बहुत दूर ऊपर निर्जन हिमालय में एक गुफा है...साल भर बर्फ के ग्लेशियर का पानी पिघल कर बूँद बूँद गिरता है. नीचे पहुँच कर पानी फिर बर्फ हो जाता है...एक वृत्त पूरा हो जाता है...बर्फ...पानी...बर्फ. मगर इस वृत्त के पूरा होने में कुछ रच जाता है...शिवलिंग...अमरनाथ की गुफा में...हर साल सावन पूर्णिमा को एक दिन के लिए गुफा का दरवाजा खुलता है.
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लिखना...जैसे प्याला रखा हो और शब्द वैसे ही बूँद बूँद गिरते हों...निर्वात से उगते हैं शब्द...कुछ रच जाता है और फिर निर्वात में ही खो जाते हैं शब्द...मैं काफी दिनों से इस प्याले को देख रही हूँ...जाने शब्द आने बंद हो गए हैं कि प्याला टूट गया है. पहर पहर प्याले को देखते गुज़रता है...शब्द की परछाई भी नहीं दिखती...प्याले की तलछट में पिछला बकाया भी कुछ नहीं.
मुझे हमेशा लगता था कि लिखना कभी खुद से नहीं होता है...सब कुछ हमारे इर्द गिर्द ही रहता है...मैं बस माध्यम हूँ जिसके द्वारा कुछ लिखा जाता है. लिखना बहुत हद तक इन्वोलंटरी रहा है हमेशा से मेरे लिए.
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मैं कुछ कुछ सिजोफ्रेनिक भी होती जा रही हूँ...मन के अंदर हमेशा से बहुत सारी स्याही थी...लिखने से थोड़ा अँधेरा कम होता था...आजकल नहीं लिखती हूँ तो वही अँधेरा जैसे कौर बना कर मुझे खा लेना चाहता है...ग्रस लेता है...रात दर रात दर रात. कलमें शिकायत में डूबी हैं...घर में बेजा चीज़ें बढ़ती जा रही हैं. केओस बहुत सारा है. हालत कुछ कुछ वैसी लगती है जैसे शिव का तांडव चल रहा हो और चारों तरफ सिर्फ विनाश...सारी चीज़ें अपनी जगह से अलग-विलग. शब्द अजनबी...कोई तारतम्य नहीं. जैसे इस क्षण कोई शिव के पैरों पर गिर कर कहे...कि बस. अब बस.
मुझे नहीं मालूम ये कौन से लोग हैं जो मुझे दिखते हैं...और क्यूँ दिखते हैं...ये मेरे पीछे पीछे चलते हैं. साइकिल चलाती हूँ, हवा तेज़ी से गुज़रती है...और लगता है कि मोड़ पर कोई था...उसका होना इतना सच है कि मुझे कपड़ों के रंग दिखते हैं...मैं साइकिल वापस मोड़ती हूँ मन में मनाते हुए कि कोई हो वहाँ पर...न कुछ सही कोई जानवर ही...कुत्ता, बिल्ली...कोई जीवित चीज़ कि मुझे लगे कि मुझे धोखा हो गया था. पर वहाँ कोई भी नहीं होता. आगे पीछे दायें बाएं...सब ओर लोगों की परछाइयाँ...मैं जितना ही खुद को कमरे में बंद करना चाहती हूँ उतना ही परछाइयाँ नज़र आती हैं...इकलौता उपाय है लाईट बुझा कर अँधेरा कर देना...अँधेरे में परछाइयाँ नहीं दिखतीं...मगर अँधेरे के अपने डर हैं.
अँधेरा जब तक कलम में बंद है उससे दिन के आसमान पर लिखा जा सकता है...पर जब अँधेरा चारों ओर फ़ैल जाए तो उसपर रौशनी से नहीं लिख सकती मैं. मेरा कुछ तोड़ने का मन भी नहीं करता...कुछ जलाने का...कुछ फ़ेंक देने का...कुछ नहीं.
अँधेरा एक ब्लैक होल है...धीरे धीरे मेरी ओर बढ़ता है...मैं चुप होती जाती हूँ...मैं कुछ नहीं सुनती...कुछ नहीं कहती...सारे लोग किसी दुनिया में थे ही नहीं...डॉक्टर डायग्नोज करता है...और बताता है कि कोई नहीं है...मैं डॉक्टर को देखती हूँ...जानती हूँ...वो भी एक्जिस्ट नहीं करता है.
ये सब मेरी कल्पना है...मेरी रची दुनिया...कहीं कुछ सच नहीं...तो फिर मैं कौन...खुदा?
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लिखना...जैसे प्याला रखा हो और शब्द वैसे ही बूँद बूँद गिरते हों...निर्वात से उगते हैं शब्द...कुछ रच जाता है और फिर निर्वात में ही खो जाते हैं शब्द...मैं काफी दिनों से इस प्याले को देख रही हूँ...जाने शब्द आने बंद हो गए हैं कि प्याला टूट गया है. पहर पहर प्याले को देखते गुज़रता है...शब्द की परछाई भी नहीं दिखती...प्याले की तलछट में पिछला बकाया भी कुछ नहीं.
मुझे हमेशा लगता था कि लिखना कभी खुद से नहीं होता है...सब कुछ हमारे इर्द गिर्द ही रहता है...मैं बस माध्यम हूँ जिसके द्वारा कुछ लिखा जाता है. लिखना बहुत हद तक इन्वोलंटरी रहा है हमेशा से मेरे लिए.
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मैं कुछ कुछ सिजोफ्रेनिक भी होती जा रही हूँ...मन के अंदर हमेशा से बहुत सारी स्याही थी...लिखने से थोड़ा अँधेरा कम होता था...आजकल नहीं लिखती हूँ तो वही अँधेरा जैसे कौर बना कर मुझे खा लेना चाहता है...ग्रस लेता है...रात दर रात दर रात. कलमें शिकायत में डूबी हैं...घर में बेजा चीज़ें बढ़ती जा रही हैं. केओस बहुत सारा है. हालत कुछ कुछ वैसी लगती है जैसे शिव का तांडव चल रहा हो और चारों तरफ सिर्फ विनाश...सारी चीज़ें अपनी जगह से अलग-विलग. शब्द अजनबी...कोई तारतम्य नहीं. जैसे इस क्षण कोई शिव के पैरों पर गिर कर कहे...कि बस. अब बस.
मुझे नहीं मालूम ये कौन से लोग हैं जो मुझे दिखते हैं...और क्यूँ दिखते हैं...ये मेरे पीछे पीछे चलते हैं. साइकिल चलाती हूँ, हवा तेज़ी से गुज़रती है...और लगता है कि मोड़ पर कोई था...उसका होना इतना सच है कि मुझे कपड़ों के रंग दिखते हैं...मैं साइकिल वापस मोड़ती हूँ मन में मनाते हुए कि कोई हो वहाँ पर...न कुछ सही कोई जानवर ही...कुत्ता, बिल्ली...कोई जीवित चीज़ कि मुझे लगे कि मुझे धोखा हो गया था. पर वहाँ कोई भी नहीं होता. आगे पीछे दायें बाएं...सब ओर लोगों की परछाइयाँ...मैं जितना ही खुद को कमरे में बंद करना चाहती हूँ उतना ही परछाइयाँ नज़र आती हैं...इकलौता उपाय है लाईट बुझा कर अँधेरा कर देना...अँधेरे में परछाइयाँ नहीं दिखतीं...मगर अँधेरे के अपने डर हैं.
अँधेरा जब तक कलम में बंद है उससे दिन के आसमान पर लिखा जा सकता है...पर जब अँधेरा चारों ओर फ़ैल जाए तो उसपर रौशनी से नहीं लिख सकती मैं. मेरा कुछ तोड़ने का मन भी नहीं करता...कुछ जलाने का...कुछ फ़ेंक देने का...कुछ नहीं.
अँधेरा एक ब्लैक होल है...धीरे धीरे मेरी ओर बढ़ता है...मैं चुप होती जाती हूँ...मैं कुछ नहीं सुनती...कुछ नहीं कहती...सारे लोग किसी दुनिया में थे ही नहीं...डॉक्टर डायग्नोज करता है...और बताता है कि कोई नहीं है...मैं डॉक्टर को देखती हूँ...जानती हूँ...वो भी एक्जिस्ट नहीं करता है.
ये सब मेरी कल्पना है...मेरी रची दुनिया...कहीं कुछ सच नहीं...तो फिर मैं कौन...खुदा?
कितना निरीह बना दिया
ReplyDeleteकोई शब्दांकुरण ही नही हुआ
मेरे मौन की परिणति हो तुम ………कान्हा!
मन की अकुलाहट प्रखर है ...
ReplyDeleteलिखने को आकुल व्याकुल मन ...
लिखती रहें ...
शुभकामनायें ...!!
कुछ बहुत उम्दा रचने जा रही हो पूजा शायद उसी से पहले की बेचैनी है ..
ReplyDeletesuffocating.................
ReplyDeleteair...pls...air.....
anu
बहुत दिनों से तुम्हारा इंतज़ार कर रहे थे, तुम्हारी पोस्ट की आदत सी हो गयी हो जैसे.. हर सुबह रीडर खोलने के बाद सीधे तुम्हारा लिंक देखते थे.. फिर देवांशु भी chat पर बोलता था.. यार आज कल पूजा रेगुलर नहीं है.. खैर इस पोस्ट को दो बार पढ़ा ताकि पिछले की पोस्ट्स की कमी पूरी हो सके.... पोस्ट बेचैन है... सोनल दी ने सही कहा है... अभी बहुत कुछ लिखना है na.....
ReplyDeleteलिखने के लिए रोशनाई नहीं , कुछ सरफ़िरापन चाहिए बस
ReplyDeleteआप जो देख कर आयी हैं, उसके बाद कई दिनों तक संयत रह पाना कठिन है। मन अब और गहरे उतरेगा, और गहरी बोत करेगा, प्रतीक्षा है।
ReplyDeleteसभी तो अपनी अपनी कल्पनाओं में ही जी रहे हैं.. उसी में रचते है आज़ादी.. उसी में कुंठा भी.. और इन्ही द्वंद्वों को चीर कर तो रूह की आवाज़ आती है... अन-अल-हक़..
ReplyDeleteपहले दो पैरा गज़ब के लगे। दोनो में गज़ब का साम्य अभिव्यक्त हो रहा है!
ReplyDeleteकोई कहता है लिखो..लिखती रहना...लिखो....लिखने से मोह करना..लिखे से नहीं...लिखना जलाना...लिखना जलाना...लिखोगी नहीं तो मर जाओगी...किसने कहा था...??..अगर उसे याद हो जिसने कहा था....
ReplyDeleteकोई कहता है लिखो..लिखती रहना...लिखो....लिखने से मोह करना..लिखे से नहीं...लिखना जलाना...लिखना जलाना...लिखोगी नहीं तो मर जाओगी...किसने कहा था...??..अगर उसे याद हो जिसने कहा था....
ReplyDeleteयही अँधेरा उजाला हमारे जीवन का सच होता है यही आत्मचेतना हमारे अंतर्मन को जीवित रखती है .
ReplyDeleteइंतज़ार में...कि कब बाहर आओगी इन अंधेरों से और रचोगी कुछ बेहतरीन
ReplyDeleteअक्सर हम किसी को बुरी तरह मिस कर रहे होते हैं , बस उसी वक्त कोई वैसा सा ही पास से गुज़रता दिखता है या बस महसूस होता है कि वो गुजर गया करीब से | मन एक बार को मानने लगता है कि नहीं ये वही है, हूबहू वही | कभी कभी तो शक्ल का भी गुमां हो जाता है | ये एक खाब की दुनिया है, जिसे खुली आँखों से देखा जाता है | हम दौड़ के उसे छूना चाहते हैं , महसूस करना चाहते हैं | पर जो है ही नहीं, वो कहाँ से आये ? मन उदास हो जाता है !!! बस फिर कितना भी उजाला हो अँधेरा ही लगता है |
ReplyDeleteऔर रही बात खुदा की, तो वो तो खुद भी नहीं है कहीं, गुलज़ार ने सही कहा है :
दुआ करो !!!
अजीब सा अमल है ये
ये एक फर्जी गुफ्तगू,
और एकतर्फा - एक इसे शख्स से,
ख्याल जिसकी शक्ल है
ख्याल ही सबूत है !!!!
:( :( :(