07 June, 2009
ऐसा भी एक दिन ऑफिस का...
कमबख्त बादल
यादों का एक गट्ठर फेंक कर चल दिया है
मेरी ऑफिस टेबल पर
रिसने लगा है किसी शाम का भीगा आसमान
अफरा तफरी मच गई है
बिखरे हुए कागज़ातों में
डेडलाईनें हंटर लिए हड़का रही हैं
कुछ नज्में सहम कर कोने में खड़ी हैं
डस्टबिन ढक्कन की ओट से झांक रहा है
कम्प्यूटर भी आज बगावत के मूड में हैं
एक तस्वीर पर हैंग कर गया है
कलम-कॉपी काना फूसी कर रहे हैं
तभी अचानक खुल गई गाँठ
कितनी जिद्दी यादें भागा-दौड़ी करने लगीं
पूरा ऑफिस सर पर उठा लिया
मेरी यादों की हमशक्लें
सबकी दराजों में बंद थीं
सारी यादें हँसने लगी हैं बचपन वाली हँसी
एक क्षण में बाहर आ गया है
हमारे अन्दर का शैतान बच्चा
और हम सबने मिलकर...ऑफिस बंक कर दिया :)
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डा.साहब आपकी जय हो। क्या धांसू त्रिवेणी ठेली हैं।(तीसरी वाली में दो लाईने ही क्यों? समझ न आया) मज्जा आ गया। हमारे लिये राजपथ तईयार कर दिया आपने। इसी राह से हम भी गुजरेंगे क्या कभी!
ReplyDeleteतिसरकी वाली त्रिवेणी कुछ ऐसे लिखी जा सकती है क्या?-
ReplyDeleteडेडलाईनें हंटर लिए हड़का रही हैं
कुछ नज्में सहम कर कोने में खड़ी हैं
कहीं कोई बहर के बाहर न कह दे!
ओफ्फिस के किसी कोने में,
ReplyDeleteखड़ी एक आलमारी ,के,
दराजों में , अलग अलग,
रंग बिरंगी , फाईलों पर ,
कुछ टैग से , चस्पा हैं,
खुशी, हंसी, यादें,
वाडे, तोहफे, डांट,
के अलग अलग नाम से...
बैंक करके जब आओगे ,
वापस अपने ओफ्फिस ,javascript:void(0)
उन फैलोन को,
उलटना मत भूलना..
तुम्हारा यह माया jaal दिल को बहुत bhata है. आशीष
ReplyDeleteपूजा जी, हम आपकी नज्मों को बेबहर नहीं किये। ऐसी गुस्ताखी करने की हमारी क्या हिम्मत! हम तो एक बात कहे थे। इस तरह भी लिखा जा सकता है। :)
ReplyDeleteअसल में हम जब भी ऐसा कुछ लिखते हैं तो लोग कहते हैं गजल बहर में नहीं है जबकि हम न गजल लिख पाते हैं न बहर के बारे में हमें कोई जानकारी है!
अनूप जी, इतनी बेरहमी से मेरी nazmon को बे-बहर कह दिया आपने, :( हम ठहरे कविता कहने वाले, बहर के लफड़े का गणित तो हमारे समझ से बाहर है...पर इसी बहाने ध्यान तो गया, कॉपी से लिख रही थी, एक लाइन छूट गयी थी...अब जोड़ दी है...क्या बताएं मन तो बहुत कर रहा था की आपकी लाइने ही चस्पा कर दूं पर copyright का डर लग गया :)
ReplyDeleteवाह वाह क्या बात है, बहुत ही सुंदर, ्कवि होता तो ओर भी ज्यादा तारीफ़ करता.
ReplyDeleteधन्यवाद
हम सभी के अंदर कहीं ना कहीं एक शैतान बच्चा छिपकर बैठा होता है, जो बस एक मौके की तलाश में होता है.....और मौका मिला नहीं कि वो बच्चा झट से बाहर....बड़ा मज़ा आता है इस सब में......इसलिए सभी से अनुरोध करूंगा कि बीच-बीच में इस नटखट को शरारत करने दें, वरना अंदर रहते-रहते एक ना एक दिन उसका दम घुट जाएगा......चुलबुली कविता.....
ReplyDeleteसाभार
हमसफ़र यादों का.......
यह शैतान बच्चा रोज रोज बाहर न आने लगे! :)
ReplyDeleteये बच्चा तो हमारी जेब में ही बैठा घूमता है..बहुत नॉटी बच्चा!!
ReplyDeleteसमा बाँध दिया!! बधाई.
एक क्षण में बाहर आ गया है
ReplyDeleteहमारे अन्दर का शैतान बच्चा
और हम सबने मिलकर...ऑफिस बंक कर दिया :)
ये सबसे बढिया काम किया..क्या आफ़िस बंक करना भी स्कूल बंक करने जैसा ही आनंद देता है?:)
रामराम.
बरसात!वाह क्या मौसम है। अब उम्र और पद का तकाज़ा खुले आम भीगने नही देता वर्ना एक समय था खुली जीप मे पूरे रायपुर शहर मे अकेले हम ही घूमा करते थे और हमे पहचाना भी उसी लिये जाता था। और बचपन ऐसा कोई दिन नही होता जिस दिन पानी गिरे और भीगने पर हम मार न खाये।
ReplyDeleteरुमानियत में लिपटी एक और बेहतर रचना । अच्छी लगी । पता है आपके लेखन की खासियत क्या है । भारी-भरकम लफ्फाजियों के शब्दाडंबर नहीं हैं । यह सादगी ही कविता को एक सहजता और बहाव देती है । इसे जारी रखें । बुरा न माने तो एक छोटी सी खामी की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा, जो अकसर हम-आप, हर कोई कर जाता है । ‘ कागज़ातों ’ शब्द ठीक नहीं क्योंकि कागजात अपने आप में बहुवचन है, जज़्बात, ख्यालात, हालात की ही तरह । बहरहाल एक अच्छी नज्म के लिए बधाई । और हां अपने कमेंट में आपने वल्र्ड वेरीफिकेशन के झंझट का जिक्र किया था, इसे कैसे हटातें हैं जरा यह भी बता दें । टेक्निकैलिटीज़ की ज्यादा जानकारी नहीं है हमें । सहयोग करें, आपकी जानकारियों की रोशनी में शायद हम भी कुछ कर गुजरें ।
ReplyDeleteकौस्तुभ उपाध्याय
Waah !!
ReplyDeleteहम्म्म्म् वो शैतान बच्चा अक्सर सुबह सुबह जागता है मेरे घर में और मन आता है छोड़ो सो जाओ..! और ५ प्रतिशत ही सही जब अपने मन कीकरत है, तो खुश बहुत होता है उस दिन...! बहुत सारे दिनो तक के लिये ...!
ReplyDeleteसच्ची शुद्ध भावनाएं..!
ये शैतान बच्चा अनौखा सा है।
ReplyDeleteगोया के .....इसी पूजा को तो ढूँढने अक्सर आ जाते है...हम इस घर के दरवाजे पे.....शुक्रिया ..उससे मिलवाने के लिए...
ReplyDeleteलीजिए हुजूर ! हटा दिया ससुरे वल्र्ड वेरीफिकेशन को । खामखां में तंग कर रहा था हमारे दोस्तों को । अजीजों की नाराज़गी अफोर्ड नहीं कर सकते हम । गिजिजेश जी को भी ‘शुभेच्छा का प्रमाण’ मांगा जाना अखर रहा था । भई हमने तो मांगा नहीं था, कम्बख्त कंप्यूटर ही बदमाशी कर रहा था, हमें अनाड़ी जान कर । आपकी मदद से कर दिया इलाज । हार्दिक धन्यवाद । आगे भी ऐसा ही सहयोग मिलता रहे बराए मेहरबानी ।!
ReplyDeleteआदाब !
badhiya hai
ReplyDeleteजन्मदिन की पूर्वसंध्या पर लिखा वट-सावित्री पूजा वाली पोस्ट पढ़ी । अजब संजोग है आपके दो दिन बाद ही हमारा भी जन्मदिन पड़ता है, यानि 27 मई को । सन् चैसठ को इसी दिन नेहरू जी दिवंगत हुए और ठीक दस साल बाद हम ‘अवतरित’ हो गए । उसी इलाहाबाद की धरती पर । बहरहाल पेढकिया और ठेकुए के बहाने झारखंड में गुजारे आठ साल याद आ गए । चार साल रांची में, तीन जमशेदपुर में । गलत न समझें यार, रांची नौकरी करने गया था, रिनपास में दिमाग का इलाज कराने नहीं । अकेले ही रहते थे, सो छठ पर पहुंच जाते थे मकान मालिक और पडोसियों के यहां प्रसाद खाने । वाकई छठ के पूरे हफ्ते मौज रहती थी हम बैचलरों की । शराफत भरी इमेज बना रखी थी और पत्रकार होने के नाते भोकाल भी मेनटेन था, तो पकवान खुद ब खुद चले आते थे हमारे पास । कभी यहां से, कभी वहां से । छठ जैसी आत्मीयता और श्रद्धा का माहौल और किसी त्योहार में नहीं देखा, सच्ची ।
ReplyDeleteसुना आज जन्म दिन है तो बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाऐं..केक लाओ!
ReplyDeleteअच्छी रचना और आज जन्मदिवस पर बहुत -बहुत शुभकामनायें .
ReplyDeleteजन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं.पहले से बताया होता तो केक खाने रुक जाते. परसों ही येल्लागिरी (कृष्णागिरी) मे दो दिन रुक कर वापस आये हैं.
ReplyDeleteजन्मदिन बहुत मुबारक हो.
रामराम.
डाक्टर ..जन्मदिन मुबारक हो...कहाँ हैं मोहतरमा..यहाँ सब केक के का राग गा रहे हैं...
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