मेरे साथ ऐसा बहुत कम बार होता है कि मेरा कुछ लिखने को दिल हो आये और मैं कुछ लिख नहीं पाऊं...कि ठीक ठीक शब्द नहीं मिल रहे लिखने को...कुछ लिखना है जो लिखा नहीं पा रहा है. जाने क्या कुछ लिख रही हूँ...कॉपी पर अनगिन पन्ने रंग चुकी हूँ...दिन भर ख्यालों में भी क्या क्या अटका रहता है...पर वो कोई एक ख्याल है कि पकड़ नहीं आ रहा है...फिसल जा रहा है हाथ से.
जैसे कोई कहानी याद आके गुम गयी हो...जैसे किरदार मिलते मिलते बिछड़ जायें या कि जैसे प्यार हुआ हो पहली बार और कुछ समझ ना आये कि अब क्या होने वाला है मेरे साथ...मुझे याद आता है जब पहली बार एक लड़के ने प्रपोज किया था...एकदम औचक...बिना किसी वार्निंग के...बिना किसी भूमिका के...सिर्फ तीन ही शब्द कहे थे उसने...आई लव यू...न एक शब्द आगे...न एक शब्द पीछे...चक्कर आ गए थे. किचन में गयी थी और एक ग्लास पानी भरा था...पानी गले से नीचे ही नहीं उतर पा रहा था...जैसे भांग खा के वक़्त स्लो मोशन में गुज़र रहा हो.
कुछ अटका है हलक में...और एकदम बेवजह सिगरेट की तलब लगती है...जिस्म पूरा ऐंठ जाता है...लगता है अब टूट जाएगा पुर्जा पुर्जा...लगता है कोई खोल दे...सारी गिरहें...सारी तहें. एक किताब हो जिसमें मेरे हर सवाल का जवाब मिल जाए...कोई कह दे कि अब मुझे ताजिंदगी किसी और से प्यार नहीं होगा...या फिर ऐसी तकलीफ नहीं होगी.
मैं बहुत कम लोगों को आप कहती हूँ...मुझे पचता ही नहीं...आप...जी...तहजीब...सलीका...नहीं कह पाती...फिर उनके नाम के आगे जी नहीं लगाती...जितना नाम है उसे भी छोटा कर देती हूँ...इनिशियल्स बस...हाँ...अब ठीक है. अब लगता है कि कोई ऐसा है जिससे बात करने के पहले मुझे कोई और नहीं बनना पड़ेगा...बहुत सी तसवीरें देखती हूँ...ह्म्म्म...मुस्कराहट तो बड़ी प्यारी है...बस जेठ के बादलों की तरह दिखती बड़ी कम है. वो मुझे बड़े अच्छे लगते हैं...कहती हूँ उनसे...आप बड़े अच्छे हो...सोचती हूँ कितना हँसता होगा कोई मेरी बेवकूफी पर...इतना खुलना कोई अच्छी बात है क्या...पर कुछ और होने में बहुत मेहनत है...अगर सच कहो और अपनी फीलिंग्स को न छुपाओ तो चीज़ें काफी आसान होती हैं...छुपाने में जितनी एनेर्जी बर्बाद होती है उसका कहीं और इस्तेमाल किया जा सकता है.
दोस्त...तेरी बड़ी याद आ रही थी...कहाँ था तू...वो मेरी आवाज़ में किसी और को मिस करना पकड़ लेता है...पूछता है...फिर से याद आ रही है...मैं चुप रह जाती हूँ. उसे बहकाती हूँ...वो मुझे कुछ जोक्स सुनाता है...शायरी...ग़ालिब...फैज़...बहुत देर मेरी खिंचाई करता है...अपनी बातें करता है...पूछता है...तुझे मुझसे प्यार क्यूँ नहीं होता...तुझे मुझसे कभी प्यार होगा भी कि नहीं. मैं बस हंसती हूँ और मन में दुआ मांगती हूँ कि भगवान् न करे कि कभी मुझे तुझसे प्यार हो...उनकी बहुत बुरी हालत होती है जिनसे मुझे प्यार होता है...तू जानता है न...अपने जैसी सिंगल पीस हूँ...मुझे भुलाने के लिए किसी से भी प्यार करेगा तो भी भूल नहीं पायेगा...प्यार में कभी निर्वात नहीं हो सकता...किसी की जगह किसी और को आना होता है.
वो कहती है...तू ऐसी ही रहा कर...प्यार में रहती है तो खुश रहती है...वो कोशिश करती है कि ऐसी कोई बात न कहे कि मुझे तकलीफ हो...मुझसे बहुत प्यार करती है वो, मेरी बहुत फ़िक्र करती है. मुझे यकीन नहीं होता कि वो मेरी जिंदगी में सच मुच में है. मुझे वैसे कोई प्यार नहीं करता...लड़कियां तो बिलकुल नहीं...मैं उससे कहती हूँ...मैं ऐसी क्यूँ हूँ...इसमें मेरी क्या गलती है...मैं तेरे जैसी अच्छी क्यों नहीं.
मेरा मन बंधता क्यूँ नहीं...क्या आध्यात्म ऐसी किसी खोज के अंत में आता है? पर मन नहीं मानता कि हिमालय की किसी कन्दरा में जा के सवालों के जवाब खोजूं...मन कहता है उसे देख लूं जिसे देखने को नींद उड़ी है...उससे छू लूं जिसकी याद में तेल की कड़ाही में ऊँगली डुबो दिया करती हूँ...उसे फोन कर लूं जिसकी आवाज़ में अपना नाम सुने बिना शाम गुज़रती नहीं...उसे कह दूं कि प्यार करती हूँ तुमसे...जिससे प्यार हो गया है. सिगरेट सुलगा लूं और पार्क की उस कोने वाली सीमेंट की सीढ़ियों पर बैठूं...एक डाल का टुकड़ा उठाऊँ और तुम्हारा नाम लिखूं...जो बस तब तक आँखों में दिखे जब तक लकड़ी में मूवमेंट है...
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मेरे सच और झूठ की दुनिया की सरहदें मिटने लगी हैं...मैं वो होने लगी हूँ जिसकी मैं कहानियां लिखती हूँ...मैं धीरे धीरे वो किरदार होने लगी हूँ जो मेरी फिल्म स्क्रिप्ट्स में कोमा में पड़ी है...न जीती है न मरती है. अनुपम ने मेरी हथेली देख कर कहा था कि मैं ८० साल तक जियूंगी...मैं जानती हूँ कि उसने झूठ कहा होगा...पक्का मैं जल्दी मरने वाली हूँ और उसने ऐसा इसलिए कहा था कि वो जानता है मैं उसकी बातों पर आँख मूँद के विश्वास करती हूँ...कि यमराज भी सामने आ जायें तो कहूँगी अनुपम ने कहा है कि मैं ८० के पहले नहीं मरने वाली.
मुझमें मेरा 'मैं' कहाँ है...कौन है वो जो मुझसे प्यार में जान दे देने को उकसाता है...मेरे अन्दर जो लड़की रहती है उसे दुनिया दिखती क्यूँ नहीं...मैं बस इन शब्दों में हूँ...आवाज़ के चंद कतरों में हूँ...तुम कैसे जानते हो मैं कौन हूँ...वो क्या है जो सिर्फ मेरा है...तुमने मुझे छू के देखा है? तुम मुझे मेरी खुशबू से पहचान सकते हो? तुम्हें लगता है तुम मुझे जानते हो क्यूंकि तुम मुझे पढ़ते हो...मैं कहती हूँ कि तुमसे बड़ा बेवक़ूफ़ और कोई नहीं...लिखे हुए का ऐतबार किया? जो ये लिखती है मैं वो नहीं...मैं जो जीती हूँ वो मैं लिखती नहीं...आखिर कौन हूँ मैं...और कहाँ हो तुम...आ के मुझे अपनी बाँहों में भरते क्यूँ नहीं?
आखिर कौन हूँ मैं...और कहाँ हो तुम?
ReplyDeleteसवालों का जखीरा है KC और मीलों बिखरा रेगिस्तान है...मन इस छोर बैठे सोचता है कि आखिर एक दिन ये रेगिस्तान पार कर जाऊं तो क्या किसी समंदर पर पहुंचना होगा? मगर फिर समंदर का पानी भी तो खारा होता है...क्या खारे पानी से प्यास बुझेगी?
Deleteकिसी समन्दर पर पहुंचना नहीं है ...बल्कि खुद समन्दर बन जाना है। समन्दर को प्यास नहीं लगती। वह तृप्त है चिर तृप्त।
Deletebahut bda comment likha tha ja nhi paya.kher aj poonam ki rat he aur lg rha he tmhari nayika ki atma ka ek katra mjme aa gya.mout pyari lg rhi he
ReplyDeleteओह ओह, निःशब्द कर दिया... दिल की गहराई में उतर कर लिखी गई। गलत कहतें है कि जो लिखती हूं उसे जीती नहीं, शब्द तो कुछ और ही कह रहे है।
ReplyDeleteहर बार मैं कल्पना की सीमायें परिभाषित करता हूँ, तुम्हारे लेख पढ़कर पुनर्विचार करना पड़ता है।
ReplyDeleteप्रवीण जी...मन ही तो ऐसा है न जिसपर बाँध नहीं बनता...यक्ष प्रश्न...वायु से भी तीव्र गति किसकी है...मन की.
Deleteमैं कोशिश करती हूँ पर मन ठहरता नहीं...इस दुनिया के पैरलल एक दुनिया चलती रहती है हमेशा...उसके अपने सवाल हैं...उसके अपने लोग हैं...वहां सवाल के जवाब मिलते हैं...वहां बंधन नहीं होते...पर उस दुनिया से इस दुनिया में क्रोस कनेक्शन होता है और यहाँ दिक्कत होने लगती है.
कमेन्ट के लिए शुक्रिया.
कहते हैं कि कल्पना का एक निश्चित आधार होता है जो अनुभव से बनता है। बार बार बाँध तोड़कर बह जाने का हुनर कोई नदी तुमसे सीखे।
Deleteअधिकतर पोस्ट दुहरा कर पढ़ना होता है और उस पर कुछ भी कहना फीका सा लगता है.
ReplyDeleteराहुल जी...स्नेह के लिए आभार...बुहत कुछ अभी यहाँ आपके लिए लिखा...पर फिर ठीक ठाक कुछ समझ नहीं आया कि क्या लिखना चाहिए. शुक्रिया...बस.
Deleteसार्थक पोस्ट, सादर.
ReplyDeleteडायरियां तो यादोँ का खजाना होती है ....जो अकेलापन दूर भगाती है ..
ReplyDeleteअकेले में अपनों की याद दिलाती हैं ....|
पढ़ो, याद करो और खुश हो जाओ...
शुभकामनाएँ!
नज़्म से खुद को एक्सप्रेस करना अच्छा लगता है किन्तु तुम्हारी पोस्ट पढ़कर पता चलता है की expression की सम्पूर्णता क्या होती है..शायद ख्यालों को ऐसे ही कागज़ पे उतारना शुरू करूँ तभी सुकून मिले.
ReplyDeleteपोस्ट का शीर्षक देखा और चला आया, आज से करीब 4 साल पहले अपनी 15 डायरियां और एक आधा लिखा नोबेल जला दिया था, अजीब सा ही दौर था...बहुत ज्यादा डिप्रेस्ड था... खैर आज कभी कभी सोचता हूँ उन यादों के काफिले को आज अगर सब पढ़ते मुझे पागल ही कहते.... इस पोस्ट को लिखते समय आपका मूड कैसा रहा होगा पता नहीं लेकिन मैं उदास हूँ.... बस उस रेगिस्तान के इस पार खड़ा हूँ, और इसे पार करने की बेचैनी बढती जा रही है....
ReplyDeleteपोस्ट के बारे में क्या कहूं, कुछ नहीं है कहने को...
hi.....aur kya kehna chahiye nahin soojha....bas yahi kehti hoon.. ;)
ReplyDeleteWelcome back...कहाँ गुम हो आजकल...कितने दिन बाद दिखी...वाज मिसिंग यू.
Deleteeak baar nahi baar padi ...kya karu man jo hae bawra....
ReplyDeleteLucky ones are bestowed with the key to the parallel world of imagination with such fineness!
ReplyDeleteKeep creating the mesmerizing effects by the marvelous pen of yours:)
'मेरे सच और झूठ की दुनिया की सरहदें मिटने लगी हैं...'
ReplyDeleteयह पंक्ति बांधती भी है और भेदती भी है हृदय को भीतर तक...
Keep writing... keep discovering for the journey continues:)
अपने आलेखों को पुस्तक के रूप में परिणित करवा दो. तमिल का संगम साहित्य काल भी बौना लगने लगा है.
ReplyDeleteप्यार में कभी निर्वात नहीं हो सकता...किसी की जगह किसी और को आना होता है.....
ReplyDelete@...क्या आध्यात्म ऐसी किसी खोज के अंत में आता है?
ReplyDeleteबिल्कुल सही। हर भटकाव के अंतिम छोर आध्यात्म के शुरुआती छोर को स्पर्श करते हैं
@...एक डाल का टुकड़ा उठाऊँ और तुम्हारा नाम लिखूं...जो बस तब तक आँखों में दिखे जब तक लकड़ी में मूवमेंट है...
पूजा तुम्हारी कल्पनायें और प्रतीक यूनिक हैं....
अति उत्तम रचनाएँ, पूजा!
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