03 May, 2013

सिगरेट सी तुम्हारी उँगलियों के/ फीके बोसे हम चखेंगे

We are the people in search of a 'Refuge'. That eternal dwelling place where we find peace.
---
हम पनाह तलाशते हुए लोग हैं.

खानाबदोश...हम किसी ज़मीन के अहसानमंद नहीं. हम प्यासे, पानी की खोज में जमीनों को मारे मारे फिरते लोग हैं.

हमारी मुट्ठियों में बस पानी की मरीचिका है. हम बेदखल किये लोग हैं. अपनी जमीनों से बेदखल, हम दुनिया में एक ठिकाना तलाशते हैं. हमारे हिस्से की ज़मीनों पर उग आये कारखाने, हमारे हिस्से की ज़मीन धंस गयी खदानों में. कोलियरी के काले चूरे में खोये हुए हम बदकिस्मत नहीं...बे-किस्मत लोग हैं. अपनी ही ज़मीं पर बेगारी खटते, अपने खोये हुए जंगल से निकले हम बंजारे लोग हैं. हमारे साथ ही खो जाएगा संथाल प्रदेश का सारा सौन्दर्य...हमारी औरतें भी सीख लेंगी करना पर्दा और हम भूल जायेंगे नृत्य की थाप. हम अपने आप को कहीं दिहाड़ी मजदूरी करते पायेंगे...हम बनायेंगे दूसरे शहरों में अट्टालिकाएं और भूल जायेंगे मिट्टी के घरों पर उकेरना ताड़ और बांस के पेड़.

हमारे हिस्से की मुहब्बत लिख दी गयी किसी और के नाम...हम कहाँ जी सके अपने हिस्से का हिज्र...हमने कहाँ की कभी अपने हिस्से की शिकायतें...न भेज ख़त हमें बेरहम...हमने कभी कासिद को अपना नाम भी कहाँ बताया...हम एकतरफा इश्क करने के तरफदार अपनी ही ख़ामोशी में घुटते गए...हमने कब कहा उनसे कि आपके बिना जी न सकेंगे.

हमारे हिस्से के बादलों ने अपना रंग बदल दिया...हमारे हिस्से की बारिश भटक कर पहुँच गयी चेरापूंजी...हम अपनी ज़मीं...अपनी मुहब्बत से उजाड़े हुए लोग हैं.

हम लुप्त होते लोग हैं. हाशिये पर धकेले हुए. हम अपने खुले आसमानों के कैदी हैं. हम अतीत के एक टुकड़े को फिर से जी लेने की जिजीविषा लिए हुए वर्त्तमान को नकारते लोग हैं.

किसको बुरी लगती है अपने गाँव की मिटटी? हम बहुत ऊंचा उड़ते हैं मगर लौट कर उसी छोटे से घर में जाना चाहते हैं. हम खुदा को मानने और नकारने के बीच झूलते हुए अपनी जिंदगी की अकेली लड़ाइयाँ लड़के हुए लोग हैं.

अपने हक को मांगने और छीनने के बीच की रस्साकशी में उलझे हम हालातों के मारे उलझे हुए लोग हैं. हम वो मज़ाक हैं जो संजीदगी से सुनाया जाता है...डार्क ह्यूमर रचते किसी डायरेक्टर की प्रेरणा हैं हम. जिंदगी हमें तमाशे की तरह बेचती है और लोग हमें मनोरंजन की तरह खरीदते हैं. दिल भर जाने पर ठुकराए हुए हम बनारसी साड़ी बुनने वाले जुलाहे हैं. हमारे काम की अब किसी को दरकार नहीं...हम शोपीस में रखे हुए सबसे खूबसूरत नमूने हैं जिन्हें बेचना अपराध है. हमारी कीमत इतनी ज्यादा है कि बेशकीमती हैं...कि हमें खरीदने को कोई तैयार नहीं...कि हमें खरीदने की किसी की औकात नहीं. एक मरते हुए शहर के लुप्त अजायबघर में रखे धूल खाते तेवर हैं हम...हमने कभी इसी तेवर से राज्य की चूलें हिला दीं थीं.

दिल, अमां कौन सा...ज़ख्म...कौन से? जो दिखता है वही बिकता है सरकार...कलेजे में कितना दर्द है कि कलेजा पत्थर है...अरे इस पत्थर से चिंगारियां क्यूँ नहीं निकलतीं. उम्र बीतने को आई, मगर ये कौन सा आक्रोश है कि अब भी आग लगा देने को उतारू है. काले चिथड़ों में लिपटा ये कौन सा आन्दोलन है...किसे फूँक देना चाहता है...उसने कहा था गंगा किनारे काली रेत पर मिलेगा वो...पूरनमासी की रात को. हम जागने के लिए आये हरकारे का इंतज़ार करते लोग हैं. हमारी सारी कोमल शिराएं झुलस गयी हैं. हम मुहब्बत से परे...नफरतों से बच कर चलते हुए लोग हैं.

हम भीड़ से भागते हुए भीड़ का हिस्सा बनते हैं...हम सुबह से शाम तक अनगिन चेहरे बदलते हैं. हम इश्क को शौक़ की तरह जीते, जिंदगी को विरक्त भाव से टालते, मुस्कुराने को तरसे हुए लोग हैं. हमें कोई भींच कर सीने से लगाए...हमें कोई समंदर में तैरना सिखाये...हमें कोई इश्क में डूबना सिखाये...हम इस आपाधापी वाली जिंदगी में खोये हुए लोग हैं. बेचैन. तन्हा. उदास.

सिगरेट की गंध में लिपटे/ फीके बोसे हम चखेंगे
माथे पे अमृतांजन के/ किस्से बहुत लिखेंगे
विस्की में जिंदगी है/ जब तक बची हुयी
तुम्हारे हैंगोवर से जानां/ वादा है न उबरेंगे 

11 comments:

  1. आज का परिपेक्ष और एक संवेदनशील मन की अनुभूति और उसकी व्यथा .....
    बहुत सुन्दर लिखा है .....

    ReplyDelete
  2. हम स्वयं से भागे लोग भी हैं, बाहर अपना ठिकाना ढूढ़ते रहते हैं, व्यग्र हो। जहाँ ठहर जायें, गाँव वहीं बन जाये हमारा, जहाँ रम जायें, वहीं राम हो जायें। यदि कहीं टिकना सीखना हो मुझे, तो स्वयं में ही, वर्तमान में ही, तात्कालिक परिवेश में ही।

    ReplyDelete
  3. सचमुच संथाल संस्कृति खतरे में है.

    ReplyDelete
  4. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(4-5-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

    ReplyDelete
  5. पलायन हल कहाँ ?

    ReplyDelete
  6. ज्वलंत सवाल. सुन्दर रचना

    ReplyDelete
  7. Jitni bhi tarif ki jaye,bahut kam hogi.....

    ReplyDelete
  8. ऐसा लगा जो मैं सोचा करता हूँ हर रोज़ वो लिख दिया है, सारे शब्द मेल खाते हैं, आप को बहुत बहुत प्रणाम और शुभकामनाएं ये लिखने के लिए .

    ReplyDelete

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...