05 December, 2017

फुटकर चिप्पियाँ : #simpleharmonicmotion

'तुम ये बाल धो कर मुझसे मिलने आना बंद करो'
'क्यूँ? मेरे बाल धोने से टेक्टानिक प्लेट्स में हलचल होती है? भूकम्प आते हैं?'
'नहीं। ईमान डोलता है। वो भूकम्प से ज़्यादा ख़तरनाक है'
'है तो सही'
'क्या लगाती हो तुम बालों में आख़िर? कौन सा शैंपू है ये?'
अब उसे कौन बताए कि लड़की कोई साधारण लड़की तो है नहीं, मेरी कहानी का किरदार है। उसकी रगों में इत्र दौड़ता है। चाँद से मीठी। प्यास सी तीखी। रूद्र की इतरमिश्री। मेरी इतरां।
इतरां मुस्कुरायी और बालों से जूड़ा पिन निकाला। उसके कमर तक लम्बे बाल हवा में झूम गए। इतरां अपना चेहरा लड़के के एकदम क़रीब लायी, एक बदमाश लट उसके गालों में गुदगुदी करने लगी। हौले से इतरां ने उसके कानों में कहा...
'शैंपू नहीं मेरी जान, अफ़ीम...मेरे बालों से अफ़ीम की गंध उड़ती है'।
***
ये दिन ख़तरनाक हैं। 
'प्यार', 'प्रेम', 'इश्क़' जैसे शब्दों का मनमाना इस्तेमाल कर रही हूँ कि जैसे ना ये शब्द ख़त्म होंगे, ना मेरे दिल में प्रेम। 
एक स्त्री का हृदय अक्षयपात्र था। उसमें प्रेम कभी ख़त्म नहीं होता। कभी कभी वह भूखी सो जाती क्यूँकि उसकी इच्छा नहीं होती एक चुम्बन चखने की भी। लेकिन कभी कभी वह दोनों हाथों से प्रेम उलीचती। उसकी छोटी छोटी हथेलियों में कितना ही प्रेम आ सकता...उसके छोटे से हृदय में कितना अपार प्रेम था। समंदर जितना। 
इन दिनों मैं वह औरत हुयी जाती हूँ। इन दिनों प्रेम और मैं अलग नहीं...इन दिनों भय को निष्कासित कर दिया गया है उदास और तनहा रेगिस्तान में। इन दिनों कोई नहीं है और बहुत लोग हैं। 
इन दिनों, मैं वो उजड़ा हुआ गाँव हूँ जहाँ आवाज़ें रह गयी हैं। ख़ाली मकान रह गए हैं। इन दिनों, मौसम बहुत ख़ूबसूरत है और मेरी आत्मा उदार। 
जानां, चले आओ कि शायद ये मेरे जीवन का आख़िरी वसंत है।
***
उदास रातों में धूप के उस दिन की चमकीली याद...कि क्यूँ ना याद आए तुम्हारी...हाँ चाह रही हूँ मैं, कि लौट आओ तुम, देहरी पर देखूँ तुम्हें, खींचूँ आँचल माथे पर, घूँघट के अंदर मुसकाऊँ...दौड़ के जाऊँ जब लाने तुम्हारे लिए सुराही का ठंढा, सोन्हा पानी तो साथ नन्हीं आवाज़ों की एक खिलखिलाहट चले साथ में...चूड़ी, पायल, झुमके...सब हँसें हौले हौले...
तुम्हारे लिए खींचूँ कुएँ से बाल्टी भर पानी कि तुम जल्दी से हाथ मुँह धो लो। पीढ़ा लगा दूँ तुम्हारे बैठने को और दोपहर का खाना परोस दूँ तुम्हें। भात, भुजा हुआ राहर का दाल, चोखा, बैगन का बचका और पापड़। तुम हाथ पकड़ लो तो चूड़ियाँ खिलखिलाने लगें फिर से। साथ में कौर खिलाना चाहो तुम। मैं बस, 'धत्तेरी के, बौरा गए हो का...देख लेगा कोई' कह सकूँ।
तुम साइकिल पर बिठा कर ले जाओ मुझे आम का बग़ीचा दिखाने। टिकोला खिलाने। मैं सूती साड़ी के आँचल से खोलूँ नमक की ढेली। तुम पॉकेट से निकालो ब्लेड। नहर किनारे बैठ कर टिकोला कुतरते हुए हम झगड़ें हमारे होने वाले बच्चों के नाम पर। तुम्हें मालूम भी है अजन्मे बच्चे किस तरह कचोटते हैं सीने में। तुम तो बस इसे हँसी और लाड़ ही समझोगे। या कि तुम भी जितना महसूसते हो उसका छटाँक भर भी कह नहीं पाते। 
ये चाहती हूँ मैं। मुझसे मत पूछो कि मैं अकेली हूँ या कि उदास हूँ और तुम्हारे लौट आने की कल्पनाएँ बुनती हूँ। तुम्हें मालूम भी नहीं कि मैं क्या क्या कल्पनाएँ बुनती हूँ। सुनो। इतने दूर देश से लौटते हुए क्या ला रहे हो मेरे लिए तुम?
***
मौसम बहुत अच्छा था। पीलापन लिए शाम थी और हवा में खुनक। आज मैं बहुत देर घर पर रही और ये सोचा कि शाम गहराने दूँगी और घर की बत्तियाँ ऑन नहीं करूँगी। मैंने बहुत दिनों से रात को आते नहीं देखा है। शाम होते ही लाइट्स जला देती हूँ। सिगरेट की तलब हो रही थी लेकिन उसका कसैला स्वाद मेरी शाम के रंग चुरा लेता, इसलिए सिगरेट नहीं पी। 
वर्क टेबल पर बैठ कर आसमान देखा लेकिन लगा कि आज छत पर जाना चाहिए। शाम का पीलापन सुनहला और चमकदार था। बाद थोड़ी ही देर में ये धूसर और उदास हो जाता। मैंने अपना कैमरा निकाला और घर में ताला लगा कर छत पर चली गयी। आसमान बहुत ख़ूबसूरत था। गहरा नारंगी और लाल। पीला और धूसर। बहुत से शेड्स थे लाल के। बादलों का आना जाना भी जारी था। मैंने मूड के मुताबिक़ कुछ ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें खींचीं। 
छत के पेंट्हाउस के ऊपर वाली छत पर जाने के लिए एक छोटी सी लोहे की सलाखों वाली सीढ़ी है। मैं उससे ऊपर चली गयी। ये इस इलाक़े की सबसे ऊँची छत है। यहाँ से बहुत दूर का दिख जाता है। फिर इस छत पर कोई आता भी नहीं। बहुत देर तक और भी तस्वीरें खींची। 
शाम गहराने लगी तो फिर तस्वीर खींचने का मतलब नहीं था। सब ग्रेनी आता और क्लीन अप भी नहीं होता हमसे। आज ठंढी हवा इतनी ख़ूबसूरत चल रही थी कि बस। कल बुधवार है। बाल धो लेने का दिन। तो बस। परसों मूसलाधार बारिश हुयी है तो आज छत एकदम साफ़ थी। जैसे किसी ने बुहार दिया हो। मैं छत पर लेट गयी। एक सेकंड को सोचा कि योगा मैट ले आना चाहिए था। या कोई चादर या चटाई होती तो अच्छा लगता। मगर फिर इन चीज़ों पर ध्यान नहीं गया। किसी भी फ़र्श पर बैठने या लेटने का अपना सुख होता है। छत के इर्द गिर्द तीन फ़ीट की बाउंड्री है तो निश्चिन्त थी कि मुझे कोई देख नहीं सकता। 
मौसम गर्म है इन दिनों तो छत तपी हुयी थी और हल्की गर्माहट थी फ़र्श में। मैंने बाहें खोल रखी थीं। बाल लम्बे और घने होने का फ़ायदा ये है कि कड़ा हो फ़र्श तो भी चुभता नहीं है। हल्की हल्की हवा चल रही थी कि जो ठंढी थी। तपी हुयी ज़मीन की गर्माहट और हवा की ठंढ। हल्के हल्के बाल उड़ रहे थे हवा में। मैं देर तक बादलों को देखती रही। उनका आसमान में इधर उधर भागना। रात के गहराते हुए उनका रंग घुल कर सियाह होना। सब। 
हवा। जैसे पूरी दुनिया का अँधेरा इकट्ठा कर मेरी आँखों में सहेज देना चाहती थी। हर बार जब आँखों से गुज़रती, सब कुछ एक शेड और डार्क हुआ जाता। अँधेरा मेरे इर्द गिर्द जमा होता रहा। मैं अंधेरे में फ़्लोट कर रही थी। 
मेरा दिल किया कि मैं झूठ झूठ किसी को फ़ोन कर के कह दूँ। मेरा शहर बहुत याद करता है तुम्हें। और कि मुझे इश्क़ है तुमसे। बेतरह। कि तुम अपने शहर के आसमान का एक टुकड़ा मेरे नाम लिख दो प्लीज़...कि जानां, मेरे शहर में तो पूरा आसमान तुम्हारा ही है। खुले आसमान के नीचे, छत पर बाल बिखेरे सोयी हुयी इस पागल लड़की के दिल की तरह, सब तुम्हारा ही है। 
घर लौटी तो सारे कमरे अंधेरे थे। वर्क टेबल पर रखे ज़रबेरा के फूल काले अंधेरे के आगे कांट्रैस्ट में बहुत ख़ूबसूरत लग रहे थे। तुम्हारे वीतराग के सियाह बैक्ग्राउंड में मेरा गहरा लाल इश्क़। 
सुनो। इस तस्वीर में रंग मत तलाशना। ना मेरे शब्दों में इज़हार। कि तुम तो जानते ही हो, कि सब फ़रेब है जानां। फिर भी। इश्क़ तुमसे। तुम से ही।
***
मैंने तुम्हें सुना है। इंतज़ार की तरह।
अपने फ़ेवरिट गाने में बोल शुरू होने के पहले बजते इन्स्ट्रमेंटल संगीत के ख़त्म होने के इंतज़ार की तरह। बहुत देर की चुप्पी के बाद की कविता की तरह। मैं तुम्हें सुनना चाहती हूँ। देर तक। अविराम। साँस की तरह। लय में। नियमित। और यक़ीन के साथ। कि तुम्हारी आवाज़ इस बात का सबूत हो कि मैं ज़िंदा हूँ। 
बारिश हवा को थका देती है। कितना पानी अपने साथ लिए कितने शहर भिगोना पड़ता है उसे। हवा हौले हौले मेरे घर के किवाड़ खटखटा रही है। उसे सुस्ताने के लिए बहुत सी घंटियों वाली विंडचाइम चाहिए ऐसा उसने कहा है। मैं हवा को सुनती हूँ। तुम्हारी आवाज़ की अनुगूँज लिए हुए।
वर्क टेबल पर एक सफ़ेद लिली है जो अभी खिलेगी एक आध दिन में। तीन ज़रबेरा हैं। दो पीले, एक सफ़ेद। उनके पीछे का आसमान थोड़ा पीलापन लिए है...मगर ये पीलापन ऐसा नहीं है कि आसमान का रंग है...ऐसा कि रोशनी पीली है। सब कुछ एक पीलेपन में सरगत है...सराबोर है...डूबा हुआ है। 
मैं बहुत दिन बाद किसी की याद में कोल्ड्प्ले का गीत गाना चाहती हूँ। येलो। 
अँधेरा गिर नहीं रहा। इर्द गिर्द बह रहा है। लपेट रहा है मुझे। जैसे कोई काली शॉल हो। जाड़े के दिनों में। कम्फ़र्टिंग। मैं अपने इर्द गिर्द थोड़ा अँधेरा समेटती हूँ। अपने दिल में थोड़ी जगह बनाती हूँ, अंधेरे के लिए। घर की लाइट्स नहीं जलायी हैं। मैं सब कुछ अँधेरा होना महसूसना चाहती हूँ। 
फिर मैं तुम्हारा नाम लूँगी। और आइने में देखूँगी कि आँखों में कितनी चमक आती है।
या कि बजता है रात की चुप्पी में कौन सा राग ही।

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