22 April, 2011

वो काफ़िर

'तुम्हें देख कर पहली बार महसूस हुआ है कि लोग काफ़िर कैसे हो जाते होंगे. मेरे दिन की शुरुआत इस नाम से, मेरी रात का गुज़ारना इसी नाम से. मेरा मज़हब बुतपरस्ती की इजाजत नहीं देता पर आजकल तुम्हारा ख्याल ही मेरा मज़हब हो गया है.
'जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है'

'शेर का मतलब बताओ...मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आया' 
'हमारे यहाँ नमाज़ से पहले वज़ू करते हैं, हाथ पैर धोके, कुल्ला करके...पाक होकर नमाज़ पढ़ते हैं'
'और तिलावत का मतलब?' 
'तुम'
'मजाक मत करो, शेर कहा है तो समझाओ तो ठीक से'

पर उसने तिलावत का मतलब नहीं समझाया...कहानी सुनाने लगा. एक बार मेरे मोहल्ले की किसी शादी में आया था, वहीं उसने मुझे पहली बार देखा था और उसने उस दिन से लगभग हर रोज़ यही दुआ मांगी है कि मैं एक बार कभी उससे बात कर लूं. फिर उसने मुझे अपनी कोपी दिखाई खूबसूरत सी लिखाई में आयतें लिखी हुयी थीं और हर नए पन्ने के ऊपर दायीं कोने में, जिधर हम तारीख लिखते हैं 'अमृता' उर्दू में लिखा था...उस समय मैंने हाल में उर्दू सीखी थी तो अपना नाम तो अच्छी तरह पहचानती थी. उसने फिर बताया की ये मेरा नाम है...मैंने उसे बताया की मैं उर्दू जानती हूँ.  उसने बताया की उसकी कॉपी के हर पन्ने पर पहले मेरा नाम लिखा होता है...उसकी कापियों पर काफी पहले की तारीखों पर मेरा नाम लिखा था कुछ वैसे ही जैसे मेरी कुछ दोस्त एक्जाम कॉपी के ऊपर लिखती थी...'जय माँ सरस्वती' या ऐसा कुछ. कॉपी में आयतों के बीच ये हिन्दू नाम बड़ा अजीब सा लग रहा था और नाम भी कुछ ऐसा नहीं की समझ में नहीं आये. कुछ शबनम, चाँद या ऐसा नाम होता तो शायद ख़ास पता नहीं चलता. 


'बाकी लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे? तुम्हें मालूम भी है कि अमृता का मतलब क्या होता है?'
'हाँ...मेरे खुदा का नाम है अमृता' 


मैं सर पकड़ के बैठ गयी...घर पर पता चला तो घर से निकलना बंद हो जाएगा, कैरियर शुरू होने के पहले ही ख़त्म हो जाएगा....मेडिकल करना बहुत टफ था, कोचिंग नहीं जाती तो डॉक्टर बनने के सपने, सपने ही रह जाते. उससे पूछा की मुझे ये सब क्यों बता रहा है तो बोला, बता ही तो रहा हूँ, सुन लोगी तो तुम्हारा क्या चला जाएगा. कुछ माँग थोड़े रहा हूँ तुमसे. मुझे सुकून आ गया थोडा...अब जिंदगी इतनी छटपटाहट में नहीं गुजरेगी. कमसे कम खुदा को शुक्रिया कहते हुए नमाज़ पढ़ सकूँगा. 


मोहल्ले में लोग उसे लुच्चा-लफंगा कहते थे, उसे कोई काम नहीं है, बस झगड़ा, दंगे फसाद करना जानता है. सब जानने पर भी न विश्वास हुआ उनकी ख़बरों पर न उससे नफरत हुयी कभी...और डर, वो तो खैर कभी किसी से लगा ही नहीं. उन दिनों पटना में टेम्पो शेयर करना पड़ता था. पीछे वाली सीट पर तीन लोग बैठते थे, और बहुत देख कर बैठना पड़ता था की कोई शरीफ इन्सान हो. कोचिंग जाते हुए अक्सर सरफ़राज़ पाटलिपुत्रा गोलंबर पर मिल जाता था, उसे स्टशन जाना होता था. उसे कुछ भी नहीं जानती थी...पर एक अजनबी के साथ बैठने से बेहतर उसके साथ जाना लगता था. और कई सालों में उसने कभी कोई बदतमीजी नहीं की. जिस दिन वो दिख जाता पेशानी की लकीरें मिट जाती थीं. 


कहने को कह सकती हूँ की उससे कोई भी रिश्ता नहीं था...बस एक आधी मुस्कान के सिवा मैंने उसे कभी कुछ दिया नहीं, न उसने कभी कुछ कहा मुझसे. उसने पहले दिन वाली बात फिर कभी भी नहीं छेड़ी, मैंने भी सुकून की सांस ली. वैसे भी इशरत के पापा का ट्रान्सफर हो गया था तो उसके मोहल्ले में जाने का कोई कारण नहीं बनता था. मैं सरफ़राज़ के घर फिर कभी नहीं गयी...इशरत से बात किये एक अरसा हो गया है, आज भी सोच नहीं पाती की उसके उतने बड़े मकान में उसने अपने स्टडी रूम में क्यूँ रुकने क कहा, जबकि उसका बड़ा भाई वहां पढ़ रहा था. क्या इशरत को सरफ़राज़ ने मेरे बारे में बताया था या वो महज़ एक इत्तेफाक था. 


एक दिन 'राजद' का चक्का जाम था, पर हम जिद करके कोचिंग चले गए कि दिन में बंद था...शाम को कुछ नहीं होता.  क्लास चल रही थी कि खबर आई की बोरिंग रोड में कुछ तो दंगा फसाद हो गया है, फाइरिंग भी हुयी है. क्लास उसी समय ख़त्म कर दी गयी और सबको घर जाने के लिए बोल दिया. कोचिंग से बाहर आई तो देखा कर्फ्यू जैसा लगा हुआ है. दुकानों के शटर बंद, सड़क पर कोई भी गाड़ियाँ नहीं, एक्के दुक्के लोग और टेम्पो तो एक भी नहीं. पैदल ही निकल गयी...कुछ कदम चली थी की सरफ़राज़ ने पीछे से आवाज़ दी.
'उधर से मत जाओ, आग लगी हुयी है, गोलियां चल रही हैं.'
मुझे पहली बार थोड़ा डर लगा...पटना  उतना सुरक्षित भी नहीं था...पिछले साल कुछ गुंडे दुर्गापूजा के समय डाकबंगला चौक से एक लड़की को मारुती वान में खींच ले गए थे. एक सेकंड सोचा...कि सरफ़राज़ के साथ जाना ठीक रहेगा या अकेले...तो फिर उसके साथ ही चल दी...उसे अन्दर अन्दर के रास्ते मालूम थे. जाने किन गलियों से हम बढ़ते रहे...शाम गहराने लगी थी और एक आध जगह तो मैं गिरते गिरते बची, एक तो ख़राब सड़क उसपर मेरे हील्स. सरफ़राज़ ने अपना हाथ बढ़ा दिया...की ठीक से चलो. और पूरे रास्ते हाथ पकड़ कर लगभग दौड़ाता हुआ ही लाया मुझे. मैं महसूस कर सकती थी की उसे मेरी चिंता हो रही  है. 


अचानक से मेरे मुंह से सवाल निकल पड़ा कि तुम्हें सब लोग बुरा क्यों कहते हैं मेरे मोहल्ले में...यूँ तो सवाल अचानक से था...पर दिल में काफी दिन से घूम रहा था. वो उस टेंशन में भी हंसा...
'इशरत को कुछ लड़कों ने छेड़ दिया था, बताओ तुम्हिएँ कि छेड़े तो तुम्हारे भाई का खून नहीं खौलेगा? उनसे काफी लड़ाई हो गयी मेरी...क्या गलत किया मैंने, पुलिस आ गयी थी. मुझे तीन दिन जेल में डाल दिया...अब्बा ने बड़ी मुश्किल से मुझे छुड़ाया. बस, इतना सा किस्सा है'. 
'पटना का माहौल तो तुम जानती ही हो, इसलिए तुम अगर दिख जाती हूँ तो तुम्हारे साथ ही टेम्पो पर जाता हूँ...तुम्हें ऐतराज़ हो तो मना कर दो'. 
तब तक हम घर के पास आ गए थे, पर सरफ़राज़ ने उसने मुझे घर के चार कदम पर छोड़ा. उसने सर पर हाथ रखा और कहा 'अपना ख्याल रखना' ये उसके आखिरी शब्द थे. उस दिन से बाद से उससे कभी बात नहीं हुयी मेरी.
पटना के आखिरी कुछ सालों में व मुझे बहुत कम दिखा. शादी के दिन भी नहीं आया...हालाँकि मैंने कार्ड पोस्ट किया था उसके घर पर. शायद उसने घर बदल लिया हो. जाने क्यूँ मुझे लगता है, जिंदगी के किसी मोड़ पर व जरुर फिर मिलेगा...भले एक लम्हे भर के लिए सही. 


इस शेर का मतलब तो अब समझ आ गया है...पर शायद वो मुझे पूरी ग़ज़ल भी बता दे उस रोज़. 


जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है

ज़ख्म अब तक हरे हैं

तुम्हें सच में नहीं दिखते?
दायें हाथ की उँगलियों के पोर...नीले हैं अब तक
ना ना, सियाही नहीं है...माना की लिखती हूँ 
पर अब तो बस कीपैड पर ही 

तुम भूल भी गए फिर से
तुम्ही ने तो मेरी पेन का निब तोड़ा था 
मुझसे अब कभी नहीं मिलना
कह कर, आखिरी वाले दिन 

तुम क्यूँ पकड़ा करते थे मेरा हाथ
क्लास में डेस्क के नीचे, तुम्हें पता है 
एक हाथ से नोट्स कॉपी करने में
उँगलियों के पोर नीले पड़ जाते थे 

गर्म दोपहरों में, पिघला डेरी मिल्क 
उँगलियाँ झुलसा देता था
इतना तो तवे से रोटियां उतारते
हुए भी कभी नहीं जली मैं 

मेरे हाथ से फिसलती तुम्हारी उँगलियाँ
तराशी हुयी, किसी वायलिन वादक जैसी 
छीलती चली गयीं थीं मेरी हथेलियों को 
लगता था बचपन है, चोट लगने वाले दिन हैं 

आज डायरी पढ़ रही थी, २००३/४/5 की
उँगलियाँ फिर से सरेस पर रगड़ खा गयीं 
पन्ने लाल होने लगे तो  जाना 
उँगलियों के ज़ख्म अब तक हरे हैं 

13 April, 2011

उस सरफिरी, उदास लड़की का क्या हुआ?

बहुत पुरानी बात है...
दो आँखें हुआ करती थीं
बीते बरस 
उनपर कई मौसम आये और गए 

जिस दिन से तुम नहीं आये 
रात का काजल 
आँखों में फैलता चला गया 
और बेमौसम बारिश होने लगी 

जो नदी बरसाती हुआ करती थी
अब सालों भर बहने लगी
आँखों का काला रंग भी
पानी में घुल के फीका पड़ने लगा 

जो दिखते थे सारे रंग 
जिंदगी से रूठ कर चले गए 
बहार को आँखों ने पहचाना नहीं
वो इंतज़ार करते बूढ़ी हो गयी 

सुनते हैं कि बरसों की थकन से 
उसकी आँखें मर गयी थीं 
मगर ये कभी पता ही नहीं चला
उस सरफिरी, उदास लड़की का क्या हुआ?

06 April, 2011

म्युचुअल/Mutual

तुमने कहा
मुझे बस एक लम्हा चाहिए, पूरी शिद्दत से जिया एक लम्हा
मैंने कहा
मुझे तुम्हारी पूरी जिंदगी चाहिए, सारी जिंदगी 

तुमने कहा
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
मैंने कहा
तुम्हारे-मेरे रिश्ते का नाम ला कर दो 

तुमने कहा
तुम्हारे पंखों में उड़ान है, तुम पूरा आसमान नाप सकती हो, मैं तुम्हें कभी बाँध के नहीं रखूँगा
मैंने कहा
ये एक कमरा है, इसमें मैं हमारा घर बसाउंगी, इसी में रहो, समाज यही कहता है...मुझे बाहर नहीं जाना  

तुमने कहा
मेरे साथ उदास हो, मैं तुम्हें परेशान नहीं देख सकता, तुम चली जाओ, खुश रहना 
मैंने कहा 
वादा करो मुझे छोड़ कर कभी नहीं जाओगे, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती 

तुमने कहा
मेहंदी लगवा लो, वैसे भी हमारे तरफ मेहंदी में लिखे नाम का ही मोल होता है
मैंने कहा
मुझे टैटू बनवाना है, वो भी तुम्हारे नाम का ही 

तुमने कहा
मुझे भूल जाना अब
मैंने नहीं कहा
कि मुझे भूलना नहीं आता 

तुम्हें लौटना नहीं आता
और मुझे इंतज़ार नहीं भूलता...

28 March, 2011

पहला एक्सीडेंट

पहले तो सफाई की हमारे एक्सीडेंट में कोई रूमानी बात नहीं है, हाय हमारी ऐसी किस्मत कहाँ...ठुके भी तो...खैर. उस दिन हम जाने किसका चेहरा देख कर उठे थे...सुबह कुछ काम से जाना था, हड़बड़ी में निकले थे. एक प्रिंट आउट निकलवाना था...वाल्लेट खोलते हैं तो देखते हैं की पैसे नदारद...हम अधिकतर लड़कों वाला वालेट ही लेकर चलते हैं की जींस की बैक पॉकेट में डाला और निश्चिन्त, पर्स ले जाने में मेरा ज्यादा भरोसा नहीं है. लेकिन इत्तिफाकन एक रात पहले हमने अपने पर्स में पैसे और कार्ड्स डाल दिए थे और सुबह हड़बड़ी में चेक करना भूल गए. अब मेरे वालेट में एक भी रूपया नहीं...रुपये की तो खैर मैं जायदा चिंता नहीं करती पर लाइसेंस नहीं था और मैं बिना DL के बैक नहीं चलती. तो घर गयी, पर्स उठाया...मुहूर्त का तो कबाड़ा हो ही गया था. 

लावेल रोड के आसपास पार्किंग की जगह ही नहीं एकदम...मैंने कार पार्किंग में ही बाईक खड़ी कर दी की दस मिनट का काम है, दस मिनट के घंटा हो गया. बाहर आई तो देखती हूँ नो-पार्किंग वाले ले जा रहे हैं उठा के. देर काफी हो गयी थी तो पहले ऑटो किया और ऑफिस भागी. तब तक लगभग लंच का टाइम हो गया था. आधे रस्ते में याद आया की टिफिन भी तो बाईक में ही है उसपर से कल रात काजू पनीर की सबकी बनायीं थी तीन बजे...और चखी भी नहीं थी. अब तो लगे की पहले बाईक से उतर कर रोना शुरू कर दूं. ऑफिस पहुंची तो पता चला मीटिंग कैंसिल थी. मैंने सोचा बाईक ले आती हूँ...भूख लग रही थी, सुबह से एक बजने  को आये थे और खाना कुछ भी नहीं खाया था. 

बाईक लाने के लिए जिस ऑटो से गयी उसने वन वे में एंट्री कर दी...वहां से उतर कर कुछ पौन किल्मीटर चल कर वहां पहुंची जहाँ बेचारी मेरी बाईक खड़ी थी. तीन सौ रूपये दे कर गाडी छुड़ाई और वापस ऑफिस...आजकल  मेट्रो का काम चल रहा है तो खुदी हुयी सड़क पर बोर्ड लगा लिए गए हैं. मैंने उधर ही यु टर्न के लिए बाइक मोड़ी...सड़क लगभग खाली थी कुछ गाड़ियाँ आ रही थी...चूँकि तुरत यु टर्न लिया था तो मैं सबसे दायीं लें में थी...अचानक से मुझे पता भी नहीं चला और काफी तेज़ी से एक कार ने अचानक मुझे ठोक दिया, मेरी बाइक काफी धीमी थी इसलिए मैं ब्रेक मार कर रकने या कंट्रोल करने की कोशिश की पर व कार इतनी तेज़ी से आ रही थी की मैं एक पलटन खाते हुए दूर फेंका गयी. किस्मत अच्छी थी की पीछे वाली गाड़ियाँ मुझपर नहीं चढ़ीं. कुछ लोग आये, उन्होंने मुझे उठाया, बाइक को सड़क किनारे लगाये. अचानक चोट या दर्द तो ज्यादा नहीं हो रहा था बस थोड़ा shaken महसूस कर रही थी. किसी भी तरह का एक्सीडेंट थोड़ा वल्नरेबल फील करा देता है. लग रहा था की कुछ भी हो सकता था, मर सकती थी. अचानक, बिना किसी से विदा लिए हुए.

वहां खड़े एक अंकल ने गाडी का नंबर भी नोट कर लिया था...मैंने भी सोचा की एक कम्प्लेन तो डाल ही दूँगी. पानी पिया और थोड़ी देर गहरी सांसें ले कर खुद को संयत किया. वहीं लोगों ने बताया की कार वाले के पीछे एक व्यक्ति बाइक से गया है. मैंने उम्मीद तो क्या ही की थी...पर दस मिनट ने अन्दर वो कर वाले को लेकर आ गया और बला की आप लोग आपस में बात कर लीजिये. मैं तब तब एकदम परेशान हो चुकी थी, रोना सा आ रहा  था. पर मैंने सोचा की घबराने की कोई बात नहीं है...मैं ठीक हूँ और कुछ ही समय में घर पहुँच जाउंगी. गाडी वाला सॉरी बोला..पूछा की मुझे चोट तो नहीं लगी...मैं काफी परेशान थी तो मैं कुछ नहीं कहा उससे...बस इतना की ये कोई तरीका है कार चलने का, न मैं किसी गलत लेन में थी, न मैं ओवेर्टेक कर रही थी, न मैं वन वे में थी...पूरी सड़क खाली थी. खैर...

असली मुसीबत फिर शुरू हुयी जब बाइक स्टार्ट ही नहीं हो रही थी...एक तो चोट लगी थी, उसपर किक मरते मारते हालत ख़राब...बहुत देर के बाद जाके बाइक स्टार्ट हुयी. वहां से चली और मुश्किल से १०० मीटर चली होगी की फिर बंद...अब चिन्नास्वामी स्तादियम से mg रोड तक बाइक पार्क करने की कोई जगह ही नहीं. वहां से लगबग आधा किलोमीटर बाइक खींच कर लायी. बीच सड़क में छोड़ भी नहीं सकती थी. फिर काफी देर बाइक स्टार्ट करने की कोशिश की...फिर सोचा की थोड़ा और पेट्रोल डाल कर देखते हैं...तब तक लगभग ढाई बज गए थे और भूख के मारे चक्कर आने लगे थे. वहां से कोई तीन सौ मीटर पर पेट्रोल पम्प था...एक अच्छे दरबान भईया ने बोतल ला के दी...फिर पैदल गयी और पेट्रोल लिया. उस वक़्त इतनी हिम्मत नहीं हो रही थी की रोड पार करके उस तरफ से औत लेकर पेट्रोल पम्प जाऊं. सर्विस सेंटर को फोन किया तो उन्हने बताया की पूरा एक्सीलेरेटर दे कर किक मारने से स्टार्ट हो जाएगा. 

पेट्रोल डाला और स्टार्ट करने की कोशिश की तब भी नहीं हो रहा था...तब एक और भला लड़का आया और उसने बहुत कोशिश की...फिर बाइक स्टार्ट हो गयी. जब जाने की बारी आई तो ध्यान आया की हेलमेट तो डिक्की में है...और डिक्की खोलने के लिए चाभी निकालनी होगी...रोना आ गया एकदम से. पर अभी तुरत एक्सीडेंट हुआ था तो बिना हेलमेट के कहीं जाने में बहुत डर लगा. खैर...इस बार इतनी दिक्कत नहीं हुयी. 

वहां से ऑफिस आई खाना खाया...फिर भी थोड़े चक्कर आ रहे थे. तो सोचा घर चली जाऊं. तो घर चली आई की आज का दिन बहुत ख़राब है...जितनी जल्दी घर पहुँच जाऊं बेहतर रहेगा. मेरे साथ एक प्रॉब्लम और है की घर में मूड अच्छा हो तो मन लगता है वरना घर काटने को दौड़ता है. तो शाम को फिर घूमने निकल गयी. वापस आई कपडे बदले तब पहली बार देखा की कितनी चोट लगी है. एक सेकंड को तो फिर से चक्कर आ गए. जींस पहनती हूँ इसलिए छिला नहीं कुछ पर कुछ हथेली भर जितना बड़ा खून का थक्का जम गया था. देखने के बाद और दर्द होने लगा. रात होते होते और भी जगहों के दर्द उभरे. 

अगले दिन ये हालत की चलने में पूरे बदन में दर्द और जुबान पर 'सर से सीने में कभी, पेट से पांवों में कभी, एक जगह हो तो बताएं की इधर होता है'. दो दिन आराम किया पर आराम कहाँ...लगता है पहली बार प्यार में गिर पड़े हैं, दर्द जाता ही नहीं...इश्क कर बैठा है मुझसे. अब कुछ दिन तक न कार चलेगी मुझसे न बाइक. घर बैठे लिखने पढने का इरादा है. 

जो लोग ब्लॉग में नए हैं जैसे सागर, अपूर्व, दर्पण, डिम्पल, पंकज...इनसे अक्सर हम अक्सर ब्लॉग के एक सुनहरे दौर की बात किया करते हैं...जब दुनिया में कम लोग थे और हर छोटी चीज़ पर कई दिन बात किया करते थे. जैसे पीडी की टांग नहीं टूटने के बाद भी अब तक पुराने लोग पीडी के टांग टूटने का किस्सा जानते हैं. तो फुर्सत में मैंने कुछ लिंक ढूंढ निकले हैं...ताकि थोड़ा अंदाजा हो की उस समय क्या क्या बातें करते थे हम, रामप्यारी कौन है, क्या करती है वगैरह. मुझे चिट्ठाजगत का लिंक नहीं मिल रहा..वरना पोस्ट करती. 

खैर...हम ठीक हैं अभी...आराम कर रहे हैं...आप लोग दुआओं का टोकरा भेजिए, लगे हाथ कुछ फल, मिठाई भी आ सकती है टोकरे में. :) :) 

18 March, 2011

सीबोनेय/ siboney

'तू अभी तक जगी क्यों है?'
'सिगरेट की तलब हो रही है...इसलिए'
'कुछ नहीं थप्पड़ खाएगी तू, आजकल तेरा दिमाग ख़राब हो गया है...सो जा चुपचाप, कल फ्राईडे है, ऑफिस तो जाना होगा'
'वो तो कल उठने के बाद...उसके लिए आज सोना पड़ेगा...पर होठों को एक सिगरेट की तलब हो रही है...और एक बालकनी की भी. वैसे तलब तो तेरी भी हो रही है पर ऐसे सात समंदर पार तुझे कैसे बुला लूं...जब तुमने स्मोकिंग छोड़ी नहीं थी...मेरे बालों में जब तुम उँगलियाँ फिराते थे बालों से धुएं की खुशबू आती थी...आह...उन दिनों तुम्हारे होठों का...जाने दो...मेरे दिमाग की वाइरिंग लूज हो गयी है.'
..................................
'सुनो'
'हाँ' 
'आज मैंने एक फिल्म देखी...२०४६ तुम कभी मेरे साथ बैठ कर ये फिल्म देख पाओगे प्लीज...जानती हूँ तुम्हारे टाइप की फिल्म नहीं है पर लगता है की तुम वैसे ही बालों में उँगलियाँ फिराते रहो और मैं तुम्हारे सीने से टिक कर पूरी फिल्म देखूं. अच्छा बता तो, क्या ये बहुत बड़ी ख्वाहिश है?'
'ह्म्म्म'
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'लोग कहते हैं कि तुम्हारी टिकट बहुत महँगी है, बताओ तो एक लाख में कितने जीरो होते हैं,  हंसो मत न...जानते हो की मेरी मेरी मैथ कितनी कमजोर है. अगर तीस हज़ार बचाऊं हर महीने तो कितने दिन में तुम्हारा रिटर्न टिकट खरीदने लायक पैसे हो जायेंगे? मुझसे मिलने कब आओगे?
'पता नहीं...तुम तो जानती हो कितना मुश्किल है यहाँ सब सेटल करना...आज अचानक तुम्हें क्या हो गया है...आज फिर स्कॉच मारी हो क्या? अगली बार तुम्हारे लिए नहीं लूँगा. तुम ये सेंटी फिल्में देखती क्यों हो...खामखा क्या क्या बोलने लगती हो'.
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'तुमने तो बहुत लड़कियों से प्यार किया होगा, बताओ तो भला सबसे जियादा किससे प्यार किया...जाने दो, पता है Days of Being Wild में जो हीरो है न वो एक लड़की को कहता है कि मैं तुम्हें हमेशा याद रखूँगा...मरने के पहले वाले कुछ क्षण में वो उसी लम्हे को याद करता है जब उसने ऐसा कहा था. मैं सोचती हूँ कि मैं मरने के वक़्त किसे याद करुँगी...मौत धीरे धीरे आती है क्या? आपको यकीन भी नहीं होता कि आप सच में मर जायेंगे...जैसे कि प्यार, कभी नहीं लगता है कि प्यार सच में हो जाएगा.
.......................................
एक ही दुःख है...तुम्हें जब आखिरी बार किस किया था तो पता नहीं था कि ये आखिरी बार होगा. 
आह...जिंदगी, तुझसे इश्क करना कितना तकलीफदेह है!


13 March, 2011

फाग गाते हुए लौटा बसंत है!

राजमार्ग की वो एक बेहद खूबसूरत सड़क थी...दोनों तरफ कतार में अनुशाषित पेड़ खड़े थे, कई दशकों तक वहां खड़े रहते हुए पेड़ भी अपनाप को उस राजमार्ग की शान का हिस्सा समझने लगे थे जैसे सचिवालय का दरबान...कोई जान न होते हुए भी बेहद अकड़ के खड़ा रहता था. सुबह और शाम के वक़्त साफ़ यूनिफार्म पहने सरकारी मुलाजिम सड़क पर झाड़ू लगाते थे...ये वही लोग थे जिन्होंने बचपन की किताबों में पढ़ा था की झाड़ू भी लगाओ तो ऐसे लगाओ जैसे दुनिया का सबसे महत्वपर्ण काम कर रहे हो. इस ख़ास सड़क के पेड़ समझते थे कि कई महत्वपूर्ण व्यक्ति इस राह से गुज़रते हैं...और इन लोगों को सफाई बेहद पसंद है...अपने पीले, उदास पत्तों को भी बूढ़ी टहनियां देर तक थामी रहती थी...पत्तों के गिरने का वक़्त तय था, दिन की दो शिफ्ट में सुबह और शाम, सरकारी मुलाजिमो के आने से कुछ ही उन्हें रुखसत होना होता था. सड़क पर गिरते ही पत्ते ऐसे ठिकाने लगा दिए जाते जैसे गरीब, विस्थापित गाँवों में बड़ी होती लड़कियां. हर शाम तयशुदा कोने में आग लगा कर पत्तों में मौजूद जरा भी जिजीविषा को राख बना दिया जाता. 

ऐसी शाम के बाद आने वाली किसी रात एक लेखक इस सड़क पर चल रहा था...भटकना भी कह सकते हैं क्योंकि उसकी कि मंजिल नहीं थी. किसी से मिलने का वादा नहीं था. लेखक बहुत बेचैन था और मन को भटकाने के लिए उसे कुछ मिल नहीं रहा था...कोई सूखे पत्ते नहीं जिन्हें जूते से मसल कर कुछ काम करने का अहसास हो...या कि जिनकी बेज़ुबानी पर कुछ कहानियां ही लिखी मिल जाएँ. सड़क की कंगाली का आलम ये था कि एक यायावर पत्थर तक नहीं था बेठिकाने कि जिसे पैरों से ठोकर मारते हुए किसी मंजिल पर पहुँचाने की कवायद की जाये. 

शुरूआती मार्च का महीना था...अभी होली नहीं आई थी पर मौसम में गर्मी थी. हवा में एक बेरुखी, उदासी और कठोरता थी...लेखक को अपने कवि होने के आखिरी दिन याद आ रहे थे. वो दहकते दिन जबकि बदन अक्सर सौ डिग्री बुखार में तड़पता रहता था और जबान आग उगलती कविताओं से झुलसी रहती थी. वो परेशान होने और छटपटाने के दिन थे...तीस पहुँचती उम्र में अपने समाज में कुछ बदलने की अभीप्सा उसे जिलाए जाती थी और जलाए डालती थी. घर से रोज़ ही शादी करके घर बसाने का दबाव होता था...उसे लगता था कि दिमाग की नसें फट जायेंगी. दुनियादारी के नाम पर कोई भी उसका अपना नहीं था, सिर्फ किताबों के बीच एक अलग ही साधना कर रहा था वह. 

उसने एक छोटी सी संस्था खोली थी जिसमें बाहर से आये मजदूरों के बच्चों के लिए स्कूल जाने का इन्तेजाम करता था. उसे इसमें संतोष मिलता था मगर वह जानता था कि उसे कुछ बड़ा करना होगा...वह अपनी सीमाएं जानता था और अपनी ताकत भी. वह जनता था कि उसे अपनी कलम के दम पर ही कुछ ऐसा करना है ताकि वो बड़े स्तर पर कुछ अच्छा कर सके. इन्ही दिनों उसने कहानियां लिखनी शुरू की थीं, लोगों से ज्यादा बात नहीं करने के बावजूद उसमें एक ऐसी दृष्टि थी जो इंसान के भीतर झांक के देख लेती थी. कहानियों में उसे अप्रत्याशित सफलता मिली...लोग उसके लेखन को कालजयी कहने लगे थे, कि वो समाज की नब्ज़ को पहचानता है. 

जैसे जैसे प्रसिद्धि बढ़ी उसके संस्था को सम्हालने वाले लोग आ गए, उसने अपनी खुद की प्रकाशन कंपनी भी शुरू की जिसमें वो सिर्फ बच्चों के लिए कम कीमत में किताबें छापने का काम करता. माँ की इच्छा पूरी करने के लिए उसने शादी भी कर ली और वक़्त में दो बेटे भी हुए. एक आम मध्यम वर्गीय परिवार से उठ कर वो काफी बड़ा आदमी बन गया था पर उसने सब कुछ अपने फ़र्ज़ की तरह किया, जैसे घर का बड़ा बेटा घर के लिए करता है उसने वैसे ही समाज के लिए किया. लोग उसे अक्सर समारोहों में बुलाते हैं, उसे अजीब सा लगता है स्टेज पर बैठ कर अपना बखान सुनना. 

ऐसे ही एक समारोह के लिए वो दिल्ली गया था...और देर रात अपने होटल से निकल कर राजमार्ग पर टहल रहा था. हर समारोह के बाद उसे लगता था कि वो बहुत बूढ़ा होता जा रहा है...कि उसकी जिंदगी में अब कोई उद्देश्य नहीं रहा. उसने जो करना चाहा था उसने कर लिया है. उसे अब बड़ी शिद्दत से किसी और मंजिल की तलाश थी. जिंदगी ताउम्र तलाश ही तो है...पा लेने पर ठहराव आ जाता है...और ठहराव यानि कि मौत. 

आज उसके पास बहुत फुर्सत थी...इसमें उसने पाया कि जीवन में सारे सुर मौजूद हैं पर लय ख़त्म हो गयी है...उसे अचानक याद आया कि उसने कई दिनों से कोई कविता नहीं लिखी...कविता लिखने में कहीं न कहीं रूमानियत बची रहती है...कविता इस बात का सबूत है कि कहीं न कहीं कोई राग है जो आत्मा के तारों को छेड़ सकता है. जबसे कविता लिखनी बंद की उसने जिंदगी में सब कुछ सधा हुआ किया; गिन कर कदम रखे, पूछ कर रास्ते पर निकला यहाँ तक कि प्यार भी पूरी शिद्दत से नहीं किया...अपना कुछ बचा के रखा हमेशा. यही बचा हुआ कुछ टुकड़े टुकड़े में अब उसे अन्दर से तोड़ रहा है.  

उसने दरबान से मांग कर बीड़ी पी और रात भर जगे रहने वाले शहर में भटका...अच्छी शराब ले कर आया और भोर होने तक शराब में घुलता रहा...लिखता रहा...अगली सुबह पहली फ्लाईट से घर गया. अपनी बीवी को हाथ पकड़ कर सामने बिठाया और कहा...तुम दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत हो और मैं तुमसे उतना ही प्यार करता हूँ कि जितना लोककथाओं के मर कर अमर हो जाने वाले नायक करते हैं. मैंने कल दशकों बाद कवितायें लिखी हैं...वो इसलिए कि बिना कहे भी तुम्हारा प्यार हमेशा मेरा हाथ थामे रहा. अगर मैं कविता लिखना भूल जाऊं तो मुझे याद दिला देना...मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ. 
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अगले महीने अपनी एक नयी किताब के सिलसिले में उसका फिर राजधानी जाना हुआ...इस बार वो अकेला नहीं गया था...पेड़ों पर भी तो वसंत आया हुआ था...चाँद भी पूरा था, चांदनी सावन के मौसम कि तरह बरस रही थी. 
कवि कोई गीत गुनगुना रहा था. 

पेड़ों की फुनगी पर...पत्तों की ओट से...सबरंगी मौसम में...फाग गाते हुए लौटा बसंत है!

07 March, 2011

दारुण!

ओ कवि,
सुनती हूँ की तुम्हारे ऊपर हैं
जिम्मेदारियां बहुत सी 

समाज, देश को आइना दिखाना
विषमताओं पर लिखना
गरीबों के लिए आवाज़ उठाना 
विद्रोह की आंच जलाये रखना 

कवि रे,
सुनती हूँ की उम्मीद, हिम्मत 
सिर्फ तुम्हारे पास हैं इनके बीज 

की लहू की फसलें उगाई जा रही हैं
काटे जा रहे हैं रिश्तों के जंगल 
बोई जा रही है त्रासदी
जोते जा रहे हैं अबोध, जुए में  

आह मेरे कवि!
सत्य को पल पल खरा करते 
तप रहे हो, गल रहे हो 

संसार का सबसे बड़ा दुःख है प्रेम
शायद भूख के बाद...मुझे मालूम नहीं 
फिर भी, मुझे जिलाने के लिए लिखो...कवितायें
क्योंकि तुम नहीं जानते ओ कवि

प्रेम और भूख से भी बड़ा एक दुःख है...
तुमसे प्रेम करने का दुःख...ओ कवि!

04 March, 2011

नीले पांवों वाली लड़की

बहुत सालों पहले जब घर बनवाया गया था तो सड़क से लगभग दो फुट ऊंचा बनवाया गया था...अनगिन घपलों और सावनों के कारण सड़क साल दर साल बनती रही...अब हालात ये थे कि हर बारिश में पानी बहकर अन्दर चला आता था और वो लड़की जो सिर्फ खिड़की से ही बारिश देखा करती थी उसके तलवे हमेशा सीले रहने के कारण पपड़ियों से उखड़ने लगे थे. 

उसे कुरूप होते अपने पैरों से बेहद लगाव होने लगा था...वैसे ही जैसे गालों से लुढ़ककर गर्दन के गड्ढे में जो आँसू ठहरता था उससे होता था. वो अक्सर दीवार में सर टिका कर रोती थी...पलंग भी नीचा था तो उसके पैर गीले फर्श से ठंढे होने लगते थे...खून की गर्मी का उबाल भी सालों पहले ठंढा हो गया था, बात बेबात तुनकने वाली लड़की अचानक से शांत हो गयी थी. उसी साल पहली बार सड़क के ऊंचे होने के कारण पानी घर में रिसना शुरू हुआ था.

लड़की ने बहुत कोशिश की...टाट के बोरे, प्लास्टिक दरवाजे के बीच में फंसा कर पानी अन्दर आने से रोकने की...पर ये पानी भी आँखों के पानी जैसा बाँध में एक सुराख ढूंढ ही लेता था. अगले साल तो पानी में उसकी चप्पल तैर कर इस कमरे से उस कमरे हो जाती थी. देर रात चप्पल ढूंढना छोड़ कर उसने नंगे पाँव ही चलना शुरू कर दिया. वो पहला साल था जब उसके पाँव ठंढ में गर्म नहीं हो पाए थे...वो पहला साल भी तो था जब बारिश के बाद धूप नहीं निकली थी...सीधे कोहरा गिरने लगा था...वो पहला ऐसा साल भी था जब वसंत में उसकी खिड़की पर टेसू के फूल नहीं मिले थे.

उसने वसंत के कुछ दिन खुद को बहलाए रखा कि शायद इनारावरण* में जंगलों की कटाई हो गयी हो, भू माफिया ने जमीन पर मकान बना दिए हों...वो चाह कर भी नहीं सोच पायी की वो लड़का जिसका कि नाम अरनव था और जिसने कि वादा किया था उसके लिए हर वसंत टेसू के फूल लाने का...वो अब बैंक पीओ है और चाहे उसे हर चीज़ के लिए फुर्सत मिले, हर सुख सुविधा उपलब्ध हो...वो अब दस किलोमीटर साईकिल चला कर उसके लिए टेसू नहीं लाएगा...लड़की को यक़ीनन सुकून होता जान कर कि जिसे वो हर लम्हा उम्मीद बंधाती आई है उसके सपने सच हो गए.

लड़की के कुछ अपने सपने भी थे...होली में टेसू के फूल के बिना रंग नहीं बने...होली फीकी रह गयी, वो इतनी बेसुध थी कि मालपुए में चीनी, दही बड़े में नमक...सब भूल गयी. उसकी आँखें काजल तो क्या ख्वाबों से भी खाली हो गयीं...इस बार सबने बस पानी से होली खेली. जब रंग न हों तो होली में गर्माहट नहीं रहती बिलकुल भी...वो घंटों थरथराती रही, पर उसके गालों को दहकाने अरनव नहीं आया.

सरकार ने सिंचाई की किसी परियोजना के तहत एक नदी का रुख दूसरी तरफ मोड़ दिया...इसमें इक छोटी धारा ठीक उसके घर के सामने वाली सड़क पर भी बहने लगी...उसके कागज़ की नाव तैराने के दिन बीत चुके थे...वैसे भी बिना खेवैया के कब तक बहती नाव...यादों में जब वो डूबती उतराती है तो उसे बहुत साल पहले की एक शाम याद आती है जब अरनव ने जाने कैसे हिम्मत कर के उससे पुछा था 'एक बार तुम्हें गले लगा सकता हूँ, प्लीज' और लड़की कुछ शर्म, कुछ हडबडाहट में एकदम चार कदम पीछे हट गयी थी. आज इन भीगी, सर्द रातों में वो एक लम्हा तो होता...उसकी लौ में हौले हौले पिघल जाने वाला एक लम्हा...एक खून में गर्मी घोल देने वाला लम्हा...कि तब ऐसी ठंढ शायद नहीं लगती कभी भी.

उसके पैर नीले पड़ने लगे थे...चप्पल जाने कहाँ खो गयी थी...सामने का रास्ता नदी बन गया था. वो अपने ही जिस्म में कैद हो के रह गयी थी...जिंदगी भर के लिए. 

03 March, 2011

कॉफी हाउस की आखिरी टेबल

आज का दौर बंद होते काफी हॉउस का है...पुरानी ठहरी हुयी इमारतों की जगह रौशनी और शोर वाली जगहें ले रही हैं जहाँ कुछ स्थिर नहीं रहता, सब कुछ लम्हे भर को होता है. वैसे वो इस लम्हे भर की जिंदगी की की जियादा खिलाफत नहीं करती फिर भी सीसीडी में भी दिन भर बैठ के कॉफ़ी पीने का पैकेज पर ध्यान नहीं देती...उसे कभी इतनी नफासत पसंद नहीं आई. 

बंगलोर का कॉफी हॉउस बंद हुए एक साल से ऊपर होने हो आया...और इतने दिनों से वो वैसी दूसरी जगह तलाश कर रही है जहाँ वो इत्मीनान से कुछ देर खुद से मिल सके. कॉफी हॉउस में आखिरी टेबल की एक टांग थोड़ी हिली हुयी थी...उन खास दिनों जब उसे कुछ स्केच करने का मन करता...वो पहले घंटों अपने बैग में ढूंढ कर कोई फ़ालतू कागज़ निकलती और टेबल का लड़खड़ाना बंद करती और जाने किन आँखों की तलाश शुरू करती पेंसिल के पतले रास्तों पर. 

यूँ तो कई कारणों से उसे इस जगह से लगाव था...मगर गहरे उतरो तो वजह एक ही नज़र आती थी, ये बंगलोर की कुछ उन जगहों में से थी जिसकी याद उसे शादी से पहले की थी. बहुत पहले बचपन में पापा के साथ जब बंगलोर आई थी, तब की...ताज़ा बनी फ़िल्टर कॉफी की खुशबू...पहली बारिश की खुशबू के बाद उसे सबसे जियादा पसंद थी. 

घर और ऑफिस के बीच जब वो एकदम ही खो जाने वाली होती थी तो अपनी तलाश करने के लिए कॉफी हॉउस आया करती थी. तीन चार घंटों में वो वहां की हवा में एकदम घुल जाया करती थी...वापस आने पर हफ़्तों उसके बालों से फ्रेशली ब्रूड कॉफी की महक आती थी और उसकी आँखों में गज़ब की उर्जा. उसके अन्दर जो दूसरी लड़की थी उसकी कभी उम्र ही नहीं बढ़ी...जिन्दा, धड़कती हुए नज़्म सी वो लड़की...जिसके होटों पर बसे दिन खूबसूरत हो जाए. उससे मिल कर किसी को भी अच्छा लगता.

कॉफी हाउस में अक्सर एक काम और किया करती थी वो...छद्म नाम से कहानियां और लेख लिखने का...यूँ तो उसके करीबी कुछ लोगों को मालूम था की वो किसी और नाम से भी लिखती है...पर चूँकि उनमें से किसी को बहुत ज्यादा लिखने पढने में दिलचस्पी नहीं थी...उन्होंने पूछा नहीं...इसने बताया नहीं. शादी, परिवार...बच्चे इन सब में उसने बहुत कुछ समझा था और अपने आप को बदला था...ऐसा ढाला था की सब कुछ सुनियोजित ढंग से चले. इस सबमें भी उसके अन्दर की लड़की के बागी तेवर कभी कम नहीं हुए...उसने बेहद मेहनत से लड़की को खुद के अन्दर खामोश रहना सिखाया...और वादा किया की वो ताउम्र उससे मिलने आती रहेगी...उसी कॉफी हाउस में. 

वादे की मियाद पूरी होने ही को है...कल ऑनलाइन ऑक्शन था कॉफी हाउस की काफी चीज़ों का. उसने आखिरी टेबल खरीद ली है...अब उसे रखने को एक कोना चाहिए...पर इतने बड़े शहर में उसे कोई जगह नहीं मिल रही.

आप किसी ऐसी जगह को जानते हैं जहाँ एक पुराना, टूटी टांग वाली कॉफी टेबल और एक बागी लड़की एक साथ चैन से रह सकें...कोई ताउम्र जैसे समय के लिए?

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लिखने का मूड इस पोस्ट पर किशोर जी के कमेन्ट से आया. 

26 February, 2011

लौट आने वाली पगडण्डी

मुझ तक लौट आने को जानां
ख्वाहिश हो तो...
शुरू करना एक छोटी पगडण्डी से 
जो याद के जंगल से गुजरती है 
के जिस शहर में रहती हूँ
किसी नैशनल हायवे पर नहीं बसा है 

धुंधलाती, खो जाती हुयी कोहरे में 
घूमती है कई मोड़, कई बार तय करती है
वक़्त के कई आयाम एक साथ ही 
भूले से भी उसकी ऊँगली मत छोड़ना 

गुज़रेंगे सारे मौसम
आएँगी कुछ खामोश नदियाँ
जिनका पानी खारा होगा
उनसे पूछना न लौटने वाली शामों का पता

उदास शामों वाले मेरे देश में
तुम्हें देख कर निकलेगी धूप
सुनहला हो जाएगा हर अमलतास 
रुकना मत, बस भर लेना आँखों में

मेरे लिए तोहफे में लाना 
तुम्हारे साथ वाली बारिश की खुशबू 
एक धानी दुपट्टा और सूरज की किरनें
और हो सके तो एक वादा भी 

लौट आने वाली इस पगडण्डी को याद रखने का 
बस...

22 February, 2011

डगर चलत छेड़े श्याम सखी री

Establishing Shot: Ext, Evening, Garden
हरियाला सा बाग़ है...तोतों की चीख-चिल्लाहट और मोर के शोर से गुलज़ार सा हुआ है...शाम का वक़्त और आसमान में बादलों के कुछ सांवरे कतरे.
फेड इन होती हुयी आवाज़...मीरा! अरीओ मीरा!!.
सेट पर पर एक चपल किशोरी दौड़ती हुयी चढ़ती है और कोने कोने ढूंढती है, पेड़ की पीछे, फुनगी के ऊपर...मीरा...कहाँ चली गयी शैतान! काले काले बदल घुमड़ रहे हैं और इसे अभी छुपा छुपी खेलने कि पड़ी है...घर जा के खुद तो मार खाएगी ही, मुझे भी खिलवाएगी.

झील किनारे एक पत्थर पर एक सलोनी सी लड़की बैठी है...बड़ी बड़ी आँखें, थोड़ा फैला सा काजल...और कमर तक के बाल...उनींदी, सपनीली आँखें झपकती है पल पल में...सखी से कहती है...
'देख ना...कैसी सांवली धनक फैली हुयी है...मेरा मन कहता है आज ब्रिन्दावन में बारिश हो रही होगी...चल ना भाग चलते हैं, वो डमरू चाचा की बस है ना..सुना है सीधे ब्रिन्दावन रूकती है...देखें तो सही आज कान्हा कैसे रास रचा रहा है...चल ना...बारिश होगी...बादल की गरज पर हम थिरकेंगे....बिजली से तेज हम नाचेंगे. यमुना के तट पर कान्हा बांसुरी बजा रहा है...देख ना, तुझे उसकी मोरपंखी दिखी?'
'बावली हो गयी है...कहाँ है कोई...चल ना, जल्दी अँधेरा हो जाएगा, माँ खाना बंद कर देगी मेरा' और वो लगभग खींचती हुयी उस खोयी हुयी लड़की को, जिसका कि नाम मीरा है ले चलती है. मीरा का प्रलाप बंद नहीं होता है...
'कान्हा..तुम सच में बड़े दुष्ट हो...किसी और को नज़र नहीं आते, और मुझे इतना सताते हो...मैंने ना कहा था कि मुझे कोई ब्रिन्दावन जाने नहीं देगा, मेरी सगी...बचपन की सहेली ये भी मुझे घर ले जा रही है खींच कर...हाय कान्हा, मैंने क्या किया है जो तुम मुझे इतना परेशान करते हो?
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interiors of house

गर्मियों का एक दिन...अनगिन लोगों के उस संयुक्त परिवार में हमेशा कोई न कोई आता जाता ही रहता है...ऐसे में बच्चों को सबसे जरूरी काम सौंपा गया है...आने वालों के लिए घड़े से पानी निकाल कर, ग्लास में ले जाना...बाहर के चबूतरे के ऊपर आम के पेड़ की छाया है, दिन में उधर गर्मी थोड़ी कम लगती है. मीरा को उसकी माँ ने पानी लेने भेजा है...वो घड़े के पास खड़ी अपने ही ख्यालों में गुम है...पिछले इतवार गुरूजी ने छोटा ख्याल सिखाया था...डगर चलत छेड़े श्याम सखी री, मैं दूँगी गारी, निपट अनाड़ी...पनिया भारत मोरी गागर फोड़ी, नाहक बहियाँ मरोड़ी झकोरी...मीरा की माँ पुकार रही है...बरामदे के मेहमान बिना पानी के मरे जा रहे हैं, मगर मीरा पानी लेकर कैसे आये भला, कान्हा ने मरोड़ दी हैं उसकी बाहें, घड़े में से तो सारा पानी गिर ही गया है...और अभी भी कान्हा चिढ़ा ही रहा है उसे. अब वो कान्हा से झगड़े पहले या माँ को सफाई दे की कान्हा ने घड़ा फोड़ दिया है.
बरामदे के मेहमान...कुछ नकचढ़ी फूफीयां कुछ पिताजी के गाँव के अन्य लोग...महिलाओं की टोली में खुसुर फुसुर होने लगी है...मैं न कहती थी, मत रखो बेटी का नाम मीरा, अब देखो न सारे वक़्त खोयी ही रहती है...कान्हा कान्हा...अब पूछ न उससे, कान्हा बियाह करेगा? अरे कान्हा ने तो राधा को भी बड़े आंसू रुलाये थे, व तो बावली ही थी, और अब ये है, पागल हो गयी है...वरना लड़की बड़ी गुनी है. एक कान्हा के पीछे भागी फिरती है येही खोट है बस.
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doctor's cabin
मीरा के माता पिता डॉक्टर के साथ बैठे हुए हैं...सामने कई सारी रिपोर्ट्स हैं...डॉक्टर काफी गंभीर मुद्रा में है...ह्म्म्म तो समस्या ये है की मीरा को लगता है की कान्हा इसका बचपन का सखा है और इसके साथ बातें करता है खेलता है...ये उसके बारे में बातें करती रहती है...ये एक काफी गंभीर मनोवैज्ञानिक बीमारी है...इसे सिजोफ्रेनिया कहते हैं. इसमें व्यक्ति अपने आसपास काल्पनिक किरदार रच लेता है. समस्या वक़्त के साथ और बिगड़ती जाती है. सही समय पर दवाओं और इलाज से इसके सिम्टम्स कंट्रोल किये जा सकते हैं. आप मीरा को दवाइयां ध्यान से खिलाइए...मैं दे देता हूँ...और इसे मेरे पास दिखाने लाया कीजिये, हर हफ्ते. और इसे ऐसे लोगों से दूर रखिये जो इसे ऐसी काल्पनिक कहानियों पर विश्वास करने देते हैं...आप लोग रैशनल लोग हैं.
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इलाज से धीरे धीरे मीरा की हालत में सुधार आने लागा...अब वो डॉक्टर के यहाँ जाने के नाम से ही चहकने लगती थी. घर वालों को भी ये डॉक्टर बहुत पसंद था...लम्बा, सांवला, घुंघराले बालों वाला...और एक दिन डॉक्टर ने मीरा का हाथ मांग लिया. बड़ी धूम धाम से शादी हुयी उनकी...मीरा विदा हुयी तो जैसे पेड़ पौधे तक उदास हो गए. 
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doctor's house...room interiors
मीरा बचपन के स्केच किये कुछ कागज़ निकाल रही है...और गुनगुना रही है...कैमरा उसके स्केचेस पर जूम होता है...जहाँ कान्हा के रूप में हूबहू डॉक्टर की स्केच है. 
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आखिरी सीन में नारद का प्रवेश...नारायण नारायण...प्रभु आपकी माया कोई नहीं समझ सका है आज तक. राधे श्याम...राधे श्याम!

16 February, 2011

मध्यांतर

उँगलियों को सिगरेट की अजीब सी तलब लगी है...मन बावरा भागते हुए फिर दिल्ली पहुँच गया है जहाँ घना कोहरा लैम्प पोस्ट से गिर रहा है...घनी ठंढ है और ऊँगली में फंसी हुयी है सिगरेट...कुछ कुछ कलम जैसी ही, बेचैनी उँगलियों में कसमसा रही है...छटपटाहट ऐसी है जैसे धुएं से ही कुछ लिख जाउंगी...सिगरेट पीने की आदत नहीं है कभी, पीते हुए लिखने की तो एकदम ही नहीं...पर ऐसा खालीपन सा है कि लगता है लंग्स कोलाप्स कर जायेंगे...जैसे निर्वात है, वक्युम...इसे भरने के लिए तेज तेज सिगरेट के कश खींचने होंगे...धुएं से शायद थोड़ी जान आये.

अभी अभी थक कर ऑफिस से लौटी हूँ...आज काफी तेज़ चलाई बाइक, बहुत दिनों बाद ९० छुआ है...पिछले कुछ दिनों में पहली बार फिर से महसूस हुआ कि जिन्दा हूँ...अब भी. शाम होते ही हवा को कुछ हो जाता है...साँस खींची नहीं जाती...हो सकता है बंगलोर में आजकल पोल्लुशन थोड़ा बढ़ गया हो...हो तो ये भी सकता है कि याद का कोई गट्ठर है सीने पर जो सियाही में नहीं घुल रहा हो. कुछ स्केच करना चाहिए...या शायद कलम से सच में लिखनी चाहिए. कीबोर्ड की आवाज़ में टूटने वाली तो नहीं है याद. हो ये भी सकता है कि याद कुछ भी ना हो...खालीपन तब ही तो है. ये कैसा अहसास है कि कभी लगता है साँस लेने को हवा नहीं है तो कभी लगता है हवा के दबाव से सारी शिराएं फट जायेंगी.

किताबें आधी पढ़ी रह जाती हैं...रात को चाँद दिखता है खिड़की से तो पर्दा गिरा देती हूँ...ऑफिस देर से जाती हूँ...कॉफ़ी पीना छोड़ रखा है...क्या हो रहा है?? सबका लिखा हुआ पढ़ती हूँ...सोचती हूँ कोई लिखे जो मेरे मन में चल रहा है...कहीं कुछ मिले तो लगे कि अकेली पागल नहीं हो रही हूँ...दुनिया में और कोई भी है जिसका मेरे इतना दिमाग ख़राब होता रहता है. पागलखाने पर फिल्में देखती हूँ, सोचती हूँ कितने खुशकिस्मत हैं वो लोग जो सदमे से पागल हो गए...एक मैं हूँ...धीरे धीरे सब कुछ छूटता जा रहा है...देखना, सुनना, महसूसना...जीना...लिखना...पढ़ना...सुनना...होना.

आह...काश!
कोई रात के ढाई बजे हों...अपनी बाइक उठा कर अकेली कहीं निकल पडूँ...किसी झील किनारे सिगरेट सुलगाऊं और तारों का अक्स धुएं के परदे के पार देखूं...फ्लास्क से निकाल के कॉफ़ी पियूं और उन सब लोगों को खुले आसमान के नीचे पुकारूं...इतना सब करके यकीन कर लूं कि देर रात सबको हिचकी आई होगी और किसी ने तो कमसेकम सोचा होगा कि इतने रात में एक वही पागल है...जगी होगी, चाँद देखा होगा और मुझे याद किया होगा.

उफ़ जिंदगी...ये कौन सा ज़ख्म है कि भरता नहीं! उदासियों...ये कौन सा फेज है कि गुज़रता नहीं!

14 February, 2011

तुम कब जाओगे उदास मौसम?

जाने वो कौन सा प्यार होता है कि जिसके होने से रूह के कण कण में से उजास फूटने लगती है...जाने तुम्हारी याद के बादल किस समंदर से उठते हैं, सदियों बरसने पर भी बंद नहीं होते हैं...

जब तक उपरी बात होती है, सब बहुत सुन्दर है...आँखों को लुभावना दिखता है, पर जहाँ थोड़ा भी गहरे उतर कर देखती हूँ तो पाती हूँ कि अँधेरे का कोई छोर ही नहीं है...कोई सीमा नहीं है...जैसे सामने बेहद ऊँची लहरें हैं जिनमें डूबने के अलावा कोई चारा ही नहीं है. और लगता ये भी है कि दिए में रोज बाती करना, तेल करना और शाम होते देहरी पर रखना जिसका काम था वो तो बिना त्यागपत्र दिए रुखसत हो रखी है. मुझे अपने लिए एक रेकोमेंडेशन लेटर चाहिए...कह सकते हैं कि एक तरह का चरित्र प्रमाण पत्र जो कि एकदम मेरे मन को सही सही ग्रेड दे सके. मनुष्य के कई प्रकार होते हैं काले और सफ़ेद के बीच...इन्हें आजकल खास तरह के ग्रे शेड वाले कैरेक्टर कहते हैं. ऐसी कोई value जो तय कर सके कि इस सियाह अँधेरे में कहीं उजाले की कोई किरण है भी कहीं...या कभी हुयी थी...या कभी होने की कोई सम्भावना है?

तुम...मन के हर अवसाद से खींच कर लाने को तत्पर और सक्षम भी...तुम तो हो नहीं आज...सामने मार्कशीट रखी है...पढ़ने में  नहीं आ रही है...पर लोग कहते हैं कि लाल स्याही है...दूर से चमकता है लाल रंग, खून के जैसे, रुक जाने के जैसे...  फुल स्टॉप...जिंदगी यूँ ही ख़त्म क्यों नहीं हुए जाती है. मार्कशीट पर किसी ऐसे इन्सान के हस्ताक्षर चाहिए जो कह सके कि मुझे जानता है...पूरी तरह, उतनी पूरी तरह जितना कि एक इन्सान दूसरे इन्सान को जान सकता है...अफ़सोस...कार्ड पर आत्मा के दस्तखत नहीं हो सकते. समाज बस मान्यता देता है आत्मा के रिश्तों को...पर उन गवाहियों को नहीं मानता. शर्त है कि खुद को गिरवी रखना होता है अगर बात साबित हो गयी...कि मेरे अन्दर कहीं से भी कोई भी रोशनी ना थी, ना है...और ना कभी होगी.

दर्द का ये कौन सा मौसम है कि गुज़रता ही नहीं...सावन नहीं गिरता, बहार नहीं आती. आज जबकि इश्क का दिन है...मैं कैसी बेमौसम बातें कर रही हूँ.
लव यू माँ. मिस यू मोर.

04 February, 2011

कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

ना छेड़ो ज़ख्म मेरे ऐसे बेख्याली में
क्या जानो तुम कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

तुम्हें मालूम कहाँ रात के टूटे वो पहर
कि आधी नींद लेके बदगुमान थे बहुत हम
जब कि ख्वाब में भी तुमने हाथ छोड़ा था
कि आधे जागने में भी मुझसे दूर थे बहुत तुम

हाँ वो बातें ही थी, कोरी ख्याली बातें थी
बस तुम कहते थे तो लगता था सच से रिश्ता है
तुम कहा करते थे मैं खूबसूरत हूँ बहुत
ये भी तो कहते थे इश्क हमेशा सा होता है

तुम्हें याद है तुम मुझको 'जान' कहते थे
मुझे गुरूर था मैं तुमको 'तुम' बुलाती हूँ
आज लफ़्ज़ों में आवाज़ ढूंढती हूँ फिर
मैं फिर उदास होके तुमको 'ग़म' बुलाती हूँ


ना छेड़ो ज़ख्म मेरे ऐसे बेख्याली में
क्या जानो तुम कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

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