18 January, 2016

खुदा ने प्यास के दो टुकड़े कर के इक उसकी रूह बनायी...एक मेरी आँखें...

गुम हो जाना चाहती हूँ.
सोच रही हूँ कि खो जाने के लिये अपनी रूह से बेहतर जगह कहाँ मिलेगी. अजीब सी उदासी तारी है उंगलियों में. कि जाने क्या खो गया है. कोई बना है प्यास का...जैसे जैसे वो अंदर बसते जाता है उड़ती जाती हैं वो चीजें कि जिनको थाम कर जीने का धोखा पाला जाता है. मंटो की कहानी याद आती है कि जिसमें एक आदमी को खाली बोतलें इकठ्ठा करने का जुनून की हद तक शौक था.

अपनी दीवानावार समझ में उलीचती जाती हूँ शब्द और पाती हूँ कि मन का एक कोरा कोना भी नहीं भीगता. शहर का मौसम भी जानलेवा है. धूप का नामोनिशान नहीं. रंग नहीं दिखते. खुशबू नहीं महसूस होती. सब कुछ गहरा सलेटी. कुछ फीका उदास सफेद. कि जैसे थक जाना हो सारी कवायद के बाद.

मैं लिख नहीं सकती कि सब इतना सच है कि लगता है या तो आवाज में रिकौर्ड कर दूँ या कि फिल्म बनाऊँ कोई. शब्द कम पड़ रहे हैं. 

एक कतरा आँसू हो गयी हूँ जानां...बस एक कतरा...कि तुम्हारा जादू है, नदी को कतरा कर देने का. इक बार राधा को गुरूर हो गया था कि उससे ज्यादा प्रेम कोई नहीं कर सकता कृष्ण से...उसने गोपियों की परीक्षा लेने के लिये उन्हें आग में से गुजर जाने को कहा, वे हँसते हँसते गुजर गयीं, उनहोंने सोचा भी नहीं...कुछ अजीब हो रखा है हाल मेरा...सब कुछ छोटा पड़ता मालूम है...गुरूर भी...इश्क़ भी...और शब्द भी. सब कितना इनसिगनिफिकेंट होता है. इक लंबी जिन्दगी का हासिल आखिर होना ही क्या है.

दुनिया भर की किताबें हैं. इन्हें सिलसिलेवार पढ़ने का वादा भी है खुद से. मगर मन है कि इश्क़ का कोई कोरा कोना पकड़ कर सुबकता रहता है. उसे कुछ समझ नहीं आता. लिखना नहीं. पढ़ना नहीं. जब मन खाली होता है तो उसमें शब्द नहीं भरे जा सकते. उसे सिर्फ जरा सा प्रेम से ही भरा जा सकता है. दोस्तों की याद आती है. और शहर इक. 

कभी कभी देखना एक सम्पूर्ण क्रिया होती है...अपनेआप में पूरी. तब हम सिर्फ आँखों से नहीं देखते. पूरा बदन आँखों की तरह सोखने लगता है चीज़ें. बाकी सब कुछ ठहर जाता है. कोई खुशबू नहीं आती. कोई मौसम की गर्माहट महसूस नहीं होती. वो दिखता है. सामने. उसकी आँखें. उन आँखों में एक फीका सा अक्स. खुद का. उस फीके से अक्स की आँखों में होती है महबूब की छवि. मैं उस छवि को देख रही हूँ. वो इतना सूक्ष्म है कि होने के पोर पोर में है. दुखता. दुखता. दुखता. छुआ है किसी को आँखों से. उतारा है घूँट घूँट रूह में. देखना. इस शिद्दत से कि उम्र भर एक लम्हा भर का अक्स हो और जीने की तकलीफ को कुरेदे जाये. मेरे पास इस महसूसियत के लिए कोई शब्द नहीं है. शायद दुनिया की किसी जुबान में होगा. मैं तलाशूंगी. 

इश्क़ तो बहुत बड़ी बात होती है...रूह के उजले वितान सी उजली...मेरे सियाह, मैले हाथों तक कहाँ उसके नूर का कतरा आएगा साहेब...मैं ख्वाब में भी उसे छूने को सोच नहीं सकती...मेरे लिए तो बस इतना लिख दो कि इस भरी दुनिया में एक टुकड़ा लम्हा हो कि मैं उसे बस एक नज़र भर देख सकूँ उसे...मेरी आँखें चुंधियाती हैं...जरा सा पानी में उसकी परछाई ही दिखे कभी...आसमान में उगे जरा सा सूरज...भोर में और मैं उसकी लालिमा को एक बार अपनी आँखों में भर सकूं. क्या ऐसा हो सकेगा कभी कि मैं उसकी आँखों से देख सकूंगी जरा सी दुनिया. 

मैंने एक लम्हे के बदले दुःख मोलाये हैं उम्र भर के. हलक से पानी का एक कतरा भी नहीं उतरा है. कहीं रूह चाक हुयी है. कहाँ गए मेरे जुलाहे. बुनो अपने करघे पर मेरे टूटे दिल को सिलने वाले धागे. करो मेरे ज़ख्मों का इलाज़. जरा सा छुओ. अपनी रूह के मरहम से छुओ मुझे. 

खुदा खुदा खुदा. इश्क़ के पहले मकाम पर तकलीफ का ऐसा मंज़र है. आखिर में क्या हो पायेगा. ऐसा हुआ है कभी कि आपको महसूस हुआ है कि आपके छोटे से दिल में तमाम दुनिया की तकलीफें भरी हुयी हैं. मिला है कोई जिसने देख लिया है ज़ख़्मी रूह को. रूह रूह रूह. 

इस लरजते हुए. ज़ख़्मी. चोटिल. मन. रूह. को थाम लिया है किसी ने अपनी उजली हथेलियों में. कि जैसे गोरैय्या का बच्चा हो. बदन के पोर पोर में दर्द है. उसकी हथेलियों ने रोका हुआ है दर्द को. कहीं दूर तबले की थाप उठती है...धा तिक धा धा तिक तिक...

और सारा ज़ख्म कम लगता अगर यकीन होता इस बात पर कि ये तन्हाई में महसूस की हुयी तकलीफ है...आलम ये है साहेब कि जानता है रूह का सबसे अँधेरा कोना कि ठीक इसी तकलीफ में कोई अपनी शाम में डूब रहा होगा...

3 comments:

  1. अब तो साइंस भी कहती है कि हम देखते भी ब्रेन से ही हैं। जब पूरा अस्तित्व ही देखने लगे तो बात ही अलग है।

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  2. सेवा में



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    1. ऋषी सैनी,
      आपको मेरे ब्लौग को डाउनलोड करने की अनुमति नहीं है. इस की हर पोस्ट पर मेरा कौपीराइट है. इस विषय में और बात करने के लिये कृपया मुझे pujakislay@gmail.com पर मेल करें.

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