Temples are temporary suspensions from the insanity of the world. Our refuge from the mad mad rush of life.
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मन कहता है कि शांति अगर यहाँ भी नहीं तो कहाँ...ज्वारभाटा के भी आने का नियत वक़्त होता है...चाँद के मूड के हिसाब से समंदर में लहरें नहीं उठतीं...वहां भी डिसिप्लिन है. समंदर किनारे टाइड के आने का वक़्त बड़ा खतरनाक और सम्मोहक होता है. समंदर बहुत तेजी से उठता है, जैसे कि कहीं रुकना ही नहीं हो...लहरें जैसे चन्द्रमा को लील जाने के लिए ऊंची होती जाती हैं. अभी तो किनारे पर बैठे थे...खेल रहे थे और पल में डुबा देने को तैयार हो जाती हैं लहरें. समंदर की तुलना इसलिए मन से की जाती है. मैंने भी ऐसा ही कुछ सोच के अपने ब्लॉग का नाम लहरें रखा था कि मन में हमेशा कोई न कोई ख्याल उठता ही रहता है.
मेरी नैचुरल स्टेट...केओटिक है...मैं स्थिरमना नहीं रहती. सफ़र में रहती हूँ तो कमसे कम कुछ देर चैन रहता है. नवम्बर आने को है...साल का ये समय मैं अक्सर सबसे ज्यादा लिखती हूँ...परेशान रहती हूँ...और साल के इसी वक़्त अक्सर कुछ नया मिलता है...कुछ अद्भुत जो पहले कभी नहीं देखा.
विजयादशमी सफ़र की शुरुआत के लिए अच्छा दिन होता है...उस दिन निकलने से सफ़र अच्छा रहता है. सदियों पहले बने गए नियमों के पीछे कुछ तो कारण होगा ही. इस विजयादशमी को हम रामेश्वरम और मदुरै के लिए सफ़र में चले थे. इनोवा में पीछे की सीट काफी स्पेशियस रहती है और रास्ते में गाना सुनते, हल्ला करते और फोटो खींचते जाया जा सकता है. आसमान मेरी पसंद के शेड का नीला था और बादल मेरी पसंद के शेड के वाईट. साउथ की सड़कें काफी अच्छी हैं, बंगलोर से मदुरै लगभग आठ लेन की सडकें थीं और ट्रैफिक भी कम था.
हर कुछ दिन की नौटंकी हो जाती है कि अब नहीं लिखूंगी...अब कुछ भी नहीं लिखूंगी...मगर फिर कुछ ऐसा हो जाता है कि लिखे बिना रहा नहीं जाता...अंग्रेजी में कहें तो I am cursed to write....लिखने के लिए अभिशप्त हूँ. हर कुछ बदलते रहता है...मौसम बदलते हैं, खिड़की पर के नज़ारे बदलते हैं, दिन से शाम...शाम से रात...फिर ये मन की स्थिति हमेशा केओटिक क्यूँ रहती है ये भी तो कभी मूड बदल कर शांत हो जाए. कि चलो...लेट्स टेक अ ब्रेक...आज कुछ नहीं सोचेंगे...सिंगल ट्रैक पर चलेंगे...ऑफिस में हैं तो ऑफिस का काम करेंगे...घर में हैं तो खाना क्या बनाना है इस बारे में सोचेंगे. सारे लोग तो ऐसे परेशान नहीं होते. चैन से रहते हैं...ये बेचैनी मुझे ही क्यों. पिछले साल से कुछ ज्यादा ही आती हैं मन में सुनामी लहरें...उनके जाने के बाद उजाड़ जमीन पर जाने क्या क्या बाकी रह जाता है.
कितने कितने सारे सवाल हैं...जवाब एक का भी नहीं. लोग कैसे गुज़ार लेते हैं जिंदगी बिना ये सोचे हुए कि इस जिंदगी का करना क्या है. ऑफिस है...बहुत अच्छा है...काम भी इंट्रेस्टिंग है मगर कुछ ऐसा नहीं कि सुबह उठ के इस बात पर खुश हुआ जाए कि आज ऑफिस जाना है. वो क्या है जो मुझे खींचता है? आखिर क्या चीज़ रोकती है मुझे...मेरे सारे डर मेरे अन्दर के ही तो हैं. मैं जो दुनिया रचती हूँ उसके किरदार स्याह होते हैं...डर लगता है कि मेरे लिखने भर से वो जिन्दा न हो जाएँ. उस एंटी-हीरो को लिखते हुए वो मेरे अन्दर पनाह पाने लगता है...जैसे ग्रहण लगता है वैसे ही उसके मन का कालापन मेरी आँखों के आगे अँधेरा करने लगता है. मेरे लिखने से चीज़ें होने लगती हैं.
मंदिर एनेर्जी के श्रोत होते हैं. वहां जाने पर कुछ देर के लिए लगता है जैसे दुनिया ठहर गयी है. बहुत सालों से लगातार होते हुए मंत्रोच्चार से वहां के पत्थर भी द्वारपाल जैसे हो गए हैं और विचारों पर बाँध बना देते हैं...लगता है कि मन थमा है. कि शिवलिंग को देखने की इच्छा इतनी सान्द्र है कि कुछ और सोच नहीं सकती. वहां सब शांत होता है. मगर वहां भी ये मालूम होता है कि ये थामना थोड़ी देर का है...बाहर जाते ही पहले से ज्यादा कोलाहल होगा. मुझे लगता है कि अगर यहाँ भी नहीं तो फिर कहाँ. मैं क्या लिख दूं कि ये उफान थम जाए...कि ये ज्वारभाटा उतर जाये.
थोड़ा और फोकस...थोड़ा और...वो जो कागज़ है न...उसपर...वो जो सियाही है न...उसपर. लिखना और जीना अलग नहीं हैं...जैसे मैं और केओस अलग नहीं हैं. मैं केओटिक नहीं हूँ...मैं केओस हूँ. मूर्त रूप...अधीरमना...
बहुत कम आवाजें मुझे बाँध पाती हैं...अनजान रास्तों कहीं दूर से आवाज़ आती है...बचपन की निश्चिन्तता वाले दिनों जैसी...इस गीत में एक अनुरोध का स्वर है...एक याचना का...एक प्रार्थना का...लंगर डालने पर भी जहाज लहरों के साथ थोड़ा थोड़ा डोलता रहता है...बस वैसे...ठहरती हूँ...जरा सी...बस जरा सी...
केशव...नित कल्कि शरीरं...जय जगदीश हरे...
मन कहता है कि शांति अगर यहाँ भी नहीं तो कहाँ...ज्वारभाटा के भी आने का नियत वक़्त होता है...चाँद के मूड के हिसाब से समंदर में लहरें नहीं उठतीं...वहां भी डिसिप्लिन है. समंदर किनारे टाइड के आने का वक़्त बड़ा खतरनाक और सम्मोहक होता है. समंदर बहुत तेजी से उठता है, जैसे कि कहीं रुकना ही नहीं हो...लहरें जैसे चन्द्रमा को लील जाने के लिए ऊंची होती जाती हैं. अभी तो किनारे पर बैठे थे...खेल रहे थे और पल में डुबा देने को तैयार हो जाती हैं लहरें. समंदर की तुलना इसलिए मन से की जाती है. मैंने भी ऐसा ही कुछ सोच के अपने ब्लॉग का नाम लहरें रखा था कि मन में हमेशा कोई न कोई ख्याल उठता ही रहता है.
मेरी नैचुरल स्टेट...केओटिक है...मैं स्थिरमना नहीं रहती. सफ़र में रहती हूँ तो कमसे कम कुछ देर चैन रहता है. नवम्बर आने को है...साल का ये समय मैं अक्सर सबसे ज्यादा लिखती हूँ...परेशान रहती हूँ...और साल के इसी वक़्त अक्सर कुछ नया मिलता है...कुछ अद्भुत जो पहले कभी नहीं देखा.
विजयादशमी सफ़र की शुरुआत के लिए अच्छा दिन होता है...उस दिन निकलने से सफ़र अच्छा रहता है. सदियों पहले बने गए नियमों के पीछे कुछ तो कारण होगा ही. इस विजयादशमी को हम रामेश्वरम और मदुरै के लिए सफ़र में चले थे. इनोवा में पीछे की सीट काफी स्पेशियस रहती है और रास्ते में गाना सुनते, हल्ला करते और फोटो खींचते जाया जा सकता है. आसमान मेरी पसंद के शेड का नीला था और बादल मेरी पसंद के शेड के वाईट. साउथ की सड़कें काफी अच्छी हैं, बंगलोर से मदुरै लगभग आठ लेन की सडकें थीं और ट्रैफिक भी कम था.
हर कुछ दिन की नौटंकी हो जाती है कि अब नहीं लिखूंगी...अब कुछ भी नहीं लिखूंगी...मगर फिर कुछ ऐसा हो जाता है कि लिखे बिना रहा नहीं जाता...अंग्रेजी में कहें तो I am cursed to write....लिखने के लिए अभिशप्त हूँ. हर कुछ बदलते रहता है...मौसम बदलते हैं, खिड़की पर के नज़ारे बदलते हैं, दिन से शाम...शाम से रात...फिर ये मन की स्थिति हमेशा केओटिक क्यूँ रहती है ये भी तो कभी मूड बदल कर शांत हो जाए. कि चलो...लेट्स टेक अ ब्रेक...आज कुछ नहीं सोचेंगे...सिंगल ट्रैक पर चलेंगे...ऑफिस में हैं तो ऑफिस का काम करेंगे...घर में हैं तो खाना क्या बनाना है इस बारे में सोचेंगे. सारे लोग तो ऐसे परेशान नहीं होते. चैन से रहते हैं...ये बेचैनी मुझे ही क्यों. पिछले साल से कुछ ज्यादा ही आती हैं मन में सुनामी लहरें...उनके जाने के बाद उजाड़ जमीन पर जाने क्या क्या बाकी रह जाता है.
कितने कितने सारे सवाल हैं...जवाब एक का भी नहीं. लोग कैसे गुज़ार लेते हैं जिंदगी बिना ये सोचे हुए कि इस जिंदगी का करना क्या है. ऑफिस है...बहुत अच्छा है...काम भी इंट्रेस्टिंग है मगर कुछ ऐसा नहीं कि सुबह उठ के इस बात पर खुश हुआ जाए कि आज ऑफिस जाना है. वो क्या है जो मुझे खींचता है? आखिर क्या चीज़ रोकती है मुझे...मेरे सारे डर मेरे अन्दर के ही तो हैं. मैं जो दुनिया रचती हूँ उसके किरदार स्याह होते हैं...डर लगता है कि मेरे लिखने भर से वो जिन्दा न हो जाएँ. उस एंटी-हीरो को लिखते हुए वो मेरे अन्दर पनाह पाने लगता है...जैसे ग्रहण लगता है वैसे ही उसके मन का कालापन मेरी आँखों के आगे अँधेरा करने लगता है. मेरे लिखने से चीज़ें होने लगती हैं.
मंदिर एनेर्जी के श्रोत होते हैं. वहां जाने पर कुछ देर के लिए लगता है जैसे दुनिया ठहर गयी है. बहुत सालों से लगातार होते हुए मंत्रोच्चार से वहां के पत्थर भी द्वारपाल जैसे हो गए हैं और विचारों पर बाँध बना देते हैं...लगता है कि मन थमा है. कि शिवलिंग को देखने की इच्छा इतनी सान्द्र है कि कुछ और सोच नहीं सकती. वहां सब शांत होता है. मगर वहां भी ये मालूम होता है कि ये थामना थोड़ी देर का है...बाहर जाते ही पहले से ज्यादा कोलाहल होगा. मुझे लगता है कि अगर यहाँ भी नहीं तो फिर कहाँ. मैं क्या लिख दूं कि ये उफान थम जाए...कि ये ज्वारभाटा उतर जाये.
थोड़ा और फोकस...थोड़ा और...वो जो कागज़ है न...उसपर...वो जो सियाही है न...उसपर. लिखना और जीना अलग नहीं हैं...जैसे मैं और केओस अलग नहीं हैं. मैं केओटिक नहीं हूँ...मैं केओस हूँ. मूर्त रूप...अधीरमना...
बहुत कम आवाजें मुझे बाँध पाती हैं...अनजान रास्तों कहीं दूर से आवाज़ आती है...बचपन की निश्चिन्तता वाले दिनों जैसी...इस गीत में एक अनुरोध का स्वर है...एक याचना का...एक प्रार्थना का...लंगर डालने पर भी जहाज लहरों के साथ थोड़ा थोड़ा डोलता रहता है...बस वैसे...ठहरती हूँ...जरा सी...बस जरा सी...
केशव...नित कल्कि शरीरं...जय जगदीश हरे...


