16 December, 2018

छोटे सुखों का रोज़नामचा

कभी कभी जो चीज़ें हमसे खो जाती हैं, हम नहीं जानते कि उनके खोने में कौन सी बात हमें सबसे ज़्यादा परेशान कर रही है। कि उसके किस हिस्से को सबसे ज़्यादा याद कर रहे हैं। फिर जब वो चीज़ वापस मिल जाती है तो हमारा ध्यान जाता है कि ‘अरे, अच्छा, इसलिए इसकी ज़रूरत थी’।

इधर कुछ महीनों से कुछ न कुछ कारण से स्कूटी या मोटरसाइकल, दोनों नहीं चला पा रही हूँ। कुछ दिन हम टूटे-फूटे थे, हम ठीक हुए तो गाड़ियाँ दोनों मुँह फुला कर बैठ गयीं। स्कूटी तो कुछ ज़्यादा ही दुलरुआ है, उसपर जब से एनफ़ील्ड आयी है बेचारी का डीमोशन हो गया है, कि उसको बाइक नहीं कहती, स्कूटी कहती हूँ। तो, आज फिर से स्कूटी ठीक करवायी। रात आठ बजे के आसपास वापस मिली। बहुत दिन हो गए थे तेज़ रफ़्तार चलाए हुए। जब बाइक पर उड़ते हुए जा रही थी तो याद आया कि किस चीज़ की याद आ रही थी ज़्यादा। बाइक चलाते हुए हवा की आवाज़ होती है, साँय साँय कानों में चीख़ती है। सिर्फ़ तेज़ चलाने से ऐसी आवाज़ आती है। ये आवाज़ बहुत दिन बाद सुनी। और एकदम। उफ़। यहाँ घर के पास एक बड़ा सा तालाब या झील जो कहिए है…फ़िलहाल वहाँ बहुत कचरा है, बैंगलोर के बाक़ी सभी झीलों की तरह लेकिन उसकी साफ़ सफ़ाई चल रही है। उसके इर्द गिर्द की सड़क एकदम ख़ाली रहती है और बहुत तेज़ हवा भी चलती है उस तरफ़ से।

शाम को चाय पीने के लिए और थोड़ा सा और स्कूटी चलाने के लिए यहाँ पसंद का एक रेस्ट्रॉंट है, वहाँ गयी। मुझे वहाँ की निम्बू की चाय बहुत पसंद है। गयी तो थोड़ी भूख लगी थी, सो एक प्लेन दोसा का भी ऑर्डर दे दिया। मेरी आदत है कि अगर खाना ऑर्डर किया है तो पहले खा लेती हूँ, फिर निम्बू की चाय का ऑर्डर देती हूँ। तो आज निम्बू की चाय एकदम कमाल की आयी थी। मुझे जब चाय बहुत ज़्यादा पसंद आती है तो मैं चश्मा उतार के चाय पीती हूँ। एक सिप के बाद की धुँधली पड़ी दुनिया अच्छी लगने लगती है। (literally, not figuratively). कोई शार्प एज नहीं, सब कुछ आउट औफ़ फ़ोकस। फिर लगता नहीं है कि सामने मेज़ पर पड़ी चाय के सिवा और कुछ देखने की ज़रूरत भी है। हम चश्मा उतार कर रख देते हैं। दुनिया पहले दिखनी बंद होती है और फिर पूरी तरह गुम जाती है। बस चाय होती है हक़ीक़त। एक कप गर्म। सुनहली। निम्बू की चाय। मैं छोटे छोटे सिप लेती हूँ। अक्सर आँख बंद कर के। डूब जाती हूँ एक छोटे से चाय के काँच ग्लास में। चाय ख़त्म होती है। चश्मा वापस पहनती हूँ और दुनिया अपने पूरे तीख़ेपन के साथ दिखने लगती है। मैं इंतज़ार करती हूँ ऐसी चाय का…जिसके पीने भर तक दुनिया गुमी हुयी रह सके…

फिर मुझे लगता है। दुनिया का क्या है। एक गिलसी चाय में मोला लें हम।

 वहाँ अकेले खाते हुए और फिर बाद में चाय पीते हुए भी In the mood for love के किरदार की याद आयी, मिसेज़ चान की। लंच बॉक्स लेकर संकरी सीढ़ियों से गुज़रने के दृश्य का इतना कलात्मक प्रयोग है फ़िल्म में कि उफ़! उसे अकेले के लिए खाना बनाना पसंद नहीं था। मुझे घर में अकेले खाना खाना नहीं पसंद है। ख़ास तौर से डिनर। बाहर किसी जगह अकेली कैसे खाना पसंद है, मालूम नहीं। ऐसे सेल्फ़ सर्विस वाले रेस्ट्रॉंट जहाँ ठीक ठाक भीड़ हो, मुझे अच्छे लगते हैं। ये वोंग कार वाई की मेरी सारी पसंदीदा फ़िल्मों में कहीं ना कहीं दिखते हैं।

तृश कहता था कि वो सिर्फ़ उनके साथ खाना खाता है जो लोग उसे बहुत पसंद हों। मैंने तब तक इस बात पर ग़ौर नहीं किया था, लेकिन मैं भी ऐसा ही करती आयी थी। ऐसे किसी रेस्ट्रॉंट में लोगों को देख कर कहानी दोतरफ़ा सोचती रहती हूँ। सोचती हूँ वो पर्ची काटने वाला मेरे बारे में क्या सोचता होगा। अक्सर रात को मैं गयी हूँ वहाँ और कमोबेश एक ही ऑर्डर होता है। दोसा और चाय। ये फ़ैमिली रेस्ट्रॉंट है और अधिकतर लोग यहाँ परिवार के साथ खाने को आए होते हैं। मेरे पास अक्सर एक नोट्बुक रहती है। जब तक खाना तैय्यार होता है मैं कुछ स्केच कर रही होती हूँ या लिख रही होती हूँ। मुझे इतनी भीड़भाड़ में लिखना अच्छा लगता है।

मुझे अपनी रैंडमनेस अच्छी लगती है। ये जो थोड़ा जो मन में आया, सो करती हूँ। वो।

दिल्ली में पहली बार जब अकेले घूमना शुरू किया था तो बहुत जगह अकेले खाना खाया। स्कूल और कॉलेज में भी टिफ़िन अकेले करने की आदत रही, हमेशा कुछ पढ़ते हुए। मैं सोच रही थी कि जान पहचान की जितनी औरतों को जानती हूँ, उनमें से कोई होगी जो पति के शहर से बाहर जाने पर इस तरह किसी जगह बाहर डिनर करें, अकेली। फिर मुझे अपने जैसे लोगों की याद आयी। मेरी अपनी दोस्तों की। कॉलेज के टाइम की।

कई सारी जगहें याद आयीं। क्रैको का टाउनस्क्वेयर - राइनेक ग्लोनी … वहाँ की धूप में बैठे हुए अक्सर पेस्तो पास्ता और पीच आइस टी ऑर्डर करती थी। आसमान में एकदम नीले बादल रहते थे उन दिनों। स्विट्सर्लंड घूमते हुए तो सिर्फ़ चोक्लेट खाती थी या फिर कोई तरह की पेस्ट्री। बैठ के अकेले, इत्मीनान से खाना खाना पहली बार पोलैंड से शुरू किया। डैलस में ट्रेन स्टेशन के पास एक मेक्सिकन जगह थी। वहाँ मैं टोरतिया खाती थी। कभी कभी म्यूज़ीयम में भी खाना खाया है, वो भी अच्छा लगा है।

लौट कर घर आयी तो बहुत एनर्जेटिक फ़ील कर रही थी। इतनी एनर्जी मुझे बौरा देती है। आजकल अमेजन प्राइम म्यूज़िक पर गाने सुन रही हूँ, तो उसी में कोई डान्स मिक्स लगा दिया और जी भर डान्स किया। पसीने पसीने होने के बाद थोड़ी राहत मिली। सोफ़े पर आ के उलट गए। आराम से। बोस के स्पीकर से फ़ोन कनेक्ट कर दिया था। जैज़ सुन रही थी। हल्की ठंढ थी हवा में। शाम में ऊनी स्टोल निकाला था उसी को ओढ़ लिया थोड़ा सा। ख़ाली घर में बजता हुआ जैज़ जादुई लगता है। सोफ़े पर ऐसे पसर जाना भी। शाम से देर रात तक बस यही किया। सोफ़े पर पड़े पड़े जैज़ सुनती रही। फिर थोड़ी भूख लगी तो दूध में दालचीनी डाल के खौला लिए और थोड़ा केक के टुकड़े निकाल लिए। टेबल पर रखी तो इतना ख़ूबसूरत कॉम्पज़िशन था कि तस्वीर उतारे बिना रहा नहीं गया।

छोटी छोटी चीज़ें ज़िंदगी को सुंदर बनाती हैं। जीने लायक़। हम अपनी उदासी परे रख दें तो पाएँगे कि जाते मौसम के कुछ आख़िरी गिरे हुए फूल भी हवा में ख़ुश्बू छोड़ जाते हैं। हाँ, उदासी पर ध्यान दें तो कुछ भी सुंदर महसूस नहीं होगा।



ज़िंदगी में बड़े बड़े दुःख हैं और यही, इतने से छोटे छोटे सुख। लेकिन फिर भी। ज़िंदगी हसीन है।

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