उसे उसकी हदें मालूम थीं
मुझे मेरी हदें मालूम थीं
जिन्दगी कमबख्त...एक लम्हे में सिमट गई
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उसकी मंजिलें और थीं
मेरे मंजिलें कहीं और थी
कमबख्त गलियां...जाने कब पैरों से लिपट गयीं
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गली आगे जा कर मुड जाती है,
ReplyDeleteपर
उसकी हदे मालुम करना कटिन है
क्यो कि उसकी मन्जिले बहुत दूर होती है
aapki ye chhoti magar majedar post hai ji.
ReplyDeleteमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
कमबख्त गलियां...जाने कब पैरों से लिपट गयीं
ReplyDeletebahut khoob.
alfaaz chahe chand hain magar jindagee ko bahut lambaa kar gaye laajavab
ReplyDeleteबस इतना ही कहुंगा..बेमिसाल लाजवाब. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
जिन्दगी का ऐसा ही सच होता है......
ReplyDeleteसब कुछ एक पर मंजिले जुदा क्यो होती है....
सुन्दर्।
ReplyDeleteपूजा के मोबाइल का kharch बहुत कम ही आता होगा. seemayen jaanti है. बहुत क्यूट kriti
ReplyDeleteये हुई ना बात।
ReplyDeletekabhi khamoshi se aap baat karengee to unki shabdon me saangeet milegaa aapko bhi ... dono hi lahaje behad bhavuuk ...
ReplyDeletearsh
लाजवाब. rachna.
ReplyDeleteउसे उसकी हदें मालूम थीं
ReplyDeleteमुझे मेरी हदें मालूम थीं
जिन्दगी कमबख्त...एक लम्हे में सिमट गई
बहुत ही लाजवाब वाह वाह
बहुत खूब .... :) loved both of them...
ReplyDeleteकम शब्दों में पूरी बात-वाह!! बहुत खूब!!
ReplyDelete(वैसे ऐसी बातें कम शब्दों में ही हों जो ज्यादा मारक होती हैं :))
पहली क्षणिका तो गजब है ।
ReplyDeleteदोनों क्षणिकायें विपरीत अर्थ-विन्यास धारण करती हैं । पहली क्षणिका में, एक लम्हे में सिमटी हुई जिन्दगी ने कितना कुछ देखा-सुना-जाना होगा अपनी हदों को पहचानते हुए, क्योंकि यह पहचानना तो एक यात्रा के बाद संभव हुआ होगा । तब जिन्दगी एक लम्हे में सिमटी कम्बख़्त हो गयी होगी ।
दूसरी क्षणिका में, मंजिलों का पता था, चेतना उधर इंगिति दे रही थी-पर यह गति थी जो विरम गयी थी । बाद में मंजिल की तरफ चलने की अंतःविवशता ने ही गली को कम्बख्त बना डाला होगा, और गली पैरों से आकर लिपट गयी होगी । यहाँ गली गति के लिये एपिथेट (Epithet) की तरह प्रयुक्त हुई लगती है ।
मैं इन दोनों का सम्बन्ध भी देख रहा हूँ । एक गति से ठहराव का चयन है, और दूसरी स्थिरता से गति की ओर बढ़ना ।
यद्यपि इन भावों को आपकी एक लम्बी पोस्ट की शक्ल लेने की जरूरत है । यदि संभव हो तो इन्हें विस्तार दें । साभार ।
उसे उसकी हदें मालूम थीं
ReplyDeleteमुझे मेरी हदें मालूम थीं
जिन्दगी कमबख्त...एक लम्हे में सिमट गई
kya baat hai pooja ji...! bahut achchhe
कमबख्त गलियां...जाने कब पैरों से लिपट गयीं
ReplyDeleteपूजा जी, क्या खूब लिखा है ...वाह
clap clap clap....real good stuff
ReplyDeleteएक बात बोलू...
ReplyDeleteये चंद पंक्तिया मुझे भी अच्छी और खूब अच्छी लगी, पर कमेंट्स देने में हिचक रहा था पर हिचक हार गया और मै कमेंट्स दे रहा हूँ ! हिचक इसलिए रहा हूँ की यहाँ इतने बड़े लोग की ब्लॉग है और इतने बड़े बड़े लोग कमेंट्स दे रहे है वह मेरी क्या किस्ती (हस्ती) ... पर बधाई. ..
@गणेश जी...हमारे ब्लॉग जगत में कोई बड़ा छोटा नहीं है, कम से कम टिप्पणी देने में तो बिलकुल ही नहीं. इसलिए कहीं कुछ अच्छा लगे तो टिप्पणी देने में संकोच मत कीजिये...धीरे धीरे ये डर भी ख़त्म हो जाएगा :)
ReplyDeleteकभी कभी एक लम्हा ही.......पूरी जिंदगी दे जाता है....
ReplyDeleteबहुत अच्छा कहा है.अहसासों को सही शब्द दिये हैं, आप ने.मै एसे कहता हूं.
ReplyDelete"दूरियां खुद कह रही थीं,
नज़दीकियां इतनी न थी।
अहसासे ताल्लुकात में,
बारीकियां इतनी न थीं।"
bahut umda sher... bahut badhiya
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