शब्दों में जीने वाले लोगों से ऐसी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि वे ज़िम्मेदार रहें। बेवक़ूफ़ी और बचपना एक उम्र तक ही ठीक रहता है। फिर हमें चाहिए कि लिखने के पहले नहीं तो पब्लिश करने के पहले तो ज़रूर सोचें एक बार। कि हम किसी काल्पनिक दुनिया में तो रहते नहीं हैं। न ही वे लोग जो रैंडम ही हमारे लिखे में चले आते हैं।
लेकिन सोच समझ के लिखना हमसे हो नहीं पाता। सारे शब्द नापतोल कर लिखने पर भी कभी कभी कोई एक शब्द रह जाता है ऐसा बेसिरपैर का और चुभ जाता है तलवे में... या कि आँख में ही और दुखता है बेसबब।
फिर हम कैसी अजीब बातें सुनते बड़े हुए हैं जैसे कि, 'एक ग़लती तो भगवान भी माफ़ कर देता है'। भगवान का तो पता नहीं, लेकिन ग़लतियाँ माफ़ करने के केस में अपना भी क़िस्सा थोड़ा बुरा ही है। हाँ ग़लतियाँ करने में शायद अच्छी ख़ासी केस हिस्ट्री निकल आएगी। पता नहीं कितनों का दिल दुखाया होगा। जान बूझ के नहीं...लेकिन फ़ितरतन। मतलब कि ऐसा कुछ कह देने, बोल देने का आदत है। बोलते भी उसी तरह हैं बिना कॉमा फ़ुल स्टॉप के, लिखते भी उसी तरह हैं। इतना कहने लिखने में कभी कभी हो जाता है शब्द का हेरफेर।
हम लेकिन कभी कभी रेस्ट्रोसपेक्टिव में देखते हैं। यूँ भी साल के आख़िरी दिन कुछ ऐसे ही बीतते हैं। हिसाब किताब में। कितने लोग खो गए। कितने हमारी ग़लती से बिसर गए। फिर ज़िंदगी जब सज़ा देती है तो गुनाह को ठीक ठीक माप के थोड़े ना देती है। हाँ स्लेट कोरी रहती तो शिकायत भी करते, थोड़ी ग़लती तो है ही हमारी।
लेकिन सोच समझ के लिखना हमसे हो नहीं पाता। सारे शब्द नापतोल कर लिखने पर भी कभी कभी कोई एक शब्द रह जाता है ऐसा बेसिरपैर का और चुभ जाता है तलवे में... या कि आँख में ही और दुखता है बेसबब।
फिर हम कैसी अजीब बातें सुनते बड़े हुए हैं जैसे कि, 'एक ग़लती तो भगवान भी माफ़ कर देता है'। भगवान का तो पता नहीं, लेकिन ग़लतियाँ माफ़ करने के केस में अपना भी क़िस्सा थोड़ा बुरा ही है। हाँ ग़लतियाँ करने में शायद अच्छी ख़ासी केस हिस्ट्री निकल आएगी। पता नहीं कितनों का दिल दुखाया होगा। जान बूझ के नहीं...लेकिन फ़ितरतन। मतलब कि ऐसा कुछ कह देने, बोल देने का आदत है। बोलते भी उसी तरह हैं बिना कॉमा फ़ुल स्टॉप के, लिखते भी उसी तरह हैं। इतना कहने लिखने में कभी कभी हो जाता है शब्द का हेरफेर।
हम लेकिन कभी कभी रेस्ट्रोसपेक्टिव में देखते हैं। यूँ भी साल के आख़िरी दिन कुछ ऐसे ही बीतते हैं। हिसाब किताब में। कितने लोग खो गए। कितने हमारी ग़लती से बिसर गए। फिर ज़िंदगी जब सज़ा देती है तो गुनाह को ठीक ठीक माप के थोड़े ना देती है। हाँ स्लेट कोरी रहती तो शिकायत भी करते, थोड़ी ग़लती तो है ही हमारी।
आज पहली बार लग रहा है कि लोग खो जाते हैं कि हमको वाक़ई बात कहने का सलीक़ा नहीं है। कितनी बड़ी विडम्बना है ये। लिखने में हम जितना ही सुंदर रच सकते हैं कुछ भी, रियल ज़िंदगी में उतने ही हिसाब के कच्चे हैं। रिश्ते निभाना नहीं आता। सहेजना नहीं आता।
फिर लगता है। यूँ ही हम ख़ुद को विलगाते जा रहे हैं सबसे। अच्छा ही है। कभी कभी तो लगता है एक ज़रा भी क्यूँ टोकना किसी को। कहना किसी से कुछ भी। पहले इस दुनिया के थोड़े क़ायदे सीख लें। फिर सोचेंगे। वैसे रहते कहाँ हैं हम... साल का सात दिन का बुक फ़ेयर। बस। फिर तो फ़ोन कभी बजता नहीं। मेसेज हम ज़्यादा किसी को करते नहीं। कभी कभार। थोड़ा बहुत।
कैसी उदास सी फ़ीलिंग आ रही है ये लिखते हुए। कि मेरे होने से, मेरे लिखने से अगर किसी को दुःख पहुँचता है, तो हे ईश्वर... उससे ज़्यादा दुःख मेरी क़िस्मत में लिखना।
अस्तु।
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