14 June, 2011

इस जन्मदिन का लेखा जोखा

जानां
D-gang

ब्लोगर भी कमबख्त अजीब होता है...एक ही पोस्ट को दो बार छाप दिया...इसके अलावा मेरे जन्मदिन में कोई दिक्कत नहीं आई. पहले तो सबकी शुभकामनाओं के लिए ढेर सारा शुक्रिया...

१० की रात हमने पिज्जा खाया...घर पर कुणाल के दोस्त, मेरे दोस्त सब आये थे...रात ३ बजे तक हमारी पार्टी चली...गप्पें, गप्पें और ढेर सारी गप्पें...कौन कहता है की लड़के चुप रहते हैं...बीच बीच में सॉफ्टवेर इन्फर्माशन ओवर लोड हो जाता था तो चिल्लाना पड़ता था...अब बंगलौर में रहने का ये पंगा तो है...जितने लोग आयेंगे उसमें ९०% सॉफ्टवेर वाले...उसमें सब अपना अपना शुरू कर देंगे...तो मोनिटर(न न डेस्कटॉप वाला नहीं...क्लास वाला) करना पड़ता था...उसपर कमबख्त ब्लैकबेरी सारे मेल पहुंचा देता है...बस सब अपना मेल देखना शुरू...धमकी देनी पड़ती थी की बाल्टी में डाल देंगे(तुमको नहीं ब्लैकबेरी को) तब जा के बंद होता था...

इस बार बहुत सारे अच्छे गिफ्ट्स भी मिले...और मेरा जो ये अच्छा सा सुइट देख रहे हैं न..सिल्क का है...कश्मीरी कढ़ाई वाला...कब से खरीद कर रखा था...खास मौके के लिए :) अगले दिन यही १० को सबको रात के खाने पर बुलाया था...पर X-men की The Class रिजीज हो गयी थी और दोपहर ढाई बजे का शो था...मन ललच गया...फिल्म देखने चले गए...आपको फुर्सत मिले आप भी देख डालिए...हमें बेहद पसंद आई. वापस आते लगभग साढ़े छह सात बज गए...अब मुसीबत आई...घर पर लगभग १० लोग आ रहे थे...और इतने लोगों का खाना बनाने का रिकोर्ड कुणाल के हिसाब से काफी ख़राब दिख रहा था...टेंशन के मारे हालत ख़राब. करें तो क्या करें...फिर सोचा की घर में फिर कभी डिनर कर लेंगे...चूँकि बर्थडे है तो बहार खा लेते हैं. यहाँ एक बड़ा अच्छा सा रेस्तौरांत है...लाजवाब...कुछ दो साल हुए होंगे उसे खुले हुए, तब से हम उसके एकदम रेगुलर कस्टमर हैं...हफ्ते दो हफ्ते में एक दिन तो चले ही जाते हैं. असल में बंगलोर में पहली बार कहीं अच्छा नोर्थ इंडियन खाना मिला था. 

A different pose
कुणाल का कलिग है मोहित...कलिग क्या घर का मेंबर ही है...तो मोहित को रेस्तौरांत में सब सेटिंग करने का जिम्मा दिया गया(मुझे बाद में पता चला) ठीक पहुँचने के पहले हम थोडा टेंशन में आ गए की जगह मिलेगी की नहीं...तब मुझे पता चला कि कुणाल ने सब करवा रखा है. टेबल लगी हुयी थी...और फटाफट केक आया...पाईनएप्पल फ्लेवर...मेरा फेवरिट :) और फिर वहां पर हैप्पी बर्थडे वाला गाना बजा...हमको बहुत अच्छा लगा...बचपन में ऐसे मानता था बर्थडे. और खाना इतना अच्छा था कि महसूस हो रहा था कि खास प्यार से बनाया गया है. बारह के लगभग खा पी के हम चले सबको सबके घर पर डिपोजिट करते हुए, घूम घाम पर वापस घर. 
और सबसे awesome था शनिवार...कुणाल ने खुद से मेरे लिए डिनर बनाया :) और इतना अच्छा बनाया कि बस प्लेट को खा जाने कि नौबत आने वाली थी. 
ये वाला वीकेंड अभी तक के कुछ बेस्ट वीकेंड्स में था...बहुत से दोस्त, अच्छा खाना...अच्छा पीना...और अनगिनत गप्पें अनगिन कार ड्राइव्स. लगभग सभी दोस्तों का फोन आया...या फिर मेसेज या फिर फेसबुक...सबका तहे दिल से शुक्रिया. एक दोस्त कश्मीर में पोस्टेड है...आर्मी में...उसका फ़ोन एक दिन बाद आया...पर याद उसे भी था. तो इतने सारे अच्छे अच्छे लोगों कि दुआएं हैं...काफी अच्छा रहा सब कुछ. 

इंग्लिश में एक शब्द है 'blessed ' यानि कि ऐसा जिसपर इश्वर कि कृपा हो...वैसा ही महसूस किया. 

फुटनोट: just to prove the skeptics wrong कि लड़कियां अपनी उम्र छिपाती हैं...I turned on 28...and really happy to be so :) हाँ दिल की उम्र...तो दिल तो बच्चा है जी :)

09 June, 2011

मेरे बर्थडे पर आप क्या गिफ्ट कर रहे हैं?

कल मेरा जन्मदिन है...देखती हूँ की हर साल इस मौके पर थोड़ी सेंटी हो जाती हूँ. बहुत कुछ सोचती हूँ...जाने क्या क्या सपने, कुछ तो गुज़रे हुए कल के हिस्से...खोयी सी रहती हूँ...इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है. 

भाई का गिफ्ट कल आ गया है :) :) आज कुणाल भी मेरा गिफ्ट खरीद के ला रहा है...शाम में मैं जाउंगी अपनी पसंद का कुछ लेने...पता नहीं क्या...अभी तक कुछ सोचा नहीं है. मुझे सबसे अच्छी लगती है घड़ी...पर मेरे पास ४ ठो घड़ी पहले से है तो कुणाल बोल रहा है कि एक और नहीं मिलेगी...और कुछ लेना है तो बताओ...नहीं तो  वो अपनी पसंद का ला देगा. 

इस बार बहुत दिनों में पहली बार मेरे दो बहुत अच्छे दोस्त शहर में ही हैं...पूजा और इन्द्रनील...तो इस बार बर्थडे पर थोडा ज्यादा अच्छा लगेगा :) :) पूजा अभी मंडे को मिलने भी आई थी...कितना अच्छा लगा कि क्या कहें...और हमने ढेर सारी खुराफातें भी की. 

चूँकि ब्लॉग पर भी इतने अच्छे लोगों से मिली हूँ...और अच्छी दोस्ती हो गयी है...तो सोचा कि इतना सोच के कहाँ जायेंगे...बोल ही देते हैं :) इस बार हमको एक तोहफा चाहिए...आप सब से...जो पता नहीं कैसे अब तक हमको पढ़ते रहे हैं...हालाँकि आजकल हमको अपना लिखा एकदम पसंद नहीं आ रहा अक्सर...फिर भी. 

इस बार मेरे बर्थडे पर आप अपनी पसंद कि कोई एक किताब...जो आपको लगता है मुझे पढ़नी चाहिए... कमेन्ट बॉक्स में लिखिए...और अगर आपका दिल करे तो थोड़ा सा उस किताब के बारे में भी...कुछ ऐसे कि 'पूजा हमको लगता है तुमको हरिशंकर परसाई की किताब सदाचार का तवी पढना चाहिए क्यूंकि हमको लगता है तुम्हारा सेन्स ऑफ़ ह्यूमर लापता हो गया है'. इसके अलावा आप मुझे कोई भी मुफ्त की सलाह दे सकते हैं...लिखने के बारे में...दिमाग ठीक करने के बारे में या कि कुछ जो आपको लगे कि मुझे लिखना चाहिए या कोई ब्लॉग जो मुझे एकदम पढना चाहिए(आपके खुद के ब्लॉग के सिवा ;) ). हाँ इसके अलावा...एक और चीज़ आप मुझे बता सकते हैं...कोई खास फिल्म जो आपको पर्सनली पसंद हो :) 

बस...बर्थडे की फोटो कल पोस्ट करुँगी :) ऐसा मौका बार बार नहीं मिलता...जब फ्री की सलाह को गिफ्ट माना जाए...तो टनाटन आने दीजिये :)

फुटनोट: only one gift per person/ प्रति व्यक्ति एक ही गिफ्ट...वरना किताबों के बोझ तले टें बोल जायेंगे. और हाँ..चूँकि मेरा बर्थडे है...तो हर टिप्पनी की प्रति-टिप्पनी मिलेगी-रिटर्न गिफ्ट :)

मेरे बर्थडे पर आप क्या गिफ्ट कर रहे हैं?

कल मेरा जन्मदिन है...देखती हूँ की हर साल इस मौके पर थोड़ी सेंटी हो जाती हूँ. बहुत कुछ सोचती हूँ...जाने क्या क्या सपने, कुछ तो गुज़रे हुए कल के हिस्से...खोयी सी रहती हूँ...इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है. 

भाई का गिफ्ट कल आ गया है :) :) आज कुणाल भी मेरा गिफ्ट खरीद के ला रहा है...शाम में मैं जाउंगी अपनी पसंद का कुछ लेने...पता नहीं क्या...अभी तक कुछ सोचा नहीं है. मुझे सबसे अच्छी लगती है घड़ी...पर मेरे पास ४ ठो घड़ी पहले से है तो कुणाल बोल रहा है कि एक और नहीं मिलेगी...और कुछ लेना है तो बताओ...नहीं तो  वो अपनी पसंद का ला देगा. 

इस बार बहुत दिनों में पहली बार मेरे दो बहुत अच्छे दोस्त शहर में ही हैं...पूजा और इन्द्रनील...तो इस बार बर्थडे पर थोडा ज्यादा अच्छा लगेगा :) :) पूजा अभी मंडे को मिलने भी आई थी...कितना अच्छा लगा कि क्या कहें...और हमने ढेर सारी खुराफातें भी की. 

चूँकि ब्लॉग पर भी इतने अच्छे लोगों से मिली हूँ...और अच्छी दोस्ती हो गयी है...तो सोचा कि इतना सोच के कहाँ जायेंगे...बोल ही देते हैं :) इस बार हमको एक तोहफा चाहिए...आप सब से...जो पता नहीं कैसे अब तक हमको पढ़ते रहे हैं...हालाँकि आजकल हमको अपना लिखा एकदम पसंद नहीं आ रहा अक्सर...फिर भी. 

इस बार मेरे बर्थडे पर आप अपनी पसंद कि कोई एक किताब...जो आपको लगता है मुझे पढ़नी चाहिए... कमेन्ट बॉक्स में लिखिए...और अगर आपका दिल करे तो थोड़ा सा उस किताब के बारे में भी...कुछ ऐसे कि 'पूजा हमको लगता है तुमको हरिशंकर परसाई की किताब सदाचार का तवी पढना चाहिए क्यूंकि हमको लगता है तुम्हारा सेन्स ऑफ़ ह्यूमर लापता हो गया है'. इसके अलावा आप मुझे कोई भी मुफ्त की सलाह दे सकते हैं...लिखने के बारे में...दिमाग ठीक करने के बारे में या कि कुछ जो आपको लगे कि मुझे लिखना चाहिए या कोई ब्लॉग जो मुझे एकदम पढना चाहिए(आपके खुद के ब्लॉग के सिवा ;) ). हाँ इसके अलावा...एक और चीज़ आप मुझे बता सकते हैं...कोई खास फिल्म जो आपको पर्सनली पसंद हो :) 

बस...बर्थडे की फोटो कल पोस्ट करुँगी :) ऐसा मौका बार बार नहीं मिलता...जब फ्री की सलाह को गिफ्ट माना जाए...तो टनाटन आने दीजिये :) 

26 May, 2011

सो माय लव, यू गेम?

मंजिल होना कैसी त्रासदी है...कि यहाँ से कहीं और राहें नहीं जाती जहाँ मैं तुम्हारे साथ चल सकूँ. चकित करने की बात ये भी है कि मंजिल किसी सागर किनारे शहर नहीं है जैसे कि मुंबई, या कि मद्रास जहाँ स्टेशन नहीं होते टर्मिनस होता है. सारी पटरियां वहां जा के ख़त्म हो जाती हैं...मैं और तुम चलती रेलगाड़ियाँ तो नहीं हैं न कि टर्मिनस आने पर रुकें कुछ देर...जैसे जिंदगी बसती है और फिर वापस उन्ही रास्तों से दूसरी मंजिलों की और चल पड़ें...या कि हमारा रुकना ही क्यूँ जरूरी है.

मंजिलें तो पुरानी सदियों की खोज हैं न जब नौकाएं नहीं बनी थीं, हवाईजहाज़ नहीं थे...तब जब कि पता भी नहीं था कि धरती गोल है या सपाट कि अगर मेरे 'तुम' की तलाश में क्षितिज तक जाना चाहूँ तो शायद धरती से गिर जाऊं अनंत अन्तरिक्ष में...तब ये भी कहाँ पता था कि धरती हमें यूँ ही गिर नहीं जाने देगी...गुरुत्वाकर्षण की खोज भी कहाँ हुयी थी तब. ये मंजिल उस सदी में हुआ करती थी रास्ते का अंत....घर, परिवार, समाज. 

आज क्या जरूरी है कि ज़मीं के छोर पर मैं रुकूँ...क्यूँ न नाव के पाल गिरा...चाँद का पीछा करते सागर पर रास्ते बिछा दूँ....या कि अतल गहराइयों में उतर परदे हटाऊं...गहरे अँधेरे समंदर के बीच कहीं नदियाँ ढूँढूं...पाऊं...गरम पानी की नदियाँ जैसे अन्तः करण का मूक विलाप.

कौन से सफ़र पर निकल जाऊं जिधर रास्ते न हों...पैरा-ग्लाइडिंग, हवा के बहाव पर उड़ना...पंछी जैसे, धरती पर छोटा होता सब देखूं और जब महज़ बिंदु सा दिखे कुछ भी 'होना' वहां से तुम्हारे साथ एक रिश्ते की कल्पना करूँ...एक बिंदु से फिर रास्ते बनाऊं...और तुम्हारे संग चल दूँ...किसी तीसरी दुनिया के किसी अनजाने सफ़र पर. 

सो माय लव, आर यु गेम?

25 May, 2011

खुदा कभी मेरा घर देखे

आग का दरिया, तेरी अर्थी
कैसे कैसे मंज़र देखे

राह के गहरे अंधियारे में
चुप्पे, सहमे, रहबर देखे 

तेरी आँखें सूखी जबसे
जलते हुए बवंडर देखे 

तेरी चिट्ठी जो भी लाये 
घायल वही कबूतर देखे 

पूजाघर की सांकल खोली
दुश्मन सारे अन्दर देखे 

गाँव से जब रिश्ता टूटा तो
रामायण के अक्षर देखे 

बनी हुयी मूरत ना देखी
सब हाथों में पत्थर देखे 

बसा हुआ है मंदिर मंदिर
खुदा कभी मेरा घर देखे 

18 May, 2011

तोरा कौन देस रे कवि?

कई दिनों बाद कुछ लिखा था कवि ने, पर जाने क्यूँ उदास था...उसने आखिरी पन्ना पलटा और दवात खींच कर आसमान पर दे मारी...झनाके के साथ रौशनी टूटी और मेरे शहर में अचानक शाम घिर आई...सारी सियाही आसमान पर गिरी हुयी थी. 

आजकल लिखना भूल गयी हूँ, सो रुकी हुयी हूँ...कवि ने एक दिन बहुत जिरह की की क्यों नहीं लिख रही...उसकी जिद पर समझ आया पूरी तरह से की मेरे किरदार कहीं चले गए हैं. पुराने मकान की तरह खाली पड़ी है नयी कॉपी...बस तुम और मैं रह गए हैं. कैसे लिखूं कहानी मैं...कविता भी कहीं दीवारों में ज़ज्ब हो रही है. अबके बरसात सीलन बहुत हुयी न. सो.

बहुत साल पुरानी बात लगती है...मैं एक कवि को जाना करती थी...बहुत साल हो गए, जाने कौन गली, किस शहर है. पता नहीं उसने कभी मुझे ख़त लिखे भी या नहीं. वो मुझे नहीं जानता, या ये जानता है कि मैंने उसके कितने ख़त जाने किस किस पते पर गिरा दिए हैं. उसके पास तो मेरा पता नहीं है...उसे मेरा पता भी है क्या भला? चिठ्ठीरसां- क्या इसका मतलब रस में डूबी हुयी चिठियाँ होती हैं? पर शब्द कितना खूबसूरत है...अमरस जैसा मीठा. 

मैं किसी को जानती हूँ जो किसी को 'मीता' बुलाता है...उसका नाम मीता नहीं है हालाँकि...पहले कभी ये नाम खास नहीं लगा था...पर जब वो बुलाता है न तो नाम में बहुत कुछ और घुलने लगता है. नाम न रह कर अहसास हो जाता है...अमृत जैसा. जैसे कि वो नाम नहीं लेता, बतलाता है कि वो उसकी जिंदगी है. उसकी. मीता.

आजकल खुद को यूँ देखती हूँ जैसे बारिश में धुंध भरे डैशबोर्ड की दूसरी तरफ तेज रोशनियाँ...सब चले जाने के बाद क्या रह जाता है...परछाई...याद...दर्द...नहीं रे कवि...सब जाने के बाद रह जाती है खुशबू...पूजा के लिए लाये फूल अर्पित करने के बाद हथेली में बची खुशबू. मैं तुम्हें वैसे याद करुँगी. बस वैसे ही. 

29 April, 2011

रेशम की गिरहें

जिंदगी सांस लेने की तरह होती है...दिन भर महसूस नहीं होती, दिन महीने साल बीतते जाते हैं. पर कुछ लम्हे होते हैं, गिने चुने से जब हम ठहर कर देख पाते हैं अपने आप को...उस वक़्त की एक एक सांस याद रहती है और किसी भी लम्हे हम उस याद को पूरी तरह जी सकते हैं.

इतना कुछ घटने के बावजूद ऐसा कैसे होता है की कुछ लोग हमें कभी नहीं भूलते...क्या इसलिए की उनकी यादों को ज्यादा सलीके से तह कर के रखा गया है...बेहतर सहेजा गया है...लगभग पचास पर पहुँचती उम्र में कितनी सारी जिंदगी जी है उसने और कितने लोग उसकी जिंदगी में आये गए. कुछ परिवार के लोग, कुछ करीबी दोस्त बने, कितनों को काम के सिलसिले में जाना...कुछ लोगों से ताउम्र खिटपिट बनी रही. 

आज शोनाली का ४९वां जन्मदिन है. सुबह उठ कर मेल चेक किया तो अनगिन लोगों की शुभकामनाएं पहुंची थीं, कुछ फूल भी भेजे थे उसके छात्रों ने और कुछ उसके परिचितों ने. घर पर त्यौहार का सा माहौल था, छोटी बेटी शाम की पार्टी के लिए गाने पसंद कर रही थी...खास उसकी पसंद के. वो याद के गाँव ऐसे ही तो पहुंची थी, गीत की पगडण्डी पकड़ के...

घर के थियेटर सिस्टम में गीत घुलता जा रहा था और वो पौधों को पानी देते हुए सोच रही थी की ऐसा क्या था उन डेढ़ सालों में. देखा जाए तो पचास साल की जिंदगी में डेढ़ साल कुछ ज्यादा मायने नहीं रखते. बहुत छोटा सा वक़्त लगता है पर ऐसा क्या था उन सालों में की उस दौर की यादें आज भी एकदम साफ़ याद आती हैं...उनपर न उम्र का असर है न चश्मे के बढ़ते नंबर का. 

'न तुम हमें जानो, न हम तुम्हें जानें, मगर लगता है कुछ ऐसा...मेरा हमदम मिल गया...' गीत के बोल शायद किसी अजनबी को सुनाने के एकदम परफेक्ट थे...अजनबी जिसने अचानक से सिफारिश कर दी हो कोई गीत सुनाने की...और कुछ गाने की इच्छा भी हो. देर रात किसी लैम्पोस्ट की नरम रौशनी में, सन्नाटे में घुलता हुआ गीत...'ये मौसम ये रात चुप है, ये होटों की बात चुप है, ख़ामोशी सुनाने लगी...है दास्ताँ, नज़र बन गयी है दिल की जुबां'. आवाज़ में हलकी थरथराहट, थोड़ी सी घबराहट की कैसा गा रही हूँ...अनेक उमड़ते घुमड़ते सवाल की वो क्या सोचेगा, आज पहली ही बार तो मिली हूँ...उसने गाने को कह दिया और गाने भी लगी. दिमाग की अनेक उलझनों के बावजूद वो जानती थी की इस लम्हे में कुछ तो ऐसा ही की वो इस लम्हे को ताउम्र नहीं भूल सकेगी. 

उस ताउम्र में से कुछ पच्चीस साल गुज़र चुके हैं, भूलना अभी तक मुमकिन तो नहीं हुआ है...और ये गीत उसे इतना पसंद है की उसकी बेटियां भी उसका मूड अच्छा करने के लिए यही गाना अक्सर प्ले करती हैं. लोग यूँ ही नहीं कहते की औरत के मन की थाह कोई नहीं ले सकता. घर में इतना कुछ हो रहा है, सब उसके लिए कुछ न कुछ स्पेशल कर रहे हैं और वो एक गीत में अटकी कहीं बहुत दूर पहुँच गयी है, पीली रौशनी के घेरे में. 

उन दिनों उसने अपने मन के फाटक काफी सख्ती से बंद कर रखे थे...और अक्सर देखा गया है कि प्यार अक्सर उन ही लोगों को पकड़ता है जो उससे दूर भागते हैं. कुछ बहुत खास नहीं था उनके प्यार में....उसे एक लगाव सा हो गया था उससे जो उनके ब्रेक अप के बाद भी ख़त्म नहीं हो पाया था. उसे पता नहीं क्यों लगता था की वो उसे ताउम्र माफ़ नहीं करेगा...इस नफरत के साथ का डर भी उसे लगता था, की वो किसी को प्यार नहीं कर पायेगा जैसा कि उसने कहा था...वो चाहती थी कि उसे किसी से प्यार हो...पर प्यार किसी के चाहने भर से नहीं हो पाता. उसे याद नहीं उसने कितनी दुआएं मांगी थी उसके लिए...जिससे कोई रिश्ता नहीं था अब.

अचानक से उसे महसूस हुआ कि चारो तरफ बहुत शोरगुल हो रहा है...गीत कुछ तीन मिनट का होगा पर इतने से अन्तराल में कितना कुछ फिर से जी गयी वो. उसकी बेटी दूसरा गाना लगा रही थी...'ऐ जिंदगी, गले लगा ले हमने भी, तेरे हर इक गम को गले से लगाया है..है न?'...उसे एक छोटा सा कमरा याद आया जिसमें वो उसे छोड़ के जाने के बाद एक आखिरी बार मिलने आई थी...रिकॉर्डर पर यही गाना बज रहा था. 

सीढ़ियों से नीचे देखा तो हर्ष उसकी पसंद के फूल आर्डर कर रहे थे...उसे अपनी ओर देखता पाकर मुस्कुराये और उसे उनपर ढेर ढेर सा प्यार उमड़ आया. जाने किस दुनिया में थी कि फ़ोन की घंटी से तन्द्रा टूटी....
'जन्मदिन मुबारक!' और उसे आश्चर्य नहीं हुआ कि इतने साल बाद भी उसकी आवाज़ पहचान सकती है. उसकी आँखें कोर तक गीली हो गयीं...'तुम्हें याद है आखिरी दिन तुमने कहा था कि मुझसे जिंदगी भर प्यार करोगी?, सच बताओ तुम मुझसे प्यार करती थी?'

'नहीं.......मैं तुमसे प्यार करती हूँ'

उस एक सवाल के बाद कुछ बहुत कम बातें हुयीं...पर आज उसे महसूस हुआ कि उसके दिल में जो सजल के लिए प्यार था वो हमेशा वैसा ही रहा. हर्ष के आने पर, उसकी दोनों बेटियों के आने पर...उन्होंने सजल के हिस्से का प्यार नहीं माँगा...सबकी अपनी जगह बनती गयी...कि उसने कभी सजल को खोया ही नहीं था.

सदियों का अपराधबोध था...बर्फ सा कहीं जमा हुआ...चांदनी सी निर्मल धारा बहने लगी और उसके आलोक में सब कुछ उजला था, निखरा हुआ...उज्वल...धवल...निश्छल. 

26 April, 2011

जो ऐसा मौसम नहीं था

वो ऐसा मौसम नहीं था 
कि जिसमें किसी की जरुरत महसूस हो 
वो ठंढ, गर्मी, पतझड़ या वसंत नहीं था
मौसम बदल रहे थे उन दिनों

तुम आये, तुम्हारे साथ 
मौसमों में रंग आये
मुझसे पूछे बगैर
तुम जिंदगी का हिस्सा बने

तुमने मुझसे पूछा नहीं
जिस रोज़ बताया था 
कि तुम मुझसे प्यार करते हो
मैंने भी नहीं पूछा कि कब तक 

यूँ नहीं हुआ कि तुम्हारे आने से
बेरहम वक़्त की तासीर बदल गयी
यूँ नहीं हुआ कि मैं गुनगुनायी
सिर्फ मुस्कराहट भर का बदलाव आया 

तुमने सोलह कि उम्र में
नहीं जताया अपना प्यार 
और मैं इकतीस की उम्र में
नहीं जता पाती हूँ, कुछ भी 

शायद इसलिए कि
हम बारिशों में नहीं भीगे
जाड़ों में हाथ नहीं पकड़ा 
गर्मियों में छत पर नहीं बैठे 

जब पतझड़ आया तो
पूछा नहीं, बताया 
कि तुम जा रहे हो 
और मैं बस इतना कह पायी 

कुबूल है, कुबूल है, कुबूल है 

22 April, 2011

वो काफ़िर

'तुम्हें देख कर पहली बार महसूस हुआ है कि लोग काफ़िर कैसे हो जाते होंगे. मेरे दिन की शुरुआत इस नाम से, मेरी रात का गुज़ारना इसी नाम से. मेरा मज़हब बुतपरस्ती की इजाजत नहीं देता पर आजकल तुम्हारा ख्याल ही मेरा मज़हब हो गया है.
'जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है'

'शेर का मतलब बताओ...मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आया' 
'हमारे यहाँ नमाज़ से पहले वज़ू करते हैं, हाथ पैर धोके, कुल्ला करके...पाक होकर नमाज़ पढ़ते हैं'
'और तिलावत का मतलब?' 
'तुम'
'मजाक मत करो, शेर कहा है तो समझाओ तो ठीक से'

पर उसने तिलावत का मतलब नहीं समझाया...कहानी सुनाने लगा. एक बार मेरे मोहल्ले की किसी शादी में आया था, वहीं उसने मुझे पहली बार देखा था और उसने उस दिन से लगभग हर रोज़ यही दुआ मांगी है कि मैं एक बार कभी उससे बात कर लूं. फिर उसने मुझे अपनी कोपी दिखाई खूबसूरत सी लिखाई में आयतें लिखी हुयी थीं और हर नए पन्ने के ऊपर दायीं कोने में, जिधर हम तारीख लिखते हैं 'अमृता' उर्दू में लिखा था...उस समय मैंने हाल में उर्दू सीखी थी तो अपना नाम तो अच्छी तरह पहचानती थी. उसने फिर बताया की ये मेरा नाम है...मैंने उसे बताया की मैं उर्दू जानती हूँ.  उसने बताया की उसकी कॉपी के हर पन्ने पर पहले मेरा नाम लिखा होता है...उसकी कापियों पर काफी पहले की तारीखों पर मेरा नाम लिखा था कुछ वैसे ही जैसे मेरी कुछ दोस्त एक्जाम कॉपी के ऊपर लिखती थी...'जय माँ सरस्वती' या ऐसा कुछ. कॉपी में आयतों के बीच ये हिन्दू नाम बड़ा अजीब सा लग रहा था और नाम भी कुछ ऐसा नहीं की समझ में नहीं आये. कुछ शबनम, चाँद या ऐसा नाम होता तो शायद ख़ास पता नहीं चलता. 


'बाकी लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे? तुम्हें मालूम भी है कि अमृता का मतलब क्या होता है?'
'हाँ...मेरे खुदा का नाम है अमृता' 


मैं सर पकड़ के बैठ गयी...घर पर पता चला तो घर से निकलना बंद हो जाएगा, कैरियर शुरू होने के पहले ही ख़त्म हो जाएगा....मेडिकल करना बहुत टफ था, कोचिंग नहीं जाती तो डॉक्टर बनने के सपने, सपने ही रह जाते. उससे पूछा की मुझे ये सब क्यों बता रहा है तो बोला, बता ही तो रहा हूँ, सुन लोगी तो तुम्हारा क्या चला जाएगा. कुछ माँग थोड़े रहा हूँ तुमसे. मुझे सुकून आ गया थोडा...अब जिंदगी इतनी छटपटाहट में नहीं गुजरेगी. कमसे कम खुदा को शुक्रिया कहते हुए नमाज़ पढ़ सकूँगा. 


मोहल्ले में लोग उसे लुच्चा-लफंगा कहते थे, उसे कोई काम नहीं है, बस झगड़ा, दंगे फसाद करना जानता है. सब जानने पर भी न विश्वास हुआ उनकी ख़बरों पर न उससे नफरत हुयी कभी...और डर, वो तो खैर कभी किसी से लगा ही नहीं. उन दिनों पटना में टेम्पो शेयर करना पड़ता था. पीछे वाली सीट पर तीन लोग बैठते थे, और बहुत देख कर बैठना पड़ता था की कोई शरीफ इन्सान हो. कोचिंग जाते हुए अक्सर सरफ़राज़ पाटलिपुत्रा गोलंबर पर मिल जाता था, उसे स्टशन जाना होता था. उसे कुछ भी नहीं जानती थी...पर एक अजनबी के साथ बैठने से बेहतर उसके साथ जाना लगता था. और कई सालों में उसने कभी कोई बदतमीजी नहीं की. जिस दिन वो दिख जाता पेशानी की लकीरें मिट जाती थीं. 


कहने को कह सकती हूँ की उससे कोई भी रिश्ता नहीं था...बस एक आधी मुस्कान के सिवा मैंने उसे कभी कुछ दिया नहीं, न उसने कभी कुछ कहा मुझसे. उसने पहले दिन वाली बात फिर कभी भी नहीं छेड़ी, मैंने भी सुकून की सांस ली. वैसे भी इशरत के पापा का ट्रान्सफर हो गया था तो उसके मोहल्ले में जाने का कोई कारण नहीं बनता था. मैं सरफ़राज़ के घर फिर कभी नहीं गयी...इशरत से बात किये एक अरसा हो गया है, आज भी सोच नहीं पाती की उसके उतने बड़े मकान में उसने अपने स्टडी रूम में क्यूँ रुकने क कहा, जबकि उसका बड़ा भाई वहां पढ़ रहा था. क्या इशरत को सरफ़राज़ ने मेरे बारे में बताया था या वो महज़ एक इत्तेफाक था. 


एक दिन 'राजद' का चक्का जाम था, पर हम जिद करके कोचिंग चले गए कि दिन में बंद था...शाम को कुछ नहीं होता.  क्लास चल रही थी कि खबर आई की बोरिंग रोड में कुछ तो दंगा फसाद हो गया है, फाइरिंग भी हुयी है. क्लास उसी समय ख़त्म कर दी गयी और सबको घर जाने के लिए बोल दिया. कोचिंग से बाहर आई तो देखा कर्फ्यू जैसा लगा हुआ है. दुकानों के शटर बंद, सड़क पर कोई भी गाड़ियाँ नहीं, एक्के दुक्के लोग और टेम्पो तो एक भी नहीं. पैदल ही निकल गयी...कुछ कदम चली थी की सरफ़राज़ ने पीछे से आवाज़ दी.
'उधर से मत जाओ, आग लगी हुयी है, गोलियां चल रही हैं.'
मुझे पहली बार थोड़ा डर लगा...पटना  उतना सुरक्षित भी नहीं था...पिछले साल कुछ गुंडे दुर्गापूजा के समय डाकबंगला चौक से एक लड़की को मारुती वान में खींच ले गए थे. एक सेकंड सोचा...कि सरफ़राज़ के साथ जाना ठीक रहेगा या अकेले...तो फिर उसके साथ ही चल दी...उसे अन्दर अन्दर के रास्ते मालूम थे. जाने किन गलियों से हम बढ़ते रहे...शाम गहराने लगी थी और एक आध जगह तो मैं गिरते गिरते बची, एक तो ख़राब सड़क उसपर मेरे हील्स. सरफ़राज़ ने अपना हाथ बढ़ा दिया...की ठीक से चलो. और पूरे रास्ते हाथ पकड़ कर लगभग दौड़ाता हुआ ही लाया मुझे. मैं महसूस कर सकती थी की उसे मेरी चिंता हो रही  है. 


अचानक से मेरे मुंह से सवाल निकल पड़ा कि तुम्हें सब लोग बुरा क्यों कहते हैं मेरे मोहल्ले में...यूँ तो सवाल अचानक से था...पर दिल में काफी दिन से घूम रहा था. वो उस टेंशन में भी हंसा...
'इशरत को कुछ लड़कों ने छेड़ दिया था, बताओ तुम्हिएँ कि छेड़े तो तुम्हारे भाई का खून नहीं खौलेगा? उनसे काफी लड़ाई हो गयी मेरी...क्या गलत किया मैंने, पुलिस आ गयी थी. मुझे तीन दिन जेल में डाल दिया...अब्बा ने बड़ी मुश्किल से मुझे छुड़ाया. बस, इतना सा किस्सा है'. 
'पटना का माहौल तो तुम जानती ही हो, इसलिए तुम अगर दिख जाती हूँ तो तुम्हारे साथ ही टेम्पो पर जाता हूँ...तुम्हें ऐतराज़ हो तो मना कर दो'. 
तब तक हम घर के पास आ गए थे, पर सरफ़राज़ ने उसने मुझे घर के चार कदम पर छोड़ा. उसने सर पर हाथ रखा और कहा 'अपना ख्याल रखना' ये उसके आखिरी शब्द थे. उस दिन से बाद से उससे कभी बात नहीं हुयी मेरी.
पटना के आखिरी कुछ सालों में व मुझे बहुत कम दिखा. शादी के दिन भी नहीं आया...हालाँकि मैंने कार्ड पोस्ट किया था उसके घर पर. शायद उसने घर बदल लिया हो. जाने क्यूँ मुझे लगता है, जिंदगी के किसी मोड़ पर व जरुर फिर मिलेगा...भले एक लम्हे भर के लिए सही. 


इस शेर का मतलब तो अब समझ आ गया है...पर शायद वो मुझे पूरी ग़ज़ल भी बता दे उस रोज़. 


जानेमन हमने तुमसे यूँ मुहब्बत की है
बावज़ू होकर तेरी तिलावत की है

ज़ख्म अब तक हरे हैं

तुम्हें सच में नहीं दिखते?
दायें हाथ की उँगलियों के पोर...नीले हैं अब तक
ना ना, सियाही नहीं है...माना की लिखती हूँ 
पर अब तो बस कीपैड पर ही 

तुम भूल भी गए फिर से
तुम्ही ने तो मेरी पेन का निब तोड़ा था 
मुझसे अब कभी नहीं मिलना
कह कर, आखिरी वाले दिन 

तुम क्यूँ पकड़ा करते थे मेरा हाथ
क्लास में डेस्क के नीचे, तुम्हें पता है 
एक हाथ से नोट्स कॉपी करने में
उँगलियों के पोर नीले पड़ जाते थे 

गर्म दोपहरों में, पिघला डेरी मिल्क 
उँगलियाँ झुलसा देता था
इतना तो तवे से रोटियां उतारते
हुए भी कभी नहीं जली मैं 

मेरे हाथ से फिसलती तुम्हारी उँगलियाँ
तराशी हुयी, किसी वायलिन वादक जैसी 
छीलती चली गयीं थीं मेरी हथेलियों को 
लगता था बचपन है, चोट लगने वाले दिन हैं 

आज डायरी पढ़ रही थी, २००३/४/5 की
उँगलियाँ फिर से सरेस पर रगड़ खा गयीं 
पन्ने लाल होने लगे तो  जाना 
उँगलियों के ज़ख्म अब तक हरे हैं 

13 April, 2011

उस सरफिरी, उदास लड़की का क्या हुआ?

बहुत पुरानी बात है...
दो आँखें हुआ करती थीं
बीते बरस 
उनपर कई मौसम आये और गए 

जिस दिन से तुम नहीं आये 
रात का काजल 
आँखों में फैलता चला गया 
और बेमौसम बारिश होने लगी 

जो नदी बरसाती हुआ करती थी
अब सालों भर बहने लगी
आँखों का काला रंग भी
पानी में घुल के फीका पड़ने लगा 

जो दिखते थे सारे रंग 
जिंदगी से रूठ कर चले गए 
बहार को आँखों ने पहचाना नहीं
वो इंतज़ार करते बूढ़ी हो गयी 

सुनते हैं कि बरसों की थकन से 
उसकी आँखें मर गयी थीं 
मगर ये कभी पता ही नहीं चला
उस सरफिरी, उदास लड़की का क्या हुआ?

06 April, 2011

म्युचुअल/Mutual

तुमने कहा
मुझे बस एक लम्हा चाहिए, पूरी शिद्दत से जिया एक लम्हा
मैंने कहा
मुझे तुम्हारी पूरी जिंदगी चाहिए, सारी जिंदगी 

तुमने कहा
मैं तुमसे प्यार करता हूँ
मैंने कहा
तुम्हारे-मेरे रिश्ते का नाम ला कर दो 

तुमने कहा
तुम्हारे पंखों में उड़ान है, तुम पूरा आसमान नाप सकती हो, मैं तुम्हें कभी बाँध के नहीं रखूँगा
मैंने कहा
ये एक कमरा है, इसमें मैं हमारा घर बसाउंगी, इसी में रहो, समाज यही कहता है...मुझे बाहर नहीं जाना  

तुमने कहा
मेरे साथ उदास हो, मैं तुम्हें परेशान नहीं देख सकता, तुम चली जाओ, खुश रहना 
मैंने कहा 
वादा करो मुझे छोड़ कर कभी नहीं जाओगे, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती 

तुमने कहा
मेहंदी लगवा लो, वैसे भी हमारे तरफ मेहंदी में लिखे नाम का ही मोल होता है
मैंने कहा
मुझे टैटू बनवाना है, वो भी तुम्हारे नाम का ही 

तुमने कहा
मुझे भूल जाना अब
मैंने नहीं कहा
कि मुझे भूलना नहीं आता 

तुम्हें लौटना नहीं आता
और मुझे इंतज़ार नहीं भूलता...

28 March, 2011

पहला एक्सीडेंट

पहले तो सफाई की हमारे एक्सीडेंट में कोई रूमानी बात नहीं है, हाय हमारी ऐसी किस्मत कहाँ...ठुके भी तो...खैर. उस दिन हम जाने किसका चेहरा देख कर उठे थे...सुबह कुछ काम से जाना था, हड़बड़ी में निकले थे. एक प्रिंट आउट निकलवाना था...वाल्लेट खोलते हैं तो देखते हैं की पैसे नदारद...हम अधिकतर लड़कों वाला वालेट ही लेकर चलते हैं की जींस की बैक पॉकेट में डाला और निश्चिन्त, पर्स ले जाने में मेरा ज्यादा भरोसा नहीं है. लेकिन इत्तिफाकन एक रात पहले हमने अपने पर्स में पैसे और कार्ड्स डाल दिए थे और सुबह हड़बड़ी में चेक करना भूल गए. अब मेरे वालेट में एक भी रूपया नहीं...रुपये की तो खैर मैं जायदा चिंता नहीं करती पर लाइसेंस नहीं था और मैं बिना DL के बैक नहीं चलती. तो घर गयी, पर्स उठाया...मुहूर्त का तो कबाड़ा हो ही गया था. 

लावेल रोड के आसपास पार्किंग की जगह ही नहीं एकदम...मैंने कार पार्किंग में ही बाईक खड़ी कर दी की दस मिनट का काम है, दस मिनट के घंटा हो गया. बाहर आई तो देखती हूँ नो-पार्किंग वाले ले जा रहे हैं उठा के. देर काफी हो गयी थी तो पहले ऑटो किया और ऑफिस भागी. तब तक लगभग लंच का टाइम हो गया था. आधे रस्ते में याद आया की टिफिन भी तो बाईक में ही है उसपर से कल रात काजू पनीर की सबकी बनायीं थी तीन बजे...और चखी भी नहीं थी. अब तो लगे की पहले बाईक से उतर कर रोना शुरू कर दूं. ऑफिस पहुंची तो पता चला मीटिंग कैंसिल थी. मैंने सोचा बाईक ले आती हूँ...भूख लग रही थी, सुबह से एक बजने  को आये थे और खाना कुछ भी नहीं खाया था. 

बाईक लाने के लिए जिस ऑटो से गयी उसने वन वे में एंट्री कर दी...वहां से उतर कर कुछ पौन किल्मीटर चल कर वहां पहुंची जहाँ बेचारी मेरी बाईक खड़ी थी. तीन सौ रूपये दे कर गाडी छुड़ाई और वापस ऑफिस...आजकल  मेट्रो का काम चल रहा है तो खुदी हुयी सड़क पर बोर्ड लगा लिए गए हैं. मैंने उधर ही यु टर्न के लिए बाइक मोड़ी...सड़क लगभग खाली थी कुछ गाड़ियाँ आ रही थी...चूँकि तुरत यु टर्न लिया था तो मैं सबसे दायीं लें में थी...अचानक से मुझे पता भी नहीं चला और काफी तेज़ी से एक कार ने अचानक मुझे ठोक दिया, मेरी बाइक काफी धीमी थी इसलिए मैं ब्रेक मार कर रकने या कंट्रोल करने की कोशिश की पर व कार इतनी तेज़ी से आ रही थी की मैं एक पलटन खाते हुए दूर फेंका गयी. किस्मत अच्छी थी की पीछे वाली गाड़ियाँ मुझपर नहीं चढ़ीं. कुछ लोग आये, उन्होंने मुझे उठाया, बाइक को सड़क किनारे लगाये. अचानक चोट या दर्द तो ज्यादा नहीं हो रहा था बस थोड़ा shaken महसूस कर रही थी. किसी भी तरह का एक्सीडेंट थोड़ा वल्नरेबल फील करा देता है. लग रहा था की कुछ भी हो सकता था, मर सकती थी. अचानक, बिना किसी से विदा लिए हुए.

वहां खड़े एक अंकल ने गाडी का नंबर भी नोट कर लिया था...मैंने भी सोचा की एक कम्प्लेन तो डाल ही दूँगी. पानी पिया और थोड़ी देर गहरी सांसें ले कर खुद को संयत किया. वहीं लोगों ने बताया की कार वाले के पीछे एक व्यक्ति बाइक से गया है. मैंने उम्मीद तो क्या ही की थी...पर दस मिनट ने अन्दर वो कर वाले को लेकर आ गया और बला की आप लोग आपस में बात कर लीजिये. मैं तब तब एकदम परेशान हो चुकी थी, रोना सा आ रहा  था. पर मैंने सोचा की घबराने की कोई बात नहीं है...मैं ठीक हूँ और कुछ ही समय में घर पहुँच जाउंगी. गाडी वाला सॉरी बोला..पूछा की मुझे चोट तो नहीं लगी...मैं काफी परेशान थी तो मैं कुछ नहीं कहा उससे...बस इतना की ये कोई तरीका है कार चलने का, न मैं किसी गलत लेन में थी, न मैं ओवेर्टेक कर रही थी, न मैं वन वे में थी...पूरी सड़क खाली थी. खैर...

असली मुसीबत फिर शुरू हुयी जब बाइक स्टार्ट ही नहीं हो रही थी...एक तो चोट लगी थी, उसपर किक मरते मारते हालत ख़राब...बहुत देर के बाद जाके बाइक स्टार्ट हुयी. वहां से चली और मुश्किल से १०० मीटर चली होगी की फिर बंद...अब चिन्नास्वामी स्तादियम से mg रोड तक बाइक पार्क करने की कोई जगह ही नहीं. वहां से लगबग आधा किलोमीटर बाइक खींच कर लायी. बीच सड़क में छोड़ भी नहीं सकती थी. फिर काफी देर बाइक स्टार्ट करने की कोशिश की...फिर सोचा की थोड़ा और पेट्रोल डाल कर देखते हैं...तब तक लगभग ढाई बज गए थे और भूख के मारे चक्कर आने लगे थे. वहां से कोई तीन सौ मीटर पर पेट्रोल पम्प था...एक अच्छे दरबान भईया ने बोतल ला के दी...फिर पैदल गयी और पेट्रोल लिया. उस वक़्त इतनी हिम्मत नहीं हो रही थी की रोड पार करके उस तरफ से औत लेकर पेट्रोल पम्प जाऊं. सर्विस सेंटर को फोन किया तो उन्हने बताया की पूरा एक्सीलेरेटर दे कर किक मारने से स्टार्ट हो जाएगा. 

पेट्रोल डाला और स्टार्ट करने की कोशिश की तब भी नहीं हो रहा था...तब एक और भला लड़का आया और उसने बहुत कोशिश की...फिर बाइक स्टार्ट हो गयी. जब जाने की बारी आई तो ध्यान आया की हेलमेट तो डिक्की में है...और डिक्की खोलने के लिए चाभी निकालनी होगी...रोना आ गया एकदम से. पर अभी तुरत एक्सीडेंट हुआ था तो बिना हेलमेट के कहीं जाने में बहुत डर लगा. खैर...इस बार इतनी दिक्कत नहीं हुयी. 

वहां से ऑफिस आई खाना खाया...फिर भी थोड़े चक्कर आ रहे थे. तो सोचा घर चली जाऊं. तो घर चली आई की आज का दिन बहुत ख़राब है...जितनी जल्दी घर पहुँच जाऊं बेहतर रहेगा. मेरे साथ एक प्रॉब्लम और है की घर में मूड अच्छा हो तो मन लगता है वरना घर काटने को दौड़ता है. तो शाम को फिर घूमने निकल गयी. वापस आई कपडे बदले तब पहली बार देखा की कितनी चोट लगी है. एक सेकंड को तो फिर से चक्कर आ गए. जींस पहनती हूँ इसलिए छिला नहीं कुछ पर कुछ हथेली भर जितना बड़ा खून का थक्का जम गया था. देखने के बाद और दर्द होने लगा. रात होते होते और भी जगहों के दर्द उभरे. 

अगले दिन ये हालत की चलने में पूरे बदन में दर्द और जुबान पर 'सर से सीने में कभी, पेट से पांवों में कभी, एक जगह हो तो बताएं की इधर होता है'. दो दिन आराम किया पर आराम कहाँ...लगता है पहली बार प्यार में गिर पड़े हैं, दर्द जाता ही नहीं...इश्क कर बैठा है मुझसे. अब कुछ दिन तक न कार चलेगी मुझसे न बाइक. घर बैठे लिखने पढने का इरादा है. 

जो लोग ब्लॉग में नए हैं जैसे सागर, अपूर्व, दर्पण, डिम्पल, पंकज...इनसे अक्सर हम अक्सर ब्लॉग के एक सुनहरे दौर की बात किया करते हैं...जब दुनिया में कम लोग थे और हर छोटी चीज़ पर कई दिन बात किया करते थे. जैसे पीडी की टांग नहीं टूटने के बाद भी अब तक पुराने लोग पीडी के टांग टूटने का किस्सा जानते हैं. तो फुर्सत में मैंने कुछ लिंक ढूंढ निकले हैं...ताकि थोड़ा अंदाजा हो की उस समय क्या क्या बातें करते थे हम, रामप्यारी कौन है, क्या करती है वगैरह. मुझे चिट्ठाजगत का लिंक नहीं मिल रहा..वरना पोस्ट करती. 

खैर...हम ठीक हैं अभी...आराम कर रहे हैं...आप लोग दुआओं का टोकरा भेजिए, लगे हाथ कुछ फल, मिठाई भी आ सकती है टोकरे में. :) :) 

18 March, 2011

सीबोनेय/ siboney

'तू अभी तक जगी क्यों है?'
'सिगरेट की तलब हो रही है...इसलिए'
'कुछ नहीं थप्पड़ खाएगी तू, आजकल तेरा दिमाग ख़राब हो गया है...सो जा चुपचाप, कल फ्राईडे है, ऑफिस तो जाना होगा'
'वो तो कल उठने के बाद...उसके लिए आज सोना पड़ेगा...पर होठों को एक सिगरेट की तलब हो रही है...और एक बालकनी की भी. वैसे तलब तो तेरी भी हो रही है पर ऐसे सात समंदर पार तुझे कैसे बुला लूं...जब तुमने स्मोकिंग छोड़ी नहीं थी...मेरे बालों में जब तुम उँगलियाँ फिराते थे बालों से धुएं की खुशबू आती थी...आह...उन दिनों तुम्हारे होठों का...जाने दो...मेरे दिमाग की वाइरिंग लूज हो गयी है.'
..................................
'सुनो'
'हाँ' 
'आज मैंने एक फिल्म देखी...२०४६ तुम कभी मेरे साथ बैठ कर ये फिल्म देख पाओगे प्लीज...जानती हूँ तुम्हारे टाइप की फिल्म नहीं है पर लगता है की तुम वैसे ही बालों में उँगलियाँ फिराते रहो और मैं तुम्हारे सीने से टिक कर पूरी फिल्म देखूं. अच्छा बता तो, क्या ये बहुत बड़ी ख्वाहिश है?'
'ह्म्म्म'
...............................
'लोग कहते हैं कि तुम्हारी टिकट बहुत महँगी है, बताओ तो एक लाख में कितने जीरो होते हैं,  हंसो मत न...जानते हो की मेरी मेरी मैथ कितनी कमजोर है. अगर तीस हज़ार बचाऊं हर महीने तो कितने दिन में तुम्हारा रिटर्न टिकट खरीदने लायक पैसे हो जायेंगे? मुझसे मिलने कब आओगे?
'पता नहीं...तुम तो जानती हो कितना मुश्किल है यहाँ सब सेटल करना...आज अचानक तुम्हें क्या हो गया है...आज फिर स्कॉच मारी हो क्या? अगली बार तुम्हारे लिए नहीं लूँगा. तुम ये सेंटी फिल्में देखती क्यों हो...खामखा क्या क्या बोलने लगती हो'.
...........................................
'तुमने तो बहुत लड़कियों से प्यार किया होगा, बताओ तो भला सबसे जियादा किससे प्यार किया...जाने दो, पता है Days of Being Wild में जो हीरो है न वो एक लड़की को कहता है कि मैं तुम्हें हमेशा याद रखूँगा...मरने के पहले वाले कुछ क्षण में वो उसी लम्हे को याद करता है जब उसने ऐसा कहा था. मैं सोचती हूँ कि मैं मरने के वक़्त किसे याद करुँगी...मौत धीरे धीरे आती है क्या? आपको यकीन भी नहीं होता कि आप सच में मर जायेंगे...जैसे कि प्यार, कभी नहीं लगता है कि प्यार सच में हो जाएगा.
.......................................
एक ही दुःख है...तुम्हें जब आखिरी बार किस किया था तो पता नहीं था कि ये आखिरी बार होगा. 
आह...जिंदगी, तुझसे इश्क करना कितना तकलीफदेह है!


13 March, 2011

फाग गाते हुए लौटा बसंत है!

राजमार्ग की वो एक बेहद खूबसूरत सड़क थी...दोनों तरफ कतार में अनुशाषित पेड़ खड़े थे, कई दशकों तक वहां खड़े रहते हुए पेड़ भी अपनाप को उस राजमार्ग की शान का हिस्सा समझने लगे थे जैसे सचिवालय का दरबान...कोई जान न होते हुए भी बेहद अकड़ के खड़ा रहता था. सुबह और शाम के वक़्त साफ़ यूनिफार्म पहने सरकारी मुलाजिम सड़क पर झाड़ू लगाते थे...ये वही लोग थे जिन्होंने बचपन की किताबों में पढ़ा था की झाड़ू भी लगाओ तो ऐसे लगाओ जैसे दुनिया का सबसे महत्वपर्ण काम कर रहे हो. इस ख़ास सड़क के पेड़ समझते थे कि कई महत्वपूर्ण व्यक्ति इस राह से गुज़रते हैं...और इन लोगों को सफाई बेहद पसंद है...अपने पीले, उदास पत्तों को भी बूढ़ी टहनियां देर तक थामी रहती थी...पत्तों के गिरने का वक़्त तय था, दिन की दो शिफ्ट में सुबह और शाम, सरकारी मुलाजिमो के आने से कुछ ही उन्हें रुखसत होना होता था. सड़क पर गिरते ही पत्ते ऐसे ठिकाने लगा दिए जाते जैसे गरीब, विस्थापित गाँवों में बड़ी होती लड़कियां. हर शाम तयशुदा कोने में आग लगा कर पत्तों में मौजूद जरा भी जिजीविषा को राख बना दिया जाता. 

ऐसी शाम के बाद आने वाली किसी रात एक लेखक इस सड़क पर चल रहा था...भटकना भी कह सकते हैं क्योंकि उसकी कि मंजिल नहीं थी. किसी से मिलने का वादा नहीं था. लेखक बहुत बेचैन था और मन को भटकाने के लिए उसे कुछ मिल नहीं रहा था...कोई सूखे पत्ते नहीं जिन्हें जूते से मसल कर कुछ काम करने का अहसास हो...या कि जिनकी बेज़ुबानी पर कुछ कहानियां ही लिखी मिल जाएँ. सड़क की कंगाली का आलम ये था कि एक यायावर पत्थर तक नहीं था बेठिकाने कि जिसे पैरों से ठोकर मारते हुए किसी मंजिल पर पहुँचाने की कवायद की जाये. 

शुरूआती मार्च का महीना था...अभी होली नहीं आई थी पर मौसम में गर्मी थी. हवा में एक बेरुखी, उदासी और कठोरता थी...लेखक को अपने कवि होने के आखिरी दिन याद आ रहे थे. वो दहकते दिन जबकि बदन अक्सर सौ डिग्री बुखार में तड़पता रहता था और जबान आग उगलती कविताओं से झुलसी रहती थी. वो परेशान होने और छटपटाने के दिन थे...तीस पहुँचती उम्र में अपने समाज में कुछ बदलने की अभीप्सा उसे जिलाए जाती थी और जलाए डालती थी. घर से रोज़ ही शादी करके घर बसाने का दबाव होता था...उसे लगता था कि दिमाग की नसें फट जायेंगी. दुनियादारी के नाम पर कोई भी उसका अपना नहीं था, सिर्फ किताबों के बीच एक अलग ही साधना कर रहा था वह. 

उसने एक छोटी सी संस्था खोली थी जिसमें बाहर से आये मजदूरों के बच्चों के लिए स्कूल जाने का इन्तेजाम करता था. उसे इसमें संतोष मिलता था मगर वह जानता था कि उसे कुछ बड़ा करना होगा...वह अपनी सीमाएं जानता था और अपनी ताकत भी. वह जनता था कि उसे अपनी कलम के दम पर ही कुछ ऐसा करना है ताकि वो बड़े स्तर पर कुछ अच्छा कर सके. इन्ही दिनों उसने कहानियां लिखनी शुरू की थीं, लोगों से ज्यादा बात नहीं करने के बावजूद उसमें एक ऐसी दृष्टि थी जो इंसान के भीतर झांक के देख लेती थी. कहानियों में उसे अप्रत्याशित सफलता मिली...लोग उसके लेखन को कालजयी कहने लगे थे, कि वो समाज की नब्ज़ को पहचानता है. 

जैसे जैसे प्रसिद्धि बढ़ी उसके संस्था को सम्हालने वाले लोग आ गए, उसने अपनी खुद की प्रकाशन कंपनी भी शुरू की जिसमें वो सिर्फ बच्चों के लिए कम कीमत में किताबें छापने का काम करता. माँ की इच्छा पूरी करने के लिए उसने शादी भी कर ली और वक़्त में दो बेटे भी हुए. एक आम मध्यम वर्गीय परिवार से उठ कर वो काफी बड़ा आदमी बन गया था पर उसने सब कुछ अपने फ़र्ज़ की तरह किया, जैसे घर का बड़ा बेटा घर के लिए करता है उसने वैसे ही समाज के लिए किया. लोग उसे अक्सर समारोहों में बुलाते हैं, उसे अजीब सा लगता है स्टेज पर बैठ कर अपना बखान सुनना. 

ऐसे ही एक समारोह के लिए वो दिल्ली गया था...और देर रात अपने होटल से निकल कर राजमार्ग पर टहल रहा था. हर समारोह के बाद उसे लगता था कि वो बहुत बूढ़ा होता जा रहा है...कि उसकी जिंदगी में अब कोई उद्देश्य नहीं रहा. उसने जो करना चाहा था उसने कर लिया है. उसे अब बड़ी शिद्दत से किसी और मंजिल की तलाश थी. जिंदगी ताउम्र तलाश ही तो है...पा लेने पर ठहराव आ जाता है...और ठहराव यानि कि मौत. 

आज उसके पास बहुत फुर्सत थी...इसमें उसने पाया कि जीवन में सारे सुर मौजूद हैं पर लय ख़त्म हो गयी है...उसे अचानक याद आया कि उसने कई दिनों से कोई कविता नहीं लिखी...कविता लिखने में कहीं न कहीं रूमानियत बची रहती है...कविता इस बात का सबूत है कि कहीं न कहीं कोई राग है जो आत्मा के तारों को छेड़ सकता है. जबसे कविता लिखनी बंद की उसने जिंदगी में सब कुछ सधा हुआ किया; गिन कर कदम रखे, पूछ कर रास्ते पर निकला यहाँ तक कि प्यार भी पूरी शिद्दत से नहीं किया...अपना कुछ बचा के रखा हमेशा. यही बचा हुआ कुछ टुकड़े टुकड़े में अब उसे अन्दर से तोड़ रहा है.  

उसने दरबान से मांग कर बीड़ी पी और रात भर जगे रहने वाले शहर में भटका...अच्छी शराब ले कर आया और भोर होने तक शराब में घुलता रहा...लिखता रहा...अगली सुबह पहली फ्लाईट से घर गया. अपनी बीवी को हाथ पकड़ कर सामने बिठाया और कहा...तुम दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत हो और मैं तुमसे उतना ही प्यार करता हूँ कि जितना लोककथाओं के मर कर अमर हो जाने वाले नायक करते हैं. मैंने कल दशकों बाद कवितायें लिखी हैं...वो इसलिए कि बिना कहे भी तुम्हारा प्यार हमेशा मेरा हाथ थामे रहा. अगर मैं कविता लिखना भूल जाऊं तो मुझे याद दिला देना...मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ. 
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अगले महीने अपनी एक नयी किताब के सिलसिले में उसका फिर राजधानी जाना हुआ...इस बार वो अकेला नहीं गया था...पेड़ों पर भी तो वसंत आया हुआ था...चाँद भी पूरा था, चांदनी सावन के मौसम कि तरह बरस रही थी. 
कवि कोई गीत गुनगुना रहा था. 

पेड़ों की फुनगी पर...पत्तों की ओट से...सबरंगी मौसम में...फाग गाते हुए लौटा बसंत है!

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