उसकी ख़ुशी लोगों की आँखों में चुभती थी जैसे जेठ की धूप. वे उमस और पसीने से भरे दिन थे कि जिसे मेहनतकश लोग अपने अपने वातानुकूलित दफ्तरों में बैठ कर बड़ी मुश्किल काटा करते थे. वे बॉस के डांट खा कर खिसियाये हुए घर लौटने के दिन थे. उन दिनों उनकी महँगी कारों में धूप से बचने के लिए परदे नहीं लगे थे. उसपर वो लड़की की चौंधियाने वाली हंसी जैसे हाई बीम पर हाइवे में आती गाड़ी...आँखें बंद बंद हुयी जाती थीं कि नहीं देखा जाता था इस तरह किसी का सुख.
उसमें शर्म नाम की कोई चीज़ नहीं थी...उसे बचपन में नहीं सिखाया गया था कि लड़कियों को ठहाके नहीं मारने चाहिए. बचपन में उसे ये भी नहीं बताया गया था कि दिलों से खेलना एक बुरा खेल है. इस खेल के खतरनाक खतरे हैं. वो बेपरवाह थी. अल्हड़ और बेलौस. छत पर बैठ जाती हाथों में आइना लिए और गली से जाते सारे लड़कों की आँखों में चौंधती रहती धूप. ऐसे ही में एक दिन वो लड़का मोड़ पर तेज़ रफ़्तार बाईक उड़ाता आ रहा था कि टर्न पर जैसे ही बाईक घूमी कि धूप के टुकड़े से उसकी आंखें बंद हो गयीं...तीखे मुड़ कर बाइक गिरी और स्किड करती हुयी ठीक उसके घर के दरवाजे पर जा टकराई. शोर बहुत ज्यादा था मगर लड़की का ठहाका इस सब के बावजूद सबके कानों में चुभ रहा था. वे उसके हँसते चेहरे पर एसिड फ़ेंक देना चाहते थे कि लड़की के जिंदगी के इसी हिस्से पर उनकी पकड़ थी...उसका शरीर...उसकी रूह तक वे पहुँचने की सोच भी नहीं सकते थे. मोहल्ले के लड़के उसे घेर कर रगेद देने के दुस्वप्नों में जीते थे. मोहल्ले के अधेड़ उसे किसी अँधेरे कोने में फुसला कर घर ले आने के बहकावे में. बची मोहल्ले की औरतें. वे बस चाहती थीं कि जल्दी से किसी ऊपर से रईस दिखने वाले घर में इसका ब्याह हो जाए, मगर असल में उसका ससुराल इतना गरीब हो कि उससे बर्तन मंजवाये जायें, चादरें धुलवाई जायें और सुबह शाम कमसे कम सौ रोटियां गिन कर बनवाई जायें. फिर वे उसके मायके की हमदर्द बन कर उसे संदेसा भेजें..क्या हुआ पारो अब तुम्हारी हंसी नहीं गूंजती. सारी औरतें मन्नत मांगें कि ससुराल वाले उसे आग लगा कर मार डालें ताकि उसके पति की दूसरी शादी में भर भर प्लेट खाना खाते हुए वे उस मरी हुयी को कुलच्छनी और बाँझ कहते हुए अपने कलेजे की आग को ठंढा कर सकें. किसी की बेख़ौफ़ हंसी में बहुत धाह होती है. उससे पड़े हुए छाले ऐसे ही फ्री की शादी की पार्टी में खाए अनगिनत आइसक्रीम के कप्स से ठंढक पाते हैं.
वो कोरी सड़कों पर अपनी हंसी बिखेरती चलती. उसके अल्हड़पने पर सिर्फ सड़क और पेड़ों को प्यार आता. आता जाता हर कोई उसे कौतुहल से देखता था. उदास चेहरों वाली इस दुनिया में इस तरह बेवजह खिलखिलाने वाले लोगों को पागल कहा जाता था. सब उसके चेहरे पर से ये हँसी मटियामेट कर देना चाहते थे. मगर उसकी हँसी में धाह थी इसलिए सब डरते थे उससे. लड़की अपनी ही दुनिया में रहती. न किसी की सुनती...न कुछ देखती जिससे तकलीफ हो. शाम के रंग चुनती और टांक लेती दुपट्टे में उसके नाम का शीशा कोई...देखती चाँद को और भेजती फ्लाइंग किस...छत पर खड़े लड़के खुद को चाँद समझते. अमावस की रात को कोसते. उसकी हँसी की चांदनी में भीगते हुए भी वे उसकी हँसी छीन कर अपने होठों पर चिपका लेना चाहते थे...किसी तस्वीर में धर देना चाहते थे...किसी रेडियो के ऐड में बजा देना चाहते थे. उसकी हँसी कहीं और होनी चाहिए थी. उसके होटों पर नहीं. कोई इतना सारा बेवजह हंसता है भला.
तो क्या हुआ अगर उसे मुहब्बत हुयी थी. तो क्या हुआ अगर महबूब की आवाज़ सुन कर उसे गुदगुदी होती थी. बात बस इतनी ही तो नहीं थी. वो क्यूँ छलकी छलकी पड़ती थी. वो क्यूँ खुद को बिखेरती चलती थी. वो सिमट कर क्यूँ नहीं रहती थी? आखिर उसका दुपट्टा किसी बाजारू औरत की आबरू तो नहीं था कि कोई भी हाथ दे...फिर वो राह चलते दुपट्टा क्यूँ लहराती थी...बाकी लड़कियों की तरह कानी ऊँगली में एक कोना लपेट कर जमीन की ओर ताकती हुयी...करीने से दुपट्टे को सीने के इर्द गिर्द कस कर लपेटे हुए क्यूँ नहीं चलती थी. गले में इतनी बेपरवाही से डालते हैं दुपट्टा? उसपर उसकी हंसी का अबरख...किरमिच किरमिच आँखों में चुभता था. उसके उड़ते दुपट्टे से जरा जरा गिरती अबरख और सड़क दुल्हन की चूनर जैसी चमकती. आँखें तरेरती हर लड़के को उसे यूँ देखता जाता था जैसे आँखें कान हो गयी हों और उसकी हंसी को रिकोर्ड कर लेंगी. बार बार प्ले कर के घिस देने के लिए.
आइना उसे बार बार समझाता. इतना हँसना अच्छी बात नहीं है. मान लो हँसना ही है तो अकेले में हँस लो. ऐसे सबके सामने हँसोगी तो नज़र लग जायेगी सबकी. चुपचाप एक कोने में बैठो और जितना जी करे ठहाके लगाओ. यूँ हँसने का वक़्त तय करो. नियत समय पर हँसो. चूरन की तरह दो चम्मच सुबह, दो चम्मच शाम. जिंदगी में बस गिन के मिलती हैं मुस्कुराहटें. तुम जो इतनी हंसती हो, लोगों को लगता है तुम उनके हिस्से की हँसी चुरा कर हँस रही हो. तुम्हें वे जेल में डाल देंगे. ज़माने से डरो री लड़की.
बस तब से चुप है लड़की...अब नियम से हंसती है. एक छटांक सुबह. एक छटांक शाम. शहर. मोहल्ले. के लोग चैन से सोते हैं. मगर बूढी औरतों के सीने में उसकी चुप्पी चुभती है और वे रात रात उसकी हँसी वापस लौट आने की दुआएँ मांगती हैं.
आमीन.
आमीन..
ReplyDeletewow! nice...
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