रात ठहरी हुयी है
जहाँ अलाव में मैं सेंक रही हूँ
अपनी ठिठुरती उँगलियाँ
नाखून जैसे नीले से पड़ गए हैं
मेरे हाथ अब बहुत उदास लगते हैं
और थके हुए भी
उम्र का लम्बा सफ़र इन्होने काम किया है
मेरी जिंदगी चलती रहे, इसकी खातिर
अब आसार नज़र आने लगे हैं
झुर्रियों के, थरथराहट के
ठंढे रहते हैं मेरे हाथ अक्सर
झीने ठंढ वाले मौसम में भी
उम्र के साथ रक्त संचालन धीमा पड़ता है
पहले दिल धड़कता था कितनी तेज़
जब छू भी जाता था तुम्हारा हाथ
अलाव सी जलती थी हथेली, देर तक
याद है तुमने एक बार मेरा हाथ थामा था
लम्बी पतली उँगलियाँ, तराशे हुए नाखून
जिंदगी की गर्मी से लबरेज, तुमने कहा था
कितने खूबसूरत हैं तुम्हारे हाथ
आज जीवन की इस सांझ में
अकेले पड़ गए हाथों में
कोई ऊष्मा ढूंढती हूँ
रुक जाने का कोई आलंबन
अब तो आगे बढ़ कर मेरा हाथ थाम लो.
स्पर्श ऊर्जा दे जाता है, रक्त धमनियों में दौड़ने लगता है, निर्बाध, व्यक्त करने की इच्छा हो उठती है। सुन्दर रचना।
ReplyDeleteबहुत सुंदर - विचार भी - और अभिव्यक्ति भी
ReplyDeletebahut sundar
ReplyDelete.
ReplyDeleteरात ठहरी हुयी है
जहाँ अलाव में मैं सेंक रही हूँ
अपनी ठिठुरती उँगलियाँ
नाखून जैसे नीले से पड़ गए हैं.
@ रात के ठहरे रहने, उँगलियों के ठिठुरने और नाखूनों के नीला पड़ जाने में कविता के तत्व हैं.
वह कैसे?
वह ऐसे कि ....... सर्द रात बिताये नहीं बीत रही, उसके ठहरे रहने की यही ध्वनि है.
आप इसकी शुरुआत यदि ऐसे करते तो
अधिक प्रभावी होता ....
रात ठहरी हुयी है
अलाव में सिंक रही हैं
ठिठुरती उंगलियाँ
नाख़ून जैसे पीले से पड़ गये हैं.
इसके बाद स्वयं को कविता में शामिल करें तो अच्छा लगेगा.
प्राकृतिक घटनाओं और उपांगों में मानवीकरण का पुट देकर भाव द्विगुणित प्राभावी हो जायेंगे.... मेरा ऐसा मानना है.
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ReplyDelete@ पहले त्रुटि संकेत :
'इन्होने काम किया है' .. के स्थान पर .... 'कम किया है' .. कर लें.
मेरी ज़िंदगी में ... केवल 'ज़िंदगी' लाने भर से काम चल सकता है.
हाथ उदास हैं और थके हुए भी. ..... शानदार बिम्ब.
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ReplyDeleteअब आसार नज़र आने लगे हैं
झुर्रियों के, थरथराहट के
ठंढे रहते हैं मेरे हाथ अक्सर
झीने ठंढ वाले मौसम में भी
@ प्रवाह में हैं भाव .... बस 'ठंढे' की बजाय 'ठंडे' कर लें...
बढ़ती उम्र का एहसास कराने में सक्षम अभिव्यक्ति.
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ReplyDeleteउम्र के साथ रक्त संचालन धीमा पड़ता है
पहले दिल धड़कता था कितनी तेज़
जब छू भी जाता था तुम्हारा हाथ
अलाव सी जलती थी हथेली, देर तक.
@ वाह! .........
यौवन की स्मृति अधेड़ उम्र में आती ही है. ...
एक पीड़ा है शरीर के निस्तेज होते जाने की.
'रक्त-संचार' धीमा पड़ जाता है.
वाक्य में 'रक्त संचालन' बोलने में मुख-सुख बिगड़ रहा है.
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ReplyDelete@ शेष कविता में भाव की दृष्टि कहीं कोई कमी नहीं.
अनधिकार चेष्टा की.......... क्षमा.
आभारी हूँ वंदना जी का जिन्होंने चर्चा मंच में आपका लिंक दिया.
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ReplyDeleteमुझे इस भावुक कविता ने भावुक कर दिया.
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लगता है जीवन भर अलाव की जरूरत रहेगी. सुन्दर रचना.
ReplyDeleteअच्छी रचना, बधाई।
ReplyDeleteआपको मकर संक्रांति की हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteबहुत खूब मज़ा आ गया पढ़ कर।
जी धन्यवाद।
भावुक अभिव्यक्ति.........अच्छी लगी।
ReplyDeleteरेंत के मानिंद फिसलते पलो में जिन्दंगी को मुट्ठी में पकड़ने की दस्ता. ए इश्क तुझे मेरे ख्वाबो की उम्र लग जाये. किसी जीती जागती कविता से यह परिचय सिर्फ मौन में ले गया. खुबसूरत, बहुत खुबसूरत.
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