"दो दिन में तुम क्या सब-कुछ जान सकते हो?" फिर कुछ देर बाद हँसकर उसने मेरी ओर देखा, "यही अजीब है।" उसने कहा, "हम एक दूसरे के बारे में कितना कम जानते हैं!"
"मैंने कभी सोचा नहीं..."
"मैंने भी नहीं..." उसने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, "इससे पहले मुझे या ख़याल भी नहीं आया था।"
"तुम्हें यह बुरा लगता है...इतना कम जानना...!"
"नहीं..." उसने कहा, "मुझे यह कम भी ज़्यादा लगता है..." वह मीता के बालों से खेलने लगी थी।
"हम उतना ही जानते हैं, जितना ठीक है।" कुछ देर बाद उसने कहा।
"मैं यह नहीं मानता।"
"यह सच है..." उसने कहा, "तुम अभी नहीं मानोगे...पहले हम नहीं सोचते...बाद में, इट इज़ जस्ट मिज़री..."
उसका स्वर भर्रा सा-सा आया। मैंने उसकी ओर नहीं देखा। मिज़री...मुझे लगा जैसे यह शब्द मैंने पहली बार सुना है।
"तुम विश्वास करते हो?"
"विश्वास...किस पर?" मैंने तनिक विस्मय से उसकी ओर देखा।
"वे सब चीज़ें...जो नहीं हैं।"
"मैं समझा नहीं।"
वह हँसने लगी।
"वे सब चीज़ें जो हैं...लेकिन जिनसे हमें आशा नहीं रखनी चाहिए...।"
उसका सवार इतना धीमा था कि मुझे लगा जैसे वह अपने-आप से कुछ कह रही है...मैं वहाँ नहीं हूँ।
धुंध उड़ रही थी। हवा से नंगी टहनियाँ बार-बार सिहर उठती थीं। कहीं दूर नदी पर बर्फ़ टूट जाती थी और बहते पानी का ऊनींदा-सा स्वर जाग उठता था।
- वे दिन ॰ निर्मल वर्मा
***
इस साल के अंत में कुछ ऐसा हुआ कि पोलैंड जाने का प्रोग्राम बनते बनते रह गया।क्रैको से प्राग सिर्फ़ तीन सौ किलोमीटर के आसपास है। मैं सर्दियों में प्राग देखना चाहती हूँ। कैसल। नदी। ठंढ। मैं अपनी कहानियों में उस शहर में तुम्हारे लिए कुछ शब्द छोड़ आती हूँ। तुम फिर कई साल बाद जाते हो वहाँ। उन शब्दों को छू कर देखते हो। और मेरी कहानी को पूरा करने को उसका आख़िरी चैप्टर लिखते हो।
साल की पहली बर्फ़ गिरने को उतने ही कौतुहल से देखते होंगे लोग? जिन शहरों में हर साल बर्फ़ पड़ती है वहाँ भी? क्या ठंढे मौसम की आदत हो जाती है? मैं क्यूँ करती हूँ उस शहर से इतना प्यार?
मैंने बर्फ़ सिर्फ़ पहाड़ों पर देखी है। समतल ज़मीन पर कभी नहीं। शहरों में गिरती बर्फ़ तो कभी भी नहीं। पहाड़ों पर यूँ भी हमें बर्फ़ देखने की आदत होती है। घुटनों भर बर्फ़ में चलना वो भी कम ऑक्सिजन वाली पहाड़ी हवा में, बेहद थका देने वाला होता है। मुझे याद है उस बेतरह थकान और अटकी हुयी साँस के बाद पीना हॉट चोक्लेट विथ व्हिस्की। वो गर्माहट का बदन में लौटना। साँस तरतीब से आना। वहाँ रेस्ट्रॉंट में कई सारे वृद्ध थे। जो बाहर जाने की स्थिति में नहीं थे। उनके परिवार के युवा बाहर बर्फ़ में खेल रहे थे। मैंने वहाँ पहली बार इतनी बर्फ़ देखी थी। स्विट्सर्लंड में। zermatt और zungfrau।
शायद मुझे जितना ख़ुद के बारे में लगता है, उससे ज़्यादा पसंद है ठंढ। दिल्ली की भी सर्दियाँ ही अच्छी लगती हैं मुझे। फिर पिछले कई सालों में दिल्ली गयी कहाँ हूँ किसी और मौसम में।
कल पापा से बात करते हुए उनसे या ख़ुद से ही पूछ रही थी। हमें कोई शहर क्यूँ अच्छा लगता है। आख़िर क्या है कि प्यार हो जाता है उस शहर से। मुझे ये बात याद ही नहीं थी कि न्यू यॉर्क समंदर किनारे है। या नदी है उधर। पता नहीं कैसे। मैं वहाँ सिर्फ़ म्यूज़ीयम देखने गयी थी। मेट्रो से अपने होटेल इसलिए गयी कि मेट्रो और टैक्सी में बराबर वक़्त लगेगा। ये तो भूल ही गयी कि टैक्सी से जाने में शहर दिखेगा भी तो। जब कि अक्सर तुमसे बात होती रही तुम्हारे शहर के बारे में।फिर वो सारा कुछ किसी काल्पनिक कहानी का हिस्सा क्यूँ लगता रहा?
किताबों और शहरों से मुझे प्यार हो जाता है। धुंध से उठती धुन की एक कॉपी लानी है मुझे तुम्हारे लिए। पता नहीं कैसे। फिर उस कॉपी को तुम्हें देने के लिए मिलेंगे किसी शहर में। जैसे 'वे दिन' के साथ हुआ था। कुछ थ्योरीज कहती हैं कि हर चीज़ में जान होती है। पत्थर भी सोचते हैं। किताबें भी। तो फिर तुम्हारे पास रखी हुयी इस किताब के दिल में क्या क्या ना ख़याल आता होगा?
कुछ किताबें होती हैं ना, पढ़ने के बाद हम उन्हें अपने पसंदीदा लोगों को पढ़ा देने के लिए छटपटा जाते हैं। कि हमसे अकेले इतना सुख नहीं सम्हलता। हमें लगता है इसमें उन सबका हिस्सा है, जिनका हममें हिस्सा है। जो हमारे दुःख में हमें उबार लेते हैं, वे हमारे सुख में थोड़ा बौरा तो लें।
वे दिन ऑनलाइन मंगाने के पहले सोचा था तुमसे पूछ लूँ, तुमने नहीं पढ़ी है तो एक तुम्हारे लिए भी मँगवा लेंगे। फिर तुमने सवाल देखा नहीं तो मैंने दो कॉपी ऑर्डर कर दी थी। कि अगर अच्छी लगी तो तुम्हें भी भिजवा दूँगी। इस साल कैसी कैसी चीज़ें सच होती गयीं कि पूरा साल ही सपना लगता है। कितनी सुंदर थी ज़िंदगी। कितनी सुंदर है। अपने दुःख के बावजूद। अपने छोटे छोटे सुख में बड़े बड़े दुखों को बस थोड़ी सी शिकन के साथ जी जाती हुयी। शिकायत नहीं करती हुयी।
मुझे ट्रैंज़िट वाली चीज़ें बहुत अच्छी लगती हैं। ये सोचना कि कोई पोस्टकार्ड नहीं होगा। किसी ने उसे उठाया होगा और मेल में अलग रखा होगा, सॉर्ट किया होगा शहरों के हिसाब से। कितने लोगों के हाथों से गुज़रा होगा काग़ज़ का एक टुकड़ा, तुम्हारे हाथों तक पहुँचने के पहले। एक दोस्त को कुछ किताबें भेजी हैं। वे उसके शहर के पोस्ट ऑफ़िस के लिए बैग कर दी गयी हैं। मैं अभी से उसके चेहरे के हाव-भाव सोच कर मुस्कुरा रही हूँ। क्या उसे अच्छा लगेगा? क्या वो नाराज़ होगा? क्या मैं बहुत ज़्यादा फ़िल्मी हूँ?
इतना पता है कि मुझे ज़िंदगी को थोड़ा और ख़ूबसूरत बनाना अच्छा लगता है। दो तरह के लोग होते हैं, एक वे, जो दुनिया को वही लौटाते हैं जो दुनिया ने उन्हें दिया...एक वो जो दुनिया को वो लौटाते हैं जो वे ख़ुद चाहते रहे हैं हमेशा। मैं दूसरी क़िस्म की हूँ। मुझे अच्छा लगता है ये सोच कर कि कोई मेरे लिए फूल ख़रीदेगा। मुझे वो सजीले गुलदस्ते उतने पसंद नहीं, लेकिन ज़रबेरा, लिली, और कभी कभी कार्नेशन अच्छे लगते हैं। मैं अपने दोस्तों के लिए अक्सर फूल ख़रीद कर ले जाती हूँ। कि उन्हें अच्छा लगता है। मैं कोई कुरियर भेजती हूँ तो सुंदर पैकिजिंग करती हूँ। चिट्ठियाँ लिखने के लिए सुंदर काग़ज़ दुनिया भर से खोज कर लाती हूँ। मुझे ये सोच कर अच्छा लगता है कि मैंने किसी को कुछ भेजा तो रैंडम नहीं भेजा...कुछ ख़ास भेजा। कुछ प्यार से भेजा। कुछ ऐसा भेजा जो देख कर कोई मुस्कुराए। कि किसी को चिट्ठी लिखना इतना ख़ास क्यूँ है मालूम? कि इस भागदौड़ की मल्टी-टास्किंग दुनिया में कोई घंटों आपके बारे में सोचता रहा और काग़ज़ पर उतरता रहा क़रीने से शब्द... सलीक़े वाली अपनी बेस्ट हैंडराइटिंग में।
और तुम्हें पता है। बहुत सालों में एक तुम्हीं हो, जिसे कहा है, एक चिट्ठी लिखना मुझे। चिट्ठी। 'वे दिन' में रायना कहती है, वे चीज़ें जो हैं तो, लेकिन उनसे आशा नहीं रखनी चाहिए। सबके पास फ़ुर्सत का अभाव है। समय बहुत क़ीमती है। उसमें भी व्यस्त लोगों का समय। लेकिन फिर भी। मैं तुमसे इतनी सी चाह रखती हूँ कि तुम मुझे एक चिट्ठी लिखोगे कभी।
तुमने किसी को आख़िरी बार हैप्पी बर्थ्डे वाला कार्ड कब दिया था? या नए साल पर? मेरा मन कर रहा है कि बचपन की तरह काग़ज़, स्केच पेन, ग्लिटर, स्टिकर और रंग बिरंगी चिमकियाँ ख़रीद कर लाऊँ और एक कार्ड बनाऊँ तुम्हारे लिए। शायद मेरे पास कुछ अच्छे शब्द हों तुम्हारे नाम लिखने को। पता है, मैं और मेरा भाई अपने स्कूल टाइम तक अपने स्कूल फ़्रेंड्ज़ को नए साल पर कार्ड देते थे। फिर हर नए साल की सुबह दोनों अपने अपने कार्ड जोड़ते थे कि किसको ज़्यादा कार्ड मिले। फिर उन कार्ड्ज़ को डाइऐगनली स्टेपल कर के हैंगिंग सा बनते थे और कमरे की दीवार पर चिपका देते थे। मुझे वे दिन याद आते हैं। तुम मुझे मेरा बचपन बहुत याद दिलाते हो। जैसे कि पता नहीं कोई दूर दराज़ के रिश्ते में लगते हो कुछ, ऐसा। कि हमारे बचपन का कोई हिस्सा जुड़ना चाहिए कहीं। या कि हम किसी शादी में मिलें अचानक और कोई नानी बात करते करते बतला दे, अरे ऊ घोड़ीकित्ता वाली तुमरे पापा की फुआ है ना...उसी के दामाद के साढ़ू का बेटा है...ऐसे कोई तो उलझे रिश्ते जो इमैजिन करने में कपार दुखा जाए।
हमको भागलपुरी बोलना आज तक नहीं आया ढंग से लेकिन ठीक ठाक भोजपुरी बोलने लगे थे एक समय में। संगत का असर। फिर कुछ लोग डाँटे कम, प्यार से बात ज़्यादा किए। फिर कितने नए शब्द होते हैं हमारे बीच। Kenopsia. Moment of tangency. Caramel। हर शब्द में एक कहानी।
मैंने ज़िंदगी जितनी सच में जी है, उससे कहीं ज़्यादा याद में और कल्पना में जी है। सपने में और पागलपन में भी। मगर कितनी सारी चीज़ें जो कहीं नहीं हैं, ऐसे मेरे शब्दों में रहती हैं। कितने चैन से। कितने इत्मीनान से।
तुम भी तो।
ढेर सारा प्यार।
लो आज मेरे शहर का पूरा आसमान तुम्हारे नाम। इसके सारे रंग तुम्हारे। बादलों में बनते सारे हसीन नज़ारे और नीले रंग में मुस्कुराता आसमान, सूरज, चाँद सब।
***
एक मुस्कुराता पौधा
जिसके दिल की आकृति वाले पत्ते
धूप में छप-छप करते
खिड़की पर नहा रहे हैं
ऐसे ही सुख से
मेरे दिल को सजाता है
तुम्हारा प्यार
जिसके दिल की आकृति वाले पत्ते
धूप में छप-छप करते
खिड़की पर नहा रहे हैं
ऐसे ही सुख से
मेरे दिल को सजाता है
तुम्हारा प्यार
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