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09 October, 2017

ख़्वाब के हथकरघे पर बुनी हैंडलूम सूती साड़ी


मेरे पास बहुत सी सूती साड़ियाँ हैं जो मुझे बहुत पसंद हैं। पर सिर्फ़ मुझे ही। बाक़ी किसी को वे पसंद नहीं आतीं। मुझे कुछ ठीक नहीं मालूम कि मुझे वे इतनी क्यूँ पसंद हैं, एक तो उनका कॉटन बहुत अच्छा है। इन दिनों मुझे कपड़े उनकी छुअन से पसंद आते हैं। नेचुरल फैब्रिक उसपर हैंडलूम की साड़ियाँ। दो हज़ार के आसपास की फ़ैबइंडिया की हल्की, प्योर कॉटन साड़ियाँ। मुझे उनका नाम तो नहीं पता, बस ये है कि उन साड़ियों को देख कर विद्या सिन्हा की याद आती है। रजनीगंधा में कैसे अपना आँचल काँधे तक खींच रखा होता है उसने। उन साड़ियों से मुझे अपने गाँव की औरतें याद आती हैं। सिम्पल कॉटन की साड़ियाँ जो सिर्फ़ एक सेफ़्टी पिन पर पहन लेती हैं। जिनकी चूड़ियों में अक्सर कोई ना कोई आलपिन हमेशा रहता है।

वक़्त के साथ मेरा मन गाँव भागता है बहुत। इतना कि मैं समझा नहीं सकती किसी को भी।

तुमने वो घरोंदा का गाना सुना है, ‘मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है’? उसमें ज़रीना वहाब है और अमोल पालेकर। लेकिन यहाँ अमोल पालेकर बदमाशी भी करता है और शर्ट के बटन खोल कर लफुआ टाइप घूमता भी है। उसकी झालमुरी में मिर्ची डाल देता है, पानी पीते समय गिलास उढ़काता है अलग। सुनना वो गाना तुम। नहीं। माने सुनना नहीं, विडीओ देखना। बुद्धू। या उस दौर के बहुत से और गाने हैं। भले लोगों वाले। वो सुन लेना। मेरे लिए रूमान वहीं है, वैसा ही है। साड़ी में घूमती लड़की और साथ में कोई भला सा लड़का। लड़का कि जो हाथ पकड़ कर रोड क्रॉस करा दे। खो जाने पर तलाश ले भरे शहर की भीड़ में भी तुम्हें।

मैं तुमसे मिलने अपनी कोई कॉटन की साड़ी पहन कर आना चाहती हूँ। फिर हम चलेंगे साथ में छोटे छोटे सुख तलाशने कहीं। मुझे लगता है वो साड़ी पहनूँगी तो तुमको अच्छी लगेगी। तुम्हारा ध्यान भी जाएगा, शायद कोई कहानी भी हो तुम्हारे पास किसी साड़ी के मेहंदी रंग को लेकर। या की काँच की चूड़ियों की आवाज़ में घुलीमिली। हम लोग कितनी सुंदर चीज़ें भूलते जा रहे हैं, कि जैसे मैं बैठी हूँ रेलवे स्टेशन की किसी बेंच पर तुम्हारा इंतज़ार करते हुए। तुम पीछे से आकर चुपचाप से अपनी हथेलियाँ रख दो मेरी आँखों पर, मैं तुम्हारे हाथों की छुअन से तुम्हारी एक नयी पहचान चीन्हूँ कि जो मैं बंद आँखों से भी याद रख सकूँ। कि तुम कहो कि चाँदी के झुमके बहुत सुंदर लगते हैं मुझपर। या कि मैंने जो अँगूठी पहन रखी है दाएँ हाथ की सबसे छोटी ऊँगली में। लव लिखा हुआ है जिसमें। वो सुंदर है। कि तुम्हारे सामने मैं रहूँ तो तुम मुझे देखो। नज़र भर के। नज़रा देने की हद तक। आँख के काजल से लेकर माथे की बिंदी तक ध्यान जाए तुम्हारा। आँख के पनियाने से लेकर ठहाके के शोर तक भी तो।

मैंने तुम्हें अपने गाँव के बारे में बताया है कभी? नहीं ना। लेकिन अभी का गाँव नहीं। ख़्वाब ही बुन रहे हैं तो मेरे बचपन के गाँव में बुनेंगे। उन दिनों मासूमगंज से गाँव जाने के लिए रिक्शा लेना पड़ता था या फिर खेत की मेड़ मेड़ पैदल चलना होता था। धान की रोपनी का समय होता हो या कि आम के मंज़र का। यही दो चीज़ हमको बहुत ज़्यादा याद है गाँव का। मेड़ पर चलने में जूता चप्पल पहन कर चलना मुश्किल होता तो दोनों प्राणी चप्पल खोल कर झोले में डाल देते हैं और ख़ाली पैर चलते हैं। मुझे मिट्टी में चलना बहुत ना तो अच्छा लगता है। और मुझे कैसे तो लगता है कि तुमको मिट्टी में ख़ाली पैर चलने में कोई दिक़्क़त नहीं होगा। चलते हुए मैं तुमको अपना खेत दिखाऊँगी जहाँ ख़ुशबूदार धान उगाया जाता है जिसको हमारे ओर कतरनी कहते हैं। वहाँ से आगे आओगे तो एक बड़ा सा आम का पेड़ है नहर किनारे। उसपर हम बचपन में ख़ूब दिन टंगे रहे हैं। उसके नीचे बैठने का जगह बना हुआ है। हम वहाँ बैठ कर कुछ देर बतिया सकते हैं। आसपास किसी का शादी बियाह हो रहा होता हो तो देखना दस पंद्रह लोग जा रहा होगा साथ में और शादी के गीत का आवाज़ बहुत दूर से हल्का हल्का आएगा और फिर पास आते आते सब बुझा जाएगा।

हम उनके जाने के बाद जाएँगे, उसी दिशा में जहाँ वे लोग गए थे। तुमको हम अपने ग्रामदेवता दिखाएँगे। एक बड़े से बरगद पेड़ के नीचे उनको स्थापित किया गया है। उनका बहुत सा ग़ज़ब ग़ज़ब कहानी है, वो सुनाएँगे तुमको। वहाँ जो कुआँ है उसका पानी ग़ज़ब मीठा है। इतने देर में प्यास तो लग ही गया होगा तुमको। सो वहाँ जो बालटी धरा रहता है उसी से पानी भर के निकालना होगा। तुम लड़ना हमसे कि तुम बालटी से पानी निकालने में गिर गयी कुइय्यां में तो तुमको निकालेगा कौन। हम कहेंगे कि हमारे बचपन का गाँव है। बाप दादा परदादा। सवाल ही नहीं उठता कि तुमको ये कुआँ छूने भी दें। तुम बाहर के आदमी हो।

किसी से साइकिल माँगें। आगे बिठा कर तुम चलाओ। लड़ो बीच में कि बाबू ऐसा घूमना है तो वेट कम करो तुम अपना। हम समझाएँ तुमको कि पैदल भी जा सकते हैं। तुम नहीं ही मानो। साइकिल दुनिया की सबसे रोमांटिक सवारी है। हैंडिल पकड़ कर बैठें हम और तुम्हारी बाँहों का घेरा हो इर्द गिर्द। थोड़ा सकचाएँ, थोड़ा लजाएँ। ग़ौरतलब है कि साड़ी पहन कर अदाएँ ख़ुद आ जाती हैं। जीन्स में हम कुछ और होते हैं, साड़ी में कुछ और।

हम जल्दी ही शिवालय पहुँच जाएँ। शिवालय में इस वक़्त और कोई नहीं होता, शंकर भगवान के सिवा। हम वहीं मत्था टेकें और शिवलाय के सामने बैठें, गप्पें मारते हुए। हल्का गरमी का मौसम हो तो हवाएँ गरम चलें। हवा के साथ फूलों की महक आए कनेर, जंगली गुलाब। तुम मेरे माथे पर की थोड़ी खिसक आयी बिंदी ठीक कर दो। मैं आँचल से थोड़ा तुम्हारा पसीना पोंछ दूँ।

हम बातें करें कि आज से दस साल पहले हम कहाँ थे और क्या कर रहे थे। कितने कितने शहर हम साथ में थे, आसपास क़रीब।

एक से दोस्तों के बीच भुतलाए हुए।
तलाशते हुए एक दूसरे को ही।

कर लो शिकायत वहीं डिरेक्ट बैठे हुए भगवान से
हम तुमसे पहले क्यूँ नहीं मिले।

और फिर सोचें। ये भी क्या कम है कि अब मिल गए हैं। 

08 May, 2016

शीर्षक कहानी में दफ़्न है


आप ऐसे लोगों को जानते हैं जो क़ब्र के पत्थर उखाड़ के अपना घर बनवा सकते हैं? मैं जानती हूँ। क्यूँ जानती हूँ ये मत पूछिए साहब। ये भी मत पूछिए कि मेरा इन लोगों से रिश्ता क्या है। शायद हिसाब का रिश्ता है। शायद सौदेबाज़ी का हिसाब हो। इंसानियत का रिश्ता भी हो सकता है। यक़ीन कीजिए आप जानना नहीं चाहते हैं। किसी कमज़ोर लम्हे में मैंने क़ब्रिस्तान के दरबान की इस नौकरी के लिए मंज़ूरी दे दी थी। रूहें तो नहीं लेकिन ये मंज़ूरी ज़िंदगी के हर मोड़ पर पीछा करती है। 

मैं यहाँ से किसी और जगह जाना चाहती हूँ। मैं इस नौकरी से थक गयी हूँ। लेकिन क़ब्रिस्तान को बिना रखवाले के नहीं छोड़ा जा सकता है। ये ऐसी नौकरी है कि मुफ़लिसी के दौर में भी लोग मेरे कंधों से इस बोझ को उतारने के लिए तैय्यार नहीं। इस दुनिया में कौन समझेगा कि आख़िर मैं एक औरत हूँ। मानती हूँ मेरे सब्र की मिसाल समंदर से दी जाती है। लेकिन साहब इन दिनों मेरा सब्र रिस रहा है इस मिट्टी में और सब्र का पौधा उग रहा है वहाँ। उस पर मेरे पहले प्रेम के नाम के फूल खिलते हैं। क़ब्रिस्तान के खिले फूल इतने मनहूस होते हैं कि मय्यत में भी इन्हें कोई रखने को तैय्यार नहीं होता। 

मुझे इन दिनों बुरे ख़्वाबों ने सताया हुआ है। मैं सोने से डरती हूँ। बिस्तर की सलवटें चुभती हैं। यहाँ एक आधी बार कोई आधी खुदी हुयी क़ब्र होती है, मैं उसी नरम मिट्टी में सो जाना पसंद करती हूँ। ज़मीन से कोई दो फ़ीट मिट्टी तरतीब से निकली हुयी। मैं दुआ करती हूँ कि नींद में किसी रोज़ कोई साँप या ज़हरीला बिच्छू मुझे काट ले और मैं मर जाऊँ। यूँ भी इस पूरी दुनिया में मेरा कोई है नहीं। जनाज़े की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी। मिट्टी में मुझे दफ़ना दिया जाएगा। इस दुनिया को जाते हुए जितना कम कष्ट दे सकूँ उतना बेहतर है। 

मुझे इस नौकरी के लिए हाँ बोलनी ही नहीं चाहिए थी। लेकिन साहिब, औरत हूँ ना। मेरा दिल पसीज गया। एक लड़का था जिसपर मैं मरती थी। इसी क़ब्रिस्तान से ला कर मेरे बालों में फूल गूँथा करता था। दरबान की इस नौकरी के सिवा उसके पास कुछ ना था। उसने मुझसे वादा किया कि दूसरे शहर में अच्छी नौकरी मिलते ही आ कर मुझे ले जाएगा। और साहब, बात का पक्का निकला वो। ठीक मोहलत पर आया भी, अपना वादा निभाने। लेकिन मेरी जगह लेने को इस छोटे से क़स्बे में कोई तैय्यार नहीं हुआ। अब मुर्दों को तन्हा छोड़ कर तो नहीं जा सकती थी। आप ताज्जुब ना करें। दुनिया में ज़िंदा लोगों की परवाह को कोई नहीं मिलता साहब। मुर्दों का ख़याल कौन रखेगा।

कच्ची आँखों ने सपने देख लिए थे साहब। कच्चे सपने। कच्चे सपनों की कच्ची किरचें हैं। अब भी चुभती हैं। बात को दस साल हो गए। शायद उम्र भर चुभेगा साहब। ऐसा लगता है कि इन चुभती किरिचों का एक सिरा उसके सीने में भी चुभता होगा। मैंने उसके जैसी सच्ची आँखें किसी की नहीं देखीं इतने सालों में। बचपन से मुर्दों की रखवाली करने से ऐसा हो जाता होगा। मुर्दे झूठ नहीं बोलते। मैं भी कहाँ झूठ कह पाती हूँ किसी से इन दिनों। मालूम नहीं कैसा दिखता होगा। मेरे कुछ बाल सफ़ेद हो रहे हैं। शायद उसके भी कुछ बाल सफ़ेद हुए हों। कनपटी पर के शायद। उसके चेहरे की बनावट ऐसी थी कि लड़कपन में उसपर पूरे शहर की लड़कियाँ मर मिटती थीं। इतनी मासूमियत कि उसके हिस्से का हर ग़म ख़रीद लेने को जी चाहे। बढ़ती उम्र के साथ उसके चेहरे पर ज़िंदगी की कहानी लिखी गयी होगी। मैं दुआ करती हूँ कि उसकी आँखों के इर्द गिर्द मुस्कुराने से धुँधली रेखाएँ पड़ने लगी हों। उसने शायद शादी कर ली होगी। बच्चे कितने होंगे उसके? कैसे दिखते होंगे। क्या उसके बेटे की आँखें उसपर गयी होंगी? मुझे पूरा यक़ीन है कि उसके एक बेटा तो होगा ही। हमने अपने सपनों में अलग अलग बच्चों के नाम सोचे थे। उसे सिर्फ़ मेरे जैसी एक बेटी चाहिए थी। मेरे जैसी क्यूँ…मुझमें कुछ ख़ूबसूरत नहीं था लेकिन उसे मेरा साँवला रंग भी बहुत भाता था। मेरी ठुड्डी छू कर कहता। एक बेटी दे दो बस, एकदम तुम्हारे जैसी। एकदम तुम्हारे जैसी। मैं लजाकर लाल पड़ जाती थी। शायद मैंने किसी और से शादी कर ली होती तो अपनी बेटी का नाम वही रखती जो उसने चुना था। ‘लिली’। अब तो उसके शहर का नाम भी नहीं मालूम है। कुछ साल तक उसे चिट्ठियाँ लिखती रही थी मैं। फिर जाने क्यूँ लगने लगा कि मेरे ख़तों से ज़िंदगी की नहीं मौत की गंध आती होगी। मैं जिन फूलों की गंध के बारे में लिखती वे फूल क़ब्र पर के होते थे। गुलाबों में भी उदासियाँ होती थीं। मैं बारिश के बारे में लिखती तो क़ब्र के धुले संगमरमरी पत्थर दिखते। मैं क़ब्रिस्तान के बाहर भीतर होते होते ख़ुद क़ब्रिस्तान होने लगी थी। 

दुनिया बहुत तन्हा जगह है साहब। इस तन्हाई को समझना है तो मरे हुए लोगों को सुनना कभी। मरे हुए लोग कभी कभी ज़िंदा लोगों से ज़्यादा ज़िंदा होते हैं। हर लाश का बदन ठंढा नहीं होता। कभी कभी उनकी मुट्ठियाँ बंद भी होती हैं। आदमी तन्हाई की इतनी शिकायत दीवारों से करता है। इनमें से कुछ लोग भी क़ब्रिस्तान आ जाया करें तो कमसे कम लोगों को मर जाने का अफ़सोस नहीं होगा। मुझे भी पहले मुर्दों से बात करने का जी नहीं करता था। लेकिन फिर जैसे जैसे लोग मुझसे कटते गए मुझे महसूस होने लगा कि मुर्दों से बात करना मुनासिब होगा। यूँ भी सब कितनी बातें लिए ही दफ़्न हो जाते हैं। कितनी मुहब्बत। कितनी मुहब्बत है दुनिया में इस बात पर ऐतबार करना है तो किसी क़ब्रिस्तान में टहल कर देखना साहिब। मर जाने के सदियों बाद भी मुर्दे अपने प्रेम का नाम चीख़ते रहते हैं।

मैं भी बहुत सारा कुछ अपने अंदर जीते जीते थक गयी थी। सहेजते। मिटाते। दफ़नाते। भुलाते। झाड़ते पोछते। मेरे अंदर सिर्फ़ मरी हुयी चीज़ें रह गयी हैं। कि मेरा दिल भी एक क़ब्रिस्तान है हुज़ूर। मौत है कि नहीं आती। शायद मुझे उन सारे मुर्दों की उम्र लग गयी है जिनकी बातें मैं दिन दिन भर सुना करती हूँ। रात भर जिन्हें राहत की दुआएँ सुनाती हूँ। हम जैसा सोचते हैं ज़िंदगी वैसी नहीं होती है ना साहेब। मुझे लगा था मुर्दों से बातचीत होगी तो शायद मर जाने की तारीख़ पास आएगी। शायद वे मुझे अपनी दुनिया में बुलाना चाहेंगे जल्दी। लेकिन ऊपरवाले के पास मेरी अर्ज़ी पहुँचने कोई नहीं जाता। सब मुझे इसी दुनिया में रखना चाहते हैं। झूठे दिलासे देते हैं। मेरे अनगिनत ख़तों की स्याही बह बह कर क़ब्रों पर इकट्ठी होती रहती है। वे स्याही की गंध में डूब कर अलग अलग फूलों में खिलते हैं। क़ब्रिस्तान में खिलते फूलों से लोगों को कोफ़्त होने लगी है। मगर फूल तो जंगली हैं। अचानक से खिले हुए। बिना माँगे। मौत जैसे। इन दिनों जब ट्रैफ़िक सिग्नल पर गाड़ियाँ रुकी रहती हैं तो वे अपनी नाक बंद करना चाहते हैं लेकिन लिली की तीखी गंध उनका गिरेबान पकड़ कर पहुँच ही जाती है उनकी आँखें चूमने। 

आप इस शहर में नए आए हैं साहब? आपका स्वागत है। जल्दी ही आइएगा। कहाँ खुदवा दूँ आपकी क़ब्र? चिंता ना करें। मुझे बिना जवाबों के ख़त लिखने की आदत है। जी नहीं। घबराइए नहीं। मेरे कहने से थोड़े ना आप जल्द चले आइएगा। इंतज़ार की आदत है मुझे। उम्र भर कर सकती हूँ। आपका। आपके ख़त का। या कि अपनी मौत का भी। अगर खुदा ना ख़स्ता आपके ख़त के आने के पहले मौत आ गयी तो आपके नाम का ख़त मेज़ की दराज़ में लिखा मिलेगा। लाल मुहर से बंद किया हुआ। जी नहीं। नाम नहीं लिखा होगा आपका। कोई भी ख़त पढ़ लीजिएगा साहब। सारे ख़तों में एक ही तो बात लिखी हुयी है। खुदा। मेरे नाम की क़ब्र का इंतज़ाम जल्दी कर। 

19 February, 2012

अलविदा के पोस्ट इट्स चिपकाने वाली लड़की

रोज़ अलविदा के पोस्ट इट्स
चिपकाने वाली लड़की
मुझे भी मालूम है
तुम्हारे आखिरी दिन
तुम भूल जाओगी कहना
विदा 
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तुमने जो बनवा रखे हैं
ज़ख्मों के टैटू
उनमें मेरा नाम नहीं है
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तुम लिखती हो सबसे ज्यादा ख़राब
जब तुम गहरे प्यार में होती हो
(हैप्पीनेस डज़ नॉट सूट द राईटर इन यू
बीइंग इन लव सफोकेट्स हर)
या तो ऐसे प्यार न करो...या लिखो मत
ईमानदारी से एक दुखती बात कहूँ 
तुम्हारे महबूब की बातों में
किसी की दिलचस्पी नहीं है 
तुम्हारे सिवा
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तुम में ऐसा कुछ भी नहीं है
जिसे सहेजने की जरूरत आन पड़े
तुम एकदम साधारण लड़की हो 
भीड़ में गुम कोई भी
तुम्हारे चेहरे पर जो ओज है न
वो इश्क का है
तुम्हारा नहीं
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सुनो लड़की
मुझे कभी तुमसे प्यार नहीं होगा
जितनी जल्दी तुम्हें ये बात समझ आ जाए
बेहतर है
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तुम्हारा एकतरफा प्यार
निकृष्ट और छिछला है
इसमें कुछ नहीं है
जो मुझे बांध सके
स्टॉप एम्बरासिंग मी
डोंट क्राय
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जब कहता हूँ
आई हेट स्मोकर्स
तो मेरा निशाना होती हो
सिर्फ तुम
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काश! उसने कही होतीं
ऐसी बातें
मेरा दिल तोड़ते हुए
उसे भूलना आसान होता 
उफ्फ्फ उसे तो ठीक से
दिल तोड़ना भी नहीं आता
मैं अपनी सोच में भी नहीं कह सकती  उसे
आई हेट यू
गेट लौस्ट
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या खुदा
मैं नहीं चाहती
कि वो थोड़ी सी देर रुक जाए
मेरी आखिरी साँसों भर 
कि वो रोये
मेरी लाश को बांहों में भर कर 
मुझे लौटा लाना चाहे
कुछ इतना ऐम्बिशीयस नहीं 
बस इतना 
कि वो जाते हुए 
देख ले मुड़ के
एक बार 
---

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