ज्यादा नहीं लगती थी दूरी
IIMC के हॉस्टल से पैदल
गंगा ढाबा तक की
रात के कितने बजे भी
क्योंकि जानती थी
सड़कों के ख़त्म होने पर
दोस्त इंतजार करते होंगे
कि सर्द रातों में मिलेगी गर्म कॉफ़ी
और उससे भी जलती बहसें
कि वापस कोई आएगा साथ
सिर्फ रास्ते का अकेलापन बांटने के लिए
कि बारिश हुयी तो
खुल जायेंगे किसी भी होस्टल के दरवाजे
कि पार्थसारथी जाने के लिए
कोई रोकेगा नहीं
किसी के साथ घूमते रहने भर से
नहीं चुभेंगी शक की निगाहें
तब हुआ करती थी
हर पगडंडी की अलग खुशबू
किसी आने वाले कल में
मांगी जायेगी पहचान
JNU में अन्दर जाने के लिए भी
पार्थसारथी पर बैठा होगा दरबान
लुप्त हुए पगडंडियों के अवशेष
अकेले ढूँढने पड़ेंगे
कॉफ़ी का बिल चुकाने के लिए
किसी से झगड़ना नहीं होगा
कोई बताने वाला नहीं होगा
कि टेफ्ला की कौन सी डिश सबसे अच्छी है
बारिशों के लिए
लेकर जाना होगा छाता
घबराहट होती है
कि कैसा होगा
अकेले उन्ही रास्तों पर चलना
ये जानते हुए कि मेन गेट पर
भी कोई नहीं होगा
कि कितना दर्द होगा
कि कैसी आह होगी
सभी यादों को दफना दूं
कोई कब्रगाह होगी?
पूजा जी, यादों को दफनाने की अगर कोई कब्रगाह होती, तो फिर लोग शायर और कवि न बनते।
ReplyDeleteबहुत संदर भाव हैं, बधाई स्वीकारें।
................
वर्धा सम्मेलन: कुछ खट्टा, कुछ मीठा।
….अब आप अल्पना जी से विज्ञान समाचार सुनिए।
आपने ठीक ही कहा है, यादों को दफनाने के लिए कोई कब्रगाह नहीं, इन्हें तो ज़िंदगी भर यूहीं सहेज कर रखना होगा, 'ढोना होगा' इसलिए नहीं कह रहा क्योंकि कुछ खास है इनमें वर्ना शायद ज़ेहन में ना रहती...
ReplyDeleteखैर जो भी है, दोस्तों के साथ कॉफी पिने का लुत्फ़ और ही है और हाँ फिर बिल के लिए होता TTMM यानी 'तू तेरा दे मैं मेरा दूँ'
मनोज
sundar lekhan
ReplyDeletehttp://sanjaykuamr.blogspot.com/
मनोभावों की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteमन में बने पुराने छापे को बदलते देखने की पीड़ा गहरी है मैडम।
ReplyDeletepuranee yade ye to anmol khazana hai.............
ReplyDeletetanhaaee me jo muskurahte aakar chehre par khelatee hai vo inhee kee karamat hai...........
'दिल्ली' गद्य और अब कविता. कहा जाता है कि शहर को आप कितना पहचानते हैं, इसके साथ जरूरी है कि शहर आपको कितना पहचानता है. और 'फूल खिले शाखों पे नये ...'
ReplyDeleteयादों की सही जगह कब्रगाह नहीं, कविता की डायरी है...भावों का शब्दों में बेहतरीन अनुवाद।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteयादें तो हमारे जीवन का मूल है बाकी सब तो नष्ट हो जाता है..बच जाती हैं तो बस यादें..इनके लिए क्यूँ कब्रगाह हो....
ReplyDeleteधुत ई का बोल रही हैं.. हम तो बहुते खुश रहते हैं इन यादों से...
मेरे ब्लॉग में इस बार...ऐसा क्यूँ मेरे मन में आता है....
bahut achhi poem....
ReplyDeletebut ur abt me
is most impressive.
i hv also some dreams like u.
अपने ज़ोन से अलग.....अलग पूजा .
ReplyDelete.. उस दुनिया में जाकर उसे वैसी ही ढूंढना ...सिर्फ नोस्टेलजिक ही हुआ जा सकता है ....मेरे लिए कविता यही ख़तम हो जाती है
घबराहट होती है
कि कैसा होगा
अकेले उन्ही रास्तों पर चलना
ये जानते हुए कि मेन गेट पर
भी कोई नहीं होगा
.....और मै इसे यही रोक देना चाहता हूँ.....
mujhe ye yaad rahta hai ..mujhe kuch bhool jana hai....
ReplyDeleteaapki ye collage ki baate to hammari aankhe roj gili karti hai .........aapki baato ki wajhe se hammari aankho ko kitana dard hota hai.........
ReplyDeleteपूजा जी ये जानकर अच्छा लगा कि आप JNU से हैं। सच में वहाँ कुछ खास है, जो हमेशा पग पर याद आता है। JNU का प्राकृतिक परिवेश, कभी भी चाय-कॉफी पीना, कभी भी निश्चिन्त होकर घूमना, लम्बी काली सड़कें, अमलतास से लदी डालियाँ, घण्टों बहस,एसैनमेण्ट, टर्मपेपर, सेशनल्स की चिंता, व्यस्तता के बीच देर रात तक जगना, पब्लिक मीटिंग, प्रोटेस्ट मार्च, खासकर वहाँ छात्रसंघ चुनाव, उसके परिणाम की प्रतीक्षा चाय की चुसकियों के साथ......और बहुत कुछ............अपनी ओर बरबस आकर्षित करता है।
ReplyDeleteआपका लेखन बहुत भावपूर्ण है.........................जे एन यू हैी ऐसा जिसे याद किया जाये। इस कविता का मर्म वही समझेगा जिसने जे एन यू में स्वतन्त्रता एवं बौद्धिकता को जिया है।
ReplyDeletebehad khubsurat rachna mere blog par aapka swagat hai.....
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