मैंने उसे बचाए रखा है जैसे सिगरेट के आखिरी कश में बचा रह जाता है थोड़ा सा तुम्हारे होठों का स्वाद...हाँ...मैंने बचा रखी है अब भी अपने अन्दर थोड़ी सी वो लड़की जिससे तुम्हें प्यार हुआ था. कि अब याद नहीं आखिरी बार कब चलाई थी बाईक...कितने दिनों से टूटी हुयी है पेट्रोल की टंकी...ठीक नहीं कराती हूँ...सर्विस स्टेशन नहीं भेजती हूँ...मगर आज भी चाबियों के गुच्छे में मौजूद है घर की और चाबियों के साथ ही बाईक की चाबी भी...
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एक एक करके इस घर में मेरी कितनी सारी कलमें खो गयीं...अब बस एक बची है...पर्पल कलर की...कितना सोचती हूँ पर फिर कहाँ खरीदती हूँ नयी कलम...सियाही की बोतलें भी तो आधी हो गयीं हैं अब. कितनी सारी कोपियाँ खरीद रखी हैं पर कहाँ लिख पाती हूँ तुम्हें एक पन्ने की चिट्ठी भी. गहरे हरे रंग से लिख रही हूँ आजकल...तुम्हें याद है वो ग़ालिब का शेर...हम बियाबां में हैं और घर में बहार आई है. कितना कुछ है तुमसे कहने को पर अब शब्दों में विश्वास नहीं होता और तुम मेरी खामोशियाँ नहीं समझते.
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देर रात वायलिन के तारों से नस काटने की कोशिश की थी...ख़ामोशी की झील पर...झिलमिल कुछ टुकड़े...इतने खूबसूरत कि मरने नहीं देते. आज चाँद भी बेहद तीखा और धारदार था, हंसुली की तरह...चांदनी में कोई गीत गाते हुए कटिया से धान की फसल काटती औरतें याद आयीं. यूँ याद नहीं आ सकती, मैंने कभी औरतों को धान काटते नहीं देखा है.
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मैं पैरानोइड हो गयी हूँ...आज फिर कुछ लोगों को देखा...
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बंगलौर की कुछ बेहद ठंढी शामें हैं. सिगरेट पीने का मन करता है...पीती नहीं हूँ कि ऐसे ही शौक़ से एक कश दो कश मारते हुए आदत लग जायेगी. मेरे पास एक हल्दी के रंग की शॉल है...जैसे दिल्ली में तुमने खो दी थी न, वैसी ही...आज देर रात सड़क पर सन्नाटा और कोहरा पसरा हुआ था. बहुत मन हुआ कि स्लीवलेस कोई टॉप पहन कर, बाएँ कंधे पर शॉल डाल कर थोडा सड़क पर टहल लूं...साइकिल चलाते हुए देखा कि सारे सूखे पत्तों को एक जगह इकठ्ठा कर दिया गया है...शायद सुबह इनमें आग लगाई जायेगी. आज से पहले ध्यान नहीं गया था कि पतझड़ आ गया है. मन के मौसम से वसंत को गए तो जैसे कितने महीने बीत गए. हर बार सोचती हूँ और बर्फ जमने नहीं देती...विस्की अकेले पीने का मन था आज.
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आप जैसे हो वैसे खुद को एक्सेप्ट कर लो या जैसा होना चाहते हो वैसे खुद को बदल लो...इनमें से कुछ नहीं हो सकता है तो कागज़ उठाओ...पागलों/लेखकों/कवियों की दुनिया में स्वागत है.
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शराब बहुत बुरी चीज़ है ऐसा सब कहते हैं...मैंने बहुत ज्यादा लोगों को कुछ पीते हुए देखा नहीं है...जो थोड़े लोगों को देखा है वैसे में देखा है कि पीने के बाद लोग बेहतर इंसान हो जाते हैं...दिल में जो है कह पाते हैं...प्यार है तो जता पाते हैं...अक्सर देखा है पहला काम कि लोगों को बताना कि वो कितने इम्पोर्टेन्ट हैं लाइफ में.
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लैपटॉप क्रैश करने से दो मेजर दिक्कतें हैं...आईफोन पर अपनी पसंद के नए गाने नहीं डाल सकती और फोटो नहीं देख सकती...कोई बैक-अप नहीं था तो सब कुछ याद करना होता है. ऐसे में अक्सर याद कुछ और करने चलती हूँ याद कुछ और आ जाता है.
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जनवरी की वो रात याद आ रही है...जयपुर में यही रात के कोई ढाई बज रहे थे...हम अपने होटल से निकल कर...निशांत के सौजन्य से किसी नेता की गाड़ी में अपने होटल जा रहे थे...गलत रास्ता था...सो कुछ दूर पैदल चलना था...हील्स में चलने में दिक्कत थी...मैंने बूट्स उतार दिए थे. ठंढ के दिन थे...सड़क पर नंगे पाँव चल रही थी. पूरी पलटन...आगे आगे मैं और डेल्टा...रास्ता खोजने के लिए...और पीछे कुणाल और पौन्डी...डेल्टा को चिढ़ाते हुए टर्रर्र टर्रर्र करते हुए. थोड़े से टिप्सी...बहुत सारे खुश...आज सब लखनऊ में मुझे मिस कर रहे हैं...मैं यहाँ उन्हें मिस कर रही हूँ.
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जिंदगी के साथ लव-हेट रिलेशनशिप है...
थे बहुत बे-दर्द लमहे खत्मे-दर्दे-इश्क़ के
थी बहुत बे-महर सुबहें मेहरबां रातों के बाद
-फैज़
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'और बता, कैसी है?'
'ठीक हूँ'
'अच्छा, तो अब झूठ बोलना भी सीख लिया'
(@#$%%^^&*((&^%)
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कहानी वाली लड़की का क्या हुआ?
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b.r.e.a.t.h.e
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एक एक करके इस घर में मेरी कितनी सारी कलमें खो गयीं...अब बस एक बची है...पर्पल कलर की...कितना सोचती हूँ पर फिर कहाँ खरीदती हूँ नयी कलम...सियाही की बोतलें भी तो आधी हो गयीं हैं अब. कितनी सारी कोपियाँ खरीद रखी हैं पर कहाँ लिख पाती हूँ तुम्हें एक पन्ने की चिट्ठी भी. गहरे हरे रंग से लिख रही हूँ आजकल...तुम्हें याद है वो ग़ालिब का शेर...हम बियाबां में हैं और घर में बहार आई है. कितना कुछ है तुमसे कहने को पर अब शब्दों में विश्वास नहीं होता और तुम मेरी खामोशियाँ नहीं समझते.
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देर रात वायलिन के तारों से नस काटने की कोशिश की थी...ख़ामोशी की झील पर...झिलमिल कुछ टुकड़े...इतने खूबसूरत कि मरने नहीं देते. आज चाँद भी बेहद तीखा और धारदार था, हंसुली की तरह...चांदनी में कोई गीत गाते हुए कटिया से धान की फसल काटती औरतें याद आयीं. यूँ याद नहीं आ सकती, मैंने कभी औरतों को धान काटते नहीं देखा है.
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मैं पैरानोइड हो गयी हूँ...आज फिर कुछ लोगों को देखा...
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बंगलौर की कुछ बेहद ठंढी शामें हैं. सिगरेट पीने का मन करता है...पीती नहीं हूँ कि ऐसे ही शौक़ से एक कश दो कश मारते हुए आदत लग जायेगी. मेरे पास एक हल्दी के रंग की शॉल है...जैसे दिल्ली में तुमने खो दी थी न, वैसी ही...आज देर रात सड़क पर सन्नाटा और कोहरा पसरा हुआ था. बहुत मन हुआ कि स्लीवलेस कोई टॉप पहन कर, बाएँ कंधे पर शॉल डाल कर थोडा सड़क पर टहल लूं...साइकिल चलाते हुए देखा कि सारे सूखे पत्तों को एक जगह इकठ्ठा कर दिया गया है...शायद सुबह इनमें आग लगाई जायेगी. आज से पहले ध्यान नहीं गया था कि पतझड़ आ गया है. मन के मौसम से वसंत को गए तो जैसे कितने महीने बीत गए. हर बार सोचती हूँ और बर्फ जमने नहीं देती...विस्की अकेले पीने का मन था आज.
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आप जैसे हो वैसे खुद को एक्सेप्ट कर लो या जैसा होना चाहते हो वैसे खुद को बदल लो...इनमें से कुछ नहीं हो सकता है तो कागज़ उठाओ...पागलों/लेखकों/कवियों की दुनिया में स्वागत है.
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शराब बहुत बुरी चीज़ है ऐसा सब कहते हैं...मैंने बहुत ज्यादा लोगों को कुछ पीते हुए देखा नहीं है...जो थोड़े लोगों को देखा है वैसे में देखा है कि पीने के बाद लोग बेहतर इंसान हो जाते हैं...दिल में जो है कह पाते हैं...प्यार है तो जता पाते हैं...अक्सर देखा है पहला काम कि लोगों को बताना कि वो कितने इम्पोर्टेन्ट हैं लाइफ में.
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लैपटॉप क्रैश करने से दो मेजर दिक्कतें हैं...आईफोन पर अपनी पसंद के नए गाने नहीं डाल सकती और फोटो नहीं देख सकती...कोई बैक-अप नहीं था तो सब कुछ याद करना होता है. ऐसे में अक्सर याद कुछ और करने चलती हूँ याद कुछ और आ जाता है.
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जनवरी की वो रात याद आ रही है...जयपुर में यही रात के कोई ढाई बज रहे थे...हम अपने होटल से निकल कर...निशांत के सौजन्य से किसी नेता की गाड़ी में अपने होटल जा रहे थे...गलत रास्ता था...सो कुछ दूर पैदल चलना था...हील्स में चलने में दिक्कत थी...मैंने बूट्स उतार दिए थे. ठंढ के दिन थे...सड़क पर नंगे पाँव चल रही थी. पूरी पलटन...आगे आगे मैं और डेल्टा...रास्ता खोजने के लिए...और पीछे कुणाल और पौन्डी...डेल्टा को चिढ़ाते हुए टर्रर्र टर्रर्र करते हुए. थोड़े से टिप्सी...बहुत सारे खुश...आज सब लखनऊ में मुझे मिस कर रहे हैं...मैं यहाँ उन्हें मिस कर रही हूँ.
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जिंदगी के साथ लव-हेट रिलेशनशिप है...
थे बहुत बे-दर्द लमहे खत्मे-दर्दे-इश्क़ के
थी बहुत बे-महर सुबहें मेहरबां रातों के बाद
-फैज़
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'और बता, कैसी है?'
'ठीक हूँ'
'अच्छा, तो अब झूठ बोलना भी सीख लिया'
(@#$%%^^&*((&^%)
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कहानी वाली लड़की का क्या हुआ?
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b.r.e.a.t.h.e
ऐ जिन्दगी, गले लगा ले..
ReplyDeleteपूजाजी आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया आपके बहुत सारे लेख मैंने आज ही पढ़े
ReplyDeleteआप का जीवन किसी परिकथ जितना सुन्दर है
plz mujhe apki email id mil skti hai kya
ReplyDeletebhut pyari rachna hai kya aap mujhe apna email id dengi.....
ReplyDeletedar asal mujhe bhi apni ak kavita aha zindagi me bhejni hai.... par pta nahi kaise bhejte hai....