याद करने की कोशिश करती हूँ...कैसी थी उसकी आवाज़...पटना के कबाड़ी की...पेपर, रद्दी, गत्ता...पेप्पर...रद्दी...जैसी कुछ...कहीं दूर याद की गलियों में साइकिल की घंटी की टिंग टिंग बजती. घर के सामने खड़े जामुन पेड़ के कच्चे जामुनों जैसी कसैली...कनेल के पीले फूलों की गंध जैसी परिचित...बरसात के बाद घुटने भर पानी में हिले-मिले शहर जैसी...खराशें...कैसी खराशें थीं उसकी आवाज़ में...
याद का टीन का डब्बा हिलाती हूँ, अन्दर कुछ खोटे सिक्के ढनमनाते हैं. कैसी थी उसकी आवाज़...बोल न रे टुनकी...कहाँ चढ़ के बैठी है पानी की टंकी पर. चप्पल घसीटता हुआ चलता है लड़का, उसके आने के पहले वही आवाज़ आती है हमेशा...हलके पाँव रखना कब सीखेगा. आवाज़...उसकी आवाज़...४४० हज़ार वोल्ट के खतरे का बोर्ड जैसा वो...आवाज़ उसकी जैसे पागल मौसमों में हू हू...करती हवा जैसे कहती जाती...हूँ...हूँ...मैं हूँ कहीं, तुम्हारे पास...पॉकेट में मिलते हैं अब भी जामुन के बीज...कनेल के सूखे फल रोप दिए हैं कच्ची बारिशों में. कुछ सालों में शायद खिल जायेंगे इनमें पीले फूल...फिर वो एक दिन एक कच्ची डाली हटा कर झांकेगा, गुलेल से कंचे का निशाना लगाए तोड़ेगा मेरे कमरे की खिड़कियों के शीशे...धमकियों से बेअसर खी खी करके हंसेगा.
पतंग उड़ाने की बातें करती मैं सोचूंगी उसके बारे में...मांजे के जैसा काटेगा उड़ते ख्वाबों के कबूतर के पंख. पीपल के पेड़ की फुनगी पर रहने वाले भूत को मिलेगी पतंग पर लिखी कविता की कोई पंक्ति...भूत वही कविता सुना कर चाँद को पटायेगा...पोखर में तैरती मिलेगी उसकी नीली चप्पल मगर मैं जानूंगी कि कमबख्त डूब कर मरेगा नहीं...सालों साल मेरी जान खायेगा. बहुत सालों बाद जाउंगी पटना तो देखूंगी नयी सड़कें और पुरानी दुकानें...पान की पिरकी से रंगे नए संगमरमर के बुत...उसे खोजूंगी तो फिर देखूंगी कबाड़ियों की दुकानें, एक खैनी की दूकान में तम्बाकू काटता कोई अजनबी चेहरा. शहर की आवाजों में बहुत शोर मिल गया है फिर भी उसकी आवाज़ की भरपाई नहीं कर पाता. नामुराद...कैसी थी उसकी आवाज़.
वो क्या गया गालियाँ देने की आदत ही चली गयी...कहाँ है कोई उसके जैसा कि प्यार की नाप ही गालियों से करे...कि जैसे माँ की डांट सुने बिना खाना ही नहीं पचे...कि जैसे हर कुछ दिन पर जान बूझ कर न कर के ले जाऊं होमवर्क कि कभी कभी पनिशमेंट का अपना मज़ा है...फिर सर जब गुस्सा होते हैं मुझपर तो कितना कन्फ्यूज्ड सा एक्सप्रेशन होता है उनका...कि जानती हूँ कितना मुश्किल है मुझ पर गुस्सा होना. पटना...ऐसा बेमुरव्वत...ऐसा जालिम...ऐसा दगाबाज़ शहर...सालों बाद भी ना बदलने की जिद थामे हुए...रुला रुला मारने वाला शहर...थेथरई में पी एच डी किये बैठा...हरपट्टी.
कितना सोचा उसको...कितना चाहा...न्यूक्लियर वार के बाद भी जिन्दा बचने वाला...तिलचट्टा. कहाँ बंकर में घुसी हुयी है उस आवाज़ की कोई रिकोर्डिंग...जाले लग गए हैं टेप में...ना भी हों तो चलाऊं कहाँ? किधर मिलता है टेपरिकोर्डर...यूँ भी बहुत शोर था उस शाम खेल के मैदान में...वो एक ओर से चिल्लाता आया था मेरा नाम...मैंने कानों पर हथेलियाँ रख लीं थीं कि परदे फट जायेंगे कान के...कित्ती ख़राब है तेरी आवाज़...एकदम कबाड़ीवाला लगता है. उस दिन कहीं अन्दर बंद हो गयी दोनों कानों के बीच मेरे नाम में उसकी आवाज़. दिमाग ख़राब कर रखा है लड़के ने.
खटर-खटर चलती है ट्रेन...पटना से नई दिल्ली...पुरवा...यही ट्रेन थी न...उस दिन भी...बैठा होगा आज भी कहीं, डिब्बे का दरवाजा खोले...उड़ती ट्रेन में पैर लटकाए...उसकी आवाज़ खोजते वहां भी जाना पड़ा जहाँ कभी जाने को सोचा नहीं था...पनवाड़ी कैसे अजीब तरीके से घूर रहा था...गोल्ड फ्लेक है? कितने की आती है एक सिगरेट? खरीद सकती थी एक डिब्बा लेकिन एक डिब्बे में उसकी आवाज़ थोड़े न मिलती...वो तो पूरी पॉकेट खोज कर, पर्स के हर कोने से ढूंढ कर निकाला...डेढ़ रुपया...या कि अढाई रुपया था?
क्या थी उसकी आवाज़? सिगरेट की तलब...बस? जिंदगी का सबब...बस? या कि एक टूटने को दिया गया वादा...या कि विदा...अपने हिस्से की मौत चुनने की आज़ादी न सही...अपने पसंद का जहर चुनने की आज़ादी तो जिंदगी ने दी है...वहीं मिलेगी उसकी आवाज़...ड्रग अडिक्ट से कहना...जहर है उसकी आवाज़...फिर सुनना...तलाशना...उसकी आवाज़ की खराशें...याद की खरोंचों में कहीं...निशानों में...आखिरी हिचकी में.
याद का टीन का डब्बा हिलाती हूँ, अन्दर कुछ खोटे सिक्के ढनमनाते हैं. कैसी थी उसकी आवाज़...बोल न रे टुनकी...कहाँ चढ़ के बैठी है पानी की टंकी पर. चप्पल घसीटता हुआ चलता है लड़का, उसके आने के पहले वही आवाज़ आती है हमेशा...हलके पाँव रखना कब सीखेगा. आवाज़...उसकी आवाज़...४४० हज़ार वोल्ट के खतरे का बोर्ड जैसा वो...आवाज़ उसकी जैसे पागल मौसमों में हू हू...करती हवा जैसे कहती जाती...हूँ...हूँ...मैं हूँ कहीं, तुम्हारे पास...पॉकेट में मिलते हैं अब भी जामुन के बीज...कनेल के सूखे फल रोप दिए हैं कच्ची बारिशों में. कुछ सालों में शायद खिल जायेंगे इनमें पीले फूल...फिर वो एक दिन एक कच्ची डाली हटा कर झांकेगा, गुलेल से कंचे का निशाना लगाए तोड़ेगा मेरे कमरे की खिड़कियों के शीशे...धमकियों से बेअसर खी खी करके हंसेगा.
पतंग उड़ाने की बातें करती मैं सोचूंगी उसके बारे में...मांजे के जैसा काटेगा उड़ते ख्वाबों के कबूतर के पंख. पीपल के पेड़ की फुनगी पर रहने वाले भूत को मिलेगी पतंग पर लिखी कविता की कोई पंक्ति...भूत वही कविता सुना कर चाँद को पटायेगा...पोखर में तैरती मिलेगी उसकी नीली चप्पल मगर मैं जानूंगी कि कमबख्त डूब कर मरेगा नहीं...सालों साल मेरी जान खायेगा. बहुत सालों बाद जाउंगी पटना तो देखूंगी नयी सड़कें और पुरानी दुकानें...पान की पिरकी से रंगे नए संगमरमर के बुत...उसे खोजूंगी तो फिर देखूंगी कबाड़ियों की दुकानें, एक खैनी की दूकान में तम्बाकू काटता कोई अजनबी चेहरा. शहर की आवाजों में बहुत शोर मिल गया है फिर भी उसकी आवाज़ की भरपाई नहीं कर पाता. नामुराद...कैसी थी उसकी आवाज़.
वो क्या गया गालियाँ देने की आदत ही चली गयी...कहाँ है कोई उसके जैसा कि प्यार की नाप ही गालियों से करे...कि जैसे माँ की डांट सुने बिना खाना ही नहीं पचे...कि जैसे हर कुछ दिन पर जान बूझ कर न कर के ले जाऊं होमवर्क कि कभी कभी पनिशमेंट का अपना मज़ा है...फिर सर जब गुस्सा होते हैं मुझपर तो कितना कन्फ्यूज्ड सा एक्सप्रेशन होता है उनका...कि जानती हूँ कितना मुश्किल है मुझ पर गुस्सा होना. पटना...ऐसा बेमुरव्वत...ऐसा जालिम...ऐसा दगाबाज़ शहर...सालों बाद भी ना बदलने की जिद थामे हुए...रुला रुला मारने वाला शहर...थेथरई में पी एच डी किये बैठा...हरपट्टी.
कितना सोचा उसको...कितना चाहा...न्यूक्लियर वार के बाद भी जिन्दा बचने वाला...तिलचट्टा. कहाँ बंकर में घुसी हुयी है उस आवाज़ की कोई रिकोर्डिंग...जाले लग गए हैं टेप में...ना भी हों तो चलाऊं कहाँ? किधर मिलता है टेपरिकोर्डर...यूँ भी बहुत शोर था उस शाम खेल के मैदान में...वो एक ओर से चिल्लाता आया था मेरा नाम...मैंने कानों पर हथेलियाँ रख लीं थीं कि परदे फट जायेंगे कान के...कित्ती ख़राब है तेरी आवाज़...एकदम कबाड़ीवाला लगता है. उस दिन कहीं अन्दर बंद हो गयी दोनों कानों के बीच मेरे नाम में उसकी आवाज़. दिमाग ख़राब कर रखा है लड़के ने.
खटर-खटर चलती है ट्रेन...पटना से नई दिल्ली...पुरवा...यही ट्रेन थी न...उस दिन भी...बैठा होगा आज भी कहीं, डिब्बे का दरवाजा खोले...उड़ती ट्रेन में पैर लटकाए...उसकी आवाज़ खोजते वहां भी जाना पड़ा जहाँ कभी जाने को सोचा नहीं था...पनवाड़ी कैसे अजीब तरीके से घूर रहा था...गोल्ड फ्लेक है? कितने की आती है एक सिगरेट? खरीद सकती थी एक डिब्बा लेकिन एक डिब्बे में उसकी आवाज़ थोड़े न मिलती...वो तो पूरी पॉकेट खोज कर, पर्स के हर कोने से ढूंढ कर निकाला...डेढ़ रुपया...या कि अढाई रुपया था?
क्या थी उसकी आवाज़? सिगरेट की तलब...बस? जिंदगी का सबब...बस? या कि एक टूटने को दिया गया वादा...या कि विदा...अपने हिस्से की मौत चुनने की आज़ादी न सही...अपने पसंद का जहर चुनने की आज़ादी तो जिंदगी ने दी है...वहीं मिलेगी उसकी आवाज़...ड्रग अडिक्ट से कहना...जहर है उसकी आवाज़...फिर सुनना...तलाशना...उसकी आवाज़ की खराशें...याद की खरोंचों में कहीं...निशानों में...आखिरी हिचकी में.
बहुत ही सार्थक प्रस्तुति.
ReplyDeleteमेरे ब्लोग्स संकलक (ब्लॉग कलश) पर आपका स्वागत है,आपका परामर्श चाहिए.
"ब्लॉग कलश"
मन के गहरे में न जाने कितने भाव छिपे रहते हैं, परिवेश ने जाने क्या क्या सिखाया होता है। एक विचार निकलता है, न जाने कितने लत्ते उसमें चिपके से साथ चले आते हैं, यादों के।
ReplyDeleteयादें दौड़ा-दौड़ाकर मार डालती हैं. मैं भी अक्सर याद करती हूँ अपने शहर उन्नाव को और अपने बचपन के दोस्त को तो जैसे जान आकर गले में अटक जाती है और अभी पिछले कुछ दिनों से मुझे तुम्हारी याद आ रही है...तुमसे मिली भी नहीं, बात भी सिर्फ एक बार हुयी, उसके बाद भी. बस तुम लिखती रहती हो, मैं अपने डैशबोर्ड पर पोस्ट देख लेती हूँ, कभी-कभी पढ़ लेती हूँ और आश्वस्त हो जाती हूँ कि तुम हो.
ReplyDeleteअढाई रुपया होगा. डेढ़ वाला ज़माना तो हम कभी देखे ही नहीं, माने कि जब तक सुधरों में गिने जाते थे.
ReplyDeleteitne din hue koi kavita nahin......... kyun yaar
ReplyDeleteneed it..... kuch to post karo
plzz
पूजा! महसूस कर रहा हूँ कि तुम्हारे भीतर देवघर और पटना के लिए एक स्थिर हूक सी उठती रहती है| तुम्हारी तडप तुम्हारे हर शब्द में हहराकर कर बहती है|
ReplyDeleteबस इतना ही कहूंगा कि खुश रहो|
अपना शहर..अपने दोस्त..अपना सारा अपनापा ...बेइन्तेहा याद आता है
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