07 March, 2011

दारुण!

ओ कवि,
सुनती हूँ की तुम्हारे ऊपर हैं
जिम्मेदारियां बहुत सी 

समाज, देश को आइना दिखाना
विषमताओं पर लिखना
गरीबों के लिए आवाज़ उठाना 
विद्रोह की आंच जलाये रखना 

कवि रे,
सुनती हूँ की उम्मीद, हिम्मत 
सिर्फ तुम्हारे पास हैं इनके बीज 

की लहू की फसलें उगाई जा रही हैं
काटे जा रहे हैं रिश्तों के जंगल 
बोई जा रही है त्रासदी
जोते जा रहे हैं अबोध, जुए में  

आह मेरे कवि!
सत्य को पल पल खरा करते 
तप रहे हो, गल रहे हो 

संसार का सबसे बड़ा दुःख है प्रेम
शायद भूख के बाद...मुझे मालूम नहीं 
फिर भी, मुझे जिलाने के लिए लिखो...कवितायें
क्योंकि तुम नहीं जानते ओ कवि

प्रेम और भूख से भी बड़ा एक दुःख है...
तुमसे प्रेम करने का दुःख...ओ कवि!

04 March, 2011

नीले पांवों वाली लड़की

बहुत सालों पहले जब घर बनवाया गया था तो सड़क से लगभग दो फुट ऊंचा बनवाया गया था...अनगिन घपलों और सावनों के कारण सड़क साल दर साल बनती रही...अब हालात ये थे कि हर बारिश में पानी बहकर अन्दर चला आता था और वो लड़की जो सिर्फ खिड़की से ही बारिश देखा करती थी उसके तलवे हमेशा सीले रहने के कारण पपड़ियों से उखड़ने लगे थे. 

उसे कुरूप होते अपने पैरों से बेहद लगाव होने लगा था...वैसे ही जैसे गालों से लुढ़ककर गर्दन के गड्ढे में जो आँसू ठहरता था उससे होता था. वो अक्सर दीवार में सर टिका कर रोती थी...पलंग भी नीचा था तो उसके पैर गीले फर्श से ठंढे होने लगते थे...खून की गर्मी का उबाल भी सालों पहले ठंढा हो गया था, बात बेबात तुनकने वाली लड़की अचानक से शांत हो गयी थी. उसी साल पहली बार सड़क के ऊंचे होने के कारण पानी घर में रिसना शुरू हुआ था.

लड़की ने बहुत कोशिश की...टाट के बोरे, प्लास्टिक दरवाजे के बीच में फंसा कर पानी अन्दर आने से रोकने की...पर ये पानी भी आँखों के पानी जैसा बाँध में एक सुराख ढूंढ ही लेता था. अगले साल तो पानी में उसकी चप्पल तैर कर इस कमरे से उस कमरे हो जाती थी. देर रात चप्पल ढूंढना छोड़ कर उसने नंगे पाँव ही चलना शुरू कर दिया. वो पहला साल था जब उसके पाँव ठंढ में गर्म नहीं हो पाए थे...वो पहला साल भी तो था जब बारिश के बाद धूप नहीं निकली थी...सीधे कोहरा गिरने लगा था...वो पहला ऐसा साल भी था जब वसंत में उसकी खिड़की पर टेसू के फूल नहीं मिले थे.

उसने वसंत के कुछ दिन खुद को बहलाए रखा कि शायद इनारावरण* में जंगलों की कटाई हो गयी हो, भू माफिया ने जमीन पर मकान बना दिए हों...वो चाह कर भी नहीं सोच पायी की वो लड़का जिसका कि नाम अरनव था और जिसने कि वादा किया था उसके लिए हर वसंत टेसू के फूल लाने का...वो अब बैंक पीओ है और चाहे उसे हर चीज़ के लिए फुर्सत मिले, हर सुख सुविधा उपलब्ध हो...वो अब दस किलोमीटर साईकिल चला कर उसके लिए टेसू नहीं लाएगा...लड़की को यक़ीनन सुकून होता जान कर कि जिसे वो हर लम्हा उम्मीद बंधाती आई है उसके सपने सच हो गए.

लड़की के कुछ अपने सपने भी थे...होली में टेसू के फूल के बिना रंग नहीं बने...होली फीकी रह गयी, वो इतनी बेसुध थी कि मालपुए में चीनी, दही बड़े में नमक...सब भूल गयी. उसकी आँखें काजल तो क्या ख्वाबों से भी खाली हो गयीं...इस बार सबने बस पानी से होली खेली. जब रंग न हों तो होली में गर्माहट नहीं रहती बिलकुल भी...वो घंटों थरथराती रही, पर उसके गालों को दहकाने अरनव नहीं आया.

सरकार ने सिंचाई की किसी परियोजना के तहत एक नदी का रुख दूसरी तरफ मोड़ दिया...इसमें इक छोटी धारा ठीक उसके घर के सामने वाली सड़क पर भी बहने लगी...उसके कागज़ की नाव तैराने के दिन बीत चुके थे...वैसे भी बिना खेवैया के कब तक बहती नाव...यादों में जब वो डूबती उतराती है तो उसे बहुत साल पहले की एक शाम याद आती है जब अरनव ने जाने कैसे हिम्मत कर के उससे पुछा था 'एक बार तुम्हें गले लगा सकता हूँ, प्लीज' और लड़की कुछ शर्म, कुछ हडबडाहट में एकदम चार कदम पीछे हट गयी थी. आज इन भीगी, सर्द रातों में वो एक लम्हा तो होता...उसकी लौ में हौले हौले पिघल जाने वाला एक लम्हा...एक खून में गर्मी घोल देने वाला लम्हा...कि तब ऐसी ठंढ शायद नहीं लगती कभी भी.

उसके पैर नीले पड़ने लगे थे...चप्पल जाने कहाँ खो गयी थी...सामने का रास्ता नदी बन गया था. वो अपने ही जिस्म में कैद हो के रह गयी थी...जिंदगी भर के लिए. 

03 March, 2011

कॉफी हाउस की आखिरी टेबल

आज का दौर बंद होते काफी हॉउस का है...पुरानी ठहरी हुयी इमारतों की जगह रौशनी और शोर वाली जगहें ले रही हैं जहाँ कुछ स्थिर नहीं रहता, सब कुछ लम्हे भर को होता है. वैसे वो इस लम्हे भर की जिंदगी की की जियादा खिलाफत नहीं करती फिर भी सीसीडी में भी दिन भर बैठ के कॉफ़ी पीने का पैकेज पर ध्यान नहीं देती...उसे कभी इतनी नफासत पसंद नहीं आई. 

बंगलोर का कॉफी हॉउस बंद हुए एक साल से ऊपर होने हो आया...और इतने दिनों से वो वैसी दूसरी जगह तलाश कर रही है जहाँ वो इत्मीनान से कुछ देर खुद से मिल सके. कॉफी हॉउस में आखिरी टेबल की एक टांग थोड़ी हिली हुयी थी...उन खास दिनों जब उसे कुछ स्केच करने का मन करता...वो पहले घंटों अपने बैग में ढूंढ कर कोई फ़ालतू कागज़ निकलती और टेबल का लड़खड़ाना बंद करती और जाने किन आँखों की तलाश शुरू करती पेंसिल के पतले रास्तों पर. 

यूँ तो कई कारणों से उसे इस जगह से लगाव था...मगर गहरे उतरो तो वजह एक ही नज़र आती थी, ये बंगलोर की कुछ उन जगहों में से थी जिसकी याद उसे शादी से पहले की थी. बहुत पहले बचपन में पापा के साथ जब बंगलोर आई थी, तब की...ताज़ा बनी फ़िल्टर कॉफी की खुशबू...पहली बारिश की खुशबू के बाद उसे सबसे जियादा पसंद थी. 

घर और ऑफिस के बीच जब वो एकदम ही खो जाने वाली होती थी तो अपनी तलाश करने के लिए कॉफी हॉउस आया करती थी. तीन चार घंटों में वो वहां की हवा में एकदम घुल जाया करती थी...वापस आने पर हफ़्तों उसके बालों से फ्रेशली ब्रूड कॉफी की महक आती थी और उसकी आँखों में गज़ब की उर्जा. उसके अन्दर जो दूसरी लड़की थी उसकी कभी उम्र ही नहीं बढ़ी...जिन्दा, धड़कती हुए नज़्म सी वो लड़की...जिसके होटों पर बसे दिन खूबसूरत हो जाए. उससे मिल कर किसी को भी अच्छा लगता.

कॉफी हाउस में अक्सर एक काम और किया करती थी वो...छद्म नाम से कहानियां और लेख लिखने का...यूँ तो उसके करीबी कुछ लोगों को मालूम था की वो किसी और नाम से भी लिखती है...पर चूँकि उनमें से किसी को बहुत ज्यादा लिखने पढने में दिलचस्पी नहीं थी...उन्होंने पूछा नहीं...इसने बताया नहीं. शादी, परिवार...बच्चे इन सब में उसने बहुत कुछ समझा था और अपने आप को बदला था...ऐसा ढाला था की सब कुछ सुनियोजित ढंग से चले. इस सबमें भी उसके अन्दर की लड़की के बागी तेवर कभी कम नहीं हुए...उसने बेहद मेहनत से लड़की को खुद के अन्दर खामोश रहना सिखाया...और वादा किया की वो ताउम्र उससे मिलने आती रहेगी...उसी कॉफी हाउस में. 

वादे की मियाद पूरी होने ही को है...कल ऑनलाइन ऑक्शन था कॉफी हाउस की काफी चीज़ों का. उसने आखिरी टेबल खरीद ली है...अब उसे रखने को एक कोना चाहिए...पर इतने बड़े शहर में उसे कोई जगह नहीं मिल रही.

आप किसी ऐसी जगह को जानते हैं जहाँ एक पुराना, टूटी टांग वाली कॉफी टेबल और एक बागी लड़की एक साथ चैन से रह सकें...कोई ताउम्र जैसे समय के लिए?

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लिखने का मूड इस पोस्ट पर किशोर जी के कमेन्ट से आया. 

26 February, 2011

लौट आने वाली पगडण्डी

मुझ तक लौट आने को जानां
ख्वाहिश हो तो...
शुरू करना एक छोटी पगडण्डी से 
जो याद के जंगल से गुजरती है 
के जिस शहर में रहती हूँ
किसी नैशनल हायवे पर नहीं बसा है 

धुंधलाती, खो जाती हुयी कोहरे में 
घूमती है कई मोड़, कई बार तय करती है
वक़्त के कई आयाम एक साथ ही 
भूले से भी उसकी ऊँगली मत छोड़ना 

गुज़रेंगे सारे मौसम
आएँगी कुछ खामोश नदियाँ
जिनका पानी खारा होगा
उनसे पूछना न लौटने वाली शामों का पता

उदास शामों वाले मेरे देश में
तुम्हें देख कर निकलेगी धूप
सुनहला हो जाएगा हर अमलतास 
रुकना मत, बस भर लेना आँखों में

मेरे लिए तोहफे में लाना 
तुम्हारे साथ वाली बारिश की खुशबू 
एक धानी दुपट्टा और सूरज की किरनें
और हो सके तो एक वादा भी 

लौट आने वाली इस पगडण्डी को याद रखने का 
बस...

22 February, 2011

डगर चलत छेड़े श्याम सखी री

Establishing Shot: Ext, Evening, Garden
हरियाला सा बाग़ है...तोतों की चीख-चिल्लाहट और मोर के शोर से गुलज़ार सा हुआ है...शाम का वक़्त और आसमान में बादलों के कुछ सांवरे कतरे.
फेड इन होती हुयी आवाज़...मीरा! अरीओ मीरा!!.
सेट पर पर एक चपल किशोरी दौड़ती हुयी चढ़ती है और कोने कोने ढूंढती है, पेड़ की पीछे, फुनगी के ऊपर...मीरा...कहाँ चली गयी शैतान! काले काले बदल घुमड़ रहे हैं और इसे अभी छुपा छुपी खेलने कि पड़ी है...घर जा के खुद तो मार खाएगी ही, मुझे भी खिलवाएगी.

झील किनारे एक पत्थर पर एक सलोनी सी लड़की बैठी है...बड़ी बड़ी आँखें, थोड़ा फैला सा काजल...और कमर तक के बाल...उनींदी, सपनीली आँखें झपकती है पल पल में...सखी से कहती है...
'देख ना...कैसी सांवली धनक फैली हुयी है...मेरा मन कहता है आज ब्रिन्दावन में बारिश हो रही होगी...चल ना भाग चलते हैं, वो डमरू चाचा की बस है ना..सुना है सीधे ब्रिन्दावन रूकती है...देखें तो सही आज कान्हा कैसे रास रचा रहा है...चल ना...बारिश होगी...बादल की गरज पर हम थिरकेंगे....बिजली से तेज हम नाचेंगे. यमुना के तट पर कान्हा बांसुरी बजा रहा है...देख ना, तुझे उसकी मोरपंखी दिखी?'
'बावली हो गयी है...कहाँ है कोई...चल ना, जल्दी अँधेरा हो जाएगा, माँ खाना बंद कर देगी मेरा' और वो लगभग खींचती हुयी उस खोयी हुयी लड़की को, जिसका कि नाम मीरा है ले चलती है. मीरा का प्रलाप बंद नहीं होता है...
'कान्हा..तुम सच में बड़े दुष्ट हो...किसी और को नज़र नहीं आते, और मुझे इतना सताते हो...मैंने ना कहा था कि मुझे कोई ब्रिन्दावन जाने नहीं देगा, मेरी सगी...बचपन की सहेली ये भी मुझे घर ले जा रही है खींच कर...हाय कान्हा, मैंने क्या किया है जो तुम मुझे इतना परेशान करते हो?
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interiors of house

गर्मियों का एक दिन...अनगिन लोगों के उस संयुक्त परिवार में हमेशा कोई न कोई आता जाता ही रहता है...ऐसे में बच्चों को सबसे जरूरी काम सौंपा गया है...आने वालों के लिए घड़े से पानी निकाल कर, ग्लास में ले जाना...बाहर के चबूतरे के ऊपर आम के पेड़ की छाया है, दिन में उधर गर्मी थोड़ी कम लगती है. मीरा को उसकी माँ ने पानी लेने भेजा है...वो घड़े के पास खड़ी अपने ही ख्यालों में गुम है...पिछले इतवार गुरूजी ने छोटा ख्याल सिखाया था...डगर चलत छेड़े श्याम सखी री, मैं दूँगी गारी, निपट अनाड़ी...पनिया भारत मोरी गागर फोड़ी, नाहक बहियाँ मरोड़ी झकोरी...मीरा की माँ पुकार रही है...बरामदे के मेहमान बिना पानी के मरे जा रहे हैं, मगर मीरा पानी लेकर कैसे आये भला, कान्हा ने मरोड़ दी हैं उसकी बाहें, घड़े में से तो सारा पानी गिर ही गया है...और अभी भी कान्हा चिढ़ा ही रहा है उसे. अब वो कान्हा से झगड़े पहले या माँ को सफाई दे की कान्हा ने घड़ा फोड़ दिया है.
बरामदे के मेहमान...कुछ नकचढ़ी फूफीयां कुछ पिताजी के गाँव के अन्य लोग...महिलाओं की टोली में खुसुर फुसुर होने लगी है...मैं न कहती थी, मत रखो बेटी का नाम मीरा, अब देखो न सारे वक़्त खोयी ही रहती है...कान्हा कान्हा...अब पूछ न उससे, कान्हा बियाह करेगा? अरे कान्हा ने तो राधा को भी बड़े आंसू रुलाये थे, व तो बावली ही थी, और अब ये है, पागल हो गयी है...वरना लड़की बड़ी गुनी है. एक कान्हा के पीछे भागी फिरती है येही खोट है बस.
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doctor's cabin
मीरा के माता पिता डॉक्टर के साथ बैठे हुए हैं...सामने कई सारी रिपोर्ट्स हैं...डॉक्टर काफी गंभीर मुद्रा में है...ह्म्म्म तो समस्या ये है की मीरा को लगता है की कान्हा इसका बचपन का सखा है और इसके साथ बातें करता है खेलता है...ये उसके बारे में बातें करती रहती है...ये एक काफी गंभीर मनोवैज्ञानिक बीमारी है...इसे सिजोफ्रेनिया कहते हैं. इसमें व्यक्ति अपने आसपास काल्पनिक किरदार रच लेता है. समस्या वक़्त के साथ और बिगड़ती जाती है. सही समय पर दवाओं और इलाज से इसके सिम्टम्स कंट्रोल किये जा सकते हैं. आप मीरा को दवाइयां ध्यान से खिलाइए...मैं दे देता हूँ...और इसे मेरे पास दिखाने लाया कीजिये, हर हफ्ते. और इसे ऐसे लोगों से दूर रखिये जो इसे ऐसी काल्पनिक कहानियों पर विश्वास करने देते हैं...आप लोग रैशनल लोग हैं.
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इलाज से धीरे धीरे मीरा की हालत में सुधार आने लागा...अब वो डॉक्टर के यहाँ जाने के नाम से ही चहकने लगती थी. घर वालों को भी ये डॉक्टर बहुत पसंद था...लम्बा, सांवला, घुंघराले बालों वाला...और एक दिन डॉक्टर ने मीरा का हाथ मांग लिया. बड़ी धूम धाम से शादी हुयी उनकी...मीरा विदा हुयी तो जैसे पेड़ पौधे तक उदास हो गए. 
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doctor's house...room interiors
मीरा बचपन के स्केच किये कुछ कागज़ निकाल रही है...और गुनगुना रही है...कैमरा उसके स्केचेस पर जूम होता है...जहाँ कान्हा के रूप में हूबहू डॉक्टर की स्केच है. 
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आखिरी सीन में नारद का प्रवेश...नारायण नारायण...प्रभु आपकी माया कोई नहीं समझ सका है आज तक. राधे श्याम...राधे श्याम!

16 February, 2011

मध्यांतर

उँगलियों को सिगरेट की अजीब सी तलब लगी है...मन बावरा भागते हुए फिर दिल्ली पहुँच गया है जहाँ घना कोहरा लैम्प पोस्ट से गिर रहा है...घनी ठंढ है और ऊँगली में फंसी हुयी है सिगरेट...कुछ कुछ कलम जैसी ही, बेचैनी उँगलियों में कसमसा रही है...छटपटाहट ऐसी है जैसे धुएं से ही कुछ लिख जाउंगी...सिगरेट पीने की आदत नहीं है कभी, पीते हुए लिखने की तो एकदम ही नहीं...पर ऐसा खालीपन सा है कि लगता है लंग्स कोलाप्स कर जायेंगे...जैसे निर्वात है, वक्युम...इसे भरने के लिए तेज तेज सिगरेट के कश खींचने होंगे...धुएं से शायद थोड़ी जान आये.

अभी अभी थक कर ऑफिस से लौटी हूँ...आज काफी तेज़ चलाई बाइक, बहुत दिनों बाद ९० छुआ है...पिछले कुछ दिनों में पहली बार फिर से महसूस हुआ कि जिन्दा हूँ...अब भी. शाम होते ही हवा को कुछ हो जाता है...साँस खींची नहीं जाती...हो सकता है बंगलोर में आजकल पोल्लुशन थोड़ा बढ़ गया हो...हो तो ये भी सकता है कि याद का कोई गट्ठर है सीने पर जो सियाही में नहीं घुल रहा हो. कुछ स्केच करना चाहिए...या शायद कलम से सच में लिखनी चाहिए. कीबोर्ड की आवाज़ में टूटने वाली तो नहीं है याद. हो ये भी सकता है कि याद कुछ भी ना हो...खालीपन तब ही तो है. ये कैसा अहसास है कि कभी लगता है साँस लेने को हवा नहीं है तो कभी लगता है हवा के दबाव से सारी शिराएं फट जायेंगी.

किताबें आधी पढ़ी रह जाती हैं...रात को चाँद दिखता है खिड़की से तो पर्दा गिरा देती हूँ...ऑफिस देर से जाती हूँ...कॉफ़ी पीना छोड़ रखा है...क्या हो रहा है?? सबका लिखा हुआ पढ़ती हूँ...सोचती हूँ कोई लिखे जो मेरे मन में चल रहा है...कहीं कुछ मिले तो लगे कि अकेली पागल नहीं हो रही हूँ...दुनिया में और कोई भी है जिसका मेरे इतना दिमाग ख़राब होता रहता है. पागलखाने पर फिल्में देखती हूँ, सोचती हूँ कितने खुशकिस्मत हैं वो लोग जो सदमे से पागल हो गए...एक मैं हूँ...धीरे धीरे सब कुछ छूटता जा रहा है...देखना, सुनना, महसूसना...जीना...लिखना...पढ़ना...सुनना...होना.

आह...काश!
कोई रात के ढाई बजे हों...अपनी बाइक उठा कर अकेली कहीं निकल पडूँ...किसी झील किनारे सिगरेट सुलगाऊं और तारों का अक्स धुएं के परदे के पार देखूं...फ्लास्क से निकाल के कॉफ़ी पियूं और उन सब लोगों को खुले आसमान के नीचे पुकारूं...इतना सब करके यकीन कर लूं कि देर रात सबको हिचकी आई होगी और किसी ने तो कमसेकम सोचा होगा कि इतने रात में एक वही पागल है...जगी होगी, चाँद देखा होगा और मुझे याद किया होगा.

उफ़ जिंदगी...ये कौन सा ज़ख्म है कि भरता नहीं! उदासियों...ये कौन सा फेज है कि गुज़रता नहीं!

14 February, 2011

तुम कब जाओगे उदास मौसम?

जाने वो कौन सा प्यार होता है कि जिसके होने से रूह के कण कण में से उजास फूटने लगती है...जाने तुम्हारी याद के बादल किस समंदर से उठते हैं, सदियों बरसने पर भी बंद नहीं होते हैं...

जब तक उपरी बात होती है, सब बहुत सुन्दर है...आँखों को लुभावना दिखता है, पर जहाँ थोड़ा भी गहरे उतर कर देखती हूँ तो पाती हूँ कि अँधेरे का कोई छोर ही नहीं है...कोई सीमा नहीं है...जैसे सामने बेहद ऊँची लहरें हैं जिनमें डूबने के अलावा कोई चारा ही नहीं है. और लगता ये भी है कि दिए में रोज बाती करना, तेल करना और शाम होते देहरी पर रखना जिसका काम था वो तो बिना त्यागपत्र दिए रुखसत हो रखी है. मुझे अपने लिए एक रेकोमेंडेशन लेटर चाहिए...कह सकते हैं कि एक तरह का चरित्र प्रमाण पत्र जो कि एकदम मेरे मन को सही सही ग्रेड दे सके. मनुष्य के कई प्रकार होते हैं काले और सफ़ेद के बीच...इन्हें आजकल खास तरह के ग्रे शेड वाले कैरेक्टर कहते हैं. ऐसी कोई value जो तय कर सके कि इस सियाह अँधेरे में कहीं उजाले की कोई किरण है भी कहीं...या कभी हुयी थी...या कभी होने की कोई सम्भावना है?

तुम...मन के हर अवसाद से खींच कर लाने को तत्पर और सक्षम भी...तुम तो हो नहीं आज...सामने मार्कशीट रखी है...पढ़ने में  नहीं आ रही है...पर लोग कहते हैं कि लाल स्याही है...दूर से चमकता है लाल रंग, खून के जैसे, रुक जाने के जैसे...  फुल स्टॉप...जिंदगी यूँ ही ख़त्म क्यों नहीं हुए जाती है. मार्कशीट पर किसी ऐसे इन्सान के हस्ताक्षर चाहिए जो कह सके कि मुझे जानता है...पूरी तरह, उतनी पूरी तरह जितना कि एक इन्सान दूसरे इन्सान को जान सकता है...अफ़सोस...कार्ड पर आत्मा के दस्तखत नहीं हो सकते. समाज बस मान्यता देता है आत्मा के रिश्तों को...पर उन गवाहियों को नहीं मानता. शर्त है कि खुद को गिरवी रखना होता है अगर बात साबित हो गयी...कि मेरे अन्दर कहीं से भी कोई भी रोशनी ना थी, ना है...और ना कभी होगी.

दर्द का ये कौन सा मौसम है कि गुज़रता ही नहीं...सावन नहीं गिरता, बहार नहीं आती. आज जबकि इश्क का दिन है...मैं कैसी बेमौसम बातें कर रही हूँ.
लव यू माँ. मिस यू मोर.

04 February, 2011

कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

ना छेड़ो ज़ख्म मेरे ऐसे बेख्याली में
क्या जानो तुम कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

तुम्हें मालूम कहाँ रात के टूटे वो पहर
कि आधी नींद लेके बदगुमान थे बहुत हम
जब कि ख्वाब में भी तुमने हाथ छोड़ा था
कि आधे जागने में भी मुझसे दूर थे बहुत तुम

हाँ वो बातें ही थी, कोरी ख्याली बातें थी
बस तुम कहते थे तो लगता था सच से रिश्ता है
तुम कहा करते थे मैं खूबसूरत हूँ बहुत
ये भी तो कहते थे इश्क हमेशा सा होता है

तुम्हें याद है तुम मुझको 'जान' कहते थे
मुझे गुरूर था मैं तुमको 'तुम' बुलाती हूँ
आज लफ़्ज़ों में आवाज़ ढूंढती हूँ फिर
मैं फिर उदास होके तुमको 'ग़म' बुलाती हूँ


ना छेड़ो ज़ख्म मेरे ऐसे बेख्याली में
क्या जानो तुम कि ऐसे ज़ख्म से रिसता क्या है

02 February, 2011

तिरासी

ड्राफ्ट में तिरासी पोस्ट्स पड़ी हुयी हैं...तीन साल से ऊपर होने को आये...शब्दों को सकेर के बस इतना ही जमा कर पायी हूँ कि छोटी बड़ी कुछ तिरासी पोस्ट्स हैं जो किसी की आँखों तक नहीं पहुंची...किसी की बातों से दुलरायी नहीं गयीं, अपेक्षित...उदास, मुंह ढक के पड़े बासी अलफ़ाज़. कई बार सोचा है कि डिलीट ही कर दूं, कि इस बिखरे हुए कूड़ेदान में ऐसा क्या है जिसका बचा रहना जरूरी है...कि जैसे इनके होने में मेरी दुनिया का स्थायित्व है...कि प्रलय आ जायेगी इनके ना होने से.

इनमें से बहुत कम अधूरी हैं, जान के छोड़ी हुयी...किसी उदास दिन पूरी होने को अभिशप्त कुछ कवितायें, विरह में जलती कुछ कहानियां और किसी विद्रूप से सच को दिखाने वाली कुछ बेतरतीब घटनाएं. सारी ख्वाहिशों में एक है इनका प्रिंट निकाल कर उनकी होली जलाने का अरमान. रात आधी होने वाली है कायदे से, पर मेरी तो अभी शुरू हुयी है...आजकल नींद नहीं आती रातों को, बस ऐसे ही उलूल जलूल ख्याल आते हैं. कुछ बेहद सच दिखने वाले सपने होते हैं...जिन्हें लिखना भी उनसे मुक्ति पाना नहीं होता. मैं अपने ही तिलिस्म का दरवाजा भूल गयी हूँ...सिमसिम...गुमसुम...तुम तुम

ऐसी जितनी रातें नींद नहीं आती...और आजकल ऐसा अक्सर हुआ करता है, मेरा वसीयतें लिखने का मन करता है...सोचती हूँ  लॉ कर लूं. देर रात किसी मरते हुए कवि की वसीयत खोल कर पढूंगी जिसमें उसकी प्रेमिका का नाम होगा और होगी चंद किताबों के कवर...जो किसी और नाम से छपेंगे. कितने अजीब होते हैं ना कवि, आज के दौर में भी किसी के नाम की आखिरी साँस तक हिफाज़त करते हैं. ऐसी कहानी आज के खबरी चैनेल के हाथ लग जाती तो क्या चटाखेदार हेडलाईन  बनती. कॉलेज फर्स्ट इयर के क्लासेस भी याद आते हैं...जब जर्नालिस्म सच में अच्छी चीज़ हुआ करती थी, और कवि इज्ज़तदार. यादों के इस कोलाज में कवि की घुसपैठ कैसे हो गयी मालूम नहीं...हमें जब साहित्य पढाया गया उसमें कवि तो थे ही नहीं. ये कवि बहुत  जीवट प्राणी होता है...हजारों मोटी मोटी मॉस-कॉम  की किताबों के बीच भी सफोकेट नहीं होता...घबराता नहीं. कुछ बहुत दिन पहले एक मित्र से बात हो रही थी...वो आश्चर्य कर रहा था कि सच में एथिक्स इन जर्नालिस्म नाम का पेपर होता था तुम लोगों को.
बंगलोर का मौसम बहुत सुहाना है...यूँ तो यहाँ अक्सर शाम को बारिश होती है, पर कुछ ऐसी भी शामें होती हैं जब उदासी बरसती है...आज की शाम कुछ वैसी ही थी. खाली जगह भरने को कुछ नया लिखने का मन नहीं किया...तो पुरानी पोस्ट्स देख रही थी. अधूरे रिश्ते जैसे...हेतु हेतु मद भूतकाल...अगर ऐसा हुआ होता तो वैसा होता. (उदाहरण...अगर तुम आज इस शहर में होते तो शाम खूबसूरत लगती.)

जिंदगी में कुछ डेफिनिशन/परिभाषाएं जरूरी होती हैं...ड्राफ्ट...कर रही हूँ जिंदगी...काफी दिनों से मेरी शाम में अटकी पड़ी है...
परिभाषाएं...एक बेहद खूबसूरत सी अब्सोलुट वोदका..वनिला, एक ग्लेंफिदिच सिंगल माल्ट की गहरी हरी कोर्क लगी... मेरी इच्छा है कि हरी बोटल में रजनीगंधा के फूल डाल दूं...और सफ़ेद वाली में गुलाब के फूल. खुशबू में नशा भी तो तब शायद. ऐसे खूबसूरत गुलदान किसी के घर में होंगे भला?
देर रात...वनिला और माल्ट की मदहोश महक...कुछ अधूरे लम्हे. जिंदगी. तुम सी.

29 January, 2011

चिरयुवा

अपने शहर से बहुत दूर एक शहर होता है...जिसकी पेंच भरी गलियां हमारी आँखों ही नहीं पैरों को भी याद होती हैं...नक्शा कितना भी पुराना हो जाए एक कमरा होता है, जो गायब नहीं होता...भूलता नहीं...बूढ़ा नहीं होता...हम सबके अन्दर एक कमरा चिरयुवा रहता है.

इस कमरे की खिड़कियों में अमलतास दिखता है...अमलतास, लॉन्ग डिस्टेंस रिलेशनशिप का प्रतीक...आँखों से साल भर सिंचता है, और सिर्फ जब उसकी आमद होती है तो वासंती रंग जाता है. पोर पोर नाच उठता है जैसे पीली पंखुड़ियाँ हवा में उड़ी जाती हैं कमरे के अन्दर तक और फर्श पर कालीन बिछ जाता है. जैसे मन पर तुम्हारी याद का मौसम आता है, फाग गाता हुआ...सुना है पिछले बरस तुम्हारी शादी हो गयी है...कोहबर में वो दूसरा नाम किसका था, वो तो बताना...मुझे उसके नाम की दुआएं भी तो मजार पर बाँधनी हैं.  

जिस दौर में रजनीगंधा सात रुपये में और एक गुलाब का फूल पांच रुपये में मिलता था...उस दौर में इस कमरे में हमेशा ये फूल साथ दिखते थे...एक खुशबू के लिए और एक इश्क के लिए. जब तक रजनीगंधा की आखिरी कली ना खिल जाए गुलाब भी अपनी पंखुड़ियों में मासूमियत बरक़रार रखता था. बारह रुपये में उस कमरे में रौनक आ जाया करती थी. इतने दिन हो गए, वो फूल मुरझाते नहीं हैं, जाने कौन से अमृत घाट से पानी आता है. इश्क की तरह वो दो फूल भी हैं...पुनर्नवा.

किसी त्यौहार, शायर दीवाली पर...जब इश्वर निरिक्षण करने उतरे थे...तो मेरा घरकुंडा उन्हें बहुत पसंद आया था, अल्पना में मैंने कोई नाम कहाँ लिखा था...उसी वक़्त इश्वर ने कमरे को वरदान दिया 'पुनः पुनर्नवा भवति' बस, कमरा तबसे हमेशा नया ही रहता है. कहीं से भी उग आता है...दीवारों से, आँखों से, पैरों में...सड़कों पर...बादलों में....कहीं भी.   

सच और वर्चुअल आजकल बहुत से चौराहों पर मिल रहे हैं...तो सोच रही हूँ...कमरे को गूगल मैप पर डाल दूं कि ढूँढने से किसी को भी मिल जाए. इस कमरे में बहुत सी धूप खिलती है और याद के टेसू लहकते हैं...कुछ जवाबी पोस्टकार्ड रहते हैं जिनपर बहुत सी गलियों का पता लिखा रहता है...काफी दिनों तक मैंने कमरे पर ख़त भेजे थे, हमेशा जवाबी पोस्टकार्ड पर ही...वो खुले हुए ख़त मेरी पूरी जिंदगी की कहानी हैं. पर मेरे पोस्टकार्ड किसी भी पते पर वापस नहीं आये...जाने कौन उन खाली पीले पन्नों पर अपनी कहानियां लिख के भेजेगा. 

उस कमरे की असली चाबी कई दिनों पहले खो गयी थी...डुप्लीकेट चाबी है मेरे पास, तुम्हारे पास कोई चाबी है या बस खिड़की से कमरा देख कर वापस आते हो? 

28 January, 2011

मौसम मिस-मैनेजमेंट

तुम ही नहीं आये हो बस, वरना इस साल के मौसमों में तो कोई खराबी नहीं है.

बारिश कमोबेश पूरे दो महीने रही है, और पूरे वक़्त मेरी चाही हुयी शामों को फुहारें पड़ी हैं...गिनाई हुयी दोपहरों को मूसलाधार बारिश हुयी है ताकि मुझे अपने ऑफिस डेस्क पर बारिश का शोर सुनाई पड़ता रहे और व्यस्तताओं वाले दिन मैं बारिश को महसूस करने के लिए काम का हर्जा ना करूँ. बादल सामने मुंह फुला कर खड़े हैं कि हमारी कोई गलती नहीं है फिर भी डांट सुनवाती हो. अब तुम इस बारिश नहीं आये तो उदास थी मैं...बाकी सबने को पूरी कोशिश की थी.

कोहरा एक कोने में बिसूर रहा है कि अब तो तुम्हारी जिद पर बंगलोर भी आना पड़ा मुझे...दिल्ली कितनी खफा थी, पर तुम्हारे लिए मुंह अँधेरे उठ कर भागता आया हूँ...याद है पिछली लॉन्ग ड्राइव, तुम चार बजे उठ कर नंदी हिल्स जाना चाहती थी, ख्वाब में कोहरा देखा था तुमने...तुम्हारे एक ख्वाब की खातिर हांफता दौड़ता कितनी दूर पहाड़ों से भागा आया तुम्हारे घर के नीचे...कि तुम्हारे रास्ते कि शुरुआत हसीन हो...अब तुम अकेले क्यों जा रही थी इसका मुझसे क्या लेना देना. मेरी शिकायत लगाने की क्या जरूरत थी? इस साल जाड़ों का मौसम था भी तो एकदम परफेक्ट...ठंढ बस इतनी कि उसके बहाने तुम्हारा हाथ अपने हाथों में ले सकूँ...ज्यादा ठंढ पड़ती तब तो मुझे ही डांट देते ना कि दस्ताने लेकर चला करो. पर तुम आये ही नहीं तो जाड़ों के इस मौसम का करती भी तो क्या.

हाँ गर्मी थोड़ी बदतमीज थी...पर उससे कब उम्मीद रही है सुधरने की...मौसमों के स्कूल की सबसे जिद्दी बद्द्दिमाग बच्ची...कुछ कुछ मुझे अपने बचपन की याद भी तो दिलाती है...लू के थपेड़े, आलसी दोपहरें जिनमें करने को कुछ ना हो...कॉलेज की भी छुट्टी...पर गर्मियों में गमलों में पहली बार फूल खिले थे, घर में कश्मीर की वादी उतर आई थी. तुम्हें याद है जब तुम्हारे बिना कश्मीर गयी थी, उधर पतझड़ का मौसम था और मैंने कितने सूखे पत्ते उठा लिए थे...तुम्हें छोड़ कर आते हुए तुम्हारे चेहरे की तरह जर्द थे पत्ते...खूबसूरत और उदास.

पर हर मौसम से ज्यादा खफा है मुझसे बहार...वो तो अपनी सखी थी, बचपन की दोस्त, आत्मा का अंश...कि जिसके खिलते अमलतास ने हर ज़ख्म पर फाहे रख दिए हैं...लहकते गुलमोहर ने ही तो सिखाया है कि किस तरह प्यार हर खालीपन को भर देता है...जमीन तक पर लाल पंखुड़ियों की चादर बिछ जाती है...इस बार बहार के आने पर मैं उसके गले नहीं लगी. ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था...ऐसा कोई भी दर्द तो नहीं तो उसको नहीं पता. फिर तुम्हारे नहीं होने का ये कौन सा ज़ख्म है जिसे किसी से बांटना भी नहीं चाहती मैं.

साल के सारे मौसम अपनी अपनी पारी खेल कर जा चुके हैं...खुदा हाथ बांधे कमरे में इधर से उधर टहल रहा है, मैं बोल रही हूँ कि इनके प्रॉब्लम identification डिपार्टमेंट में गड़बड़ है...समस्या कभी भी मौसमों की थी ही नहीं...खामखा कितने लोगों को काम में लगा दिया. सीधी सी समस्या थी...तुम्हारा मेरे पास ना होना...उसका उपाय करते तो मैं कितनी खुश रहती...पर इनको  पूरा साल लगा ट्रायल और एरर में...अब जा के समझ आया है. रिसोर्सेस की बर्बादी...कोहरा, बादल, गर्मी, गुलमोहर...सब परशान रहे एक मुझे खुश रखने के लिए...खुदा ने बस तुम्हें भेज दिया होता.

मौसमों का नया साल शुरू होने को है...तुम कब आ रहे हो जान?

26 January, 2011

अ वीकेंड इन बैंग्कोक

view from the windows
पिछले वीकेंड हम बंगकोक घुमने गए थे. रहने के लिए सातवी मंजिल पर काफी बड़ा सा सर्विस अपार्टमेन्ट था...फ्रेंच विंडोस, परदे हटाते ही सामने अनगिन ऊंची इमारतें...और स्काईट्रेन की पटरी जो ठीक सामने मोड़ लेती थी...हर कुछ देर में वहां एक ट्रेन गुज़रती थी और मुझे ये नज़ारा बेहद पसंद आता था.

कमरे में फर्श से छत तक शीशे लगे हुए थे, लगता था हवा में झूलता कमरा है. खिड़की के पास खड़े होकर देखती थी तो दूर तक अट्टालिकाएं नज़र आती थी. जमीन पर दौड़ती भागती बहुत सी गाड़ियाँ. शहर में गज़ब की उर्जा महसूस हुयी. रात की फ्लाईट थी तो थक के बाकी लोग दिन में आराम कर रहे थे और मैं शीशे पर कहानियों को उभरते देख रही थी. मुझे दिन में वैसे भी नींद नहीं आती. बंगकोक में जो सबसे पहली चीज़ नोटिस की वो ये कि यहाँ सड़कों से ज्यादा फ़्लाइओवेर हैं. सब कुछ हवा में दौड़ता हुआ...रंग बिरंगी टैक्सी, गुलाबी, नारंगी, हरी...एयरपोर्ट से शहर आते हुए थोड़ी देर में सारी इमारतें अचानक से लम्बी हो गयी दिखती हैं. शहर नए और पुराने का मिश्रण है...मैंने बहुत सालों बाद टीवी अन्टेना देखे, एक छत पर लगभग दर्जनों.

वात फ्रा केव 
बंगकोक को सिटी ऑफ़ एंजेल्स कहते हैं...थाईलैंड में अयोध्या की राजधानी हुआ करता था ये शहर. यहाँ आ कर पता चला कि थाईलैंड की अपनी रामायण है. यहाँ बहुत ऊँचे और खबसूरत मंदिर हैं जिन्हें 'वात' कहते हैं. यहाँ का सबसे बड़ा मंदिर राजा के महल में है...वात फ्रा केव, हम पूरा परिसर घूम के देख सकते हैं. बड़े बड़े दानव जैसी मूर्तियाँ पूरे परिसर में दिखती हैं पर असल में ये यक्ष हैं, पूरे मंदिर में ऐसे बारह यक्ष हैं जो इसकी रक्षा करने के लिए तैनात रहते हैं.

वात फ्रा केव के मंदिर पूरे सोने की तरह चमकते हैं, जब हम गए थे तो इत्तिफाक से आसमान भी बहुत सुन्दर था, नीले आसमान में सफ़ेद बदल...फोटो खींचने में भी बहुत मज़ा आया. पूरे मंदिर में बहुत बारीक़ नक्काशी की गयी थी. वहां के बुद्ध मंदिर हमारे तरफ के मंदिर जैसे ही थे...उधर नाग, यक्ष, गरुड़ सबके मूर्तियाँ भी थी. रख रखाव बेहद अच्छा था, बेहद साफ़ सफाई थी. ना केवल मंदिर या महल के परिसर में, बल्कि बाथरूम भी एकदम साफ़ सुथरे. लगा कि काश हमारे यहाँ भी ऐसी साफ़ सफाई होती.
थाई रामायण 

मंदिर की दीवारों पर थाई रामायण के भित्तिचित्र बने हुए थे...वैसे तो हमारी रामायण जैसी ही थी पर वहां की पेंटिंग्स में आदमी और राक्षस के बीच में अंतर करना मुश्किल था हमारे लिए...सबके बड़े बड़े दाँत और सींग थे, जैसा कि आप इस तस्वीर में देख रहे हैं ;)

मुझे लोग भी अच्छे लगे...चूँकि बहुत सारी जगह भाषा समझ नहीं आती थी तो मुस्कुरा के काम चलाना पड़ता था. पहली बार महसूस हुआ कि कैसे मुस्कराहट हर भाषा में समझी जाती है :) जिस दिन पहुंचे उस दिन खाना ढूँढने में जो मुश्किल हुयी, हम ठहरे पूर्ण शाकाहारी और उधर शाकाहार का सिस्टम ही नहीं है...यहाँ तक कि चिप्स भी मिलते हैं तो कोई मछली वाले, कोई चिकन वाले...आलू के चिप्स का नाम निशान नहीं. ब्रेड में भी भांति भांति के पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े...हाँ वहां फल बहुत मिलते थे तो पहली सुबह लगभग फल खा के ही काम चलाना पड़ा. शाम होते पंजाबी रेस्तोरांत मिल गया...तो फिर तीन दिन आराम से गुजरे.

अच्छी जगह है बंगकोक, रहने और घूमने के हिसाब से ज्यादा महँगी भी नहीं है. वीसा पहले से करना जरूरी नहीं है...पहुँचने पर मिल जाता है...ऑन अरैवल वीसा. मेरा वक़्त अच्छा गुज़रा...कुछ और कहानियां बंगकोक की, किस्तों में सुनाउंगी :)

तीन दिन के लिए ही गए थे पर घर आते साथ लगा There is no place like home. छुट्टियाँ मनाने के बाद घर खास तौर से और अच्छा लगता है :) 

17 January, 2011

किनारे पर डूबने की जिद

गहरे लाल सूरज के काँधे से
रात उतारती है लिबास उदासी का 
और दुपट्टे की तरह फैला देती है आसमान पर
हर बुझती किरण से कोहरे की तरह
बरस रही है उदासी

हर डूबते लम्हे में डूबती हूँ मैं
बुझती किरण का आँखों को छू जाना
जैसे सागर किनारे रेत पर
लेटी हुयी हूँ मैं
महसूसती हूँ लहरों को
चेहरे के ऊपर से जाते हुए
साँस-साँस खारा पानी
लहर गुज़र जाने तक

किनारे पर डूबने की जिद के मुख्तलिफ
तेरी याद जिरह करती है
उतरती हूँ गहरे ख़ामोशी में
गर्म कोलतार सी रात
पैर रोकती है

तनहा...उदास...सहमी सी
मौत का इंतज़ार करती हूँ
'जिंदगी' कितना बेमानी लफ्ज़ हो गया है.

12 January, 2011

फेड टु ब्लैक

---------फेड इन------
अक्स दर अक्स स्याह होते अँधेरे में घुल जाओ...जैसे मौत के पहले वाले पहर धीमे से पलकें बंद कर रही हूँ और तुम्हारी आँखों का  जीवंत भूरा रंग गहराते जा रहा है, जैसे तुमने अभी माथे को चूमा हो और हौले से तुम्हारे होठ बिसरते जा रहे हों...जैसे मैं जानती हूँ कि अब लौट के आना नहीं होगा. नाउम्मीदी की एक गहरी खाई है जिसमें गिर के उठना नहीं होता...क़यामत.
फेड टु ब्लैक मेरा पसंदीदा 'फेड' है, इसे मैं सबसे ज्यादा इस्तेमाल करती हूँ इससे खूबसूरत अंत हो नहीं सकता...मृत्यु का सबसे खूबसूरत चित्रण है अन्धकार. मुझे 'कट्स' ज्यादा पसंद नहीं हैं...वो किसी रिश्ते की शुरुआत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उनमें एक बचपना होता है, एक काबू में ना आने वाली उश्रृंखलता होती है...कट्स एक बागी उम्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसमें  बहुत सारे फ्रेम्स जरूरी होते हैं लाइफ के...और हर शॉट  जिंदगी का एक जरूरी हिस्सा होता है, दोस्त, प्यार, करियर, शौक़...बहुत कुछ. इस उम्र और इस कट में किसी भी लम्हे पर ज्यादा देर ठहरना नहीं हो पाता, सब कुछ लम्हे भर में होता है, स्पीड डेटिंग जैसा.
मैं थोड़ी ओल्ड फैशंड हो जाती हूँ अक्सर...फेड का इस्तेमाल करने वाली फिल्में एक ठहरे हुए वक़्त के जैसी होती हैं. कुछ वैसी ही जैसे मैं तुम्हें याद करती हूँ...हमेशा क्रोस फेड करते हुए, एक फ्रेम से दूसरे फ्रेम में घुलते हुए, तन्हाई के दो लम्हों को जोड़ते हुए...किसी शाम का तुम्हें याद करना, याद के चेहरे पर सूरज की जाती हुयी धूप और किसी सुबह के कोहरे में लिपट कर तुम्हें याद करना, याद के चेहरे पर कोहरे का भीगापन, माथे पर गिरती लटों में पानी की नन्ही बूँदें अटकी हुयीं...कंप्यूटर स्क्रीन पर ये दोनों चेहरे आसपास धुंधलाते हुए होते हैं और मैं सोचती रहती हूँ कि किस चेहरे को ज्यादा पसंद करती हूँ.
मुझे फोरेवर या हमेशा जैसा कुछ पर यकीन नहीं होता...देखती आई हूँ कि सब कुछ बदलता रहता है, प्यार भी बढ़ता घटता रहता है जीवन में आई और प्राथमिकताओं के साथ. मुझे कुछ भी हमेशा सा नहीं चाहिए तुमसे, हाँ इतना जरूर चाहूंगी कि किसी रोज़ अचानक से मत चले जाना...कि बस, आज के बाद हम नहीं मिलेंगे जैसा कुछ. ये नहीं बर्दाश्त होगा मुझसे कि आदत सी पड़ी हो और तुम ना हो एक बौखलाई सी सुबह. तो हलके से 'फेड टु ब्लैक' मेरी जिंदगी से फेड आउट कर जाना...अक्स दर अक्स, लम्स दर लम्स, लम्हा दर लम्हा. एक एक पल करके मुझसे दूर जाना...एक एक कदम करके...मुझे थोड़ा वक़्त देना...जब मैं रातों को रोऊँ कि तुम नहीं रहोगे उस वक़्त अपने कंधे पर रो लेने देना मुझे. जैसे हम पूरी जिंदगी धीमे धीमे मौत की तरफ बढ़ते हैं...वैसे ही. अचानक से मत जाना...मर जाउंगी.
--------फेड टु ब्लैक-------

आलंबन

रात ठहरी हुयी है
जहाँ अलाव में मैं सेंक रही हूँ
अपनी ठिठुरती उँगलियाँ
नाखून जैसे नीले से पड़ गए हैं

मेरे हाथ अब बहुत उदास लगते हैं
और थके हुए भी
उम्र का लम्बा सफ़र इन्होने काम किया है
मेरी जिंदगी चलती रहे, इसकी खातिर

अब आसार नज़र आने लगे हैं
झुर्रियों के, थरथराहट के
ठंढे रहते हैं मेरे हाथ अक्सर
झीने ठंढ वाले मौसम में भी

उम्र के साथ रक्त संचालन धीमा पड़ता है
पहले दिल धड़कता था कितनी तेज़
जब छू भी जाता था तुम्हारा हाथ
अलाव सी जलती थी हथेली, देर तक

याद है तुमने एक बार मेरा हाथ थामा था
लम्बी पतली उँगलियाँ, तराशे हुए नाखून
जिंदगी की गर्मी से लबरेज, तुमने कहा था
कितने खूबसूरत हैं तुम्हारे हाथ

आज जीवन की इस सांझ में
अकेले पड़ गए हाथों में
कोई ऊष्मा ढूंढती हूँ
रुक जाने का कोई आलंबन

अब तो आगे बढ़ कर मेरा हाथ थाम लो.

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