'तुम क्या चाहती हो मेरी दोस्त?'. उसका ये पूछना मुझे मोह गया था...कि उसके पूछने में एक कोमलता थी...एक आर्दता थी...न समझ पाने की खीझ नहीं...नहीं समझे जाने का उसका आत्मानुभूत अनुभव था. प्रेम ने मुझे कई बार छला है. मित्रता के आवरण में आता है और हमेशा पीठ पर प्रेम का खंजर भोंकता है. उसे इस व्यवहार से मैं इस तरह उलझ गयी थी कि किसी भी व्यक्ति के जरा भी करीब आने में मुझे डर लगता था.
वो मुझे ऐसे ही किसी मोड़ पर मिला था. यूँ वो शहर कोई भी हो सकता था. मेरे पसंदीदा शहर दुनिया के नक़्शे में बिखरे हुए हैं. स्विट्ज़रलैंड में बर्न...अमरीका में शिकागो या कि हिंदुस्तान में कन्याकुमारी. मगर हमें किसी ऐसे शहर में मिलना नहीं लिखा था जिसकी गलियों में खुशबू हो...जिसकी हवाओं में उस शहर की शिनाख्त की जा सके. हमें ऐसे शहर में मिलना था जिसकी गलियां नामालूम हो. पोलैंड के नाज़ी यातना शिविरों में कैदियों से उनका नाम छीन लिया जाता था. हम जिस चौराहे पर मिले थे उसका परिचय भी ऐसे ही धूमिल कर दिया गया था ताकि हम कभी भी लौट कर वहाँ नहीं जा सकें.
चौराहे पर एक डाकघर था जहाँ से मैंने टिकट खरीदे थे और वहीं सीढ़ियों पर बैठी पोस्टकार्ड लिख रही थी. जब सारे पोस्टकार्ड्स पर मेसेज और पता लिख दिया और स्टैम्प चिपका दिए तो मैं देर तक आसमान देखती रही. नीले आसमान की छोटी छोटी पुर्जियां दिख रही थीं सुनहले पेड़ के पत्तों के बीच से. हवा के झोंके में किसी पुकार का संगीत नहीं घुला था. मैं एक एक करके पोस्टकार्ड नीले डब्बे में गिरा रही थी जब मैंने उसे सामने से आते देखा. चुंकि मुझे मालूम नहीं था कि ये शहर कौन सा है तो मैं ये भी नहीं जान सकती थी कि वो इस शहर में हो सकता है. उसकी मुस्कान में एक प्रतीक्षा थी. जैसे उसे मालूम था कि इस नामालूम शहर के इसी डाकघर तक मुझे आना है. उसने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया...उसकी बंधी मुट्ठी में एक अमलतास का फूल था. मगर इस शहर में तो अमलतास नहीं खिलते.
'मेरा पोस्टकार्ड मुझे दे दो...यहाँ से गिराओगी तो खो जाएगा...मेरा शहर यहाँ से तेरह समंदर पार है'. मेरा दायाँ हाथ उसने थाम रखा था...हम दोनों की हथेलियों के बीच एक अमलतास का फूल साँस ले रहा था. मेरे बाँयें हाथ में उसके नाम का पोस्टकार्ड था जिसे मैं लेटर बौक्स में गिराने ही वाली थी. मगर उसे सामने सामने कैसे दे दूँ ये पोस्टकार्ड...अभी इसके मिलने का वक़्त तय नहीं हुआ है. मुझे संगीत के नोटेशंस याद आये...सम पर मिलना था उसे ये पोस्टकार्ड. अगर वो अभी मेरा लिखा पढ़ लेगा तो जिंदगी के ताल में ब्रेक आ जाएगा.
'तुम्हें समंदर गिनने आते हैं?' मैंने उसका पोस्टकार्ड करीने से अमलतास के फूल के साथ अपनी नोटबुक में रख दिया. हवा में बहुत ठंढ थी. वेदर रिपोर्ट वालों ने कहा था कि आज मौसम की पहली बर्फ गिरेगी. उसने अपनी कोट की जेब से दस्ताने निकाले और पहनने लगा. मेरे पास आधी उँगलियों वाले दस्ताने थे. इनमें उँगलियों के पोर बाहर निकले रहते हैं. मैं पूरे ढके हुए दस्ताने नहीं पहन सकती. कलम को छू न सकूँ तो मुझे साँस लेने में तकलीफ होने लगती है. उसने मुझसे एक दस्ताने की अदलाबदली कर ली. हम दोनों मिसमैच वाले दस्ताने पहन कर हँस रहे थे. मुझे लगा कि हमारी हँसी उजले फाहों की तरह गिर रही है मगर फिर उनकी ठंढक ने बताया कि बर्फ गिरने लगी है. हम वहाँ से बेमकसद किसी ओर चल पड़े. उसके काले कोट पर बर्फ के फाहे यूँ दिखते थे जैसे मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा हुआ है. साथ चलते हुए हमारी उँगलियों के पोर एक दूसरे को छूते हुए चल रहे थे. जैसे हमारे बीच कोई तीसरा बहुत प्यारा दोस्त है जिसने हम दोनों की हथेलियाँ थाम रखी हैं.
वो शनिवार का दिन था और शहर के लोग छुट्टियाँ बिताने गाँव की ओर निकल गए थे. अगर चाहना पर दुनिया चलती तो उस वक़्त हम दोनों एक नोटबुक, एक कलम और नए शहर बनाने की बहुत सी कल्पनाएँ चाहते थे...हम उसी वक़्त अपनी पसंद का एक शहर बना सकते थे जिसमें मेरी पसंद के फूल खिलते और उसकी पसंद का मौसम आता. मगर इस ठंढ में हमें पहले इक शांत जगह चाहिए थी जहाँ अलाव जल रहे हों और बेहतरीन विस्की या ऐसी कोई चीज़ मिल सके कि जिससे उँगलियों के पोरों में जमी ठंढ पिघल सके. सामने मेट्रो स्टेशन था. हम दोनों ने पहली मेट्रो ले ली. दिन के ग्यारह बज रहे थे, हमारे पास इतनी फुर्सत थी कि हम धरती का एक पूरा राउंड लेकर आ सकते थे. मगर हम पहले ही स्टॉप पर उतर गए. वह एक छोटा सा पहाड़ी गाँव था जिसका फ्रेंच नाम था...मेरे पसंदीदा गीत 'ला वियों रोज' की तरह कोई पोएटिक सा नाम.
गाँव की सड़कें बहुत पुराने पत्थर की बनी थीं. इसी राह से क्रन्तिकारी और प्रेमी दोनों गुज़रे होंगे. पुरानेपन में एक कालजयी गंध थी. एक रेस्तरां से ब्रेड के बनने की मीठी खुशबू आ रही थी और टेबलों पर अलाव की छोटी डोल्चियाँ रखी थीं. दास्ताने उतारते हुए हम फिर से हँस पड़े. 'मैं तुम्हारा ये दस्ताना रख लूँ?' उसने मेरा वाला दस्ताना अपनी कोट की जेब में रख लिया था. 'एक दस्ताने का क्या करोगे, तुम्हें पसंद हैं तो जोड़ा रख लो.', मैं अपने हाथ से उतार कर उसे अपना दस्ताना देने लगी कि उसने रोक दिया. 'नहीं दोस्त, एक ही चाहिए...तुम्हें याद करने को इतना काफी है...दोनों रख लूँगा तो तुम पर शायद कोई हक जताने लगूँ.'
आर्डर लेने आई हुयी औरत की उम्र कोई चालीस साल होगी...मुस्कुराती है तो गालों में गहरे गड्ढे पड़ते हैं और उसकी आँखों में बहुत काइंडनेस दिखती है. हम दोनों एक लम्बे से नाम वाला कोई ड्रिंक आर्डर करते हैं जिसमें पड़ने वाली कोई भी सामग्री हमें समझ नहीं आती. धूप का एक तिकोना टुकड़ा हमारे ठीक बीचो बीच लकड़ी की मेज पर आराम फरमाने लगता है. हमारी ड्रिंक काली चाय थी जिसमें दालचीनी, लौंग, अदरक और जायफल की तेज़ गंध थी...साथ में अल्कोहल की तीखी गर्माहट भी थी. हम दोनों ने अपनी अपनी ड्रिंक में दो चार चम्मच शहद मिलाई...हर सिप में 'शायद' का स्वाद आता है...जैसे 'शायद ये एक सपना है', 'शायद मैं सिजोफ्रेनिक हो रही हूँ', 'शायद मैं एक नयी कहानी लिख रही हूँ'...ऐसे ही बहुत से जायकेदार शायदों की चुस्की लेते हुए हम देर तक एक दूसरे को देखते रहे.
'अच्छा विश...अपने बारे में एक एक फैक्ट से शुरू करते हैं बातें...तुम्हारा पूरा नाम क्या है?'
'मेरा कोई नाम नहीं है...तुमने एक दोस्त की विश की थी इसलिए मैं तुम्हारे रास्ते भेज दिया गया. भगवान के कारखाने में हम जैसे लोग लिमिटेड एडिशन में बनाये जाते हैं. तुमने बड़े सच्चे दिल से मुझे माँगा है, इसलिए मैं आ गया हूँ...जब तुम्हारी ये जरूरत पूरी हो जायेगी...मैं गुम जाऊँगा और तुम्हें मेरी कोई याद भी नहीं रहेगी.'
'तो तुम मेरी चाहना के कारण आये हो?'
'हाँ मेरी दोस्त...तुम क्या चाहती हो?'
'इस वक़्त तो मैं कुछ भी नहीं चाहती विश...अगर ये सपना है तो ऐसे गहरे...मीठे और सच से लगे वाले कुछ और सपने...अगर ये एक कहानी है तो ऐसी कुछ एक और लम्बी कहानियां...जिंदगी से ज्यादा शिकायत नहीं है मुझे'
'तो मैं कभी कभी मिलने आता रहूँगा तुमसे...यूँ ही. कोई तीन एक साल में एक आध बार?'
'तीन साल थोड़े ज्यादा है...तुम साल में एक बार नहीं आ सकते?'
'दोस्त, मेरे आने का मौसम चाहिए तुम्हें?'
'अगर मैं हाँ कहूँ तो तुम मेरी बात मान लोगे?'
'चलो अगर मान लिया तो क्या नाम दोगी उस मौसम को?'
'नाम नहीं...इस मौसम के लिए एक फूल होगा...अमलतास...मुझे जिस साल तुम्हारी बहुत याद आएगी मैं तुम्हें अमलतास के फूल भेजा करूंगी लिफाफों में'
'सिर्फ फूल? ख़त नहीं भेजोगी?'
'नहीं विश...तुमसे करने को ख़त में बातें नहीं होतीं...तुमसे मिल कर जान रही हूँ कि कागज़ पर लिखे शब्दों का एक ही आयाम होता है...वे यूँ बात नहीं कर सकते. अब मुझे नहीं लगता मैं तुम्हें कभी ख़त लिख सकूंगी. अब तुम्हारी तलब लगेगी तो तुम्हें आना पड़ेगा.'
'हक की बात आ ही जाती है न मिलने से?'
'हक नहीं है...दुआएँ हैं...अमलतास जैसी...सुनहली पीली...शांत'
मैं अपनी नोटबुक से वही अमलतास का फूल निकाल कर उसके काले कोट के बटनहोल में लगा देती हूँ. फूल गिर न जाए इसलिए अपने बालों से एक क्लिप निकाल कर उसे फिक्स कर देती हूँ. चेहरे पर एक लट बार बार झूल आ रही है. मैं नोटबुक देखती हूँ तो उसमें एक और अमलतास का फूल पाती हूँ. उसे निकाल कर टेबल पर रखती हूँ तो देखती हूँ वहाँ एक और अमलतास का फूल है...धीरे धीरे टेबल पर एक गुच्छे अमलतास के फूल जमा हो जाते हैं. विश मेरी ओर देख कर मुस्कुराता है. मैं उसकी. वो लम्हा बहुत मीठा है. अमलतास के मौसमों में जो शहद बनता है...उतना मीठा. कभी कभी महसूस होता है जिंदगी में कि सब कुछ शब्द नहीं होते...बातों से नहीं बनी होती दुनिया. मुस्कुराहटों. अमलतास के फूलों. फिर कभी मिलने की दुआओं. और विस्की की स्वाद वाली चाय की भी बनी होती है. विश. कितना प्यारा नाम है न.
इसके कोई तीनेक साल तक अमलतास का मौसम नहीं आया. मैं कभी गुलमोहर के देश जाती तो कभी वाइल्ड आर्किड वाले पहाड़...कभी मोने की वाटर लिलीज वाले शहर...ऐसे ही किसी दिन विश का फोन आता है...वो मुझसे फोन पर पूछता है, 'दोस्त, तुमने तो इतनी दुनिया देखी है...जरा नक्शा देख कर बताओ...मेरे घर से तेरह समंदर दूर कौन सा शहर पड़ता है? मुझे जाने क्यूँ लगता है कि मैं कभी उस शहर में मिला हूँ तुमसे'. मैं गिनती हूँ तो दुनिया के तेरह समंदर पूरे होते हुए वापस उसके शहर तक ही पहुँच जाती हूँ. 'ऐसा कोई शहर दिखता तो नहीं है मगर मेरी डायरी में एक पोस्टकार्ड रखा है जिसपर तुम्हारे घर का पता है और स्टैम्प्स भी लगे हुए हैं...कितना भी याद करूँ, मुझे याद नहीं आता कि मैंने ये पोस्टकार्ड गिराया क्यूँ नहीं. उसके अगले पन्ने में एक अमलतास का सूखा फूल भी रखा है. उस पूरे साल मैं जिन देशों में रही हूँ उनमें से किसी में भी अमलतास नहीं खिलता...तुम्हें कोई अमलतास का फूल याद है?'.
उस वक़्त हम एक दूसरे से तेरह समंदर दूर के शहरों में होते हैं लेकिन जब अपनी अपनी चाय सिप करते हैं तो बारी बारी से दालचीनी...लौंग...जायफल...सारे स्वाद आने लगते हैं. मौसम सर्द होने लगा है. मैं अपने कोट की जेब में हाथ डालती हूँ...दोनों जेबों से अलग अलग दस्ताने निकलते हैं. खिड़की से अमलतास की एक डाली अन्दर पहुँच गयी है. कोपलें हैं. अमलतास खिलने के मौसम में अभी वक़्त है शायद. एक साल. शायद बहुत साल और. मैं उसे बुलाना नहीं चाहती...वो बेतरह व्यस्त होगा...मुझे पक्का यकीन है. फोन रखने पर याद आया कि मैंने सोचा था उससे पूछूंगी, 'विश. तुम्हारे काले कोट पर लगा अमलतास का फूल ताज़ा है या सूख गया?'.
वो मुझे ऐसे ही किसी मोड़ पर मिला था. यूँ वो शहर कोई भी हो सकता था. मेरे पसंदीदा शहर दुनिया के नक़्शे में बिखरे हुए हैं. स्विट्ज़रलैंड में बर्न...अमरीका में शिकागो या कि हिंदुस्तान में कन्याकुमारी. मगर हमें किसी ऐसे शहर में मिलना नहीं लिखा था जिसकी गलियों में खुशबू हो...जिसकी हवाओं में उस शहर की शिनाख्त की जा सके. हमें ऐसे शहर में मिलना था जिसकी गलियां नामालूम हो. पोलैंड के नाज़ी यातना शिविरों में कैदियों से उनका नाम छीन लिया जाता था. हम जिस चौराहे पर मिले थे उसका परिचय भी ऐसे ही धूमिल कर दिया गया था ताकि हम कभी भी लौट कर वहाँ नहीं जा सकें.
चौराहे पर एक डाकघर था जहाँ से मैंने टिकट खरीदे थे और वहीं सीढ़ियों पर बैठी पोस्टकार्ड लिख रही थी. जब सारे पोस्टकार्ड्स पर मेसेज और पता लिख दिया और स्टैम्प चिपका दिए तो मैं देर तक आसमान देखती रही. नीले आसमान की छोटी छोटी पुर्जियां दिख रही थीं सुनहले पेड़ के पत्तों के बीच से. हवा के झोंके में किसी पुकार का संगीत नहीं घुला था. मैं एक एक करके पोस्टकार्ड नीले डब्बे में गिरा रही थी जब मैंने उसे सामने से आते देखा. चुंकि मुझे मालूम नहीं था कि ये शहर कौन सा है तो मैं ये भी नहीं जान सकती थी कि वो इस शहर में हो सकता है. उसकी मुस्कान में एक प्रतीक्षा थी. जैसे उसे मालूम था कि इस नामालूम शहर के इसी डाकघर तक मुझे आना है. उसने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया...उसकी बंधी मुट्ठी में एक अमलतास का फूल था. मगर इस शहर में तो अमलतास नहीं खिलते.
'मेरा पोस्टकार्ड मुझे दे दो...यहाँ से गिराओगी तो खो जाएगा...मेरा शहर यहाँ से तेरह समंदर पार है'. मेरा दायाँ हाथ उसने थाम रखा था...हम दोनों की हथेलियों के बीच एक अमलतास का फूल साँस ले रहा था. मेरे बाँयें हाथ में उसके नाम का पोस्टकार्ड था जिसे मैं लेटर बौक्स में गिराने ही वाली थी. मगर उसे सामने सामने कैसे दे दूँ ये पोस्टकार्ड...अभी इसके मिलने का वक़्त तय नहीं हुआ है. मुझे संगीत के नोटेशंस याद आये...सम पर मिलना था उसे ये पोस्टकार्ड. अगर वो अभी मेरा लिखा पढ़ लेगा तो जिंदगी के ताल में ब्रेक आ जाएगा.
वो शनिवार का दिन था और शहर के लोग छुट्टियाँ बिताने गाँव की ओर निकल गए थे. अगर चाहना पर दुनिया चलती तो उस वक़्त हम दोनों एक नोटबुक, एक कलम और नए शहर बनाने की बहुत सी कल्पनाएँ चाहते थे...हम उसी वक़्त अपनी पसंद का एक शहर बना सकते थे जिसमें मेरी पसंद के फूल खिलते और उसकी पसंद का मौसम आता. मगर इस ठंढ में हमें पहले इक शांत जगह चाहिए थी जहाँ अलाव जल रहे हों और बेहतरीन विस्की या ऐसी कोई चीज़ मिल सके कि जिससे उँगलियों के पोरों में जमी ठंढ पिघल सके. सामने मेट्रो स्टेशन था. हम दोनों ने पहली मेट्रो ले ली. दिन के ग्यारह बज रहे थे, हमारे पास इतनी फुर्सत थी कि हम धरती का एक पूरा राउंड लेकर आ सकते थे. मगर हम पहले ही स्टॉप पर उतर गए. वह एक छोटा सा पहाड़ी गाँव था जिसका फ्रेंच नाम था...मेरे पसंदीदा गीत 'ला वियों रोज' की तरह कोई पोएटिक सा नाम.
आर्डर लेने आई हुयी औरत की उम्र कोई चालीस साल होगी...मुस्कुराती है तो गालों में गहरे गड्ढे पड़ते हैं और उसकी आँखों में बहुत काइंडनेस दिखती है. हम दोनों एक लम्बे से नाम वाला कोई ड्रिंक आर्डर करते हैं जिसमें पड़ने वाली कोई भी सामग्री हमें समझ नहीं आती. धूप का एक तिकोना टुकड़ा हमारे ठीक बीचो बीच लकड़ी की मेज पर आराम फरमाने लगता है. हमारी ड्रिंक काली चाय थी जिसमें दालचीनी, लौंग, अदरक और जायफल की तेज़ गंध थी...साथ में अल्कोहल की तीखी गर्माहट भी थी. हम दोनों ने अपनी अपनी ड्रिंक में दो चार चम्मच शहद मिलाई...हर सिप में 'शायद' का स्वाद आता है...जैसे 'शायद ये एक सपना है', 'शायद मैं सिजोफ्रेनिक हो रही हूँ', 'शायद मैं एक नयी कहानी लिख रही हूँ'...ऐसे ही बहुत से जायकेदार शायदों की चुस्की लेते हुए हम देर तक एक दूसरे को देखते रहे.
'अच्छा विश...अपने बारे में एक एक फैक्ट से शुरू करते हैं बातें...तुम्हारा पूरा नाम क्या है?'
'मेरा कोई नाम नहीं है...तुमने एक दोस्त की विश की थी इसलिए मैं तुम्हारे रास्ते भेज दिया गया. भगवान के कारखाने में हम जैसे लोग लिमिटेड एडिशन में बनाये जाते हैं. तुमने बड़े सच्चे दिल से मुझे माँगा है, इसलिए मैं आ गया हूँ...जब तुम्हारी ये जरूरत पूरी हो जायेगी...मैं गुम जाऊँगा और तुम्हें मेरी कोई याद भी नहीं रहेगी.'
'तो तुम मेरी चाहना के कारण आये हो?'
'हाँ मेरी दोस्त...तुम क्या चाहती हो?'
'इस वक़्त तो मैं कुछ भी नहीं चाहती विश...अगर ये सपना है तो ऐसे गहरे...मीठे और सच से लगे वाले कुछ और सपने...अगर ये एक कहानी है तो ऐसी कुछ एक और लम्बी कहानियां...जिंदगी से ज्यादा शिकायत नहीं है मुझे'
'तो मैं कभी कभी मिलने आता रहूँगा तुमसे...यूँ ही. कोई तीन एक साल में एक आध बार?'
'तीन साल थोड़े ज्यादा है...तुम साल में एक बार नहीं आ सकते?'
'दोस्त, मेरे आने का मौसम चाहिए तुम्हें?'
'अगर मैं हाँ कहूँ तो तुम मेरी बात मान लोगे?'
'चलो अगर मान लिया तो क्या नाम दोगी उस मौसम को?'
'नाम नहीं...इस मौसम के लिए एक फूल होगा...अमलतास...मुझे जिस साल तुम्हारी बहुत याद आएगी मैं तुम्हें अमलतास के फूल भेजा करूंगी लिफाफों में'
'सिर्फ फूल? ख़त नहीं भेजोगी?'
'नहीं विश...तुमसे करने को ख़त में बातें नहीं होतीं...तुमसे मिल कर जान रही हूँ कि कागज़ पर लिखे शब्दों का एक ही आयाम होता है...वे यूँ बात नहीं कर सकते. अब मुझे नहीं लगता मैं तुम्हें कभी ख़त लिख सकूंगी. अब तुम्हारी तलब लगेगी तो तुम्हें आना पड़ेगा.'
'हक की बात आ ही जाती है न मिलने से?'
'हक नहीं है...दुआएँ हैं...अमलतास जैसी...सुनहली पीली...शांत'
मैं अपनी नोटबुक से वही अमलतास का फूल निकाल कर उसके काले कोट के बटनहोल में लगा देती हूँ. फूल गिर न जाए इसलिए अपने बालों से एक क्लिप निकाल कर उसे फिक्स कर देती हूँ. चेहरे पर एक लट बार बार झूल आ रही है. मैं नोटबुक देखती हूँ तो उसमें एक और अमलतास का फूल पाती हूँ. उसे निकाल कर टेबल पर रखती हूँ तो देखती हूँ वहाँ एक और अमलतास का फूल है...धीरे धीरे टेबल पर एक गुच्छे अमलतास के फूल जमा हो जाते हैं. विश मेरी ओर देख कर मुस्कुराता है. मैं उसकी. वो लम्हा बहुत मीठा है. अमलतास के मौसमों में जो शहद बनता है...उतना मीठा. कभी कभी महसूस होता है जिंदगी में कि सब कुछ शब्द नहीं होते...बातों से नहीं बनी होती दुनिया. मुस्कुराहटों. अमलतास के फूलों. फिर कभी मिलने की दुआओं. और विस्की की स्वाद वाली चाय की भी बनी होती है. विश. कितना प्यारा नाम है न.
इसके कोई तीनेक साल तक अमलतास का मौसम नहीं आया. मैं कभी गुलमोहर के देश जाती तो कभी वाइल्ड आर्किड वाले पहाड़...कभी मोने की वाटर लिलीज वाले शहर...ऐसे ही किसी दिन विश का फोन आता है...वो मुझसे फोन पर पूछता है, 'दोस्त, तुमने तो इतनी दुनिया देखी है...जरा नक्शा देख कर बताओ...मेरे घर से तेरह समंदर दूर कौन सा शहर पड़ता है? मुझे जाने क्यूँ लगता है कि मैं कभी उस शहर में मिला हूँ तुमसे'. मैं गिनती हूँ तो दुनिया के तेरह समंदर पूरे होते हुए वापस उसके शहर तक ही पहुँच जाती हूँ. 'ऐसा कोई शहर दिखता तो नहीं है मगर मेरी डायरी में एक पोस्टकार्ड रखा है जिसपर तुम्हारे घर का पता है और स्टैम्प्स भी लगे हुए हैं...कितना भी याद करूँ, मुझे याद नहीं आता कि मैंने ये पोस्टकार्ड गिराया क्यूँ नहीं. उसके अगले पन्ने में एक अमलतास का सूखा फूल भी रखा है. उस पूरे साल मैं जिन देशों में रही हूँ उनमें से किसी में भी अमलतास नहीं खिलता...तुम्हें कोई अमलतास का फूल याद है?'.
उस वक़्त हम एक दूसरे से तेरह समंदर दूर के शहरों में होते हैं लेकिन जब अपनी अपनी चाय सिप करते हैं तो बारी बारी से दालचीनी...लौंग...जायफल...सारे स्वाद आने लगते हैं. मौसम सर्द होने लगा है. मैं अपने कोट की जेब में हाथ डालती हूँ...दोनों जेबों से अलग अलग दस्ताने निकलते हैं. खिड़की से अमलतास की एक डाली अन्दर पहुँच गयी है. कोपलें हैं. अमलतास खिलने के मौसम में अभी वक़्त है शायद. एक साल. शायद बहुत साल और. मैं उसे बुलाना नहीं चाहती...वो बेतरह व्यस्त होगा...मुझे पक्का यकीन है. फोन रखने पर याद आया कि मैंने सोचा था उससे पूछूंगी, 'विश. तुम्हारे काले कोट पर लगा अमलतास का फूल ताज़ा है या सूख गया?'.
विश ने मुझसे कहा है- मेरी सहेली को बता देना कि उसके कोट का अमलताश वैसा ही हरा है जैसा तब था जब सहेली ने लगाया था।
ReplyDeleteबहुत दिन बाद तुम्हारी पोस्ट पढी। बहुत अच्छा लगा। :)
कलम को छू न सकूँ तो मुझे साँस लेने में तकलीफ होने लगती है ...
ReplyDeleteआपके शब्द छू जाते हैं
very touchy story..really amaltash ki dal par khilti dostiya is very nice story ,I love to read this keep posting nice stories like this.thanks!
ReplyDeleteIndian matrimonial site