दिल्ली की यूँ तो बहुत सी बातें याद आती रहती हैं, पर जिस चीज़ के लिए दिल सबसे ज्यादा मचलता है, वो है सीपी में घूमते हुए किताबें खरीदना। जब भी किताबों का स्टॉक ख़तम हो जाता, हम सीपी की तरफ़ निकल पड़ते, फ़िर से खूब सारी किताबें खरीदने के लिए। और सैलरी आने के बाद तो सीपी जाना जैसे एक नियम सा हो गया था, जैसे कुछ लोग मंगलवार को हनुमान मन्दिर जाते हैं, हम महीने की पहली इतवार सीपी पहुँच जाते थे।
कितनी ही गुलज़ार की किताबें, कुछ दुष्यंत के संकलन और जाने कितने नामी गिरामी शायरों की किताबें खरीदते रहते थे...कहानियाँ भी बहुत पढ़ी थी यूँ ही खरीद कर। कई ऐसे भी शायरों के कलाम हाथ में आए जिनका कभी नाम भी नहीं सुना था पर पढने के बाद एक अजीब सा सुकून और अनजाना सा रिश्ता जुड़ते गया उनके साथ।
और देर शाम हरी घास पर बैठ कर जाने कितने सपने देखे...कितने सूरजों को डूबते देखा। मूंग की वादियाँ हरी चटनी के साथ खाएं...दोस्तों के साथ गप्पें मारीं... ६१५ पकड़ कर हॉस्टल आना बड़ा सुकून देता था, चाहे हाथ कितना भी दर्द कर जाएँ...किताबों का भारीपन कभी सालता नहीं था।
बंगलोर आने के बाद यही हिन्दी किताबें कहीं नहीं मिल रही थीं और हम अपना रोना सबके सामने रो चुके थे...फुरसतिया जी की एक पोस्ट पढ़ कर प्रकाशन के मेंबर बनने के बारे में भी सोच रहे थे, पर आलस के मारे apply ही नहीं किए। फ़िर ऑफिस में एक काम आया...बंगलोर के पुराने लैंडमार्क में एक है, गंगाराम बुक स्टोर, कहाँ कई पीढियां किताबें खरीदती और पढ़ती रही हैं। अब क्रॉसवर्ड और लैंडमार्क जैसी मॉल में खुले बड़े स्टोर्स के कारण गंगाराम जैसे पारंपरिक बुक स्टोर्स में कम लोग जाते हैं। और आजकल MG रोड पर मेट्रो का काम चल रहा है जो काफ़ी दिनों तक चलने वाला है...इस कारण स्टोर को कहीं और शिफ्ट करना होगा। हम इसी सिलसिले में काम कर रहे थे तो मैंने सोचा की एक बार जा के देख लिया जाए कैसी जगह है।
तो पिछले सन्डे हम abhiyaan par निकल पड़े, दिल में ये उम्मीद भी थी की शायद कहीं हिन्दी की किताबें मिल जायें...क्योंकि अगर यहाँ नहीं मिली तो पूरे बंगलोर में कहीं मिलने की उम्मीद नहीं है। शाम के पाँच बज रहे होंगे, पर स्टोर बंद था...शायद कुछ काम रहा हो शिफ्टिंग वगैरह का...ham बगल वाले bookstore में चले गये...higgin bothams naam ka store tha...कुछ कुछ कॉलेज लाइब्रेरी की याद आ रही थी वहां किताबें देख कर...
और हमें आख़िर वो मिल ही गया जो इतने दिनों से ढूंढ रहे थे बंगलोर में...एक रैक पर खूब सारी हिन्दी किताबें, मैंने बहुत सारी खरीद लीं...अब उनके पास जिनता है उसमें मेरे खरीदने लायक कुछ नहीं बहका है...पर मेरे ख्याल से अगर मेरे जैसी लड़की हर वीकएंड जा के परेशां करना शुरू कर दे तो वो अपने हिन्दी किताबों का संकलन भी बढाएँगे। तो देर किस बात की है...बंगलोर में जो भी हैं, higgin bothams पहुँच जाइए और हिन्दी की किताबें खरीद लीजिये...हमारे जैसे कुछ और खुराफाती लोग इकट्ठे हो जाएँ तो यहाँ आया हुआ हिन्दी किताबों का अकाल जरूर समाप्त हो जाएगा :)
हमें यकीं हो गया है ढूँढने से कुछ भी मिल सकता है :)
दिल्ली दिलवालों की है मैडम, वहां सब मिलता है। कभी हमारे जयपुर आएं, यहां जम कर हिंदी किताबें खरीदें। हां दिल्ली की पूर्ति नहीं होगी, लेकिन अच्छी किताबें आपको जरूर मिल जाएंगी। बैंगलौर में उत्तर भारत से जो जाता है, उसका दम फूल जाता है। फिर चाहे किबातें खरीदनी हों या नॉर्थ इंडियन खाने की ख्वाहिश हो। मैं भुगतभोगी हंू।
ReplyDeletekaafi lambi research work ki aapne ....chalo koi nahi aakhir aapki research aur bhagdaud kaam to aayi....agar hum banglore mein hote to jaroor aapka sath dete ...lekin kismat humari ki hum Dilli mein hain :) :)
ReplyDeleteआपके पुस्तक प्रेम को जानकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
अरे डॉक्टर साहिबा...दिल्ली के दरियागंज के पत्री बाजार पहुँचती कभी तो आप हमसे भी टकरा जाती..चलिए सीपी के कमी वहाँ होग्गिन बौथम (नाम तो किसी अंग्रेज गवर्नर का लगता है ) से पूरी कर रही हैं आप बढ़िया लगा जानकार....दिल्ली की यादों का क्या कहें.....दिल्ली की गलियां है गालिब...उफ़ छूटने पर भी कहाँ छूटती हैं....? अजी किताबों की याद न दिल्यारा करें..अपना भी वही हाल था..हाँ था ..श्रीमती जी यहीं हैं तो यही लिखना पडेगा न..मैंने तो दिली की पुस्तक मेलों में जाकर किताबें खरीदना एक पक्का नियम बनाया हुआ है...सिर्फ किराये के पैसे अलग रख कर लग जाता हूँ खरीदने ..पूरे पैसे की किताबें खरीद कर हो लिए वापस...चलिए घूमिये...बंगलोर में और किस किस अंग्रेज गवर्नर की दूकान है बताइयेगा....
ReplyDeleteहिंदी सेवा का जज्बा या जुनुन एक दिन अवश्य रंग लायेगा. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
तुमने दुखती रग पर हाँथ रख दिया कोलकता में भी यही हाल होता है ..एक साल तक मैंने नेशनल लाइब्रेरी की सदस्यता भी ले रखी थी, पर आने जाने में लगने वाला वक्त अखर जाता था.अहिन्दी भाषी प्रदेशों में यही समस्या है
ReplyDeleteKhubsurat
ReplyDeleteचलो अच्छा हुआ... इसे कहेगें.. डुबते को haggin bothams का सहारा...:)
ReplyDeleteढ़ूंढने से सब मिलता है।वाह बधाई हो आपको किताबें ढूंढ लेने की।
ReplyDeleteहमारे यहाँ ये समस्या नहीं है क्यूँकि साल में एक बार लगने वाला बुक फेयर अपने काम भर की किताबों को एक ही बार में खरीदने की सहूलियत प्रदान कर देता है। इसका मतलब ये भी है कि यहाँ भी हिंदी के अच्छे बुक स्टोर नहीं हैं। दरअसल आजकल हिंदी भाषी भी हिंदी की नई किताबों को पढ़ने में दिलचस्पी नहीं दिखाते तो दुकान वाले पुरानी क्लासिक या चलता हुई अंग्रेजी किताबों के हिंदी संस्करण रख कर ही काम चला लेते हैं।
ReplyDeleteachha laga aapke saath cp aur delhi ke anya hisso me ghumkar.....
ReplyDeleteअरे हमारे यहां ति कोई हिन्दी बोलने बाला भी नही मिलता, अगर कोई मिल जाये तो उस इज्जत से घर बुलाते है अपनी कार मे बिठा कर लाते है, खिलाते है सिर्फ़ अपनी प्यारी हिन्दी मे कुछ बोल चाल करने के लिये.
ReplyDeleteधन्यवाद
आजकल हिंदी की किताबें दिल्ली में भी कम मिलती है, नोएडा के ग्रेट इंडिया मॉल में एक अच्छी दुकान है ओम बुक स्टोर , नहीं तो सीपी में भी आजकल अंग्रेजी का बोलबाला है।
ReplyDeleteऐसा है जी, हिंदी किताबों के लिए परेशान होने की जरुरत नहीं है. जो भी किताब चाहिए, हमको बता दो, आखिर हम भी तो दिल्ली वाले हैं. खरीद लिया करेंगे.
ReplyDeleteऔर पैसे? वो आप हमारा खाता नं. ले लो, उसमे डाल दिया करना, या फिर एक काम करना, हमारे मोबाइल को रिचार्ज करा दिया करना.
ठीक है ना?
सुन्दर! ऐसे ही वीकेन्ड पर जाकर किताबें खरीदकर पढ़ती रहो और उनके बारे में बताओ भी! कौन किताब पढ़ी! पुस्तक मित्र योजना की सदस्य बन ही जाओ। ऐसा भी क्या आलस!
ReplyDeletepujaji....mai bhi bangalore me isi prob le jujh rha hu...lakh dhundhne per bhi hindi books nahi mili..kripya bataye aapne koun si dukan dundh li hai..plz plz....:)
ReplyDelete:)
ReplyDeleteबधाई हो आपको !! आपकी मनोकामना पूर्ण हुई :-)
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपका पढने का जज्बा...
ReplyDeleteइतना सहज लिखती है कि तस्वीर की तरह दृश्य मानस पटल पर उभरने लगते है...
bangalore ki yaadein mat dilaiye!
ReplyDeleteसोचता था कि मैं ही अकेला आशिक हूँ
ReplyDeleteकिताबों का !
कितना अच्छा लगता है अपने जैसे मिजाज के लोगों को पाकर !
किताबों से जुडी ही एक मात्र घटना ऐसी है जिसको लेकर मेरी अंतरात्मा पर कोई बोझ नहीं है !
घटना बोलें तो -
"बहुत पहले मैंने एक लाईब्रेरी से एक किताब
चुराई थी !"
आज की आवाज
वैसे हम बंगलोर में ही हैं लेकिन किताबें अब दिल्ली जाकर ही खरीदेंगें।
ReplyDeleteusase puchho ki uska koi branch Chennai me hai kya?? agar han to mujhe uska address dena.. :)
ReplyDeleteहमने सी पी की खूब छांक मारी है .लेडी हार्डिंग से कई बार पैदल चलकर भी गये है ..सन्डे को फुटपाथ पे पुरानी किताबो से कई बार कई मोती हाथ लगे है ....ऐसे ही एक बार नेहरु की डिस्कवरी उफ इंडिया की सी डी हाथ लगी थी पिछले साल ..खैर तुम्हारे एयरपोर्ट पे अंग्रेजी किताबे अच्छी है ...
ReplyDeleteएक ठो लिस्ट तो टिपा ही आना था कि ये किताबें मंगा दो..आगे की खरीददारी के काम आती. लिस्ट की सारी तो मंगा न पायेगा तो उसमें बिखरे मोती भी लिख देना-कविवर समीर लाल की. :) नाम तो पहुँचे ..भले ही लिस्ट में. :)
ReplyDeleteहमें भी बताइये उस दुकान का पता जहां हिन्दी की किताबें मिलती हैं। हम पिछले तीन सालों से बैंगलौर में हिन्दी की किताबें ढूंढ रहें हैं, पर शायद हम ठीक से ढूंढ ही नहीं पाये। पिछले साल बुक फेयर में कुछ हिन्दी किताबें मिल गयीं थी बस उसी से काम चला रहे थे।
ReplyDeleteamm yaar publisher ke paas likh maaro ...bhej dega...yeh sahi hai ki dhoond ke kahridna or phir padna...wah wah wah wah
ReplyDeleteमैंने भी बंगलौर में हिंदी की किताबें बहुत ढूंढी थी . लैंडमार्क में मिलती नहीं थी और हिंदी प्रेमी लोग बहुत कम थे मेरे कॉलेज में.
ReplyDeleteखैर अपनी लैब्ररी में बेसमेंट में एक कोना था उपेक्षित सा, मैंने वहां पर हिंदी की कुछ किताबें ढूंढ निकाली थी. पांच साल मैंने ऐसे गुजारे.
सोचा था वापस दिल्ली जाकर खूब सारी किताबें खरीदूंगी हिंदी की , कुछ खरीदी और सारा कुछ फिर से पैक कर के छोड़ आई जब दिल्ली से बाहर जाना हुआ.
आपका पोस्ट पढ़ कर फिर से मन होने लगा की एक आधा हिंदी का अच्छा उपन्यास / पुस्तक पढने को मिल जाये तो बस मज़ा आ जाये