मैंने अपने जीवन में बहुत कम घर बदले हैं। देवघर के अपने घर में ग्यारह साल रही। पटना के घर में छह। और बैंगलोर के इस घर में दस साल हुए हैं। मुझे घर बदलने की आदत नहीं है। मुझे घर बदलना अच्छा नहीं लगता। मैं कुछ उन लोगों में से हूँ जिन्हें कुछ चीज़ें स्थायी चाहिए होती हैं। घर उनमें से एक है। देवघर में मेरा घर हमारा अपना था। पहले एक मंज़िल का, फिर दूसरी मंज़िल बनी। मेरे लिए बचपन अपने ख़ुद के घर में बीता। वहाँ की ख़ाली ज़मीन के पेड़ों से रिश्ता बनाते हुए। नीम का पेड़, शीशम के पेड़। मालती का पौधा, कामिनी का पौधा। रजनीगंधा की क्यारियाँ। कुएँ के पास की जगह में लगा हुआ पुदीना। वहीं साल में उग आता तरबूज़।
बैंगलोर में इस घर में जब आयी तो हमारे पास दो सूटकेस थे, एक में कपड़े और एक में किताबें। ये एक नोर्मल सा २bhk अपर्टमेंट है। पिछले कुछ सालों में इसके एक कमरे को मैंने स्टडी बना दिया है। यहाँ पर एक बड़ी सी टेबल है जिसपर वो किताबें हैं जो मैं इन दिनों पढ़ रही हूँ। इसके अलावा इस टेबल पर दुनिया भर से इकट्ठा की हुयी चीज़ें हैं। शिकागो से लाया हुआ जेली फ़िश वाला गुलाबी पेपरवेट। डैलस से ख़रीदी हुयी रेतघड़ी और एक दिल के आकार का चिकना, गुलाबी पत्थर। न्यू यॉर्क से लाया हुआ स्नोग्लोब। एक दोस्त का दिया हुआ छोटा सा विंडमिल। दिल्ली से लाए दो पोस्टर जिनमें लड़कियाँ पियानो और वाइयलिन बजा रही हैं। पुदुच्चेरी से लायी नटराज की एक छोटी सी धातु की मूर्ति। एक टेबल लैम्प, दो म्यूज़िक बॉक्स। कुछ इंक की बोतलें। स्टैम्प्स। पोस्ट्कार्ड्ज़। बोस का ब्लूटूथ स्पीकर। अक्सर सफ़ेद और पीले फूल...और बहुत सा...वग़ैरह वग़ैरह।
इस टेबल के बायें ओर खिड़की है जो पूरब में खुलती है। आसपास कोई ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए सुबह की धूप हमारी अपनी होती है। सूरज की दिशा के अनुसार धूप कभी टेबल तो कभी नीचे बिछे गद्दे पर गिरती रहती है। खिड़की से बाहर गली और गली के अंत में मुख्य सड़क दिखती है। बग़ल में एक मंदिर है। मंदिर से लगा हुआ कुंड। खिड़की पर मनीप्लांट है और ऊपर एक पौंडीचेरी से लायी हुयी विंडचाइम।
मैं सुबह से दोपहर तक यही रहती हूँ अधिकतर। लिखने और पढ़ने के लिए। दीवारों पर नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव के पोस्टर्ज़ हैं। एक बिल्ली का पोस्टर जो चुम्बक से लायी हूँ। एक बुलेटिन बोर्ड में दुनिया भर की चीज़ें हैं। न्यूयॉर्क का मैप। 'तीन रोज़ इश्क़' के विमोचन में पहना हुआ झुमका, जिसका दूसरा कहीं गिर गया। एक ब्रेसलेट जो ऑफ़िस से रिज़ाइन करने के बाद मेरे टीममेट्स ने मुझे दिया था, कुछ पोस्ट्कार्ड्ज़। कॉलेज की कुछ ख़ूबसूरत तस्वीरें। ज़मीन पर बिछा सिंगल गद्दा है जिसपर रंगबिरंगे कुशन हैं। एक फूलों वाली चादर है। ओढ़ने के लिए एक सफ़ेद में हल्के लाल फूलों वाली हल्की गरम चादर है। बैंगलोर में मौसम अक्सर हल्की ठंढ का होता है, तो चादर पैरों पर हमेशा ही रहती है। हारमोनियम और कमरे के कोने में एक लम्बा सा पीली रोशनी वाला लैम्प है।
ये घर अब छोटा पड़ रहा है तो अब दूसरी जगह जाना होगा। मैं इस कमरे में दुनिया में सबसे ज़्यादा comfortable होती हूँ। ये कमरा पनाह है मेरी। मेरी अपनी जगह। मैं आज दोपहर इस कमरे में बैठी हूँ कि जिसे मैं प्यार से 'क़िस्साघर' कहती हूँ। किसी घर में दोनों समय धूप आए। साल के बारहों महीने हवा आए। बैंगलोर जैसे मेट्रो में मिलना मुश्किल है। फिर ऐसा कमरा कि धूप बायीं ओर से आए कि लिखने में आसान हो। एकदम ही मुश्किल। और फिर सब मिल भी जाएगा तो ऐसा तो नहीं होगा ना।
मुझे इस शहर में सिर्फ़ अपना ये कमरा अच्छा लगता है। जो दोस्त कहते हैं कि बैंगलोर आएँगे, उनको भी कहती हूँ। मेरे शहर में मेरी स्टडी के सिवा देखने को कुछ नहीं है। मगर वे दोस्त बैंगलोर आए नहीं कभी। अब आएँगे भी तो मेरे पढ़ने के कमरे में नहीं आएँगे। मैं आख़िरी कुछ दिन में उदास हूँ थोड़ी। सोच रही हूँ, एक अच्छा सा विडीओ बना लूँ कमसे कम। कि याद रहे।
हज़ारों ख़्वाहिशों में एक ये भी है। कभी किसी के साथ यहीं बैठ कर कुछ किताबों पर बतियाते। चाय पीते। दिखाते उसे कि ये अजायबघर बना रखा है। तुम्हें कैसा लगा।
एक दोस्त को एक बार विडीओ पर दिखा रही थी। कि देखो ये मेरी स्टडी ये खिड़की...जो भी... उसने कहा, आपका कमरा मेरे कमरे से ज़्यादा सुंदर है, तो पहली बार ध्यान गया कि इस कमरे को बनते बनते दस साल लगे हैं। कि इस कमरे ने एक उलझी हुयी लड़की को एक उलझी हुयी लेखिका बनाया है।
साल की पहली पोस्ट, इसी कमरे के नाम। और इस कमरे के नाम, बहुत सा प्यार।
और अभी यहाँ सोच रही हूँ...तुम आते तो...
बैंगलोर में इस घर में जब आयी तो हमारे पास दो सूटकेस थे, एक में कपड़े और एक में किताबें। ये एक नोर्मल सा २bhk अपर्टमेंट है। पिछले कुछ सालों में इसके एक कमरे को मैंने स्टडी बना दिया है। यहाँ पर एक बड़ी सी टेबल है जिसपर वो किताबें हैं जो मैं इन दिनों पढ़ रही हूँ। इसके अलावा इस टेबल पर दुनिया भर से इकट्ठा की हुयी चीज़ें हैं। शिकागो से लाया हुआ जेली फ़िश वाला गुलाबी पेपरवेट। डैलस से ख़रीदी हुयी रेतघड़ी और एक दिल के आकार का चिकना, गुलाबी पत्थर। न्यू यॉर्क से लाया हुआ स्नोग्लोब। एक दोस्त का दिया हुआ छोटा सा विंडमिल। दिल्ली से लाए दो पोस्टर जिनमें लड़कियाँ पियानो और वाइयलिन बजा रही हैं। पुदुच्चेरी से लायी नटराज की एक छोटी सी धातु की मूर्ति। एक टेबल लैम्प, दो म्यूज़िक बॉक्स। कुछ इंक की बोतलें। स्टैम्प्स। पोस्ट्कार्ड्ज़। बोस का ब्लूटूथ स्पीकर। अक्सर सफ़ेद और पीले फूल...और बहुत सा...वग़ैरह वग़ैरह।
इस टेबल के बायें ओर खिड़की है जो पूरब में खुलती है। आसपास कोई ऊँची इमारतें नहीं हैं इसलिए सुबह की धूप हमारी अपनी होती है। सूरज की दिशा के अनुसार धूप कभी टेबल तो कभी नीचे बिछे गद्दे पर गिरती रहती है। खिड़की से बाहर गली और गली के अंत में मुख्य सड़क दिखती है। बग़ल में एक मंदिर है। मंदिर से लगा हुआ कुंड। खिड़की पर मनीप्लांट है और ऊपर एक पौंडीचेरी से लायी हुयी विंडचाइम।
मैं सुबह से दोपहर तक यही रहती हूँ अधिकतर। लिखने और पढ़ने के लिए। दीवारों पर नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव के पोस्टर्ज़ हैं। एक बिल्ली का पोस्टर जो चुम्बक से लायी हूँ। एक बुलेटिन बोर्ड में दुनिया भर की चीज़ें हैं। न्यूयॉर्क का मैप। 'तीन रोज़ इश्क़' के विमोचन में पहना हुआ झुमका, जिसका दूसरा कहीं गिर गया। एक ब्रेसलेट जो ऑफ़िस से रिज़ाइन करने के बाद मेरे टीममेट्स ने मुझे दिया था, कुछ पोस्ट्कार्ड्ज़। कॉलेज की कुछ ख़ूबसूरत तस्वीरें। ज़मीन पर बिछा सिंगल गद्दा है जिसपर रंगबिरंगे कुशन हैं। एक फूलों वाली चादर है। ओढ़ने के लिए एक सफ़ेद में हल्के लाल फूलों वाली हल्की गरम चादर है। बैंगलोर में मौसम अक्सर हल्की ठंढ का होता है, तो चादर पैरों पर हमेशा ही रहती है। हारमोनियम और कमरे के कोने में एक लम्बा सा पीली रोशनी वाला लैम्प है।
ये घर अब छोटा पड़ रहा है तो अब दूसरी जगह जाना होगा। मैं इस कमरे में दुनिया में सबसे ज़्यादा comfortable होती हूँ। ये कमरा पनाह है मेरी। मेरी अपनी जगह। मैं आज दोपहर इस कमरे में बैठी हूँ कि जिसे मैं प्यार से 'क़िस्साघर' कहती हूँ। किसी घर में दोनों समय धूप आए। साल के बारहों महीने हवा आए। बैंगलोर जैसे मेट्रो में मिलना मुश्किल है। फिर ऐसा कमरा कि धूप बायीं ओर से आए कि लिखने में आसान हो। एकदम ही मुश्किल। और फिर सब मिल भी जाएगा तो ऐसा तो नहीं होगा ना।
मुझे इस शहर में सिर्फ़ अपना ये कमरा अच्छा लगता है। जो दोस्त कहते हैं कि बैंगलोर आएँगे, उनको भी कहती हूँ। मेरे शहर में मेरी स्टडी के सिवा देखने को कुछ नहीं है। मगर वे दोस्त बैंगलोर आए नहीं कभी। अब आएँगे भी तो मेरे पढ़ने के कमरे में नहीं आएँगे। मैं आख़िरी कुछ दिन में उदास हूँ थोड़ी। सोच रही हूँ, एक अच्छा सा विडीओ बना लूँ कमसे कम। कि याद रहे।
हज़ारों ख़्वाहिशों में एक ये भी है। कभी किसी के साथ यहीं बैठ कर कुछ किताबों पर बतियाते। चाय पीते। दिखाते उसे कि ये अजायबघर बना रखा है। तुम्हें कैसा लगा।
एक दोस्त को एक बार विडीओ पर दिखा रही थी। कि देखो ये मेरी स्टडी ये खिड़की...जो भी... उसने कहा, आपका कमरा मेरे कमरे से ज़्यादा सुंदर है, तो पहली बार ध्यान गया कि इस कमरे को बनते बनते दस साल लगे हैं। कि इस कमरे ने एक उलझी हुयी लड़की को एक उलझी हुयी लेखिका बनाया है।
साल की पहली पोस्ट, इसी कमरे के नाम। और इस कमरे के नाम, बहुत सा प्यार।
और अभी यहाँ सोच रही हूँ...तुम आते तो...
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन राष्ट्रीय मतदाता दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteशानदार लेख।
ReplyDeleteमैंने भी कालेज खत्म होने के बाद जब अपना कमरा बदला तो मुझे कई दिन उस कमरे की यादों से बाहर निकलने में लग गए ।
कमरे के हर कोने के साथ मेरी दिनचर्या जुड़ी थी।