उससे बात करते हुए अक्सर माँ की याद आती है। माँ के जाने के साथ मेरे जैसी एकदम ज़िद्दी लड़की की सारी ज़िद एकदम हाई ख़त्म हो गयी। मैं इतनी समझदार हो गयी कि कभी किसी चीज़ के लिए किसी को दुबारा कहा भी नहीं। उसके जाने के हाई बाद मैं बहुत fiercely इंडिपेंडेंट भी हो गयी, किसी से ज़रा सी भी मदद माँगने में मेरी मौत आती है। मुझे कमज़ोर हो जाने से डर लगता है। मैं किसी से एक ग्लास पानी भी माँग नहीं सकती। पिछले साल पैर टूटने के बाद मैंने थोड़ा सा ख़ुद को बदला, कि अगर ख़ुद से नहीं कर सकते तो ज़रा सा किसी से पूछ सकते हैं…कमज़ोर होना इतना डरावना भी नहीं।
बहुत साल पहले उसने एक दिन कहा था, ‘मैं तुम्हारा मायका हूँ, तुम अपने को इतना अकेला मत समझा करो। मैं काफ़ी हूँ तुम्हारे लिए’। मैं कैसी कैसी चीज़ें पूछती थी उससे। धनिया पत्ता की चटनी में डंडी डालेंगे या सिर्फ़ पत्ते। उस वक़्त जब कि मेरी पूरी दुनिया में कोई भी नहीं था, वो मेरी दुनिया में आख़िरी था जो मेरे साथ खड़ा था…last man standing. उसके लिए ये इतनी ही छोटी सी बात थी, जितनी मेरे लिए बड़ी बात थी। वो सिर्फ़ मेरे प्रति थोड़ा सा काइंड था लेकिन उसकी इस ज़रा सी काइंडनेस ने मेरी दुनिया सम्हाल रखी थी। आप कभी कभी नहीं जानते इक आपके होने से किसी की ज़मीन होती है पैर के नीचे। मैं उसे कभी भी ठीक समझा नहीं सकती कि वो क्या था, है।
अंग्रेज़ी में एक शब्द होता है, pamper … हिंदी में जिसे लाड़ कहते हैं। या थोड़ा और बोलचाल की भाषा में, माथा चढ़ाना। मैं कई सालों से इस शब्द के दूसरे छोर पर हूँ। जिनसे भी मैंने कभी प्यार किया है, वे जानते हैं कि मेरे लिए सब कुछ उनके लिए होता है। शॉपिंग करने गयी तो अपने से ज़्यादा उनके लिए सामान ख़रीद लाऊँगी। चिट्ठियाँ, रूमाल, किताबें, अच्छे काग़ज़ वाली नोट्बुक, झुमके, बिंदी, फूल … सब कुछ होता है मेरे इस लाड़-प्यार-दुलार में। घर में जो छोटे हैं उन्हें इसी तरह मानती हूँ बहुत। उनकी पसंद की चीज़ मालूम होती है। उनके पसंद के रंग, उनके पसंद के फूल। मगर इस शब्द के दूसरी ओर नहीं रही मैं कितने साल से। कि ज़िद करके कह दूँ, मैं नहीं जानती कुछ, बस, चाहिए तो चाहिए।
वो मुझे मानता है। पैम्पर करता है। इक छोटी सी चीज़ थी, कि शाम मेरे हिसाब से चल लो, घूम लो… और उसने हँस के कह दिया, लो, शाम तुम्हारे नाम… जो भी कहोगी, आज सब तुम्हारी मर्ज़ी का। आइसक्रीम खाओगी, ठीक है… यहाँ से फ़ोटो खींच दूँ, ठीक है…. ऊपर सीढ़ियों पर जाना है, ठीक है… बैठेंगे थोड़ी देर… ठीक है। कभी कभी जैसे ज़िंदगी भी कहती है, लो आज तुम्हारी सारी माँगें मंज़ूर। कि मैं वैसे भी बहुत छोटी छोटी चीज़ों में ख़ुश हो जाती हूँ। वो बिगाड़ रहा है मुझे। मैं कहती हूँ, सर चढ़ा रहे हो, भुगतोगे। वो हँसता है कि तुम क्या ही माँग लोगी।
मैं एक दिन उसके गले लग के ख़ूब ख़ूब रोना चाहती हूँ कि मम्मी की बहुत याद आती है। कब आएगा वो टाइम, कि जिसके बारे में लोग कहते थे कि वक़्त के साथ सब ठीक हो जाएगा। इतनी severe ऐंज़ाइयटी होती है। सुबह, शाम, रात। तुम ज़रा सा रहो। इन दिनों। कि जब थोड़ा चैन आ जाएगा, तब जाना।
उसे फ़ोन करती हूँ तो न हाय, हेलो, ना मेरा नाम… बस, हम्म… और मैं हँस देती हूँ… कि पहले फ़ोन करती थी तो बस इतना ही था, ‘बोलो’… मैं कहती थी तुम न मुझे रेडियो की तरह ट्रीट करते हो, कि बटन ऑन करोगे और सब ख़बरें मिल जाएँगी। उसका होना अच्छा है। उसका होना मुझे बचाए रखता है।
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