मैं सोच रही हूँ, कार चलाना सीख लूँ...स्कोडा फाबिया रेड पर दिल आ गया है :)
उसपर से जब कुणाल ने टेस्ट ड्राइव लिया और कहा कि मक्खन जैसी चलती है तो बस...फिसल गए हम।
अब थोड़ा इतिहास...
मैंने अपने जैसे लोग बहुत कम देखे हैं। बोले तो, एकदम नहीं, आजतक किसी से नहीं टकराई जो लगे कि मेरे दुःख दर्द से यह इंसान गुजरा हो। पटना में हमारा एक हाल और तीन कमरे का घर था, उसकी दीवारें अलबत्ता घर के बाकी लोगों के लिए स्थिर ही रहती थी, बस मुझपर खुन्नस निकालती थीं...बहुत कम ऐसा हुआ है कि मैं अपने bed से उठ कर बाहर निकली हूँ और दीवार मुझ से टकराए बिना रही हो। किस्सा कोताह ये कि दीवारें मुझे देखकर अपनी जगह छोड़ देती थीं, और कहीं और चली जाती थीं। मेरे लिए पॉइंट अ से पॉइंट बी तक जाने का एक ही रास्ता होता था, और वो रास्ता एक बार चलने के बाद बदला नहीं जा सकता था...तो पॉइंट बी जो कि दीवार का हिस्सा होता था, दीवारों की मुझसे खुन्नस के कारण अपनी जगह से हट जाता था...बस हो जाती थी टक्कर।
आम इंसानों को इस बात को समझने में जिंदगी लग जाए...मम्मी, भाई, पापा सब एक सिरे से डांटते थे कि कोई दीवार से कैसे टकरा सकता है...मैं कितना भी बोलूं कि दीवार हिली है और मुझसे टकराई है, मेरा कोई दोष नहीं...कोई मानने को तैयार नहीं। बताओ भला दीवारों पर भरोसा है, अपनी ही बेटी पर नहीं...बड़ी नाइंसाफी है।
इनकी आपसी साजिशों के कारण, मैं दीवार, दरवाजा, फ्रिज टेबल, सबसे चोट खाती रही...सारे कमबख्त मेरे रास्ते में आ के खड़े हो जाते थे मुझसे टकराने को। एक तो चोट लगती थी, उसपर डांट खाती थी कि देख कर चला करो। और मेरे दुश्मनों का नेटवर्क सिर्फ़ घर तक ही नहीं कॉलेज तक फैला था, कहीं भी गिरने टकराने की कोई आवाज होती थी, बिना देखे सब निश्चिंत रहते थे कि मेरा ही कारनामा होगा। स्टेज डेकोरेशन वगैरह से मुझे यथा सम्भव दूर रखने की कोशिश की जाती थी। इसलिए नहीं कि उन्हें मेरी बड़ी चिंता थी...मुझे आस पास देखकर सीढियाँ मचल जाती थी मुझसे टकराने को, और उनपर चढ़ कर डेकोरेशन करने वालो की साँस अटक जाती थी...या फ़िर कई बार लोग हवा में लटके भी हैं मेरे कारण। टार्ज़न के कई करतब हुए हैं हमारे ड्रामा प्रोग्राम में मैं रही हूँ तो :) ऐसा बिना स्क्रिप्ट का ड्रामा मेरे जाने के बाद लोग कितना मिस करते होंगे!
बहुत सोच समझ कर हम इस नतीजे पर पहुंचे कि हमारे लिए स्पेस और टाइम constant नहीं रहता, हमारा फ्रेम ऑफ़ रेफरेंस शायद किसी और आयाम का होता है इसलिए हम चलते कहीं हैं, पहुँचते कहीं और हैं और टकराते किसी और चीज़ से हैं। ऐसी स्थिति में जब तक खतरा हमारे ऊपर मंडरा रहा है, कोई बात नहीं...पर बाकी गरीब इंसानों का कुछ तो सोचना चाहिए इसी एहतिहात में हम आज तक कार वार से दूर ही रहे।
पर अब...दिल आ गया है...तो गाड़ी भी आ जायेगी...
सोच रही हूँ एक बार आँखें टेस्ट करवा लूँ...दिमाग टेस्ट करवाने में बहुत लफड़ा है तो उस फेर से दूर ही अच्छे हैं हम। किसी को अगर बंगलोर से ट्रान्सफर कराना है तो आप यह पोस्ट अपने बॉस को पढ़ा सकते हैं :D मैं इसी शुक्रवार से सीखने वाली हूँ...तब तक शुक्र मनाईये :)
badhiya driving
ReplyDeleteमैं चला यह अपनी मित्र को फार्वार्ड करने.. शायद तुम्हें याद होगा एक बार जब तुमने अपने गिरने का रिकार्ड बनाने के बारे में बताया था तब मैंने अपने उस मित्र के बारे में तुम्हें बताया था जो तुम्हारे जैसे ही गिरने-पड़ने में उस्ताद है.. बिलकुल फिट बैठेगा उस पर.. बस स्कोडा वाला हिस्सा निकाल दूंगा.. ;-)
ReplyDeleteचलो मैं अब कुछ दिन बाद ही बैंगलोर का रूख करूंगा.. तब तक बैंगलोर सही सलामत रहे यही दुआ है.. :P
....................पूजा , आप खुशनसीब हैं ...........मेरा ख्याल हैं ज़िन्दगी बेहद खूबसूरती से आपसे टकराती रहती हैं .....................और हां ड्राइविंग ज़रा संभल कर ..................
ReplyDeletehaan shukr hi manaa rahe hain ki aap banglore jaakar gaadi chalana seekh rahi hain, dilli mein nahin.... varnaa kahin humare india gate, old fort, humayun tomb vagairaah vaigairh ko kuch ho jaata to...
ReplyDeleteaccha hua bata diyaa aapne apne iss naye tod phod abhiyaan ke baare mein... abse roz shubah shaam bhagvaan se prarthnaa karenge ki salaamat rakhe...aapko, aapki gaadi ko, aur banglore ko... :p
यार पूजा !!!! तुम देखने में तो इत्ती सी हो और लिखने में बिलकुल आकाश जितनी ........ड्राइव तो तुम्हे आती ही है चाहे जिन्दगी को चलाना हो या कार,बात एक ही है .........लफ्जों का जादू है तुम्हारे पास...
ReplyDeleteबताओ भला दीवारों पर भरोसा है, अपनी ही बेटी पर नहीं...बड़ी नाइंसाफी है।
ReplyDelete--वाकई...बहुत नाइंसाफी हो गई यह तो!! :)
बेहतरीन लेखन!!
आदरणीय पूजा जी,
ReplyDelete''मैं सोच रही हूँ, कार चलाना सीख लूँ..''
पहली पंक्ति चौंकाने वाली लगी ..मुझे याद पड़ता है आपने काफी पहले ड्राइविंग लाइसेंस ले लिया था..और एक पोस्ट में उसका जिक्र भी किया था...स्कोडा फेबिया वास्तव में मख्खन जैसी ही चलती है...पर सीखने के लिए उस पर ट्राय न करे....
सीट बेल्ट का हमेशा उपयोग करें,क्लच पर पाँव रख कर गाडी न चलाएं.गाडी स्टार्ट करने से पहले रिअर और साइड व्यू मिरर को अद्जेस्ट कर ले...!
हैप्पी ड्राइविंग,सेफ जर्नी और स्कोडा फेबिया की अग्रिम शुभकामनाएं!
अरे जिस दिन कार ले कर बाहर निकलो तो जरुर बता देना, उस दिन मै उस शहर से २०० कि मी दुर रहूंगा.... भई जान सब को प्यारी होती है.
ReplyDeleteआप ने बहुत मजे दार लेख लिखा. राम राम जी की
"हमारा फ्रेम ऑफ़ रेफरेंस शायद किसी और आयाम का होता है इसलिए हम चलते कहीं हैं, पहुँचते कहीं और हैं और टकराते किसी और चीज़ से हैं"
ReplyDeleteये तो दर्शन हो गया जी,
पोस्ट बहुत अच्छी लगी
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bahut badiya puja ji aap gaadi chalana sikh rhi hai or hum ab shadi kerne ki soch rhe hai, tu sikh rhe hai ki iese kaise chalana hai.......dono hi ek hai..........
ReplyDeleteShakespeare se start ho kar Einstein tak.... kya baat hai..
ReplyDeleteवर्तिका जी की बात ध्यान देने वाली है
ReplyDelete"ब्रिजेट जॉन्स डायरी" मूवी देख लो ...
ReplyDeleteएक वाहन ऐसा हो जिसे गन्तव्य के को-ऑर्डिनेट्स बता दिये जायें तो स्वत वहीं ले चले।
ReplyDeleteकभी तो बनेगा वह!
ड्राइविंग सीखने के लिए शुभकामनाएं.. उम्मीद हैं कि घर की दीवारों की तरह रास्ते में पेड़, रोड डिवाइडर और ट्रेफिक सिग्नल आपसे किसी तरह की दुश्मनी नहीं निकालेंगे :)
ReplyDeleteफ्रेम ऑफ रेफरेंस से अपना भी पुराना पंगा है.. स्पेस और टाइम अपने भी कभी स्थिर नहीं रहे... लेकिन वो नीली छतरी वाला है ना.. सब संभाल लेता है। आप भी उस पर यकीन रखिए और स्टीयरिंग-एक्सेलेटर का खेल डिफेंसिव अप्रोच के साथ खेलती रहिए :)
हैपी ब्लॉगिंग
इष्ट मित्रों एवम कुटुंब जनों सहित आपको दशहरे की घणी रामराम.
ReplyDeleteदेर तक हँसा हूँ...
ReplyDeleteपता है, आज की शाम तुम्हारे नाम की है मैंने। पहले वो मेल और अब इतनी देर से तुम्हारे शब्दों में खोया हूँ।
कुछ शामों को आदत होती है ठिठक जाने की...