बात बहुत पुराने ज़माने की है...हम उस वक्त पटना में रहा करते थे...बहुत ही होनहार छात्र थे, सारा वक्त किताबों पर ही बिताते थे, सच में। या तो किताबें टेबल पर खुली रहती थी और हम उनपर सर रख के सोते रहते थे, या बेड पर तकिया की जगह किताबें। हमारा इस बात में पूरा विशवास था की अगर किताबों के ऊपर सर रख के सोयेंगे तो सारी इन्फोर्मेशन अपनेआप दिमाग में पर्कोलेट हो जायेगी।
बायोलोजी में ओसमोसिस पढ़े थे (ये क्या होता है हम नहीं बताएँगे, try मारे पर बड़ा मुश्किल है, जिनको नहीं आता गूगल ko कष्ट दें) तो हमें लगता था की ज्ञान भी जहाँ पर ज्यादा है वहां से जहाँ कम हो उस दिशा में बहता है...आख़िर फिजिक्स में पढ़े थे न...पानी हमेशा ऊँची जगह से नीची जगह पर जाता है। तो हमारे हिसाब से हर थ्योरी के हिसाब से किताब से जानकारी लेने का सबसे आसान तरीका यही था।
अब सवाल ये उठता है की इस बुढापे में ये पढ़ाई लिखी की बातें कहाँ से याद आने लगी? तो हुआ ये की आज हमारे एक मित्र को गर्दन में दर्द उठ गया और हम चल दिए दादी अम्मा की तरह सलाह देने, ये करो वो करो। तो इसी सिलसिले में हमें एक बरसों पुराना किस्सा याद आ गया तो हमने सोचा सुना ही दें।
तो खैर इस तरह पढने की आदत बरक़रार रही...डांट पिटाई के बावजूद और फ़िर जाने कैसे हमें नम्बर भी अच्छे आ जाते थे...तो हमने अपनी खास पद्दति से पढ़ाई जारी रखी। एक शाम ऐसे ही हम फोर्मुलास अपने दिमाग में एडजस्ट कर रहे थे...की मम्मी की आवाज आई...खाने का टाइम हो गया था। उठे तो गर्दन में भीषण दर्द...न दाएं देखा जा रहा न बायें, सामने रखो तो भी दर्द, करें तो क्या करें...मम्मी को बोलेंगे तो खाने के साथ डांट का डोज़ फ्री में मिलेगा। मरते क्या न करते...मम्मी को बताये...अब एक राउंड से पापा मम्मी दोनों की डांट पड़नी शुरू हो गई, बीच बीच में दादी भी कुछ नुस्खा बता देती थी, छोटे भाई को तो इस पूरे प्रकरण में ऐसा मज़ा आ रहा था जैसे की चूहेदानी में चूहा फंसने पर भी नहीं आता।
डांट का दौर ख़त्म हुआ तो हमने घर आसमान पर उठा लिया...दर्द हो रहा है...मशीनगन की तरह आँखें दनादन आंसू दागे जा रही थीं। घरेलु उपाय शुरू हुए, कभी बर्फ से सेका जा रहा है कभी गरम पानी से, कहीं चूने का लेप लग रहा है तो कभी हल्दी का। और इतनी चीज़ें पिलाई गई कि उनपर एक पूरी पोस्ट लिखी जा सकती है अलग से। पर कहीं कोई राहत नहीं। अब गंभीर बैठक बुलाई गई, इसमें पास कि एक दो आंटी भी शामिल थी(शायद वो वनस्पति विशेषज्ञ या ऐसी ही कुछ होंगी) सर्वसम्मति से ये फ़ैसला हुआ कि मेरी नस चढ़ गई है।
अब चढ़ गई है तो कोई उतरने वाला भी तो चाहिए( अब नस चढी है कोई ताऊ की भैंस थोड़े चाँद पर चढी है कि अपने आप आजायेगी नीचे)। खोजना शुरू हुआ, कहाँ मिलता है ये नस उतारने वाला इस बीच हमारी हालत तो पूछिए मत, जैसे सीजफायर होने के बाद भी एक दो गोले गिरा देते हैं कि हम हैं अभीभी , भागे नहीं है एक दो आंसू हम भी टपका देते थे।
अफरा तफरी में सब जगह फ़ोन भी घुमाये जा रहे थे...फाइनली ये सर्च अभियान समाप्त हुआ और ख़बर मिली कि हमारे नानीघर में जो दूधवाला है वो काफ़ी अच्छा नस बैठाता है। ये सुनकर हमारी तो रूह काँप गई, वो काला भुच्च बिल्कुल भैंस की ही प्रजाति का लगता था हमें, और महकता था इतना कि हम देखते भागते थे उसको। हमारे सोचने से क्या होता है अगली सुबह वहां जाने कि बात करके सभा स्थगित हुयी।
अगली सुबह हम रोते पीटते तैयार हुए और सपरिवार ननिहाल धमक गए...मस्त खाना बना था, पर हमको दर्द में खाना सूझेगा...दूध वाला आया, और उसने गर्दन को हल्का सा दबाया ही था कि हम ऐसे जोर से चिलाये कि सबको लगा कि गर्दन ही टूटी है। हमने वहीँ पैर पटकना शुरू कर दिया, हम इससे नहीं दिखायेंगे। इससे और दर्द बढ़ गया वगैरह वगैरह।
फाइनली हमारे आर्मी डॉक्टर के पास ले गए हमें...वो हमारे खानदानी डॉक्टर थे, हम सब भाई बहन हमेशा कोई न कोई खुराफात में कभी हाथ तोड़ते थे कभी पैर ...वो बड़ा मानते थे हमसब लोगो को बहुत प्यार से बेटा बेटा बोल के बात करते थे ...हम इतने शैतान कि शिकायत कर दिए...पता है डॉक्टर अंकल ये लोग एक दूधवाले से मेरा गला दबवा रहे थे..वो ठठा कर हँस पड़े। खैर उन्होंने मेरी नस उतारी और समझाया भी कि कैसे वर्टीब्रा में नस अटक जाने से ऐसा भीषण दर्द होता है।
उस दिन के बाद से हम उस दूध वाले को देख कर ऐसे चार फर्लांग भागते थे कि जैसे सच में गला दबा देगा। भाई लोग अटेंशन मोड में रहते थे...और कई दिनों तक अगर मुझे पैरों पर उड़ते देखना है तो बस यही कोड होता था...दीदी!!! दूधवाला!!! और हम फुर्र
जाने कहाँ गया वो बचपन...अब न तो घर पर भैंस बाँध के दूध देने वाले भैया हैं और माँ बाप तो सोच ही नहीं सकते कि कोई गंवार दूधवाला उनके बच्चे को हाथ लगायेगा। मैं अपोलो में जाती हूँ तो सोचती हूँ कहाँ है वो प्यार भरे हाथ जो कभी काढा बनते थे कभी गरम सेक...और कहाँ हैं ऐसे पड़ोसी जो रात के दस बजे चले आयें सिर्फ़ ये देखने किए कि कोई बच्चा रो रहा है तो क्यों...
गुजरी हुयी जिंदगी कभी कभी फ़िल्म गॉन विथ द विंड की तरह लगती है...
कहीं आप जैसी ही तो नहीं!
ReplyDeleteबहुत लाजवाब यादें. सही मे अब वो रिश्ते नाते, अपनापन सिर्फ़ यादों मे ही रह गये हैं. हम भी कुछ कुछ मशीन जैसे होते जा रहे हैं.
ReplyDeleteऔर सही है आज तक हमारी भैंस चंपाकली भी चांद से उतर कर नहीं आई अपने आप तो. लगता है किसी आर्मी वाले को लेकर ही जाना पडेगा उसको लेने.:)
बहुत सुंदर लिखा आपने. बहुत धन्यवाद.
:-) mazedar post aur last ki kuch lines shandar :-)
ReplyDeleteजिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम ...वो फ़िर नही आते ..वो फ़िर नही आते
ReplyDeleteबेहद सुंदर प्रस्तुतिकरण किया है आपने पुरानी यादों का बस इस पर राज कपूर साहब के गीत के बोल याद आ गए कि
ReplyDeleteजाने कहां गए वो दिन....
बहुत रोचक प्रस्तुतीकरण.. आपने हमें भी हमारे बचपन में एक गोता लगवा दिया..
ReplyDeleteगुजरी हुयी जिंदगी कभी कभी फ़िल्म गॉन विथ द विंड की तरह लगती है...
ReplyDeleteachi post rahi. yado ko likh kar acha lagta hai.
बहुत रोचक तरीके से लिखा है। पढ़कर मजा आया। सच में आज तो ऐसा करवाने का सोच भी नहीं सकते।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
दीदी!!! दूधवाला!!!
ReplyDeleteye ladki bahut badmash hai :))
ReplyDeleteमजेदार है यह किस्सा .. आज तो सच में कोई न इस तरह सोच पाये
ReplyDeleteआपकी यही स्टाईल ही भाती कि आप साधारण बात में भी एक अनौखी जान डाल देती है। और क्या कहूँ जो पढते ही दिमाग में आया था वो तो कुश भाई ने कह दिया।
ReplyDeleteदिलचस्प वाकिये की बड़ी ही दिलचस्प प्रस्तुती...
ReplyDeleteलेकिन पता है क्या,मैं आपके इस आलेख के शिर्षक पर अटक गया हूँ। कमबख्त है ही इतना शायराना...और बकायदा बहर में भी है। इज़ाजत हो तो इसे मिस्रा बना लूँ अपनी एक गज़ल के लिये...
और ताऊ ये आप किस आर्मी वाले की तलाश में हो,चाँद की तलाशी की खातिर...कितने भिजवाऊँ
sirf sir k niche kitabe rakhne se ye dard hua he...
ReplyDeleteagar aap pure palang par kitabe bicha kar soti to kahi dard nahi hota.... acche yaad hota wo alag.... :)
खूब अच्छा लिखा है पूजा.
ReplyDeleteरोचक अनुभव बांटने के लिए आभार. पढ़ते पढ़ते हम अपनी गर्दन सहलाये जा रहे थे. हा हा.
ReplyDelete'उन' दिनों की याद, 'आज' के कष्टों को भुला देती है। लौटने को जी नहीं करता।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर संस्मरण, रोचक शैली में।
behad sundar post auryaadein bhi ,aakhari lines ek dam dil se waah
ReplyDeleteओह!! तो यहाँ भी बचपन की यादों के समुन्द्र में गोता लगाया जा रहा है हमारी तरह--दीदी, दूधवाला!! तो खैर सारे जीवन आपको याद रहेगा. :)
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन लिखा है.
अच्छा लगा पढकर,बचपन की तो क्या कहे,काश इसे लौटाने का कोई तरीका होता तो शायद कोई बड़ा ही नही होना चाहता।वैसे इस गर्दन के दर्द से हमारा वास्ता अभी कुछ महीने पहले ही पड़ा था।इतनी सलाह मिली थी कि बता नही सकते और दर्द इतना था की सलाह देने वाले को गर्दन हिलाकर न तो हां कह सकते थे और ना ही ना।खैर ले-देक अपने डाक्टर दोस्त के लिवरपूल से लौट कर शहर मे वापस आए डाक्टर भाई के अस्पताल पहूंचे।तब तक़ हमारे दोस्त का फ़ोन वहां पहुंच गया था।वीआईपी की तरह हमारा स्वागत हुआ और बताया गया की थोड़ी देर बैठे डाक्टर साब आ रहे है। और उसी समय उस अटेंडेंट ने हमसे नाऊ से नस उतरवाने का ईलाज,सुझाया और जब तक़ डाक्टर आता दर्द से बेहाल हम्को हमारे साथी नाऊ के सामने हाजिर कर दिये।उसके बाद तो मत पूछो वो भुगता की उस पर पूरी पोस्ट कम पड़ेगी।बहरहाल बहुत मज़ेदार रहा आपके बचपन की किताब का ये पन्ना।बहुत कुछ पर्कोलेटेड मैटर अभी बहा है बाहर आने से,उसका भी इंतज़ार रहेगा।
ReplyDeleteकोई लौटा दे मुझे बिते हुए दिन
ReplyDeleteबिते हुए दिन वो पयारे पलछिन
समयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : चिठ्ठी लेकर आया हूँ कोई देख तो नही रहा हैबहुत अच्छा जी
ReplyDeleteआपके चिठ्ठे की चर्चा चिठ्ठीचर्चा "समयचक्र" में
महेन्द्र मिश्र
कभी कभी सोचता हूँ की ऊपर बैठा भगवान् भी रोज इन यादो के लाकर को सहेजता थक जाता होगा .जैसे देखो वाही इन्हे सहेजने में लगा है...एक ओर बात है हम सब इन चीजो की कमी महसूस करते है ओर उस आत्मीयता को याद भी करते है फ़िर वो कहाँ गायब हो रही है ?
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट! सहज-सरल गद्य! बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteसहज सरल रोचक संस्मरण मेरे ब्लॉग पर पधार कर "सुख" की पड़ताल को देखें पढ़ें आपका स्वागत है
ReplyDeletehttp://manoria.blogspot.com