मुझे बेहद अजीब चीज़ों का शौक़ है। और एकदम अजीब से, पर्सनल भय हैं, सामाजिक भयों से इतर। कुछ भय सामाजिक होते हैं। जैसे अंधेरे में बाहर जाने का भय। चोर, लुटेरे, डाकुओं का भय। युद्ध या दंगे होने का भय।
बैंगलोर का मौसम सालों भर थोड़ा ठंडा ही रहता है, इसलिए हल्के गर्म पानी से नहाने की आदत पड़ गयी है। जब तक कि मौसम एकदम गर्म ना हो, ठंडे पानी से नहीं नहा सकती।
पिछले वाले घर में बड़ा गीज़र था जो गर्म पानी को स्टोर करके भी रखता था। इस वाले घर में धूप से पानी गर्म करने वाला गीज़र है, सोलर पावर वाला, जो पता नहीं कितना पानी गर्म रखता है। जब से आयी हूँ, कमोबेश बीमार ही रही हूँ। ज़्यादा देर खड़े होने में दिक्कत रही है इसलिये शॉवर लेना शुरू किया। पर आदत बाल्टी और मग से नहाने की है तो शॉवर लेकर अक्सर संतोष नहीं होता। विदेश जाती हूँ तो जैसे नहा के दिल ही नहीं भरता भले ही आधा घंटा शॉवर में नहा लो।
गाँव में कुआँ था और देवघर में भी। हम लोग जब छोटे थे तो कुआँ पर ही नहाया करते थे। पूरा एक बाल्टी पानी माथे पर ऊझलने का ग़ज़ब ही मज़ा है। गाँव में तो अब भी टंकी और मोटर नहीं है, तो जब जाते हैं, कुआँ पर ही नहाते हैं। दुमका में थे बचपन में। उन दिनों घर से थोड़ा दूर चापाकल था। सब बच्चे लोग वहीं नहाते थे। घर में हौद में पानी स्टोर होता था। मुझे वो हौद बहुत विशाल लगती थी उन दिनों में। पटना में सप्लाई का पानी दो टाइम आता था और बड़े बड़े ड्रम में स्टोर करके रखते थे। उस समय या तो पानी आते समय नहा लिए, वरना स्टोर किए पाने से नहाना पड़ता था जो मुझे एकदम ही पसंद नहीं था।
हमारे देवघर वाले घर में दो तल्ले थे। जब ख़ूब बारिश होती थी और छत का पानी दूसरे तल्ले से गिरता था, उस धार में नहाने का मज़ा मैं आज भी नहीं भूल पाती हूँ। वो हमारा पहला झरने का अनुभव था। बचपन में बहुत सी चीज़ें अलाउड होती हैं। ख़ूब ही नहाते थे हम लोग। ख़ास तौर से बहुत ज़्यादा वाली गरमी के बाद जब बारिश आती थी तो अपनाप में त्योहार होती थी।
दुनिया में जितने समंदर देखे हैं, पट्टाया का समंदर सबसे अलग था। उसका पानी गुनगुना था। मैंने कभी समंदर का पानी गर्म नहीं देखा था। वो कमाल का अनुभव था। कोरल आयलंड था और उसके इर्दगिर्द पानी। मन ही नहीं करता था पानी से निकलने का। ऐसे ही जब सन फ़्रैन्सिस्को गयी तो समंदर देखा। ठंढ थी और कोई समंदर में जाने को तैयार ही नहीं। और हम कि ऐसा तो हो नहीं सकता कि समंदर किनारे आए हैं और पानी में पैर ना डालें। वहाँ समंदर का पानी बर्फ़ीला था, धारदार जैसे। लगा पैर कट जाएँगे ठंडे पानी से... वो भी पहला अनुभव था कि समंदर का पानी इतना ठंडा भी हो सकता है।
मुझे पानी बहुत पसंद है। नदी, समंदर, झरना, बाथ टब, स्विमिंग पूल। कहीं का भी पानी। पटना में सप्लाई का पानी होने के कारण ये डर होता था कि नहाने की लाइन में अगर आख़िर में गए हैं, जब कि पानी के जाने का टाइम हो गया है तो पानी चला जाएगा। वो मुझे बहुत ख़राब लगता था। बहुत, अब तक भी। गर्म पानी ख़त्म हो जाता है तो ऐसे ही बुरा लगता है।
कि पानी आते रहना चाहिए जब तक कि आत्मा तक धुल के साफ़ ना हो जाए। यूँ हमारी आत्मा साफ़ सफ़ेद ही रहती है। लेकिन कभी कभी लगता है कितनी स्याही लग रखी है। फिर हम देर तक रगड़ रगड़ के बदन से स्याह धुलते रहते हैं कि आत्मा साफ़ हो। लेकिन कमबख़्त उँगलियों के पोर कभी साफ़ सफ़ेद होते ही नहीं। हमेशा फ़िरोज़ी। हमेशा।
बैंगलोर का मौसम सालों भर थोड़ा ठंडा ही रहता है, इसलिए हल्के गर्म पानी से नहाने की आदत पड़ गयी है। जब तक कि मौसम एकदम गर्म ना हो, ठंडे पानी से नहीं नहा सकती।
पिछले वाले घर में बड़ा गीज़र था जो गर्म पानी को स्टोर करके भी रखता था। इस वाले घर में धूप से पानी गर्म करने वाला गीज़र है, सोलर पावर वाला, जो पता नहीं कितना पानी गर्म रखता है। जब से आयी हूँ, कमोबेश बीमार ही रही हूँ। ज़्यादा देर खड़े होने में दिक्कत रही है इसलिये शॉवर लेना शुरू किया। पर आदत बाल्टी और मग से नहाने की है तो शॉवर लेकर अक्सर संतोष नहीं होता। विदेश जाती हूँ तो जैसे नहा के दिल ही नहीं भरता भले ही आधा घंटा शॉवर में नहा लो।
गाँव में कुआँ था और देवघर में भी। हम लोग जब छोटे थे तो कुआँ पर ही नहाया करते थे। पूरा एक बाल्टी पानी माथे पर ऊझलने का ग़ज़ब ही मज़ा है। गाँव में तो अब भी टंकी और मोटर नहीं है, तो जब जाते हैं, कुआँ पर ही नहाते हैं। दुमका में थे बचपन में। उन दिनों घर से थोड़ा दूर चापाकल था। सब बच्चे लोग वहीं नहाते थे। घर में हौद में पानी स्टोर होता था। मुझे वो हौद बहुत विशाल लगती थी उन दिनों में। पटना में सप्लाई का पानी दो टाइम आता था और बड़े बड़े ड्रम में स्टोर करके रखते थे। उस समय या तो पानी आते समय नहा लिए, वरना स्टोर किए पाने से नहाना पड़ता था जो मुझे एकदम ही पसंद नहीं था।
हमारे देवघर वाले घर में दो तल्ले थे। जब ख़ूब बारिश होती थी और छत का पानी दूसरे तल्ले से गिरता था, उस धार में नहाने का मज़ा मैं आज भी नहीं भूल पाती हूँ। वो हमारा पहला झरने का अनुभव था। बचपन में बहुत सी चीज़ें अलाउड होती हैं। ख़ूब ही नहाते थे हम लोग। ख़ास तौर से बहुत ज़्यादा वाली गरमी के बाद जब बारिश आती थी तो अपनाप में त्योहार होती थी।
दुनिया में जितने समंदर देखे हैं, पट्टाया का समंदर सबसे अलग था। उसका पानी गुनगुना था। मैंने कभी समंदर का पानी गर्म नहीं देखा था। वो कमाल का अनुभव था। कोरल आयलंड था और उसके इर्दगिर्द पानी। मन ही नहीं करता था पानी से निकलने का। ऐसे ही जब सन फ़्रैन्सिस्को गयी तो समंदर देखा। ठंढ थी और कोई समंदर में जाने को तैयार ही नहीं। और हम कि ऐसा तो हो नहीं सकता कि समंदर किनारे आए हैं और पानी में पैर ना डालें। वहाँ समंदर का पानी बर्फ़ीला था, धारदार जैसे। लगा पैर कट जाएँगे ठंडे पानी से... वो भी पहला अनुभव था कि समंदर का पानी इतना ठंडा भी हो सकता है।
मुझे पानी बहुत पसंद है। नदी, समंदर, झरना, बाथ टब, स्विमिंग पूल। कहीं का भी पानी। पटना में सप्लाई का पानी होने के कारण ये डर होता था कि नहाने की लाइन में अगर आख़िर में गए हैं, जब कि पानी के जाने का टाइम हो गया है तो पानी चला जाएगा। वो मुझे बहुत ख़राब लगता था। बहुत, अब तक भी। गर्म पानी ख़त्म हो जाता है तो ऐसे ही बुरा लगता है।
कि पानी आते रहना चाहिए जब तक कि आत्मा तक धुल के साफ़ ना हो जाए। यूँ हमारी आत्मा साफ़ सफ़ेद ही रहती है। लेकिन कभी कभी लगता है कितनी स्याही लग रखी है। फिर हम देर तक रगड़ रगड़ के बदन से स्याह धुलते रहते हैं कि आत्मा साफ़ हो। लेकिन कमबख़्त उँगलियों के पोर कभी साफ़ सफ़ेद होते ही नहीं। हमेशा फ़िरोज़ी। हमेशा।
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