इस साल मैं पहली बार अमेरिका गयी हूँ. पहला शहर जो मैंने देखा वो डैलस था. हयात वाले होटल के पाँच माइल के रेडियस में कार की सर्विस देते हैं...कहीं भी आने जाने के लिए. रिचर्डसन के जिस एरिया में मैं ठहरी थी वहाँ से दो तीन चर्च दिखते थे. मैं अपने पहले दिन इत्तिफाकन उनमें से दो के पास गुजरी, सोचा कि यहाँ के चर्च भी देख लेते हैं. इसके पहले यूरोप गयी हूँ या फिर थाईलैंड...दोनों जगह क्रमशः चर्च और मंदिर हमेशा खुले हुए ही देखे हैं. यूरोप का कोई छोटे से गाँव में छोटा सा चैपल भी होता है तो भी उसके दरवाज़े खुले होते हैं. अपने देश का तो कहना ही क्या...यहाँ भी लगभग सारे मंदिर सारे वक़्त खुले ही रहते हैं. तो मैं चर्च के मेन दरवाज़े पर पहुंची. वो बंद था. फिर मुझे लगा कि शायद कहीं कोई छोटा दरवाज़ा होगा तो वो भी बंद मिला. मैंने सोचा कि ये एक चर्च बंद है...चलो कोई बात नहीं, किसी दूसरे में चले जायेंगे. अगली बार शटल से जाते हुए जो ड्राईवर थी, कैरोलिन, उससे पूछे कि यहाँ कोई चर्च है जो खुला होगा...कल मैं इस बगल वाले में गयी तो बंद था. वो पहले तो इस बात पर बहुत चकित हुयी कि मैं हिन्दू हूँ तो मुझे चर्च क्यूँ जाना है. तो उसे पूरे रास्ते मैं ये समझाती आई कि हमारे यहाँ किसी भी धर्म के पूजा स्थल पर जा सकते हैं. हम घूमते हुए चर्च भी चले जाते हैं, मज़ार भी और बौद्ध या जैन मंदिर भी. (एक मन तो किया कि उसको DDLJ दिखा दें. काजोल को देख कर अपनेआप समझ में आ जाएगा उसको.
बात परवरिश और स्कूल/कॉलेज की भी है. मेरी पढ़ाई देवघर में कान्वेंट स्कूल में हुयी. जैसी कि मेरे जान पहचान के अधिकतर लोगों की हुयी है. घर परिवार में भी, लगभग सारे बच्चे ऐसे ही इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़े हैं. सेंट फ्रांसिस, डॉन बोस्को, लोयोला हाई स्कूल...मेरे स्कूल में अधिकतर टीचर्स केरल से आये थे. कुछ सिस्टर्स वगैरह थीं और कुछ लोकल टीचर्स भी. हम स्कूल असेम्बली में 'त्वमेव माता' भी गाते थे और 'देयर शैल बी शावर्स ऑफ़ ब्लेसिंग्स' भी गाते थे. 'इण्डिया इज माय कंट्री...आल इंडियंस आर माय ब्रदर्स एंड सिस्टर्स' वाला प्लेज भी लेते थे. इसके बाद अक्सर 'आवर फादर इन हेवेन होली बी योर नेम' पढ़ते थे...और फिर क्लास्सेस शुरू होती थीं. हमारी प्रिंसिपल पहले सिस्टर जोस्लेट और फिर सिस्टर कैरोलीन रही थीं. हमने उन्हें हमेशा सादगी से रहते और पढ़ाई के प्रति बहुत सिंसियर देखा था. हममें से अधिकतर की आइडियल हमारी प्रिंसिपल होती थीं. पटना में मेरी 12th के लिए मैं सेंट जोसफ कान्वेंट गयी. वहाँ स्कूल में एक छोटा सा चैपल था. मैं अक्सर सुबह स्कूल में क्लास आने के पहले वहां चली जाती थी. मन बहुत परेशान रहा या ऐसा कुछ. वहाँ जाते हुए एक चीज़ पर अक्सर मेरा ध्यान जाता था. हम जो हिन्दू स्टूडेंट होते थे, हमेशा अपने जूते बाहर खोल कर जाते थे...कि हमें मंदिर जैसी आदत थी...लेकिन जो क्रिश्चियन स्टूडेंट्स होती थीं, वे जूते पहन पर ही अन्दर चली जाती थीं क्यूंकि उन्हें ऐसा करने नहीं कहा गया था. हमारा क्लास शुरू होने के पहले वहां रोज़ 'आवर फादर इन हेवेन' कहना होता था. हमारी मोरल साइंस टीचर हमें मज़ाक में पूछती थी कि हम छुट्टियों में 'आवर फादर इन हेवेन' नहीं कहते, भगवान को भी छुट्टी दे देते हैं. इसपर हम सब लड़कियां खूब हँसती थीं. पटना विमेंस कॉलेज भी कैथोलिक सिस्टर्स का इंस्टिट्यूट है. पर यहाँ चूँकि हम बड़े हो गए थे तो कोई मोर्निंग असेम्बली वगैरह नहीं होती थी. यहाँ भी कोलेज के अन्दर एक छोटा सा चैपल था. वहां एक्जाम वगैरह के पहले मैं या मेरी कुछ दोस्त जाया करती थीं. कई बार हम किसी स्टेज परफॉरमेंस के पहले भी जाया करते थे.
डैलस में मेरी कार ड्राईवर कैरोलीन ने बताया कि यहाँ चर्च हफ्ते में सिर्फ संडे को खुलते हैं. मुझे अपनी स्कूल की सिस्टर याद आ गयी, 'बहुत मजे हैं तुम्हारे भगवान के, हफ्ते में सिर्फ एक दिन काम करता है...हमारे यहाँ तो सारे भगवानों को पूरे हफ्ते काम करना होता है...त्योहारों में तो ओवरटाइम भी'. उसे मैं बहुत फनी लगी थी. जिसे आज सेकुलर कहते हैं...वो हमारे लिए हमेशा इतना साधारण रहा है कि कभी सोचने की जरूरत भी नहीं पड़ी. हमें बचपन से हर भगवान के सामने सर झुकाने की शिक्षा दी गयी थी. चूँकि हम बहुत घूमे हैं, तो देश में कई सारे मंदिर, बौद्ध स्तूप, मजार और मस्जिद भी गए हैं. पापा, मम्मी और भाई के साथ. बड़े होने के बाद पहली बार कश्मीर गए जब इन चीज़ों की थोड़ी बहुत समझ आने लगी थी...तो इस बात पर बहुत तकलीफ हुयी कि हज़रत बल में मस्जिद में अन्दर औरतों का जाना प्रतिबंधित है. मैं सोच रही थी कि उन्हें कितना खराब लगता होगा कि अन्दर जाने नहीं देते हैं. क्यूंकि दिल्ली में जामा मस्जिद में जाने दिया था. आगरा में भी. मुझे बचपन के और भी कई मस्जिद ऐसे ही याद थे जहाँ अन्दर जाने दिया जाता था.
घर में मम्मी कभी पूजा करने बोली नहीं...तो कभी पूजा करने मना भी नहीं की. व्रत वगैरह भी कभी कभार रख लेते थे. माँ और पापा दोनों रोज पूजा करते थे. घर के लोगों की यादों में सबसे क्लियर उनके पूजा करने का ढंग आता है. मम्मी का, दादी का, दिदिमा का, नानाजी का, पापा का...सबके अपने अपने चुने हुए मन्त्र और अपने अपने मंत्रोचार थे. देवघर चूँकि शंकर भगवान की नगरी है तो हम सब भोले बाबा के भक्त. अब उनका इम्प्रेशन ऐसा कि भूल वगैरह आराम से माफ़ कर देते हैं. तो पूजा पाठ में कोई गलती हो जाए तो ज्यादा परेशान नहीं होते थे. दिल्ली आने तक ऐसा ही बना रहा. जन्मदिन या पर्व त्यौहार में मंदिर जाना और कभी मूड हुआ तो पूजा कर लेना. भगवान में आस्था बहुत थी. मम्मी के जाने के बाद भगवान में विश्वास एकदम अचानक टूट गया. पूजा करनी बंद कर दी. घर की कुछ रस्में तो करनी पड़ती हैं...तो जहाँ जहाँ पूजा आवश्यक थी, वहां की, पर अपने मन से कभी मंदिर जाना या घर में भी पूजा करनी एकदम बंद है. शायद कभी वे दिन लौटें...मगर फ़िलहाल मन में श्रद्धा नहीं उभरती.
हमने हाल में नयी गाड़ी खरीदी है. स्कोडा ओक्टाविया. कल गाड़ी का रजिस्ट्रेशन था. उसके बाद मैं अपने एक दोस्त से मिलने गयी. अचानक ही मूड हो गया. बहुत दिन बाद गाड़ी हाथ में थी. बारिश का मौसम था. चल दिए. उसको कॉल किया कि मैं आ रही हूँ तेरे घर. वो ओडिसी और कुचिपुड़ी डांस करती है. इतना खूबसूरत कि बस. बड़ी बड़ी आँखें. उसे साधारण रूप से काम करते हुए देखती हूँ तो भी उसमें एक लय दिखती है. उसके चलने में, बोलने में, हंसने में. आंध्र की है...और बिहारी से शादी की है. iit का लड़का. उसका एक छोटा बेटा है. चार साल का लगभग. कल दरवाज़ा खोली तो देखे कि एकदम साड़ी में है, हम खुश होके बोलते हैं कि 'मेरे लिए' तो पट से जवाब आता है, 'औकात में रह'. कल कोई तो तुलसी पूजा थी, उसके लिए तैयार हुयी थी. हुयी तो पूजा के लिए ही तैयार न :)
उनका अपना घर है. हाल में शिफ्ट हुए हैं. वहां पूजा के लिए अलग से कमरे का एक हिस्सा है. इसी में वो डांस प्रैक्टिस भी करती है. पूजा के हिस्से को अलग करने के लिए एक लकड़ी का नक्काशीदार जाली वाला पार्टीशन है. कल वहीं बैठी. वो मुझे बता रही थी कि आज दीवाली की तरह तुलसी के आसपास दिया जलाते हैं. उसका पूजाघर छोटा सा तीन स्टोरी रैक का बना हुआ था. एक ड्रावर जिसमें बहुत तरह के डिब्बे रखे थे. राम लक्ष्मण सीता की एक बड़ी तस्वीर. उसके ऊपर सुनहले रंग की छतरी. कांसे के राम, लक्ष्मण, सीता...हनुमान जी और गणेश जी. कई सारे अलग अलग साइज के दिए थे. कुछ कांसे के, कुछ चाँदी के. पंचमुखी दिया. सब अलग अलग साइज़ के दिए जोड़ों में थे. उसने दीयों को ऊंचाई के हिसाब से लाइन में रखा तो जैसे सीढ़ियाँ बन गयीं थीं. उसने मुझे बताया कि कैसे कांसे के वो राम लक्ष्मण सीता को लाने की कहानी है.
एक भजन है, नॉर्मली भजन में लिखने वाले का और जगह का नाम आता है. उसे एक भजन बहुत पसंद था और वो जानना चाहती थी कि वो कहाँ लिखा गया है. जब उसे उस ग्राम का नाम पता चला तो उसका मन था वहां जाने का. यहीं बैंगलोर के पास का एक गांव था. इत्तिफाक से वहीं पर उसका एक डांस प्रोग्राम आ गया. जब वह उस ग्राम में गयी और उस मंदिर में गयी जहाँ वो भजन लिखा गया था तो ऐसा हुआ कि पूजा के बाद पंडित और दर्शनार्थी सब चले गए और वो मंदिर में अकेली, सिर्फ भगवान के सामने थी. उस समय उसने वहाँ वो संगीत चलाया और उसपर उस छोटे से गाँव के उस छोटे से मंदिर में सिर्फ भगवान के लिए उसी भजन पर एक छोटा सा नृत्य किया. ये एक आत्मा को छूने वाली घटना थी. इसी के बाद उस शहर में एक दुकान में उसे ये भगवान की प्रतिमाएं मिली थीं.
इधर बहुत दिन से मेरी पूजा बंद है. बाकी लोगों को भी मैं पूजा करते देखती हूँ तो वे एकाग्रचित्त नहीं होते. उनका मन कहीं और लगा होता है. पूजा एक रूटीन सी हो जाती है. मगर उसे देखना ऐसा नहीं था. उसे देखने पर मन में कोई पवित्र सी भावना जगती थी. जैसे कि वो सब कुछ प्रेम में, भक्ति में डूब कर कर रही है. उसके लिए सामने रखी मूर्तियों में प्राण थे और वो अपने इष्ट की ख़ुशी के लिए सब कर रही थी. पूजा. धूप. चन्दन. अगरबत्ती. पूजा करते हुये उसकी चूड़ियों की खनक भी सुन्दर लगती थी.
ये एक अनुभव था. इसे मैं यहाँ इसलिए लिख रही हूँ कि बहुत साल बाद मैंने इस आवाज़ से अपने अन्दर रौशनी महसूस की है...उस भजन से जैसे भगवान खुश होकर जरा सा मेरे मन में भी बस गए हैं. ये इतनी खूबसूरत चीज़ है कि बिना बांटे रहा नहीं गया. शायद कभी मेरे मन में भी शंकर भगवान के प्रति आस्था वापस आएगी...तो मैं अपनी आवाज़ में कुछ वो भजन गा सकूंगी जो मैंने सीखे थे. धर्म ठीक ठीक मालूम नहीं क्या होता है, मेरे लिए जिस चौखट पर सर झुक जाए वहीं भगवान हैं...आस्था मन के अँधेरे को रौशन करती दिये की लौ है...जरा सी उम्मीद है...जरा सा सुकून.
मगर फिलहाल आप उसे सुनिए...
बात परवरिश और स्कूल/कॉलेज की भी है. मेरी पढ़ाई देवघर में कान्वेंट स्कूल में हुयी. जैसी कि मेरे जान पहचान के अधिकतर लोगों की हुयी है. घर परिवार में भी, लगभग सारे बच्चे ऐसे ही इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़े हैं. सेंट फ्रांसिस, डॉन बोस्को, लोयोला हाई स्कूल...मेरे स्कूल में अधिकतर टीचर्स केरल से आये थे. कुछ सिस्टर्स वगैरह थीं और कुछ लोकल टीचर्स भी. हम स्कूल असेम्बली में 'त्वमेव माता' भी गाते थे और 'देयर शैल बी शावर्स ऑफ़ ब्लेसिंग्स' भी गाते थे. 'इण्डिया इज माय कंट्री...आल इंडियंस आर माय ब्रदर्स एंड सिस्टर्स' वाला प्लेज भी लेते थे. इसके बाद अक्सर 'आवर फादर इन हेवेन होली बी योर नेम' पढ़ते थे...और फिर क्लास्सेस शुरू होती थीं. हमारी प्रिंसिपल पहले सिस्टर जोस्लेट और फिर सिस्टर कैरोलीन रही थीं. हमने उन्हें हमेशा सादगी से रहते और पढ़ाई के प्रति बहुत सिंसियर देखा था. हममें से अधिकतर की आइडियल हमारी प्रिंसिपल होती थीं. पटना में मेरी 12th के लिए मैं सेंट जोसफ कान्वेंट गयी. वहाँ स्कूल में एक छोटा सा चैपल था. मैं अक्सर सुबह स्कूल में क्लास आने के पहले वहां चली जाती थी. मन बहुत परेशान रहा या ऐसा कुछ. वहाँ जाते हुए एक चीज़ पर अक्सर मेरा ध्यान जाता था. हम जो हिन्दू स्टूडेंट होते थे, हमेशा अपने जूते बाहर खोल कर जाते थे...कि हमें मंदिर जैसी आदत थी...लेकिन जो क्रिश्चियन स्टूडेंट्स होती थीं, वे जूते पहन पर ही अन्दर चली जाती थीं क्यूंकि उन्हें ऐसा करने नहीं कहा गया था. हमारा क्लास शुरू होने के पहले वहां रोज़ 'आवर फादर इन हेवेन' कहना होता था. हमारी मोरल साइंस टीचर हमें मज़ाक में पूछती थी कि हम छुट्टियों में 'आवर फादर इन हेवेन' नहीं कहते, भगवान को भी छुट्टी दे देते हैं. इसपर हम सब लड़कियां खूब हँसती थीं. पटना विमेंस कॉलेज भी कैथोलिक सिस्टर्स का इंस्टिट्यूट है. पर यहाँ चूँकि हम बड़े हो गए थे तो कोई मोर्निंग असेम्बली वगैरह नहीं होती थी. यहाँ भी कोलेज के अन्दर एक छोटा सा चैपल था. वहां एक्जाम वगैरह के पहले मैं या मेरी कुछ दोस्त जाया करती थीं. कई बार हम किसी स्टेज परफॉरमेंस के पहले भी जाया करते थे.
घर में मम्मी कभी पूजा करने बोली नहीं...तो कभी पूजा करने मना भी नहीं की. व्रत वगैरह भी कभी कभार रख लेते थे. माँ और पापा दोनों रोज पूजा करते थे. घर के लोगों की यादों में सबसे क्लियर उनके पूजा करने का ढंग आता है. मम्मी का, दादी का, दिदिमा का, नानाजी का, पापा का...सबके अपने अपने चुने हुए मन्त्र और अपने अपने मंत्रोचार थे. देवघर चूँकि शंकर भगवान की नगरी है तो हम सब भोले बाबा के भक्त. अब उनका इम्प्रेशन ऐसा कि भूल वगैरह आराम से माफ़ कर देते हैं. तो पूजा पाठ में कोई गलती हो जाए तो ज्यादा परेशान नहीं होते थे. दिल्ली आने तक ऐसा ही बना रहा. जन्मदिन या पर्व त्यौहार में मंदिर जाना और कभी मूड हुआ तो पूजा कर लेना. भगवान में आस्था बहुत थी. मम्मी के जाने के बाद भगवान में विश्वास एकदम अचानक टूट गया. पूजा करनी बंद कर दी. घर की कुछ रस्में तो करनी पड़ती हैं...तो जहाँ जहाँ पूजा आवश्यक थी, वहां की, पर अपने मन से कभी मंदिर जाना या घर में भी पूजा करनी एकदम बंद है. शायद कभी वे दिन लौटें...मगर फ़िलहाल मन में श्रद्धा नहीं उभरती.
हमने हाल में नयी गाड़ी खरीदी है. स्कोडा ओक्टाविया. कल गाड़ी का रजिस्ट्रेशन था. उसके बाद मैं अपने एक दोस्त से मिलने गयी. अचानक ही मूड हो गया. बहुत दिन बाद गाड़ी हाथ में थी. बारिश का मौसम था. चल दिए. उसको कॉल किया कि मैं आ रही हूँ तेरे घर. वो ओडिसी और कुचिपुड़ी डांस करती है. इतना खूबसूरत कि बस. बड़ी बड़ी आँखें. उसे साधारण रूप से काम करते हुए देखती हूँ तो भी उसमें एक लय दिखती है. उसके चलने में, बोलने में, हंसने में. आंध्र की है...और बिहारी से शादी की है. iit का लड़का. उसका एक छोटा बेटा है. चार साल का लगभग. कल दरवाज़ा खोली तो देखे कि एकदम साड़ी में है, हम खुश होके बोलते हैं कि 'मेरे लिए' तो पट से जवाब आता है, 'औकात में रह'. कल कोई तो तुलसी पूजा थी, उसके लिए तैयार हुयी थी. हुयी तो पूजा के लिए ही तैयार न :)
उनका अपना घर है. हाल में शिफ्ट हुए हैं. वहां पूजा के लिए अलग से कमरे का एक हिस्सा है. इसी में वो डांस प्रैक्टिस भी करती है. पूजा के हिस्से को अलग करने के लिए एक लकड़ी का नक्काशीदार जाली वाला पार्टीशन है. कल वहीं बैठी. वो मुझे बता रही थी कि आज दीवाली की तरह तुलसी के आसपास दिया जलाते हैं. उसका पूजाघर छोटा सा तीन स्टोरी रैक का बना हुआ था. एक ड्रावर जिसमें बहुत तरह के डिब्बे रखे थे. राम लक्ष्मण सीता की एक बड़ी तस्वीर. उसके ऊपर सुनहले रंग की छतरी. कांसे के राम, लक्ष्मण, सीता...हनुमान जी और गणेश जी. कई सारे अलग अलग साइज के दिए थे. कुछ कांसे के, कुछ चाँदी के. पंचमुखी दिया. सब अलग अलग साइज़ के दिए जोड़ों में थे. उसने दीयों को ऊंचाई के हिसाब से लाइन में रखा तो जैसे सीढ़ियाँ बन गयीं थीं. उसने मुझे बताया कि कैसे कांसे के वो राम लक्ष्मण सीता को लाने की कहानी है.
एक भजन है, नॉर्मली भजन में लिखने वाले का और जगह का नाम आता है. उसे एक भजन बहुत पसंद था और वो जानना चाहती थी कि वो कहाँ लिखा गया है. जब उसे उस ग्राम का नाम पता चला तो उसका मन था वहां जाने का. यहीं बैंगलोर के पास का एक गांव था. इत्तिफाक से वहीं पर उसका एक डांस प्रोग्राम आ गया. जब वह उस ग्राम में गयी और उस मंदिर में गयी जहाँ वो भजन लिखा गया था तो ऐसा हुआ कि पूजा के बाद पंडित और दर्शनार्थी सब चले गए और वो मंदिर में अकेली, सिर्फ भगवान के सामने थी. उस समय उसने वहाँ वो संगीत चलाया और उसपर उस छोटे से गाँव के उस छोटे से मंदिर में सिर्फ भगवान के लिए उसी भजन पर एक छोटा सा नृत्य किया. ये एक आत्मा को छूने वाली घटना थी. इसी के बाद उस शहर में एक दुकान में उसे ये भगवान की प्रतिमाएं मिली थीं.
उसने कहा कि वो मुझे वो भजन सुनाएगी. एक ही पंक्ति सुन कर जैसे रोम रोम में अलग सा अहसास हुआ था. जैसे भगवान वाकई सुन रहे हो. बिना किसी वाद्ययंत्र के सिर्फ कोरी आवाज़. कुछ करने के लिए वो उठी. और जब वापस बैठ कर उसने भजन फिर गाना शुरू किया तो मुझे लगा कि ये मुझे रिकॉर्ड कर लेना चाहिए. शायद वो फिर से मेरे लिए गा दे...लेकिन अभी की उसकी आवाज़ सिर्फ राम तक पहुँचने के लिए है. मैंने चुपचाप मोबाइल से इसकी रिकॉर्डिंग कर ली. ये एक मुश्किल निर्णय था. मैं वहां डूबना चाहती थी उस आवाज़ में. मगर मैं उसे सहेजना भी चाहती थी. दिए की लौ में उसका चेहरा कितना सुन्दर दिख रहा था. मुझे बहुत साल पहले की गाँव की याद आई. तुलसी चौरा पर दिया दिखाती चाची, मम्मी, दीदी...सब एक ही जैसी लगती थी. दिव्य.
ये एक अनुभव था. इसे मैं यहाँ इसलिए लिख रही हूँ कि बहुत साल बाद मैंने इस आवाज़ से अपने अन्दर रौशनी महसूस की है...उस भजन से जैसे भगवान खुश होकर जरा सा मेरे मन में भी बस गए हैं. ये इतनी खूबसूरत चीज़ है कि बिना बांटे रहा नहीं गया. शायद कभी मेरे मन में भी शंकर भगवान के प्रति आस्था वापस आएगी...तो मैं अपनी आवाज़ में कुछ वो भजन गा सकूंगी जो मैंने सीखे थे. धर्म ठीक ठीक मालूम नहीं क्या होता है, मेरे लिए जिस चौखट पर सर झुक जाए वहीं भगवान हैं...आस्था मन के अँधेरे को रौशन करती दिये की लौ है...जरा सी उम्मीद है...जरा सा सुकून.
मगर फिलहाल आप उसे सुनिए...
सुन्दर रचना ..........बधाई |
ReplyDeleteआप सभी का स्वागत है मेरे इस #ब्लॉग #हिन्दी #कविता #मंच के नये #पोस्ट #असहिष्णुता पर | ब्लॉग पर आये और अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें |
http://hindikavitamanch.blogspot.in/2015/11/intolerance-vs-tolerance.html
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27-11-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2172 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
आपकी किताब 'तीन रोज़ इश्क़' पढ़ी | बहुत अच्छा लगा, आप से बहुत कुछ सीखने को मिला और मैं भी लिखता हूँ मुझमे भी सुधार हुआ, धन्यवाद आपका |
ReplyDeletepkbloger.com