15 June, 2009

चंद अल्फाज़...



उसे उसकी हदें मालूम थीं
मुझे मेरी हदें मालूम थीं
जिन्दगी कमबख्त...एक लम्हे में सिमट गई

-----------------------------------------
उसकी मंजिलें और थीं
मेरे मंजिलें कहीं और थी
कमबख्त गलियां...जाने कब पैरों से लिपट गयीं
-------------------------------------------

23 comments:

  1. गली आगे जा कर मुड जाती है,
    पर
    उसकी हदे मालुम करना कटिन है
    क्यो कि उसकी मन्जिले बहुत दूर होती है

    ReplyDelete
  2. कमबख्त गलियां...जाने कब पैरों से लिपट गयीं

    bahut khoob.

    ReplyDelete
  3. alfaaz chahe chand hain magar jindagee ko bahut lambaa kar gaye laajavab

    ReplyDelete
  4. बस इतना ही कहुंगा..बेमिसाल लाजवाब. शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  5. जिन्दगी का ऐसा ही सच होता है......
    सब कुछ एक पर मंजिले जुदा क्यो होती है....

    ReplyDelete
  6. पूजा के मोबाइल का kharch बहुत कम ही आता होगा. seemayen jaanti है. बहुत क्यूट kriti

    ReplyDelete
  7. kabhi khamoshi se aap baat karengee to unki shabdon me saangeet milegaa aapko bhi ... dono hi lahaje behad bhavuuk ...


    arsh

    ReplyDelete
  8. उसे उसकी हदें मालूम थीं
    मुझे मेरी हदें मालूम थीं
    जिन्दगी कमबख्त...एक लम्हे में सिमट गई
    बहुत ही लाजवाब वाह वाह

    ReplyDelete
  9. बहुत खूब .... :) loved both of them...

    ReplyDelete
  10. कम शब्दों में पूरी बात-वाह!! बहुत खूब!!

    (वैसे ऐसी बातें कम शब्दों में ही हों जो ज्यादा मारक होती हैं :))

    ReplyDelete
  11. पहली क्षणिका तो गजब है ।

    दोनों क्षणिकायें विपरीत अर्थ-विन्यास धारण करती हैं । पहली क्षणिका में, एक लम्हे में सिमटी हुई जिन्दगी ने कितना कुछ देखा-सुना-जाना होगा अपनी हदों को पहचानते हुए, क्योंकि यह पहचानना तो एक यात्रा के बाद संभव हुआ होगा । तब जिन्दगी एक लम्हे में सिमटी कम्बख़्त हो गयी होगी ।
    दूसरी क्षणिका में, मंजिलों का पता था, चेतना उधर इंगिति दे रही थी-पर यह गति थी जो विरम गयी थी । बाद में मंजिल की तरफ चलने की अंतःविवशता ने ही गली को कम्बख्त बना डाला होगा, और गली पैरों से आकर लिपट गयी होगी । यहाँ गली गति के लिये एपिथेट (Epithet) की तरह प्रयुक्त हुई लगती है ।

    मैं इन दोनों का सम्बन्ध भी देख रहा हूँ । एक गति से ठहराव का चयन है, और दूसरी स्थिरता से गति की ओर बढ़ना ।

    यद्यपि इन भावों को आपकी एक लम्बी पोस्ट की शक्ल लेने की जरूरत है । यदि संभव हो तो इन्हें विस्तार दें । साभार ।

    ReplyDelete
  12. उसे उसकी हदें मालूम थीं
    मुझे मेरी हदें मालूम थीं
    जिन्दगी कमबख्त...एक लम्हे में सिमट गई

    kya baat hai pooja ji...! bahut achchhe

    ReplyDelete
  13. कमबख्त गलियां...जाने कब पैरों से लिपट गयीं

    पूजा जी, क्या खूब लिखा है ...वाह

    ReplyDelete
  14. clap clap clap....real good stuff

    ReplyDelete
  15. एक बात बोलू...

    ये चंद पंक्तिया मुझे भी अच्छी और खूब अच्छी लगी, पर कमेंट्स देने में हिचक रहा था पर हिचक हार गया और मै कमेंट्स दे रहा हूँ ! हिचक इसलिए रहा हूँ की यहाँ इतने बड़े लोग की ब्लॉग है और इतने बड़े बड़े लोग कमेंट्स दे रहे है वह मेरी क्या किस्ती (हस्ती) ... पर बधाई. ..

    ReplyDelete
  16. @गणेश जी...हमारे ब्लॉग जगत में कोई बड़ा छोटा नहीं है, कम से कम टिप्पणी देने में तो बिलकुल ही नहीं. इसलिए कहीं कुछ अच्छा लगे तो टिप्पणी देने में संकोच मत कीजिये...धीरे धीरे ये डर भी ख़त्म हो जाएगा :)

    ReplyDelete
  17. कभी कभी एक लम्हा ही.......पूरी जिंदगी दे जाता है....

    ReplyDelete
  18. बहुत अच्छा कहा है.अहसासों को सही शब्द दिये हैं, आप ने.मै एसे कहता हूं.


    "दूरियां खुद कह रही थीं,
    नज़दीकियां इतनी न थी।
    अहसासे ताल्लुकात में,
    बारीकियां इतनी न थीं।"

    ReplyDelete

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...