01 November, 2015

इश्क़ तिलिस्म


'आप गज़ब हैं मैडम जी. भोरे भोर कोई ओल्ड मौंक खोजता है का? अभी तो ठेका खुलबे नै किया होगा नै तो हम ला देते आपके लिए.'
'अरे न बाबू, क्या कहें. पीने का नहीं, चखने का मन हो रहा है. जुबान पर घुलता है उसका स्वाद. किसी पुरानी मीठी याद की तरह. एक ठो दोस्त हुआ करता था मेरा. बहुत साल पहले की बात है. बुलेट चलता था. तुम कभी मोटरसाइकिल चलाये हो?
'हाँ मैडम जी, राजदूत था हमरे बाबूजी के पास'
'अरे वाह. हम भी राजदूत ही चलाना सीखे थे पहली बार...तो रिजर्व का तो फंडा पता ही होगा तुमको.'
'हाँ मैडम जी, पेट्रोल ख़त्म होने पर भी जरा सा एक्स्ट्रा टंकी में जो रहता है...वोही न'
'हाँ हाँ...वोही...तो ऊ दोस्त हमरा रिजर्व में रहता था...माने...बहुत गम हो रहा...दिल टूटा हुआ है...किसी से बतियाने का मन कर रहा है...वैसेही...उसके लिए इश्क़ बॉर्डरलाइन पर हुआ करता था. हम ज़ब्त करके रखते थे खुद को...सब से इश्क़ ही हो जाएगा तो रोयेंगे कहाँ जा कर?'
'ऊ तो बात है...लेकिन आपका लड़की लोगन से कहियो दोस्ती नै था क्या?'
'उहूँ...लड़की लोग बहुत फीकी होती है...पनछेछर...बूझते हो न...हमसे बात करने में माथा ख़राब हो जाता है सबका...किसी को गुस्से में हरामी बोल दिए तो बस मुंह फुला के बैठ गयी. लड़का लोग बेहतर है न...और वैसे भी चूँकि हम लड़की हैं तो माँ...बहन का गाली हमको लगता नहीं है न...बुझे न...'
'गाली देना तो बहुत मुस्किल है मैडम जी...हमरी पिछली गर्लफ्रेंड हमको एही गाली के चलते छोड़ कर चली गयी थी...एक दिन साला गुस्से में उसके बाबूजी को कुछ बोल दिए थे'
'सब का अपना अपना कमजोरी होता है बाबू, हमरा भी था.'
'अच्छा आपको भी कौनो चीज़ का चस्का लगा था का मैडम जी?'
'अरे. गज़ब चस्का था. दिन रात खुमार में बीतता था. अब तो हम सुधर गए हैं. नै तो हमपर भी चढ़ता था नशा. कि ओह.'
'कौंची का आदत था मैडम जी?'
'अरे बाबू, इशक...का...इश्क का...इश्श्श्श्क ...आह वे दिन...वो लोग...वो जुबान पे चाशनी सा नाम उनका...शहज़ादे...'
'कहाँ के शहज़ादे थे हुज़ूर?'
'इश्क़ तिलिस्म के'
'हम तो कभी नाम नै सुने इसका'
'था एक तिलिस्म बाबू...हमने भी अपने तिलिस्म में कई शहज़ादे बंद करके रखे थे.'
'कहाँ मैडम जी...दरभंगा इस्टेट में का?'
'धत पगले, सब तिलिस्म ईट पत्थर का नहीं बना होता है...एक तिलिस्म रूह का भी होता है.'
'कभी कभी आपका बात हमको एकदम्मे नै समझ में आता है मैडम जी. ई रूह माने आत्मा ही ना...रूह का कैसन तिलिस्म होता है?'
'का बताएं बाबू...कैसन तिलिस्म होता था...अब तो सब बात ख़तम हो गया है...हम अपना खाली दिल लिए दुनियादारी में झोंक दिए खुद को. एक ज़माने में इश्क़ तिलिस्म हुआ करता था.'
'और कुछ बताइये न मैडम जी तिलिस्म के बारे में'
'तिस्लिम...हाँ...रूह का तिलिस्म था. देखो, कुछ लोगों के लिए इस दुनिया का इश्क़ काफी नहीं पड़ता...उन्हें इश्क़ और गहरा चाहिए होता है...इश्क के कई रंग होते हैं...गुलाबी से शुरू होते हुए गहरा नीला...तुमने आग की लौ देखी है न...वैसे ही होता जाता है इश्क...सबसे ऊंचाई पर पहुँचता है तो गहरा नीला हो जाता है. खुदा कुछ ख़ास लोगों को चुनता है ऐसे इश्क़ के लिए. उनका सुख और दुःख रूह तक पहुँचता है. सब लोग इस इश्क़ को बर्दाश्त नहीं कर पाते कि ये इश्क़ जब टूटता है तो रूह का एक हिस्सा हमेशा के लिए लापता हो जाता है. मैंने इस इस इश्क़ के इर्द गिर्द सीमा रेखा बना दी...कि ऐसे टूटे हुए लोग यूं भी दुनिया के लिए गुम चुके होते हैं. ये मेरी सल्तनत थी...जिसका नाम था 'इश्क़ तिलिस्म'.
'सच में था, ऐसा जगह कहीं पर?'
'हाँ. पता नहीं ये कौन दीवाने थे जिन्होंने मेरी आँखों में इस तिलिस्म का रास्ता देख लिया था...वे इश्क़ में डूबते तो बस बाशिंदे हो जाते तिलिस्म के...तिलिस्म सबकी रूहों के हिस्से से बनता जाता था और खूबसूरत...खुशरंग...और मायावी.'
'फिर तिलिस्म टूटा कैसे?'
'तिलिस्म में एक शहज़ादा था...मेरा सबसे फेवरिट...मुंहलगा एकदम...शेरो शायरी का शौक़ था हम दोनों को...एक दिन फैज़ का शेर सुनाते हुए कहता है, "और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा"...हम शेर का बाकी हिस्सा सुनाये उसको, "मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग"...तो बोलता है पहली सी मुहब्बत नहीं चाहिए...चाबी चाहिए...हमको तिलिस्म का चाबी दे दो...हम ई दिन रात यहाँ तुमरे तिलिस्म में बंधे बंधे नहीं बिता सकते हैं...हमरा दम घुटता है. हम बाहर भी हवा खाने जायेंगे...बाकी लड़की लोग को भी ताड़ेंगे...'
'फिर? नहीं दिए न चाभी उसको...गज़ब बोका नियन बोल रहा था...ई कोई शेयर्ड अपार्टमेंट थोड़े है कि सब्बे को एक एक ठो चाबी चाहिए'
'नहीं बाबू...दे दिए उसको चाबी...बहुत प्यारा था हमको...उसका एक्को बात टाल नै सकते थे हम'
'ऊ लौट के नहीं आया न?'
'अरे नहीं. लौट के नहीं आता तो ठीक था. वो महीनों, सालों गायब रहता...उसके इंतज़ार में तिलिस्म पर उदासी का मौसम गहराने लगता. तिलिस्म के बाशिंदे आत्महत्या करना चाहते. हर कुछ दिनों में कोई कलाई काट के मर जाता. कोई नदी में कूद कर जान दे देता'
'अरे बाबा रे...खतरनाक ही था एकदम'
'हाँ रे बाबू...मगर शहज़ादे को कोई फर्क नहीं पड़ता...वो सालों बाद भी ऐसे लौटता जैसे सारी सल्तनत उसकी ही है...और होती भी. वो पांच मिनट भी रुकता तो तिलिस्म में रहमतों की बारिश होती. सारे ज़ख्म भर जाते.'
'और कुछ बताइए न मैडम जी...कैसा दिखता था शहज़ादा?'
'सांवला सा था. सुनहली आँखें. लम्बा. छरहरा. उम्र जैसे उस तक आ कर ठहर गयी थी. लम्बे काँधे तक के हल्के घुंघराले बाल. उसके मुस्कुरा भर देने से दुआओं की नदी लबालब भर जाती थी. सारी बुरी आदतें भरी थीं उसमें. चेन स्मोकर था और शौकिया बीड़ी पीता था...जहन्नुम के आर्किटेक्चर पर काम कर रहा था. गज़ब प्यास का बना था वो. उसकी बांहों में होती थी तो और कुछ नहीं याद रहता. जिस्म से सांस. रूह से इश्क. दिल से सारे पुराने आशिकों के नाम. सब गुमशुदा हो जाते थे. डिस्क फॉर्मेट हो जाती थी पूरी की पूरी'
'फिर?'
'फिर. उससे मिलना जितना खूबसूरत था उसके जाने के बाद का खालीपन उतना ही खूंख्वार. उसके जाने के बाद इश्क़ तिलिस्म में बेतरतीब लोग भरते चले जाते. मैं इस बात का भी ख्याल रखना भूल जाती कि तिलिस्म में भटकते लोगों का कोई और ठौर नहीं है. मेरे मूड के हिसाब से वहां का माहौल बदलता...कभी वीराना...कभी रेगिस्तान...कभी समंदर. तिलिस्म के बाशिंदे कितना भी खुद को ढालने की कोशिश करते पर उन्हें करार नहीं आता. हम एक व्यूह का हिस्सा होते जा रहे थे...जहाँ से वापस लौटना हमें नहीं आता था'
'आप बचाने का कोसिस नै किये तिलिस्म को?'
'रूह का धागा यूं तो बहुत मज़बूत होता है लेकिन उसकी भी सीमा होती है. इश्क़ तिलिस्म की सबसे खूबसूरत बात थी कि यहाँ वक़्त ठहर गया था. हम अपने सबसे खूबसूरत लम्हों को बार बार जी सकते थे. दोहराव भी जानलेवा हो सकता है मुझे ये बात पहली सुसाइड से ही समझ लेनी चाहिए थी. मगर उसी दिन शहज़ादा लौटा था तिलिस्म में तो मैं सब छोड़ कर उसके पास भागती चली गयी थी. फिर साल दर साल मौतें होती रहीं और मैं उनसे कतरा के निकलती रही...डर इतना ज्यादा बढ़ गया था कि हिम्मत ही नहीं होती कि आंकड़ों को देखना कहाँ से शुरू करूँ. अपनी पसंदीदा यादों को लूप पर चलाते हुए लोग पागल होने लगे थे. इस पागलपन में उन्हें जिंदगी और मौत का अंतर समझ नहीं आने लगा था. मुझे उन दिनों जिंदगी का कोई मकसद नहीं दिखता था...जिस रोज़ मेरी रूह ने पहली बार मौत को छू लेने की ख्वाहिश की, मौत को तिलिस्म में आने को हलकी दरार मिल गयी...बस फिर उसने दबे पाँव अपना सम्मोहन फैलाया और तिलिस्म के सारे बाशिंदे दुआओं की नदी में डूब गए...मैंने उनमें से हर एक की लाश को खुद बाहर निकाला. उनकी कब्रें खोदीं...चिताएं जलायीं...और देर तक मौत की गंध में डूबी बैठी रही. तिलिस्म अब जानलेवा हो गया था. मैंने सोचा कि ताला बदल दूं मगर फिर जाने क्यों शहज़ादे का ख्याल आ गया..तो बस एक ख़त लिख कर रख दिया...फिर लौट कर इतने सालों में नहीं गयी हूँ'
'शहज़ादा लौटा क्या?'
'मालूम नहीं...एक बीड़ी पिलाओगे?'
'आप बीड़ी भी पीती हैं मैडम जी?'
'नहीं बाबू...शहज़ादे की एक यही चीज़ बाकी रह गयी है...उसके तो नहीं हो सके...बीड़ी के हो के रह गए हैं'.
'बस इतना.'
'बस इतना.' 
'देखो कहानी कहानी में बहुत वक़्त निकल गया. ठेका से एक ठो ओल्ड मौंक ला दो.'
'आप गज़ब हैं मैडम जी...ओल्ड मौंक, बीड़ी...आपको देखकर हरगिज़ नै लगता है कि आपको ई सब भी शौख होगा...अपने ऊ दोस्त को फोन कर लीजिये'
'अभी नहीं. चार पैग के बाद. कोक भी लेते आना साथ में'
'मैडम जी, चार पैग तो हो गए...अब?'
'एक और बना दो'
'ओके मैडम जी'
'क्या हुआ...ग्लास अब तक भरा क्यूँ नहीं?'
'भरा तो है मैडम जी...आइस भी डाली है...'
'नहीं बाबू...ग्लास खाली है...बीड़ी भी ख़त्म हो गयी...तुमको खम्बा लाने बोले थे न ओल्ड मौंक का...ये पव्वा काहे लेकर आये हो?'
'मैडम जी...आप काहे गुस्सा हो रही है....पूरा पैग बना दिए...और पव्वा कहाँ है...खम्बा ही तो है ओल्ड मौंक का...और ये दो ठो बण्डल रखा है न बीड़ी का...क्या हो गया मैडम जी?'
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दोपहर की कड़ी धूप का रंग बदलने लगा था...बुलेट की आवाज़ दिल की धड़कनों पर हावी हो रही थी. दोस्त ने आज किस जनम का बदला लिया था मालूम नहीं जो अपने साथ शहज़ादे को उठा लाया था बुलेट पर. सारी ओल्ड मौंक उतर गयी कमबख्तों को देख कर. शहज़ादे की मुस्कराहट से तिलिस्म ज़िंदा होने लगा था. मैंने शहज़ादे को झुक कर सलाम किया, बीड़ी का आखिरी गहरा कश मारा...हाई हील की सैंडिल तले चिंगारी बुझाई और एक उदास आखिरी लाइन कही उनसे 'गुस्ताखी माफ़ हो शहज़ादे' . दोस्त के साथ बुलेट पर बैठी...काँधे पर हाथ रखा, चुपके से उसके कान में कहा...'जान, मुझे यहाँ से दूर ले चलो...बहुत बहुत बहुत दूर'. बुलेट की पिकअप के दीवाने यूं ही नहीं थे हम. एक्सीलेरेटर पर उसका हाथ घूमा. उसने जोर का ठहाका मारा...जिसमें मेरी हँसने की आवाज़ मिलती गयी...हमारी साझी हँसी बुलेट की आवाज़ से भी ज्यादा ऊंची थी.

उस दिन इश्क़ तिलिस्म बस बंद हुआ था. ख़त्म आज होता है.

6 comments:

  1. "... सब तिलिस्म ईट पत्थर का नहीं बना होता है...एक तिलिस्म रूह का भी होता है. "

    खूब रचा है तिलिस्म...

    शब्दों और कहानियों का तिलिस्म बना रहे... कि इन्हीं से खूबसूरत है ज़िन्दगी... !!

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 02 नवम्बबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  3. सुन्दर........... मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन की प्रतीक्षा |

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  4. जिस किसी की तिस्लिम खो गया हो यहाँ आकर ढूढ़ ले. बहुत खूब!

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  5. सुन्दर रचना ......
    मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन की प्रतीक्षा है |

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