कई दिनों बाद कुछ लिखा था कवि ने, पर जाने क्यूँ उदास था...उसने आखिरी पन्ना पलटा और दवात खींच कर आसमान पर दे मारी...झनाके के साथ रौशनी टूटी और मेरे शहर में अचानक शाम घिर आई...सारी सियाही आसमान पर गिरी हुयी थी.
आजकल लिखना भूल गयी हूँ, सो रुकी हुयी हूँ...कवि ने एक दिन बहुत जिरह की की क्यों नहीं लिख रही...उसकी जिद पर समझ आया पूरी तरह से की मेरे किरदार कहीं चले गए हैं. पुराने मकान की तरह खाली पड़ी है नयी कॉपी...बस तुम और मैं रह गए हैं. कैसे लिखूं कहानी मैं...कविता भी कहीं दीवारों में ज़ज्ब हो रही है. अबके बरसात सीलन बहुत हुयी न. सो.
बहुत साल पुरानी बात लगती है...मैं एक कवि को जाना करती थी...बहुत साल हो गए, जाने कौन गली, किस शहर है. पता नहीं उसने कभी मुझे ख़त लिखे भी या नहीं. वो मुझे नहीं जानता, या ये जानता है कि मैंने उसके कितने ख़त जाने किस किस पते पर गिरा दिए हैं. उसके पास तो मेरा पता नहीं है...उसे मेरा पता भी है क्या भला? चिठ्ठीरसां- क्या इसका मतलब रस में डूबी हुयी चिठियाँ होती हैं? पर शब्द कितना खूबसूरत है...अमरस जैसा मीठा.
मैं किसी को जानती हूँ जो किसी को 'मीता' बुलाता है...उसका नाम मीता नहीं है हालाँकि...पहले कभी ये नाम खास नहीं लगा था...पर जब वो बुलाता है न तो नाम में बहुत कुछ और घुलने लगता है. नाम न रह कर अहसास हो जाता है...अमृत जैसा. जैसे कि वो नाम नहीं लेता, बतलाता है कि वो उसकी जिंदगी है. उसकी. मीता.
आजकल खुद को यूँ देखती हूँ जैसे बारिश में धुंध भरे डैशबोर्ड की दूसरी तरफ तेज रोशनियाँ...सब चले जाने के बाद क्या रह जाता है...परछाई...याद...दर्द...नहीं रे कवि...सब जाने के बाद रह जाती है खुशबू...पूजा के लिए लाये फूल अर्पित करने के बाद हथेली में बची खुशबू. मैं तुम्हें वैसे याद करुँगी. बस वैसे ही.
खुशबू भीनी-भीनी.
ReplyDeleteहाँ! होता है ऐसा एक बार नहीं कई बार .....मेरे साथ ऐसे अंतराल चलते रहते हैं......शब्द कहीं जाते नहीं .....शायद हमें मौका देते हो मिस करने का.....दूरी के बिना रिश्तो की बाइंडिंग का एहसास ही कहाँ होता है ....लेकिन जब शब्द गुमशुदा है आखर सारे तो ये हाल है.....जों मिलेंगे तो क्या करोगी ....शायद इसीलिए गर्मियों की छुट्टियाँ मनाने चले गए हो :-)
ReplyDeleteमीर का शेर है--
ReplyDeleteयाद उसकी इतनी खूब नहीं,मीर बाज़ आ,
गर याद आ गया तो भुलाया न जायेगा .
खूबसूरत गद्य है.
जब कवि टूट जाता है,
ReplyDeleteलेखन रूठ जाता है।
ऐसी ही मरुभूमि यहाँ भी फैल गयी है, बंगलोर की बारिश भी निष्प्रभ है।
न जाने कितने कवि, कितने चित्रकार, कितने पियानो बजाने वाले केवल खुशबू की तरह पीछे छूट जाते हैं! जिनसे जिंदगी महकती रहती है जिंदगी भर!
ReplyDeleteइस्स...
ReplyDeleteअमरस जैसा ही आलेख.
ReplyDeleteसबकी तरह मई भी आपकी रचना की तारीफ में कसीदे पढने को मजबूर हो गया.. वाह-वाह मजा आ गया..पूजा जी आपकी लेखनी ने मुझे निशब्द कर दिया..
ReplyDeleteमेरा भी एक ब्लॉग है. कभी फुर्सत मिले तो आना.इन्तेजार रहेगा..
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behatreen lekhan.
ReplyDeleteतुम्हारी रचनाएँ हमेशा ही अनूठी होती हैं....पूजा के फूलों की खुशबू की तरह तुम्हारी ये कृतियाँ साहित्य की दुनिया को सुवासित करती रहे यही शुभकामना है...:-)
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