02 April, 2019

खिलते फूलों वाले शहर

फूलों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, जैसे कि वसंत कितना कम वक़्त के लिए आता है किसी पेड़ पर, मगर क्या लहक के सुर्ख़ रंग बिखेरता है। देखो ऊपर तो आसमान भी गहरा लाल दिखे। और फिर पूरा पौधा सुर्ख़ लाल लगे, ऐसे सेमल या कि पलाश बहुत ज़्यादा दिन खिले नहीं रहते।

दिल्ली से गए कितना कम वक़्त हुआ लेकिन देखती हूँ सेमल के जिन पेड़ों को कितनी कितनी देर तक देखती रही थी कि इस सुर्ख़ रंग से थोड़ा सा इश्क़ रच सकूँ, उन पर अब एक भी लाल फूल नहीं दिखता, बल्कि छोटे छोटे हरे पत्ते खिल रहे हैं। क्या कहानियाँ ऐसे ही शुरू होती हैं?

इक कैफ़े कई साल से देख रही थी और सोच रही थी जाने का, लेकिन जाने तो कैसे वहाँ का मुहूर्त ही नहीं बनता था। कुछ यूँ कि वहाँ जाते जाते कहीं और को निकल जाते। आज कहीं और के लिए निकले थे और ज़रा सा वो कैफ़े जाने का मन कर गया तो चले गए। कि कैफ़े का नाम सही था, फ़र्ज़ी कैफ़े।

पिछले हफ़्ते इसी कैफ़े के पास सेमल खिले हुए थे। मैंने कितनी तो तस्वीरें उतारी थीं। आज कैफ़े गयी तो खिड़की से बाहर देखा, सोचा, खिले सेमल के मौसम में आऊँगी कभी। इसी खिड़की पर। देखूँगी कि धूप में लाल होता सेमल कैसा दिखता है इस खिड़की से। जिस दोस्त के साथ थी, उसे भी किसी और दोस्त की बेतरह याद आयी। हम इस वसंत की इस दोपहर किसी फ़िल्म के सीन को डिस्कस करते हुए जाने किन लोगों को याद कर रहे थे। मैं भी किसी और के बारे में सोच रही थी। किसी दूर देश में पी हुयी ऐब्सिन्थ के बारे में। किसी दूर दोपहर जी हुयी ज़िंदगी के बारे में।

हम किसके जीवन में कहाँ कहाँ रह जाते हैं, हमें ख़ुद भी मालूम नहीं होता। मैंने कभी किसी को एक फैबइंडिया का पर्फ़्यूम दिया था। मेरी थोड़ी आदत है कि जो चीज़ बहुत अच्छी लगती है, वो दोस्तों के लिए भी ख़रीद लेती हूँ। ख़ास तौर से ख़ुशबुएँ बहुत पसंद हैं मुझे। लैवेंडर इत्र कलाइयों पर रगड़ती हुयी सोचती हूँ जो किसी चिट्ठी में मेरी कलाइयों की गंध आएगी, कैसी आएगी? स्याही और काग़ज़ से धूप में मिलती हो, ज़रा ज़रा फीकी…वैसी? किसी की याद में कैसी दिखती रही होऊँगी मैं।

मैंने कई दिन से कहानी नहीं लिखी। सारे किरदार रूठ गए हैं। या कि मैं ख़ुद में इतनी उलझी हूँ कि अपने आसपास के किरदारों को देख नहीं पा रही। दिल्ली में गुज़रता हर शख़्स मुझे किसी कहानी का हिस्सा लगता है। आज जैसे स्टारबक्स में थी, दो लड़के ऐसे तन्मय हो कर बात कर रहे थे कि मुझे भारी कौतुहल हुआ कि वे क्या बात कर रहे होंगे। उनके चेहरों के बीच बमुश्किल छह इंच का फ़ासला होगा। उनकी हँसी साझी थी, आँखों की चमक भी एक दूसरे में रेफ़्लेक्ट कर रही थी। मैं सुन सकती थी कि वे क्या कह रहे हैं और समझ भी सकती थी…लेकिन मैंने ऐसा किया नहीं। मैं बस रौशनी में खड़ी, मुस्कुरा रही थी, कि मैं उनकी कहानी से ज़रा सा दूर हूँ…इसलिए नहीं कि मैं उनकी भाषा नहीं जानती, बल्कि इसलिए कि मैं नहीं चाहती कि उनकी कहानी उस कहानी से अलग हो, जो मैंने मन में सोच रखी है। दो मर्द जो प्रेम में हों, मैंने कभी रियल ज़िंदगी में नहीं देखे हैं। मेरे ख़यालों के शहर में वे एक प्रेमी जोड़ा हैं जो किसी दोपहर का वायलेंट प्रेम डिस्कस कर रहे हैं और उनके साँवले चेहरे कत्थई हो रहे हैं। कल फ़्लाइट में आते हुए एक पुरानी कहानी पढ़ रही थी, अधूरी ही, उसमें एक लड़का लड़की को उलाहना दे रहा है कि बटन तोड़ने का इतना ही शौक़ है तो बटन टाँकने भी सीख लो, कितने शर्ट फेकूँ ऐसे मैं और लड़की हँसती हुयी कहती है, कभी ना कभी तंग आ कर टीशर्ट पहनना शुरू कर दोगे। मुश्किल ख़त्म। कितने प्यारे किरदार थे वो…और कैसी मीठी दोपहर जिसमें उनकी कहानी उभरी थी ख़याल में। कहानी जो ज़रा सी लिख के छोड़ दी।

दिल्ली में इतने रंग हैं कि मैं घर लौटती हूँ तो लगता है होली खेल के लौटी हूँ। पूरे देश के लोग आ के यहाँ रहते हैं तो चेहरों में इतनी विविधता, हेयर स्टाइल्ज़ में, कपड़ों में…यहाँ तक कि चेहरों पर आते भाव भी अलग अलग दिखते हैं। कभी कभी लगता है मैं कोई छायाकार हूँ। स्टिल लाइफ़ फ़ोटोग्राफर। मेरी कल्पना के शहर गुम हो रहे हैं…उनमें इश्क़ करने वाले लोग भी।

गरमी आ गयी है लेकिन अभी भी ज़रा ज़रा ठंड धप्पा कर देती है किसी पीले फूलों से ढके पेड़ों वाली सड़क पर, शाम टहलते हुए। मैं दूर से देखती सोचती हूँ, पिछले हफ़्ते तो ये ज़रा भी यहाँ नहीं था। ये कैसे अचानक से खिलता है…और कौन सा पेड़ है ये, नाम क्या है इसका। मगर पास नहीं जाती हूँ। कहीं जाने को देर हो रही है। दिल्ली अभी भी, और शायद हमेशा, मेरी जान रहेगी। 'शायद हमेशा', कितना सुंदर कॉम्बिनेशन है ना। इश्क़, उस एक से...कि जो जादू है...तिलिस्म है...शैदा...कितने शब्दों तक पहुँची हूँ, कि उसने ऊँगली थाम कर दिखाया है रास्ता... और कभी कभी ख़ुद तक भी तो उसकी कविता से पहुँचती हूँ। कि उसकी कविताओं में एक पगडंडी होती है जो मेरे मन में उतरती है। कि हर मौसम मिज़ाज ज़रा सी विस्की, ज़रा सी ऐब्सलूट और एक क्लासिक माइल्ड्स माँगने लगता है... वो धुएँ से उभरता है, महबूब... और लगता है कि इश्क़ अगर दुनिया के किसी शहर में अब भी जिया जा सकता है तो वो शहर सिर्फ़ और सिर्फ़ दिल्ली ही है।

पिछली बार आयी थी तो शेखर से पहली बार मिली थी। हम सीपी के पार्क में बैठे रहे थे पूरी शाम, ऐसे ही, बातें करते। वो अपने दोस्त के साथ आया था। मैंने उस दिन कह दिया था, आज मैं बातें सुनूँगी नहीं, बस कहूँगी…सुनोगे तो ठीक, वरना मैं स्टारबक्स में जा के लिख भी सकती हूँ। इस लड़के ने कई कई लोगों को तीन रोज़ इश्क़ पढ़ायी है। मन था उससे मिलने का…उस मुलाक़ात के बारे में फिर कभी। वो अनंतनाग में रहता है। आज उसकी whatsapp स्टोरी पर खुबानी के फूल देखे…ओह, कितने प्यारे गुलाबी, कैसे नाज़ुक और कितने ही सुंदर… इतने सुंदर कि अगली गाड़ी पकड़ के कश्मीर जाने का मन कर जाए। इतने सुंदर। हमारी ज़िंदगी में जो लोग आते हैं, वे कौन से रंग जोड़ेंगे हमारे आसमान में, हम नहीं जानते।

वे तस्वीरें अपने दूसरे पसंदीदा शहर भेज दीं। ख़ूबसूरती बाँटनी चाहिए। इस दुनिया में ज़रा सी हँसी, ज़रा सा प्यार, ज़रा सी ख़ूबसूरत तस्वीरें ही तो हैं…

4 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 02/04/2019 की बुलेटिन, " २ अप्रैल को राकेश शर्मा ने छुआ था अंतरिक्ष - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर पूजा जी...मन खुश हो गया पढ़ कर

    ReplyDelete
  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 4.4.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3295 में दिया जाएगा

    धन्यवाद सहित

    ReplyDelete

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...