हें रंग और रोशनियों में फर्क मालूम है? रोशनियाँ मिल कर सफ़ेद रंग की रौशनी बनती हैं मगर रंग मिला दोगे तो काला रंग बनता है. उस रंग से फिर कोई रौशनी वापस नहीं जाती.
मेरे मूड स्विंग्स थोड़े तमीजदार हो रहे हैं. बता कर आते हैं. कई बार कोशिश करती हूँ तो उदास मौसम को कुछ लम्हों के लिए टाल भी देती हूँ. मेरे पसंद की चोकलेट मिलनी बंद हो गयी है शहर में. मैं ठहरना चाहती हूँ मगर ठहर नहीं पाती...बाईक पर कोई जिन्न खींचता है...इतनी तेज़ इतनी तेज़ कि जैसे जिंदगी से रेस कर रही हूँ...फिर से कोलाज का मौसम है. दुपट्टे को रंगती हूँ सात रंगों में. घर में बजाती हूँ वाल्ट्ज...पढ़ती हूँ पुरानी किताबें. तलाशती हूँ खोयी हुयी किताबों के पीछे लिखी हुयी तारीखें. सोचती हूँ कहीं से लौट आने का मौसम किसी कैलेंडर में दिखेगा.
सांस रोकती हूँ पानी के अन्दर...सब धुंधला लिखता है. याद आता है आज फिर रोते रोते सो गयी हूँ. सुबह बदन में दर्द होता है बहुत. समंदर में डूब रही हूँ...पैरों में जंजीरें हैं...पत्थर है भारी सा कोई...सीने में दर्द है...कोशिश भी नहीं की है एक सांस लेने की...आँखें खोलूंगी तो जाने कैसा दृश्य होगा. किस रंग है जिंदगी? कौन बताये...कौन समझाए!
मैं रोज बाईक से आती हुयी उस पेड़ को देखती हूँ...हफ्ते भर का मौसम है...गुलाबी. रोज सोचती हूँ कि कैमरा ले आउंगी...इस खूबसूरती को कैद करने की कोशिश करूंगी मगर उनकी खूबसूरती आँखों में खिलती है...मूड का मौसम है उस पेड़ पर. कुछ बैलाड बजाती हूँ. कुछ आवाजें हैं कि वापस दुनिया में लौटा लाती हैं.
बहुत सी देखे हुए दृश्यों के रंग नहीं होते...बचपन में घुटने पर चोट लगी तो खून बह रहा था मगर खून का रंग सियाह याद आता है. एक बार तुम्हारी दवात गिर गयी थी, किस रंग से लिखते थे तुम? इतना दर्द लिखते हो अब तक, उस समय तो शायद गहरी नीली सियाही इस्तेमाल करते होगे या कि उम्र थी कच्ची...हरे रंग का था क्या? फिर मेरे खतों में तुम्हारा सिग्नेचर सिर्फ काले रंग में क्यूँ मिलता है? यादों का कौन सा फ़िल्टर है कि सारे रंग एक बार में ही खो जाते हैं.
मैंने तुम्हारे कमरे पर जो फूल लगाए थे गुलदान में, वो कैसे हो सकते हैं काले...कम से कम रजनीगंधा का कोई तो रंग होगा...हल्का गुलाबी...नर्म पीला...खामोश नीला...कोई तो रंग होगा...ऐसा कैसे हो सकता है कि कमरे की दीवारें काले रंग की हों...ऐसा तो सिर्फ इतना था न कि मेरी आँखों में लगा काजल था काले रंग का. साल में कितने दिन थे...दिन में कितने लम्हे...कितने लम्हों में तुम थे मेरी जान? बाकी लम्हों का रंग क्या था? उस साल क्या मैंने सारे दुपट्टे काले रंग के ख़रीदे थे...कहाँ थे रंग मेरी जिंदगी के.
सिर्फ सड़कें याद आती हैं मुझे...मगर कच्ची पगडंडियाँ तो भूरे रंग की होनी चाहिए थीं...काली मिट्टी तो उस जगह नहीं होती...वरना उस मिट्टी में लोग खेती करते. काली मिट्टी बहुत उर्वर होती है. डार्क चोकलेट उन दिनों भी काले रंग की नहीं हो सकती...कत्थई रंग की होती है. तुमने जब हाथ पकड़ा था तो निशान पड़ गए थे...मुझे याद है कि वे निशान काले रंग के थे. मैंने कहा था कि मैं लौट कर नहीं आउंगी...मेरे जाने का रंग क्या था मुझे मालूम नहीं...मगर उस दिन के बाद शायद कमरे में बत्ती नहीं जली कभी. दिन को सूरज का भी रंग होता था न...तुम्हें रंग और रोशनियों में फर्क मालूम है? रोशनियाँ मिल कर सफ़ेद रंग की रौशनी बनती हैं मगर रंग मिला दोगे तो काला रंग बनता है. उस रंग से फिर कोई रौशनी वापस नहीं जाती.
मेरे मूड स्विंग्स थोड़े तमीजदार हो रहे हैं. बता कर आते हैं. कई बार कोशिश करती हूँ तो उदास मौसम को कुछ लम्हों के लिए टाल भी देती हूँ. मेरे पसंद की चोकलेट मिलनी बंद हो गयी है शहर में. मैं ठहरना चाहती हूँ मगर ठहर नहीं पाती...बाईक पर कोई जिन्न खींचता है...इतनी तेज़ इतनी तेज़ कि जैसे जिंदगी से रेस कर रही हूँ...फिर से कोलाज का मौसम है. दुपट्टे को रंगती हूँ सात रंगों में. घर में बजाती हूँ वाल्ट्ज...पढ़ती हूँ पुरानी किताबें. तलाशती हूँ खोयी हुयी किताबों के पीछे लिखी हुयी तारीखें. सोचती हूँ कहीं से लौट आने का मौसम किसी कैलेंडर में दिखेगा.
सांस रोकती हूँ पानी के अन्दर...सब धुंधला लिखता है. याद आता है आज फिर रोते रोते सो गयी हूँ. सुबह बदन में दर्द होता है बहुत. समंदर में डूब रही हूँ...पैरों में जंजीरें हैं...पत्थर है भारी सा कोई...सीने में दर्द है...कोशिश भी नहीं की है एक सांस लेने की...आँखें खोलूंगी तो जाने कैसा दृश्य होगा. किस रंग है जिंदगी? कौन बताये...कौन समझाए!
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (13-03-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
ReplyDeleteसूचनार्थ |
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteभावों की बहुरंगी दुनिया,
ReplyDeleteहम तो श्वेत श्याम उलझे हैं,
मन भा जाये, श्वेत शुभ्र वह,
शेष श्याम पट में लिपटे हैं।
ReplyDeleteसादर जन सधारण सुचना आपके सहयोग की जरुरत
साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )
uff
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी, परा संवेदंशील.
ReplyDeleteआवारगी...दिल्लगी...तिश्नगी...जिंदगी...हाय जिंदगी! आज तो यही जवाब है आपकी इस रचना का ...:)
ReplyDeleteज़िंदगी या तो बेरंग होती है. उसका कोई रंग ही नहीं होता...या तो सारे रंग होते हैं और सब रंग मिलकर काला रंग बन जाता है और फिर तुम्हारे कहे मुताबिक़ उसमें से कोई रोशनी बाहर नहीं आती-जाती
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