अलग अलग शौक़ होते हैं लोगों के। मेरा एक दिल अज़ीज़ शौक़ है इन दिनों। अफ़सोस जमा करने का। बेइंतहा ख़ूबसूरत मौसम भी होते हैं। ऐसे कि जो शहर का रंग बदल दें। इस शहर में एक मौसम आया कि जिसे यहाँ के लोग कहते हैं, ऑटम। फ़ॉल। देख कर लगा कि फ़ॉल इन लव इसको कहते होंगे। वजूद का सुनहरा हो जाना। कि जैसे गोल्ड-प्लेटिंग हो गयी हो हर चीज़ की। गॉथेन्बर्ग। मेरी यादों में हमेशा सुनहरा।
यहाँ की सड़कें यूँ तो नोर्मल सी ही सड़कें होती होंगी। बैंगलोर जैसी। दिल्ली जैसी नहीं की दिल्ली की सड़कों से हमेशा महबूब जुड़े हैं। यारियाँ जुड़ी हैं। मगर इन दिनों इन सड़कों पर रंग बिखरता था। सड़कों पर दोनों ओर क़तार में सुनहले पेड़ लगे हुए थे। मैंने ऐसे पेड़ पहली और आख़िरी बार कश्मीर में देखे थे। तरकन्ना के पेड़। ज़मीन पर गिरे हुए पत्तों का पीला क़ालीन बिछा था। हवा इतनी तेज़ चलती थी कि सारे पत्ते कहीं भागते हुए से लगते थे। उस जादुई पाइप प्लेयर की याद आती थी जिसने चूहों को सम्मोहित कर लिया था और वे उसके पीछे पीछे चलते हुए नदी में जा के डूब गए थे। ये पत्ते वैसे ही सम्मोहित सड़कों पर दीवाने हुए भागते फिरते थे। इस बात से बेख़बर कि ट्रैफ़िक सिग्नल हरा है या लाल। उन्हें कौन महबूब पुकारता था। वे कहाँ खिंचे चले जाते थे? मुझे वो वक़्त याद आया जब याद यूँ बेतरह आती थी जब कोई ऐसा शहर पुकारता था जिसकी गलियों की गंध मुझे मालूम नहीं।
कई दिनों से मेरा ये आलम भी है कि सच्चाई और कहानियों में अंतर महसूस करने में मुश्किल हो रही है। दिन गुज़रता है तो यक़ीन नहीं होता कि कहीं से गुज़र कर आए हैं। लगता है काग़ज़ से उतर कर ज़िंदा हुआ कोई शहर होगा। कोई महबूब होगा सुनहली आँखों वाला।
हम जिनसे भी कभी मुहब्बत में होते हैं, हमें उनकी आँखों का रंग तब तक याद रहता है जब तक कि उस मुहब्बत की ख़ुशबू बाक़ी रहे। याने के उम्र भर।
शहर की सफ़ाई करने वाले कर्मचारियों ने पीले पत्ते बुहार कर सड़क के किनारे कर दिए थे। तेज़ हवा चलती और पत्ते कमबख़्त, बेमक़सद दौड़ पड़ते शहर को अपनी बाँहों में लिए बहती नदी में डूब जाने को। मैं किसी कहानी का किरदार थी। तनहा। लड़की कोई। उदास आँखों वाली। लड़की ने एक भागते पत्ते को उठाया और कहा तुम सूने अच्छे नहीं लगते और उसपर महबूब का नाम लिखा अपनी नीली स्याही से। पत्ते को बड़ी बेसब्री थी। हल्के से हवा के झोंके से दौड़ पड़ा और पुल से कूद गया नीचे बहते पानी में। जब तक पत्ता हवा में था लड़की देखती रही महबूब का नाम। नदी के पानी में स्याही घुल गयी और अब से सारे समंदरों को मालूम होगा उसके महबूब का नाम। मैंने देखा लड़की को। सोचा। मैं लिखूँ तुम्हारा नाम। मगर फिर लगा तुम्हारे शहर का पता बारिशों को नहीं मालूम।
लड़की भटक रही थी बेमक़सद मगर उसे मिलती हुयी चीज़ों की वजह हुआ करती थी। धूप निकली तो सब कुछ सुनहला हो गया। आसमान से धूप गिरती और सड़क के पत्तों से रेफ़्लेक्ट होती। इतना सुनहला था सब ओर कि लड़की को लगा उसकी आँखें सुनहली हो जाएँगी। उसे वो दोस्त याद आए जिनकी आँखों का रंग सुनहला था। वो महबूब भी। और वे लड़के भी जो इन दोनों से बचते हुए चलते थे। शहर के पुराने हिस्से में एक छोटे से टीले पर एक लाल रंग की बेंच थी जिसके पास से एक पगडंडी जाती थी। उसे लगा कि ये बेंच उन लड़कों के लिए हैं जिन्हें यहाँ बैठ कर कविताएँ पढ़नी हैं और प्रेम पत्र लिखने हैं। ये बेंच उन लोगों के लिए हैं जिनके पास प्रेम के लिए जगह नहीं है।
ये पूरा शहर एक अफ़सोस की तरह बसा है सीने में। ठीक मालूम नहीं कि क्यों। ठीक मालूम नहीं कि क्या होना था। ठीक मालूम नहीं कि इतना ख़ूबसूरत नहीं होना था तो क्या होना था। उदास ही होना था। हमेशा?
हाथों में इतना दर्द है कि चिट्ठियाँ नहीं लिखीं। पोस्टकार्ड नहीं डाले। ठंढे पानी से आराम होता था। सुबह उठती तो उँगलियाँ सूजी हयीं और हथेली भी। कुछ इस तरह कि रेखाओं में दिखते सारे नाम गड़बड़। डर भी लगता। कहीं तुम्हारा नाम मेरे हाथों से गुम ना जाए। जब हर दर्द बहुत ज़्यादा लगता तो दोनों हथेलियों से बनाती चूल्लु और घूँट घूँट पानी पीती। दर्द भी कमता और प्यास भी बुझती।
वो दिखता। किसी कहानी का महबूब। हँसता। कि इतना दुःख है। काश इतनी मुहब्बत भी होती। मैं मुस्कुराती तो आँख भर आती। हाथ उठाती दुआ में। कहती। सरकार। आमीन।
यहाँ की सड़कें यूँ तो नोर्मल सी ही सड़कें होती होंगी। बैंगलोर जैसी। दिल्ली जैसी नहीं की दिल्ली की सड़कों से हमेशा महबूब जुड़े हैं। यारियाँ जुड़ी हैं। मगर इन दिनों इन सड़कों पर रंग बिखरता था। सड़कों पर दोनों ओर क़तार में सुनहले पेड़ लगे हुए थे। मैंने ऐसे पेड़ पहली और आख़िरी बार कश्मीर में देखे थे। तरकन्ना के पेड़। ज़मीन पर गिरे हुए पत्तों का पीला क़ालीन बिछा था। हवा इतनी तेज़ चलती थी कि सारे पत्ते कहीं भागते हुए से लगते थे। उस जादुई पाइप प्लेयर की याद आती थी जिसने चूहों को सम्मोहित कर लिया था और वे उसके पीछे पीछे चलते हुए नदी में जा के डूब गए थे। ये पत्ते वैसे ही सम्मोहित सड़कों पर दीवाने हुए भागते फिरते थे। इस बात से बेख़बर कि ट्रैफ़िक सिग्नल हरा है या लाल। उन्हें कौन महबूब पुकारता था। वे कहाँ खिंचे चले जाते थे? मुझे वो वक़्त याद आया जब याद यूँ बेतरह आती थी जब कोई ऐसा शहर पुकारता था जिसकी गलियों की गंध मुझे मालूम नहीं।
कई दिनों से मेरा ये आलम भी है कि सच्चाई और कहानियों में अंतर महसूस करने में मुश्किल हो रही है। दिन गुज़रता है तो यक़ीन नहीं होता कि कहीं से गुज़र कर आए हैं। लगता है काग़ज़ से उतर कर ज़िंदा हुआ कोई शहर होगा। कोई महबूब होगा सुनहली आँखों वाला।
हम जिनसे भी कभी मुहब्बत में होते हैं, हमें उनकी आँखों का रंग तब तक याद रहता है जब तक कि उस मुहब्बत की ख़ुशबू बाक़ी रहे। याने के उम्र भर।
शहर की सफ़ाई करने वाले कर्मचारियों ने पीले पत्ते बुहार कर सड़क के किनारे कर दिए थे। तेज़ हवा चलती और पत्ते कमबख़्त, बेमक़सद दौड़ पड़ते शहर को अपनी बाँहों में लिए बहती नदी में डूब जाने को। मैं किसी कहानी का किरदार थी। तनहा। लड़की कोई। उदास आँखों वाली। लड़की ने एक भागते पत्ते को उठाया और कहा तुम सूने अच्छे नहीं लगते और उसपर महबूब का नाम लिखा अपनी नीली स्याही से। पत्ते को बड़ी बेसब्री थी। हल्के से हवा के झोंके से दौड़ पड़ा और पुल से कूद गया नीचे बहते पानी में। जब तक पत्ता हवा में था लड़की देखती रही महबूब का नाम। नदी के पानी में स्याही घुल गयी और अब से सारे समंदरों को मालूम होगा उसके महबूब का नाम। मैंने देखा लड़की को। सोचा। मैं लिखूँ तुम्हारा नाम। मगर फिर लगा तुम्हारे शहर का पता बारिशों को नहीं मालूम।
लड़की भटक रही थी बेमक़सद मगर उसे मिलती हुयी चीज़ों की वजह हुआ करती थी। धूप निकली तो सब कुछ सुनहला हो गया। आसमान से धूप गिरती और सड़क के पत्तों से रेफ़्लेक्ट होती। इतना सुनहला था सब ओर कि लड़की को लगा उसकी आँखें सुनहली हो जाएँगी। उसे वो दोस्त याद आए जिनकी आँखों का रंग सुनहला था। वो महबूब भी। और वे लड़के भी जो इन दोनों से बचते हुए चलते थे। शहर के पुराने हिस्से में एक छोटे से टीले पर एक लाल रंग की बेंच थी जिसके पास से एक पगडंडी जाती थी। उसे लगा कि ये बेंच उन लड़कों के लिए हैं जिन्हें यहाँ बैठ कर कविताएँ पढ़नी हैं और प्रेम पत्र लिखने हैं। ये बेंच उन लोगों के लिए हैं जिनके पास प्रेम के लिए जगह नहीं है।
ये पूरा शहर एक अफ़सोस की तरह बसा है सीने में। ठीक मालूम नहीं कि क्यों। ठीक मालूम नहीं कि क्या होना था। ठीक मालूम नहीं कि इतना ख़ूबसूरत नहीं होना था तो क्या होना था। उदास ही होना था। हमेशा?
हाथों में इतना दर्द है कि चिट्ठियाँ नहीं लिखीं। पोस्टकार्ड नहीं डाले। ठंढे पानी से आराम होता था। सुबह उठती तो उँगलियाँ सूजी हयीं और हथेली भी। कुछ इस तरह कि रेखाओं में दिखते सारे नाम गड़बड़। डर भी लगता। कहीं तुम्हारा नाम मेरे हाथों से गुम ना जाए। जब हर दर्द बहुत ज़्यादा लगता तो दोनों हथेलियों से बनाती चूल्लु और घूँट घूँट पानी पीती। दर्द भी कमता और प्यास भी बुझती।
वो दिखता। किसी कहानी का महबूब। हँसता। कि इतना दुःख है। काश इतनी मुहब्बत भी होती। मैं मुस्कुराती तो आँख भर आती। हाथ उठाती दुआ में। कहती। सरकार। आमीन।
कहीं पढ़ा था कि हम भी ऑटम हैं। धीरे धीरे ख़त्म हो रहे हैं। और इसीलिए ऑटम सबसे ख़ूबसूरत मौसम है।
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteHaath uthaati day me...kehti...sarkaar...aameen
ReplyDeleteवाह क्या कहने पूजा जी बेहतरीन ढंग से सहज और सादगी से कही बात मन तक पहुँची
ReplyDeleteक्या कहने..बहुत खूबसूरत
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