मुझे उसका लिखा कुछ भी नहीं याद। ना उसके होने का कोई भी टुकड़ा। उसके कपड़ों की छुअन। उसका पर्फ़्यूम। कमरे बदलने के बाद छूटे हुए फ़र्श पर छोड़ दिए गए बासी गुलदान। पुराने हो चुके तकिया खोल का बनाया हुआ पोंछा। उसके कुर्ते का रंग।
कुछ नहीं याद। कुछ भी नहीं।
अफ़सोस के खाते में जमा ये हुआ कि मैंने उससे एक पैकेट सिगरेट ख़रीदवा ली। जाने क्यूँ। सच ये है कि मैं उससे सिर्फ़ एक बार मिली थी। उसके बाद बदल गयी थी मैं भी, वो भी। हम दोनों आधे आधे अफ़सोस की जगह पूरे पूरे अफ़सोस हो गए थे। मुझे अफ़सोस कि पूरे पूरे दोस्त होने चाहिये। उसे अफ़सोस कि पूरे पूरे आशिक़।
मैं उसका कमरा देखना चाहती थी। धूप में उसकी आँखें भी। मैं उसकी कविताओं की किताब पर उसका औटोग्राफ लेना चाहती थी। लेकिन वो ना कविता लिखेगा, ना कभी किताब छपवायेगा। ना मैं कभी उसके बुक लौंच पे जाऊँगी। कितने दिनों से उससे झगड़ा नहीं किया। गालियाँ नहीं दीं। उदास नहीं हुयी क्या बहुत दिनों से? बेतरह क्यूँ याद आ रहा है वो। ठीक तो होगा ना?
कभी कभी कैसे एक पूरा पूरा आदमी सिमट कर सिर्फ़ एक शब्द हो जाता है। कभी कभी सिर्फ़ एक नाम। कभी कभी सिर्फ़ एक टाइटल ही, एक बेमतलब के घिसटते हुए मिस्टर के साथ।
मगर एक शब्द था। उसने बड़ी शिद्दत से कहा था मुझसे। इसलिए याद रह गया है।
इश्तियाक़!
एक लड़का हुआ करता था पटना में। मुस्लिम था लेकिन अपना नाम अभिषेक बताता था लोगों को। मैं इस डिटेल में नहीं जाऊँगी कि क्यूँ। मैंने पहली बार उसका नाम पूछा तो उसने कहा, अभिषेक। मैंने कहा नहीं, वो नाम नहीं जो तुम लोगों को बताते हो। वो नाम जो तुम्हारा ख़ुद का है। उसने कहा, 'सरवर'। उन दिनों उसने एक शेर सुनाया था। शेर में शब्द था, 'तिलावत'...उसने समझाया पूजा जैसे करते हैं ना, वैसे ही। उसने ही पहली बार मुझे 'वजू करना' किसे कहते हैं वो भी समझाया था।
उसकी कोई भी ख़बर आए हुए कमसे कम दस साल हो गए। मगर मुझे अभी भी वो याद है। हर कुछ दिनों में याद आ जाता है। शायद उसने किसी लम्हे बहुत गहरा इश्क़ कर लिया था। वरना कितने लोगों को भूल गयी हूँ मैं। स्कूल कॉलेज में साथ पढ़ने वाली लड़कियाँ। ऑफ़िस के बाक़ी कलीग्स। बॉसेज़। हॉस्टल में साथ के कमरे में रहने वाली लड़की का नाम। मगर उस लड़के को कभी भूल नहीं पाती। उसे कभी लगता होगा ना कि मैं उसे याद कर रही हूँ, मगर फिर वो ख़ुद को समझाता होगा कि इतने सालों बाद थोड़े ना कोई किसी को याद रखता है। मैं कभी उससे मिल गयी इस जिदंगी में तो कहूँगी उससे। तुम्हें याद रखा है। जिन दिनों तुम्हें लगता था कि मेरी बहुत याद आ रही है वो इसलिए कि दुनिया के इस शहर में रहती मैं तुम्हें अपने ख़यालों में रच रच के देख रही थी। तुम्हारी आँखों का हल्का भूरा रंग भी याद है मुझे।
शायद ईमानदारी से ज़्यादा ज़रूरी लोगों के लिए ये होता हो कि क्या सही है, क्या होना चाहिए। समाज के नियमों के हिसाब से। हर बात का एक मक़सद होता है। रिश्तों की भी कोई दिशा होती है। मैं बहुत झूठ बोलती हूँ। एकदम आसानी से। मगर जाने कैसे तो लगता है कि मेरे दिल में खोट नहीं है। रिश्तों को ईमानदारी से निभा ले जाती हूँ। आज ही छोटी ननद से बात करते हुए कह रही थी, कोई किसी को ज़बरदस्ती किसी को 'मानने' पर मजबूर नहीं कर सकता है। हमारे बिहार में 'मानना' स्नेह और प्रेम और अधिकार जैसा कुछ मिलाजुला शब्द होता है जिसका मायना लिख के नहीं बता सकते। तो हम लोगों को बहुत मानते हैं। कभी कभी जब बहुत उदास होते हैं कि मेरी ख़ाली हथेली में क्या आया तो ज़िंदगी कुछ ऐसी शाम। कुछ ऐसे लोग भेज देती है। कि शिकायत करना बंद करो। नालायक।
मैं अब भी लोगों पर बहुत भरोसा करती हूँ। दोस्तों पर। परिवार पर। अजनबियों पर। मुझे हर चीज़ को कटघरे में रख के जीना नहीं आता।
एक बार पता नहीं कहीं पढ़ा था या पापा ने बताया था। कि जो बहुत भोला हो उसे आप ठग नहीं सकते। उसे पता ही नहीं चलेगा। वो उम्र भर आप पर भरोसा करेगा।
ईश्वर पर ऐसा ही कोई भरोसा है।
और इश्क़ पर भी।