24 May, 2020

खो गयी चीज़ें और उनके नाम

दिल के भीतर चाहे जैसे भी रंग भरे हों, दिल की आउट्लायन दुःख के सीले स्याह से ही बनायी गयी है। जाने कैसी उदासी है जो रिस रिस के आँख भर आती है। कुछ दिन पहले पापा से बात कर रही थी, उन चीज़ों के बारे में जिनका नाम सिर्फ़ उन्हें पता है जिनके बचपन में वो शामिल रही हों। कई सारे खिलौने। 

अभी जब सब कुछ ही प्लास्टिक का होता है और छूने में एक ही जैसा लगता है। तब के इस खिलौने में कितनी चीज़ों का इस्तेमाल था। सन की रस्सी। पतली चमकदार जूट जिसे हिंदी में सन कहते हैं… गाँव के रास्ते कई जगह देखती थी सन को धूप में सुखाया जा रहा होता था और फिर उसकी बट के रस्सी बनायी जाती थी। इसके लिए एक लोहे का खूँटा गाड़ा गया होता था जिसमें से लपेट कर सन को ख़ूब उमेठ उमेठ कर रस्सी बनायी जाती थी। कुएँ का पानी खींचने के लिए सन की ही रस्सी होती थी। कभी मजबूरी में नारियल वाली रस्सी का भी इस्तेमाल देखा है, पर उस रस्सी से हाथ छिल जाते थे। सन की रस्सी चिकनी होती थी, हाथ से सर्र करके फिसलती थी तो भी हाथ छिलते नहीं थे। 

एक खिलौने में मिट्टी का सिकोरा और पहिए होते थे। काग़ज़ होता था। बाँस होता था। सबका अलग अलग हिस्सा, अलग अलग तासीर…सब कुछ जल्दी टूट जाने वाला। रस्सी से खींची जाने वाली आवाज़ करने वाली एक गाड़ी होती थी। मिट्टी का एक छोटा सिकोरा, उसके ऊपर पतला काग़ज़ जूट की पतली रस्सी से बँधा होता था। इसके ऊपर दो छोटी छोटी तीलियाँ होती थीं। एक छोटा सा ढोल जैसा बन जाता था। इसके मिट्टी के दो छोटे छोटे गोल पहिए होते थे और बाँस की दो खपचियाँ लगी होती थीं, जैसे कि कोई छोटी सी छकड़ागाड़ी हो। इसके आगे धागा बँधा होता था। मेले में अक्सर मिलता था। कभी कभी टोकरी में लेकर खिलौने वाले इसे बेचने घर घर भी आते थे। इसकी रस्सी पकड़ कर चलने से दोनों तीलियाँ ढोल पर बजने लगती थीं। एक टक-टक-टक जैसी आवाज़। छोटे बच्चों को ये ख़ूब पसंद होता था। मिट्टी का होता था, बहुत ज़्यादा दिन नहीं चलता, कभी काग़ज़ फट जाता तो भी खिलौना बेकार हो जाता था। मेरे बचपन की याद में इस खिलौने की टिक-टिक-टिक-टिक भी है।

इसी तरह हाथ में पकड़ कर गोल गोल घुमाने वाला एक खिलौना होता था। उसमें गहरे गुलाबी रंग की प्लास्टिक की पन्नी लगी होती थी। जिसे हम रानीकलर कहते थे। इसे हाथ में लेकर बजाते थे। वही दो तीलियाँ होती थीं, एक लोहे का महीन तार होता था और कड़-कड़-कड़ जैसी आवाज़ होती थी।

गाँव में एक बड़ी सी अलमारी थी। गोदरेज की। उसमें जाने क्या क्या रखा रहता था। कभी कभी तो दही और दूध की हांडियाँ भी। बिल्ली से बचने की इकलौती महफ़ूज़ जगह होती होगी, शायद। मेरा कच्चा मकान था वहाँ, दो तल्लों का। पहले फ़्लोर पर जाने को मिट्टी की सीढ़ियाँ थीं। हम उन सीढ़ियों पर कितनी बार फिसल कर गिरे, लेकिन कभी भी चोट नहीं आयी। मिट्टी का आँगन गोबर से लीपा जाता, उसपर भी फिसल कर कई बार, कई लोग गिरे थे। हमारे चारों तरफ़ मिट्टी ही मिट्टी होती। पेड़ों पर, घरों की बाउंड्री वाल एक आसपास, खेत, गोहाल, घर…हम जहाँ भी गिरते, वहाँ मिट्टी ही होती अक्सर। मिट्टी में कभी ज़्यादा चोट नहीं आती। छिले घुटने और एड़ियों पर मिट्टी रगड़ ली जाती या हद से हद गेंदे के पत्तों को मसल कर उनका रस लगा लिया जाता। गिरने पड़ने की शिकायत घर पर नहीं की जाती, दर्द से ज़्यादा डाँट का डर होता। 

धान रखने के लिए मिट्टी की बनी ऊँची सी कोठी होती थी जिसके तीन पाए होते थे, जिसमें कई बार एक टूटा होता था। वहाँ धान निकालने के लिए जो छेद होता था उसमें कपड़े ठूँसे रहते थे। ताखे पर रखा छोटा सा आइना होता था जिसमें देख कर अक्सर बच्चे माँग निकालना सीखते थे या नयी बहुएँ बिंदी ठीक माथे के बीच लगाना। मैंने कभी चाची या दादी को आइना देखते नहीं देखा। वे बिना आइना देखे ठीक सीधी बीच माँग निकाल लेतीं, सिंदूर टीक लेतीं, बिंदी लगा लेतीं। उन्हें अपना चेहरा देखने की कोई ऐसी हुलस नहीं होतीं। आँगन के एक कोने में तुलसी चौरा था, भंसा के पास। मैं छोटी थी तो मुझे लगता था इसके ताखे के अंदर किसी भगवान की मूर्ति होगी। मेरी हाइट से दिखता नहीं था कि अंदर क्या है। 

शाम होते चूल्हा लगा दिया जाता। पूरे गाँव में कहीं से गुज़रने पर धुएँ की गंध आने लगती। कहीं लकड़ी तो कहीं कोयले पर खाना बनता। बोरे में कोयला रखा रहता और उसे तोड़ने के लिए एक हथौड़ा भी। खाने की दो तरह की अनाउन्स्मेंट होती। पहला हरकारा जाता कि पीढ़ा लग गया है। इसमें लकड़ी का पीढ़ा और पानी का गिलास भर के रख दिया जाता था। इस हरकारे को सुन कर खाने वाले लोग कुआँ पर हाथ मुँह धोने चले जाते थे। फिर दूसरा हरकारा जाता था कि खाना लग गया है, मतलब कि थाली लग गयी है और उसमें एक रोटी रख दी गयी है। तब लोग पीढ़ा पर आ के बैठते थे और खाना खाते थे। चाची वहीं चुक्कु मुक्कु बैठी मिट्टी वाले चूल्हे में गर्म गर्म रोटी बनाती जाती और देती जाती। एक आध लेफ़्टिनेंट बच्चा रहता नमक या मिर्ची का डिमांड पूरा करने के लिए। चाची के माथे तक खिंचा साड़ी का घूँघट रहता, कोयले की लाल दहक में तपा हुआ चेहरा। रोटी की गंध हवा में तैरती रहती।

गाँव में अब पक्का मकान बन गया है। खाना भी गैस पर बनता है। चाची अब नीचे बैठ कर नहीं बना सकती तो एक चौकी पर गैस रखा है और वो कुर्सी या स्टूल पर बैठ कर खाना बनाती हैं। तुलसी चौरा पर हनुमान जी की ध्वजा तो अब भी लगती है लेकिन परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने के कारण अब रामनवमी का त्योहार हमारे यहाँ नहीं मनाया जाता। मैं गाँव का मेला देखना चाहती हूँ। इन अकेले दिनों में। किसी बचपन में लौट कर।

7 comments:

  1. बहुत बढ़िया

    ReplyDelete
  2. ओह गॉश पूजा बचपन की यादें ताजा हो गईं।

    एक कन्फेशन करना चाहेंगे … कई सालों के बाद इस ब्लॉग पर कमेंट किया है मैंने ।
    . . .

    आखिरी बार जब इस ब्लॉग से रुबरु हुए थे वो लगभग चार-पांच साल पहले की बात है… ( उस वक्त तुम्हारी शादी नहीं हुई थी; हां लेमी पेन वाला या शायद वो सिगरेट वाला पोस्ट ब्लॉग पर लेटेस्ट था )
    आइ एम सॉरी :( ।
    मेरा फोन खराब हो गया था, सारे बुकमार्क उसी के साथ चले गए… और तुम्हारे इस ब्लॉग का पता याद नहीं रहा।

    आज अनु (अनु सिंह चौधरी) का एक ब्लॉग पोस्ट ट्विटर पर दिख गया, और उसे पढ़ते-पढ़ते सहसा ही तुम्हारी याद आ गई … किसी दशकों पहले बिछड़े परिवार के सदस्य की तरह ।
    बस फिर क्या, एक सवा घंटे फ्रैन्टिकली गूगल सर्च करने पर मेरी खुशकिस्मती से ही – क्योंकि जब हर तरह के की वर्ड यूज़ करने के बाद भी कुछ रिज़ल्ट नहीं आया तो हिम्मत टूटने लगी थी – अभी रात के तीन बजे करीब तुम्हारा नाम केसरिया अक्षरों में मेरी फोन स्क्रीन पर चमचमा रहा था । :)
    बस फिर मैंने तुम्हारा ये ब्लॉग खोला टॉप पर लिस्टेड चारों ब्लॉग्स में से …
    और बस फ्रंट पेज पर के कुछ पोस्ट पढ़ते-पढ़ते, पता नहीं क्यों, आंखें डबडबा गईं।
    आखिर फिर से मुलाकात हो गई बिछड़े सदस्य से…
    :)
    सी यू सून ऑन अ न्यू पोस्ट ।
    तब तक इस लॉक डाउन में तुम्हारा आर्काइव खंगालेंगे…।

    ReplyDelete
  3. सुंदर पोस्ट है पूजा! तुम्हारे इस ब्लॉग से पुराना नाता था । शायद एक वजह ये भी थी कि हम दोनों ही अर्स्टव्हाइल बिहार से हैं।
    खैर, बदकिस्मती से ४ साल पहले तुम्हारे साथ-साथ कुछ और ब्लॉग्स का पता बुकमार्क से गुम गया और याददाश्त के धोखे की वजह से ये लिंक जो हमारे बीच था वो टूट सा गया । कल जाने कैसे तुम्हारा नाम याद आ गया… और फिर कुछ घंटों की मशक्कत के बाद पहले तुम्हारा ब्लॉगर प्रोफ़ाइल और फिर मैंने से ब्लॉग ढूंढ निकाला!

    बड़ी खुशी हुई वापस तुम्हारी कहानियों से साक्षात्कार करके । आख़िरी बार जब इस ब्लॉग पर आए थे उस वक्त शायद ट्रैम्पोलीन पोस्ट लेटेस्ट था ।
    सुंदर पोस्ट है पूजा! तुम्हारे इस ब्लॉग से पुराना नाता था । शायद एक वजह ये भी थी कि हम दोनों ही अर्स्टव्हाइल बिहार से हैं।
    खैर, बदकिस्मती से ४ साल पहले तुम्हारे साथ-साथ कुछ और ब्लॉग्स का पता बुकमार्क से गुम गया और याददाश्त के धोखे की वजह से ये लिंक जो हमारे बीच था वो टूट सा गया । कल जाने कैसे तुम्हारा नाम याद आ गया… और फिर कुछ घंटों की मशक्कत के बाद पहले तुम्हारा ब्लॉगर प्रोफ़ाइल और फिर मैंने से ब्लॉग ढूंढ निकाला!

    बड़ी खुशी हुई वापस तुम्हारी कहानियों से साक्षात्कार करके । आख़िरी बार जब इस ब्लॉग पर आए थे उस वक्त शायद ट्रैम्पोलीन पोस्ट लेटेस्ट था ।

    लॉट्स ऑफ़ लव ऐंड गुड विशेज़ टु यू माइ लॉस्ट फ्रेंड ... ❤️

    लॉट्स ऑफ़ लव ऐंड गुड विशेज़ फ्रेंड, यू वर डियरली मिस्ड ।

    ReplyDelete
  4. बहुत खूबसुरत ब्लॉग पूजा। पुराने दिनों की याद दिला दी। वो बचपन के पल भी क्या बला के सुंदर हुआ करते थे। एकदम सिम्पल सी लाइफ जहां छोटी छोटी सी चीज़ें भी बड़ी खुशियां दिया करती थीं।
    मेले में मिलने वाले उन खिलौने का मोल चाहे जितना भी कम रहा हो, पर हमारे लिए तो बिल्कुल ही अनमोल थे।

    p.s. : एक बात कहना चाहेंगे — आपके इस ब्लॉग से आखिरी बार रूबरू हुए करीब चार साल हो गए। दरअसल इस ब्लॉग का बुकमार्क जिस फोन में था वो खराब हो गया। और उसके बाद मेरे सारे पसंदीदा ब्लॉग्स का लिस्ट जैसे हमेशा के लिए गुम गया।
    कल पता नहीं कैसे तुम्हारे इस ब्लॉग की याद आ गई; बस फिर क्या गूगल पर सर्च के लिए कीबोर्ड पर उँगलियाँ दौड़ने लगी। और आखिर तुम्हारा प्रोफाइल मिल ही गया।

    ReplyDelete
  5. नमस्ते पूजा,

    बहुत खूबसूरत ब्लॉग पोस्ट थे : "अचरज की चिड़िया का लौट आना", और "खो गई चीज़ें और उनके नाम"।



    तुमने पुराने दिनों की याद दिला दी। वो बचपन के पल भी क्या बला के सुंदर हुआ करते थे। एकदम सिम्पल सी लाइफ जहां छोटी छोटी सी चीज़ें भी बड़ी ख़ुशियाँ दिया करती थीं।

    मेले में मिलने वाले उन खिलौने का मोल चाहे जितना भी कम रहा हो, पर हमारे लिए तो बिल्कुल ही अनमोल थे।

    इस ब्लॉग से पुराना नाता था, इसके अलावा अनु जी का "मैं घुमंतू" और दीपिका रानी जी का "एक कली दो पत्तियां" । दिन के लगभग एक घंटे मजे से ये तीनों ब्लॉग पढ़ने में बीतते थे।



    पर फिर चार साल पहले जिस फोन में इन ब्लॉग्स का बुकमार्क था वो खराब हो गया और लगा जैसे सारे पसंदीदा ब्लॉग्स का लिस्ट जैसे हमेशा के लिए गुम गया। उनमें



    कल पता नहीं कैसे उन ब्लॉग्स की याद आ गई । शायद लॉक डाउन में बहुत टाइम बचता था ।

    खैर मैंने कोशिश की तो जाकर बस मैं घुमंतू ब्लॉग मिल पाया।



    और फिर शुरू हुई डिफरेंट की वर्ड्स के साथ गूगल की खोज ... चूंकि तुम्हारा नाम तो याद था ही इसलिए आखिर डेढ़ दो घंटे गूगल सर्च के बाद आखिर तुम्हारा ब्लॉगर प्रोफाइल मिल ही गया। कह नहीं सकते ब्लॉग पोस्ट स्क्रीन पर देखने के बाद कितना अच्छा महसूस हुआ था ।



    आखिरी बार तुम्हारा ब्लॉग साल 2016 के अप्रैल महीने में पढ़ा था मैंने, और उसके बाद से आज ।

    ReplyDelete
  6. नमस्ते पूजा,

    बहुत खूबसूरत ब्लॉग पोस्ट।



    तुमने पुराने दिनों की याद दिला दी। वो बचपन के पल भी क्या बला के सुंदर हुआ करते थे। एकदम सिम्पल सी लाइफ जहां छोटी छोटी सी चीज़ें भी बड़ी ख़ुशियाँ दिया करती थीं।

    मेले में मिलने वाले उन खिलौने का मोल चाहे जितना भी कम रहा हो, पर हमारे लिए तो बिल्कुल ही अनमोल थे।

    ReplyDelete

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...