09 September, 2015

तालपत्र, संस्कृत की लिपियाँ और इतिहास की चिप्पियाँ

मुझे याद है कि जब मैं स्टैण्डर्ड एट या सेवेन में थी तो मुझे लगता था हम हिस्ट्री क्यूँ पढ़ते हैं. सारे सब्जेक्ट्स में मुझे ये सबसे बोरिंग लगता था. एक कारण शायद ये भी रहा हो कि हमारी टीचर सिर्फ रीडिंग लगा देती थीं, अपनी तरफ से कुछ जोड़े बगैर...कोई कहानी सुनाये बगैर. उसपर ये एक ऐसा सब्जेक्ट था जिसमें बहुत रट्टा मारना पड़ता था. पानीपत का युद्ध कब हुआ था से हमको क्या मतलब. कोल्ड वॉर चैप्टर क्यूँ था मुझे आज भी समझ नहीं आता. या तो हमारी किताबें ऐसी थीं कि सारे इंट्रेस्टिंग डिटेल्स गायब थे. अब जैसे प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध को अगर कोई टीचर रोचक नहीं बना पा रहा है तो वो उसकी गलती है. उन कई सारे किताबों पर भारी पड़ती थी एक कहानी, 'उसने कहा था'. मुझे लगा था कि टेंथ के बाद हिस्ट्री से हमेशा के लिए निजात मिल गयी.

बीता हुआ लौट कर आया बहुत साल बाद 2006 में...नया ऑफिस था और विकिपीडिया पहली बार डिस्कवर किया था. मुझे ठीक ठीक याद नहीं कि मैं द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में क्यों पढ़ रही थी...शायद हिटलर की जीवनी से वहाँ पहुंची थी या ऐसा ही कुछ. उन दिनों जितना ही कुछ पढ़ती जाती, उतना ही लगता कि दुनिया के बारे में कितना सारा कुछ जानने को बाकी है. उस साल से लेकर अब तक...मैंने इन्टरनेट का उपयोग करके जाने क्या क्या पढ़ डाला है. विकिपीडिया और गूगल के सहारे बहुत सारा कुछ जाना है. उन दिनों पहली बार जाना था कि खुद को और इस दुनिया को बेहतर जानने और समझने के लिए इतिहास को समझना बहुत जरूरी है.

ग्रेजुएशन में मैंने एडवरटाइजिंग में मेजर किया है. दिल्ली में जब पहली बार ट्रेनिंग करने गयी तो वो एक ऐड एजेंसी थी. उन दिनों कॉपीराइटर बनने के लिए भाषा परफेक्ट होनी जरूरी थी. प्रूफ की गलतियाँ न हों इसलिए नज़र, दिमाग सब पैना रखना होता था. कॉमा, फुल स्टॉप, डैश, हायफ़न...सब गौर से हज़ार बार चेक करने की आदत थी. बात हिंदी की हो या इंग्लिश की...मेरे लिखे में कभी एक भी गलती नहीं हो सकती थी. न ग्रामर की न स्पेलिंग की...और इस बात पर मैं स्कूल के दिनों से काफी इतराया करती थी.

अंग्रेजी का एक टर्म है 'occupational hazard' यानि पेशे के कारण होने वाली परेशानियाँ. जैसे कि फौजी को छुट्टियाँ नहीं मिलतीं. सिंगर को किसी भी ग्रुप में लोग हमेशा गाने के लिए परेशान कर देते हैं. कवि से लोग कटे कटे से रहते हैं. डॉक्टर से सब लोग बीमारियों की बहुत सी बातें करते हैं वगैरह वगैरह. तो ये कॉपीराइटर के शुरू के तीन महीनों के कारण मेरी पूरी जिंदगी कुछ यूँ है कि हम शब्दों पर बहुत अटकते हैं. लिखा हुआ सब कुछ पढ़ जाते हैं. फिल्मों के लास्ट के क्रेडिट्स तक. रेस्टोरेंट के मेनू में टाइपो एरर्स देखते हैं...यहाँ तक कि हमें कोई लव लेटर लिख मारे(अभी तक लिखा नहीं है किसी ने) तो हम उसमें भी टाइपो एरर देखने लगेंगे. जब पेंग्विन से मेरी किताब छप रही थी, 'तीन रोज़ इश्क़' तो उसकी बाई लाइन थी 'गुम होती कहानियाँ'. जब किताब का कवर बन के आया तो मैंने कहा, 'कहानियां' में टाइपो एरर है, बिंदु नहीं चन्द्रबिन्दु का प्रयोग होगा. मेरे एडिटर ने बताया कि पेंग्विन चन्द्रबिन्दु का प्रयोग अपने किसी प्रकाशन में नहीं करता. मुझे यकीन नहीं हुआ कि पेंग्विन जैसा बड़ा प्रकाशक ऐसा करता है. कमसे कम आप्शन तो दे ही सकता है, अगर किसी लेखक को अपने लेखन में चन्द्रबिन्दु चाहिए तो वो खुद से कॉपी चेक करके दे. मगर पहली किताब थी. हम चुप लगा गए. अगर कभी अगली किताब लिखी तो इस मुद्दे पर हम हरगिज़ पीछे नहीं हटेंगे.

भाषा और उससे जुड़ी अपनी पहचान को लेकर मैं थोड़ा सेंटी भी रहती हूँ. मुझे अपने तरफ की बोली नहीं आती...अंगिका...मेरी चिंताओं में अक्सर ये बात भी रहती है कि भाषा या बोली के गुम हो जाने के साथ बहुत सी और चीज़ें हमेशा के लिए खो जायेंगी. बोली हमारे पहचान का काफी जरूरी हिस्सा है. मुझे अच्छा लगता है जब कोई बोलता है कि तुम्हारे हिंदी या इंग्लिश में बिहारी ऐक्सेंट आता है. इसका मतलब है कि दिल्ली और अब बैंगलोर में रहने के बावजूद मेरे बचपन की कोई चीज़ बाकी रह गयी है जिससे कि पता चल सके कि मेरी जड़ें कहाँ की हैं.

ओरियेंटल लाइब्रेरी में रखे रैक्स में तालपत्र
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मैसूर युनिवर्सिटी का ये शताब्दी साल है. इस अवसर पर एक कॉफ़ी टेबल बुक का लेखन और संपादन कर रही हूँ जो कि यूनिवर्सिटी द्वारा जनवरी में प्रिंट होगा. प्रोजेक्ट की शुरुआत में हम वाइसचांसलर और रजिस्ट्रार से मिलने गए. यूनिवर्सिटी में ओरिएण्टल लाइब्रेरी है. हमने रिसर्च की शुरुआत वहीं से की...इस लाइब्रेरी में कुल जमा 70,000 पाण्डुलिपियाँ हैं, जिनमें कुछ तो आठ सौ साल से भी ज्यादा पुरानी हैं. मैंने पांडुलिपियों की बात सुनी तो सोचा कि एक आध होंगी. अभी तक जितनी भी देखी थीं वो सिर्फ संग्रहालयों में, वो भी शीशे के बक्से में. यहाँ पहली बार खुद से छू कर ताड़ के पत्तों पर लिखा देखा. इनपर लिखने के लिए धातु की नुकीली कलम इस्तेमाल होती थी...तालपत्र पर लिखने वालों को लिपिकार कहते थे. कवि, लेखक, इत्यादि अपनी रचनायें कहते थे और लिपिकार उन्हें सुन कर तालपत्रों पर उकेरते जाते थे. 
उसे लाइब्रेरी कहने का जी नहीं चाहता...ग्रंथालय कहने का मन करता है. लोहे के पुराने ज़माने के रैक और लोहे की जालीदार सीढियाँ. ज़मीन से तीन तल्लों तक जाते रैक्स और उनपर ढेरों पांडुलिपियाँ. एक अजीब सी गंध. पुरानी लकड़ी की...लेमनग्रास तेल की...और पुरानेपन की. जैसे ये जगह किसी और सदी की है और हम किसी टाइम मशीन से यहाँ पहुँच गए हैं. सन के धागे से बंधे तालपत्र. उनपर की गयी नम्बरिंग. मैंने सब फटी फटी आँखों से देखा. मुझे पहली बार मालूम चला कि संस्कृत को देवनागरी की अलावा कई और लिपियों में लिखा गया है. कन्नड़. ग्रंथ. तमिल. ये मेरे लिए बहुत आश्चर्य की बात थी. उन्होंने दिखाया कि कन्नड़ में लिखी गयी संस्कृत के श्लोकों के बीच खाली जगह नहीं दी गयी थी. संस्कृत में वैसे भी लम्बे लम्बे संयुक्ताक्षर होते हैं लेकिन बिना किसी स्पेस के लिखे हुए श्लोकों को पढ़ना बेहद मुश्किल होता है. फिर हर लिपिकार की हैण्डराइटिंग अलग अलग होती है...हमें वहां मैडम ने बताया कि कुछ दिन तो एक लिपिकार की लिपि समझने में ही लग जाते हैं. उन्होंने ये भी बताया कि देवनागरी में तालपत्रों पर लिखने में मुश्किल होती थी क्योंकि देवनागरी में अक्षरों के ऊपर जो लाइन खींची जाती है, उससे तालपत्र कट जाते थे और जल्दी ख़राब हो जाते थे.
तालपत्र- ओरियेंटल लाइब्रेरी, मैसूर, clicked by my iPhone

मैसूर गए हुए दो महीने से ऊपर होने को आये लेकिन ये तथ्य कि संस्कृत किसी और लिपि में भी लिखी जाती है, मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था. मगर फिर पिछले कुछ दिनों से एक्सीडेंट के कारण कुछ अलग ही प्राथमिकताएं हो गयीं थीं तो इसपर ध्यान नहीं गया. कल फिर प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया तो बात यहीं अटक गयी. एक दोस्त से डिस्कस कर रही थी तो पहली बार ध्यान गया कि संस्कृत या फिर वेद...मेरे लिए ये दोनों inter-changeable हैं. मैं जब संस्कृत की बात सोचती हूँ तो वेद ही सोचती हूँ. फिर लगा कि वेद तो 'श्रुति' रहे हैं. तो पूरे भारत में अगर सब लोग वेद पढ़ रहे होंगे या कि सीख रहे होंगे तो लिपि की जरूरत तो बहुत सालों तक आई भी नहीं होगी...और जब आई होगी तो जिस प्रदेश में जैसी लिपि का प्रचलन रहा होगा, उसी लिपि में लिखी गयी होगी.

बात फिर से आइडेंटिटी या कहें कि पहचान की आ जाती है. मैंने शायद इस बात पर अब तक कभी ध्यान नहीं दिया था कि मैं एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी हूँ और उसके बाद देवघर में पली बढ़ी. वेद और श्लोक हमारे जीवन में यूँ गुंथे हुए थे कि हमारी समझ से इतर भी एक इतिहास हो सकता है इसपर कभी सोच भी नहीं पायी. अगर आप देवघर मंदिर जायेंगे तो वहां पण्डे बहुत छोटी उम्र से वेद-पाठ करते हुए मिल जायेंगे. उत्तर भारत की इस पृष्ठभूमि के कारण भी मैंने कभी संस्कृत के उद्गम के बारे में कुछ जानने की कोशिश भी नहीं की. आज मैंने दिन भर भाषा और उसके उद्गम के बारे में पढ़ा है. भाषा मेरी समझ से कहीं ज्यादा चीज़ों के हिसाब से बदलती है...इसमें बोलने वाले का धर्म...उस समय की सामाजिक संरचना...सियासत...कारोबार... बहुत सारी चीज़ों का गहरा असर पड़ता है.

Brahmi script on Ashoka Pillar,
Sarnath" by ampersandyslexia 
भारत की सबसे पुरानी लिपि ब्राह्मी है. 250–232 BCE में बने अशोक स्तम्भ पर ब्राह्मी लिपि के उद्धरण हैं. ब्राह्मी लिपि से मुख्यतः दो अलग तरह के लिपि वर्ग आगे जाके बनते गए...दक्षिण भारत की लिपियाँ जैसे कि तमिल, कन्नड़, तेलगु इत्यादि वृत्ताकार या कि गोलाई लिए हुए बनीं जबकि उत्तर भारत की लिपियाँ जैसे कि देवनागरी, बंगला, और गुजराती में सीधी लकीरों से बनते कोण अधिक थे. संस्कृत को कई सारी लिपियों में लिखा गया है. 

मेरी मौसी ने संस्कृत में Ph.D की है. इसी सिलसिले में आज उनसे भी बात हुयी. अपनी थीसिस के लिए उन्होंने ग्रन्थ लिपि सीखी थी और इसमें लिखे कई संस्कृत के तालपत्रों को बी ही पढ़ा था. उन्होंने एक रोचक बात भी बतायी...लिपिकार हमेशा कायस्थ ही हुआ करते थे. इसलिए कायस्थों की हैण्डराइटिंग बहुत अच्छी हुआ करती है. 

जाति-व्यवस्था के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था. अपने ब्राह्मण होने या अपने कायस्थ दोस्तों की राइटिंग अच्छी होने के बारे में भी इस नज़रिए से कभी नहीं देखा था. अब सोचती हूँ कि गाहे बगाहे हमारा इतिहास हमारे सामने खड़ा हो ही जाता है...हमारी जो जड़ें रही हैं, उनको झुठलाना इतना आसान नहीं है. इतने सालों बाद सोचती हूँ कि वाकई इतिहास को सही तरह से जानना इसलिए भी जरूरी है कि हम अपनी पुरानी गलतियों को दोहराने से बचें.

भाषा और इसके कई और पहलुओं पर बहुत दिन से सोच रही हूँ. कोशिश करूंगी और कुछ नयी चीज़ों को साझा करूँ. इस पोस्ट में लिखी गयी चीज़ें मेरे अपने जीवन अनुभवों और थोड़ी बहुत रिसर्च पर बेस्ड हैं. ये प्रमाणिक नहीं भी हो सकती हैं क्योंकि मैं भाषाविद नहीं हूँ. कहीं भूल हुयी होगी तो माफ़ की जाए.

4 comments:

  1. आज मैंने दिन भर भाषा और उसके उद्गम के बारे में पढ़ा है. भाषा मेरी समझ से कहीं ज्यादा चीज़ों के हिसाब से बदलती है...इसमें बोलने वाले का धर्म...उस समय की सामाजिक संरचना...सियासत...कारोबार... बहुत सारी चीज़ों का गहरा असर पड़ता है..............बिलकुल भाषा के साथ यही होता है। कभी न कभी साहित्‍य सृजन करनवाले और लिखने-पढ़ने वाले इस दिशा में अवश्‍य सोचते हैं। यहां से लेखकीय परिपक्‍वता का जन्‍म होता है। वर्ण-व्‍यवस्‍था के अपने लाभ दे, जिस पर संपूर्ण समाज की सुन्‍दर जीवन नींव टिकी हुई थी। वर्ण-व्‍यवस्‍था की विसंगतियों ने कालांतर में इसे अप्रासंगिक बना दिया जो अाज तक यथावत है। वैसे मैं भी ब्राह्मण हूँ, पर ब्राह्मण होने जैसा कुछ नहीं कर पाया आज तक। वही वर्ण-व्‍यवस्‍था की कालांतर की विसंगतियों के कारण। वैसे अपना भाषा अौर लिपि के संधान की दिशा में बहुत अच्‍छा काम किया है। शुभकामनाएं।

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  2. बढ़िया। पढ़ के बहुत अच्छा लगा। बहुत कुछ याद भी आया।

    हिस्टरी ही नहीं कई सबजेक्ट्स... हमें पता ही कहाँ होता है कि पढ़ क्यों रहे हैं !
    मुझे मन करता है कि मैं टीचर बनूँ... बच्चो का।

    पहले थोड़ा शो ऑफ :) क्लास 9 में हिस्टरी टीचर ने मेरी कॉपी दिखाई थी क्लास में ये कहते हुए कि ये मॉडल आन्सर शीट है। पर सच ये है कि मैं भी ऐसा ही सोचता था हिस्टरी को लेकर। तुम अकेली नहीं हो। मन करता था मेरा पढ़ने का। पर कुछ सबजेक्ट्स की किताबें बहुत बोरिंग लगती। बाद में इंटर्न के दिनों में प्रोफेसर ने हिटलर ऐंड स्टालिन पैरलल लाइव्स पढ़ डाला था 2 वीक में ! तब लगा नहीं फिर से पढ़ी जा सकती है स्कूल की किताबे भी।

    वैसे ही कॉलेज के दिनों छुट्टी में घर गया था तो घर पर पड़ी यूरोप का इतिहास, मध्यकालीन इतिहास जैसी ग्रंथकार किताबें इतनी रोचक लगी कि खाना पीना छोडकर पढ़ता था। घर पर लोगों को लगा कि मैं इतिहास से यूपीएससी देने वाला हूँ ! माँ मना करती कि अब मत पढ़। आँख खराब हो जाएगी, आख रेता जा रहा है तेरा पढ़ पढ़ के :) संस्कृत का भी ऐसा ही हाल था। संस्कृत के सर से तो अब भी कभी कभी बात हो जाती है। संस्कृत के सर ने कहा था कि - मैंने सोचा था बोर्ड में तुम्हारा संस्कृत में भी मैथ जितना आएगा। :) पर अब जितना अच्छा लगता है तब भले कितने भी नंबर आ जाते थे इस तरह कहाँ समझ आता था कुछ। कितनी संस्कृत की किताबें अब पढ़ी। चौखम्बा की अकेडमिक किताबें - कालीदास, भर्तिहरी।

    संस्कृत की लिपि से याद आया। बिना स्पेस के यूरोप में भी पहले लिखा जाता था। लिपि का ऐसा है कि अभी मैं ग्रीस में था तो... मुझे हर जगह लगता कि मैथ लिखा हुआ है। किसी से बात हो रही थी तो मैंने सारे ग्रीक अल्फबेट पढ़ दिया - अल्फा, बीटा, गामा, डेल्टा, एप्सीलोन.. एक भी अक्षर नहीं जो गणित में इस्तेमाल नहीं होता। लोगों को लगा मुझे ग्रीक आती है। पहले उन्हे लगा गणित पढ़ा है तो मैं सिर्फ पाई पहचानुंगा। :) पर फिजिक्स, मैथ मिला के सारे ही पहचान गया ! पर उसे मिला कर जो लिखा हुआ था वो सिर्फ जगहों के नाम मुश्किल से जोड़ जोड़ कर पढ़ पाता था। लिपि पता थी पर भाषा नहीं। वैसे ही घर पर कुछ चिट्ठियाँ है ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने की 'कैथी' लिपि में। पढ़ लो तो समझ आ जाएगी बात। पर लिपि आलग है ! ब्रिटिश टाइम में संस्कृत लिखी गयी बहुत समय तक रोमन लिपि में। रोमन लिपि के ऊपर बिन्दु-सिंदू लगाकर अभी भी कई किताबों में मिलते हैं संस्कृत के श्लोक वैसे लिखे हुए। उच्चारण का गाइड दिया हुआ होता है शुरू के पन्नों पर।

    संस्कृत खासकर उच्चारण वाली भाषा है। जैसे लिखो। वेद के अलावा जैसे उपनिषद का मतलब ही होता है समीप बैठा कर शिष्य को कही गयी बात - गुप्त ज्ञान टाइप्स। मुझे लगता है बहुत कुछ खो गया ग्रंथो के श्रुति होने और न लिखे जाने के कारण। कितना रटेगा यार कोई :)

    व्याकरण वेदांग के छः अंगों में से एक है। शिव मंदिरों में व्याकरण मंडप की परंपरा रही है। क्योंकि संस्कृत के अक्षर ध्वनि से जुड़े हुए हैं। कहते हैं ध्वनियाँ शिवजी के डमरू से निकली। और व्याकरण में सबसे पहले उच्चारण ही पढ़ाते हैं। लिपि से अधिक श्रौतीय भाषा है। फोनेटिक लैड्ग्वेज है।... एक टीस हुई कहीं ये पढ़ते हुए कि संभवतः सैकड़ों वेद थे चार बचे ! वेद और अन्य मंत्रों के भी अर्थ से कम नहीं तो बराबर का महत्तव है उच्चारण का। और ये सबसे बड़ा तर्क था ऋषियों का नॉन-संस्कृत (जैसे तमिल) भाषी लोगों को धर्म के लिए संस्कृत पढाने का। जैसे तमिल में इतने उच्चारण नहीं होते। क, च, ट, त, प इस सब वर्ग के पाँच पाँच अक्षर हैं संस्कृत में। तमिल में एक-एक। यानि क और ख एक ही। त और थ एक ही।

    मंत्रों की रचना में छंद और उच्चारण का गणित लिपि से अधिक है। पाणिनी का व्याकरण और पिंगल का छंद शास्त्र। लिपि का महत्तव मुझे नहीं लगता कहीं लिखा गया हो। और स्पेस से याद आया... कई यूरोपीय भाषाओं में भी स्पेस बहुत समय तक नहीं था। कहीं पढ़ा था।

    लंबी बातें हैं... कमेन्ट में कितना लिखूँ :) बट फैशिनेटिंग। इसके अलावा - वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, अद्वैत, द्वैत, विशिष्टद्वैत, शून्यवाद, अनेकांतवाद... गज़ब गज़ब चीजें लोग सोच और लिख गए हैं। भारी भारी तर्क और कितना गूढ सोच के। उच्चारण, अर्थ, शब्द रचना, छंद.... कितना कुछ है। जैसे किसी और टाइम-स्पेस में सब सोचा लिखा जा चुका है।

    और... हाल फिलहाल ग्रीस में मुझे लगा पाटलीपुत्र से आए किसी आचार्य ने जरूर कभी न कभी पर्थेनोन में मंत्राचार किया होगा। :)

    बहुत अच्छा लगा ये पोस्ट पढ़कर। एक तो तुमने तालपत्रों की फोटो भेजी थी उतने में ही गूजबंप्स हो गए थे। पुनर्जन्म होता होगा तो शायद हम कहीं उधरे बैठे होंगे किसी जन्म में। जब ये सब लिखा जा रहा होगा :) :)

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  3. सीखने का ईमानदार प्रयास कितनों के लिए शिक्षाप्रद, प्रेरक हो सकता है, बढि़या उदाहरण.

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  4. Times New Roman और Arial font में मुख्‍य फर्क क्‍या है, serif marks का. ब्राह्मी से नागरी बनने की कहानी में भी इसी की यानि शिरोरेखा और पादरेखा (ये न हों तो ठेठ शब्‍दों में बेसिर-पैर कहा जाएगा) की भूमिका और लिपि चिह्नों को अलंकृत करने का प्रयास मुख्‍य हैं, इसके अलावा किस चीज पर और किस चीज से लिखा जा रहा है, ने भी वर्तमान नागरी अक्षरों का स्‍वरूप तय किया है. शिरोरेखा के लिए गुलेरी जी ने शब्‍द इस्‍तेमाल किया था 'निमत्‍थी' और उस दौर में देवनागरी को सामान्‍यतः बालबोध भी कहा जाता था.

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