27 August, 2024

Random रोज़नामचा - वाइट मस्क

मनुष्य की पाँच इंद्रियों में एक स्पर्श है जिसकी नक़ल नहीं बनायी जा सकती। तस्वीर और वीडियो किसी को न देखने की भरपाई कर देते हैं। कोविड में हम लोग जो दिन भर घर में रहते थे, तो वीडियो कॉल करना आसान हो गया। किसी दोस्त को कह सकते हैं, वीडियो कॉल कर लें? पहले वीडियो कॉल एक त्योहार की तरह होता था, एक डेट की तरह जिसके लिये ना केवल तैयारी की जाती थी, बल्कि इत्तर वग़ैरह भी लगाये बैठते थे, कि जैसे ख़ुशबू जाएगी दूर तक। वीडियो कॉल की टेक्नोलॉजी तो बहुत साल पहले से थी लेकिन कंप्यूटर पर वेब-कैम लगाना, ख़राब इंटरनेट में धुंधली तस्वीर देखने में मज़ा नहीं आता था। अब तेज़ इंटरनेट के कारण एकदम साफ़ दिखता है चेहरा, आँखें…किसी का ठहरना भी। बात करते हुए स्क्रीनशॉट ले सकते हैं। FOMO कम होता है। दोस्तों के बच्चों को पैदा होने के बाद से लेकर कर साथ में पलते-बढ़ते वीडियो तस्वीर शेयर करते लगता है हमने देखा है उन्हें। यार दोस्त कहीं गये तो वहाँ की वीडियो भेज दी, वहाँ से वीडियो कॉल कर दिया, तेरी याद आ रही है बे। 

किसी जंगल से गुजरते हैं तो वक़्त ठहरता है और हम लौटते हैं। ठीक ठीक याद में कितने साल पीछे, मालूम नहीं। दार्जिलिंग। बारिश, सिंगल माल्ट। कोई ख़ुशबू कभी मिल जाती है कहीं अचानक से, सिगरेट पीते हुए, कैंडल की लौ से उँगली जलाने के ठीक पहले तो कभी रेगिस्तान की शाम में…रेत में पाँव डाले बैठे दूर से धुएँ की गंध आती है। किसी नयी जगह कोई पुरानी सब्ज़ी खा रहे होते हैं और लगता है कि बचपन में पहुँच गये, या कि किसी दोस्त ने कौर तोड़ कर मुँह में खिला दिया और किसी पिछले जन्म तक का कुछ याद आ गया। 

सिर्फ़ एक स्पर्श है, जो कहीं नहीं मिलता। दुबारा कभी।

किसी के हाथों को रेप्लीकेट नहीं कर सकते। हाथों की गर्माहट, दबाव, नरमाई…कुछ नहीं मिलता कभी, कहीं फिर। हम हम क्या इसलिए तुम्हें नींद में टटोलते चलते हैं? इसलिए देर रात भले एक पोस्टकार्ड, भले एक पन्ने की चिट्ठी, मगर लिखते हैं तुम्हारे नाम। कि उस काग़ज़ को छू कर तुम्हें यक़ीन आये कि इस हैंडराइटिंग का एक ही मतलब है, ये पागल लड़की इस काग़ज़ को हाथ में लिए सोच रही थी, सफ़र करती हूँ तो भी तुम्हारा शहर रास्ते में नहीं मिलता। किसी के लिये कोई साड़ी ख़रीदना, कभी कोई रूमाल काढ़ना, कभी कोई स्कार्फ भेज देना…इतना हक़ बनाये रखना और इतने दोस्त बनाए रखना। आज सुबह लल्लनटॉप के एक वीडियो का क्लिप देखा जिसमें सलाह दी जा रही है कि किताब ख़रीद के पढ़ें, माँग के नहीं। हम किताब माँग के भी खूब पढ़े हैं और ख़रीद के भी। अपनी किताब आपने को पढ़ने को दी है, तो आपका एक हिस्सा साथ जाता है। किसी की पढ़ी हुई किताब पढ़ना, मार्जिन पर के नोट्स देखना। यह जीवन का एक अनछुआ हिस्सा है। अगर वाक़ई आपने कभी माँग के किताब नहीं पढ़ी, या आप इतने लापरवाह हैं कि दोस्त आपको किताब उधार नहीं देते तो आप जीवन में कुछ बहुत क़ीमती मिस कर रहे हैं। 

कपड़ों की छुअन। मैं जो अनजान शहर में तुम्हारे शर्ट की स्लीव पकड़ कर चलती थी। या किसी कहानी में किसी किरदार के सीने पर सर रखे हुए जो कपास या लिनेन गालों से छुआया था। किसी ने कभी गाल थपथपाया। कभी बालों में उँगलियाँ फ़िरा दीं। किसी ने hug करते हुए भींच लिया और हम जैसे उस ककून में लपेट रहे ख़ुद को, सिल्क में लपेटी शॉल की तरह। मेले में फिरते रहे आवारा, दोनों हाथों में दो तरफ़ दो दोस्तों के बीच, स्कूल की silly वाली दोस्ती जैसी। हम जो फ़िल्मों में देख हैं, किसी के सीने पर हाथ रख कर दिल की धड़कन को महसूस करना…नब्ज़ में बहता खून भागते हुए रुक-रुक सुनना, उँगलियों से। किसी का माथा छू कर देखना, बुख़ार कम-ज़्यादा है या है ही नहीं। 

स्पर्श की डिक्शनरी नहीं होती। हम अपने हिस्से के स्पर्श उठाते चलते हैं। मैं अलग अलग शहरों में हथेली खोले घूमती हूँ, इमारत, फूल-पौधे, स्टील की रेलिंग, दीवारें…सब कुछ स्पर्श की भाषा में भी दर्ज होता है मन पर। 

मैं याद में भटकती हूँ…

याद तो कभी कभी आनी चाहिए ना? दिन भर याद साथ चलती हो तो आना-जाना थोड़े कहते हैं। कभी लगता है याद कभी जाये भी। हम अपने प्रेजेंट में प्रेजेंट रहें, एबसेंट नहीं। एबसेंट-माइंडेड नहीं।

आज सुबह नया परफ्यूम ख़रीदा, Mont Blanc का Signature. दुकान में कहा कुछ मस्क चाहिए, तो उसने कहा ये White Musk है. एक बार में अच्छा लगा, तो ले आये। कलाई पर लगाये। उँगलियों के पोर पर सुबह जो खाये, सो खाये नारंगी छीलने की महक रुकी हुई थी। लिखने के पहले हथेलियों से चेहरा ढक लेने की आदत पुरानी है। अंधेरे में वो दिखता है जो आँख खोलने पर ग़ायब हो जाता है। हम जाने किस खुमार में रहते हैं सुबह-सुबह। पुराना इश्क़ है, आदत की तरह। आज सुबह सोच रहे थे, कुछ पिछले जन्म का होगा बकाया, इतना कौन याद करता है किसी को। इक छोटी सी नोटबुक है, उसमें बहुत कम शब्द हैं, लेकिन उन बहुत कम और बहुत प्यारे दोस्तों के हाथ से लिखे हुए जो शायद कई जन्म से साथ-साथ चल रहे हैं। 

फ़िराक़ साहब कह गये हैं, न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद मगर हमें तो तिरा इंतज़ार करना था।’

मुहब्बत शायद कम-बेसी होती रहती है। लेकिन इंतज़ार लगातार बना रहता है। अक्सर भी, हमेशा भी।

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