04 March, 2013

रात से भोर का कोलाज

देर रात काम करना...नींद को देना भुलावे...सपनों को भेजना कल आने के मीटिंग-पोस्टपोनमेंट रिक्वेस्ट...खिड़की के पल्ले से आती हवा का विंडचाइम को रह रह कर चुहल से जगाना...ख़ामोशी सा कोई निर्वात रचना...

लिखना जाने क्या क्या...कैसे शब्द ढूंढना...कहाँ से लाना साम्य...कैसे तलाशना शब्दों के अर्थ...कैसे दृश्यों में खोना...लिखना स्क्रिप्ट...लिखना लिरिक्स...खो जाना किसी और समय में...परीकथाएँ बुनना...चौखट पकड़े सोचना किसका तो नाम...हाँ...मर मिटना नीत्ज़े पर...नेरुदा पर...स्पैनिश...जर्मन...क्या क्या पढना...किन किन भाषाओँ में इंस्ट्रुमेंटल सुनना...खोजना शब्द...सलीके के...

करना ऑफिस का काम और मेरी जान, भूल जाना उस लड़की को जिसे चिट्ठियां लिखने की आदत थी, जिसे किस्से सुनाने में लुत्फ़ आता था...जो फोन कर के कहती थी जरा वो कविता सुना दो ना...तुम्हारी आवाज़ से किसकी तो याद आती है...जिसे वो सारे लोग अच्छे नहीं लगते जिन्हें कविता कवितायेँ अच्छी नहीं लगती...

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उलाहने देना भोर की किरणों को...नींद भरी आँखों से सर दर्द को देखना...याद करना शामों को...इस वसंत में आई हुयी पतझड़ की शामें...सड़क के दोनों ओर बेतरतीबी से बिछे हुए पत्तों का ढेर. सूखे पत्तों की कसमसाती महक...उँगलियों में मसल देना एक पत्ते की पीली नसों को...जैसे खतों के कागज़ में लगाना आग. 

बौरायी हवा में आम के बौर का घुल जाना...ये कैसी गंध है...मिली-जुली...किधर का दरवाज़ा खोलती है...कोई आदिम कराह है...मेरा नाम पुकारती है...समय के उजाड़ मकानों में मुझे टोहती है...एक मैं हूँ...धूल में लिखती हुयी कविता...मिटाती अपनी हस्ती को. देखती हूँ अपना नाम उँगलियों के पोरों में. पार्क में खिलते हैं फिरोजी रंग के फूल...पाती हूँ उनकी जड़ों में मेरी टूटी हुयी दवात. 

भूल जाना लिखना...भूल जाना खुद को...बंद कर देना किसी गहरे हरे दवात में अगली बहार के मौसम के लिए...भूल जाना कि नयी कोपलों का रंग होता है सुर्ख लाल...आँखों को कहना कि न पढ़े कविता...कानों को कहना कि न सुने उसका नाम कि उस नाम से उग आती है कलमें कितने रंग कीं मेरे अन्दर...सियाह रातें जब दर्द में चीखती हैं तब जा कर जनमती है कविता...

तरबीब से जीना जिंदगी को लड़की...समेटना सब कुछ अपने अन्दर मगर ब्लैक होल की तरह...मत भेजना प्रकाश की एक किरण भी बाहर कि तुम्हारी तस्वीर भी न खींच पाएं लोग...निर्वात से जानें तुम्हें ऐसा हो तुम्हारा गुरुत्व...सिर्फ सुनने में अच्छा लगता है सुपरनोवा...मरते हुए तारे की आखिरी पुकार होती है...अनगिन गैलेक्सीज पार कर तुम्हारे दिल को छलनी कर जाती...सबसे पास का तारा...प्रोक्सिमा सेंचुरी.

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तकलीफों के इस बेसमेंट में थोड़ी मुस्कुराहटें बचाए रहना...किचन के डिब्बे में रखना थोड़ा दालचीनी का पाउडर...घड़ी में घुलना जरा जरा सा...थोड़ी स्ट्रोंग बनना...यहाँ की फ़िल्टर कॉफ़ी की तरह. 

कैमरा को देख कर कहना...स्माइल प्लीज :)

7 comments:

  1. बेहतरीन अभिव्यक्तियाँ ,बेहतर कोलाज़

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  2. आँखों को कहना कि न पढ़े कविता...कानों को कहना कि न सुने उसका नाम कि उस नाम से उग आती है कलमें कितने रंग कीं मेरे अन्दर...सियाह रातें जब दर्द में चीखती हैं तब जा कर जनमती है कविता...

    तकलीफों के इस बेसमेंट में थोड़ी मुस्कुराहटें बचाए रहना...किचन के डिब्बे में रखना थोड़ा दालचीनी का पाउडर...घड़ी में घुलना जरा जरा सा...थोड़ी स्ट्रोंग बनना...यहाँ की फ़िल्टर कॉफ़ी की तरह...


    तुम बस तुम हो! :-)

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  3. जीवन की मुस्कराहट बचा कर रखना लड़की, सरलता कठिन है, जटिलता स्वतः अपनाये जाने को फिरती है, बच कर रहना लड़की।

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  4. वाह फिल्मी स्टाइल

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  5. रात भर जाग-जागकर कविताएँ न पढीं-लिखीं, तो क्या ख़ाक इश्क किया. टाइम देख लो लड़की, हम भी रात के मुंडेर पर बैठे भोर की बाट जोह रहे हैं.

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  6. i do not know what exactly it is that makes me fall in love with your writing again and again. with unvarying intensity. bordering on fanfare.
    Maybe it's your utter honesty. or a formidable desire to live fully.
    Actually, both.
    God/ Time/ whatever...may keep you blessed forever.

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