13 February, 2009

एक खुशी का दिन :)


आज बहुत दिन बाद सुबह सुबह अखबार देखकर मन खुश हो गया...सारी खबरें अच्छी...ये कहीं वैलेंटाइन के पहले का गिफ्ट तो नहीं है?
एक तरफ़ पकिस्तान ने ये मान लिया कि मुंबई हमले कि सारी पृष्ठभूमि पकिस्तान कि सरजमी पर तैयार की गई थी। दूसरी तरफ़ कोर्ट ने निठारी मामले में पंधेर और कोली दोनों को अपराधी माना है...और सेने ने बंगलोर से अपना हाथ खींच लिया।
ये तीनो खबरें हमारी डेमोक्रेसी की जीत हैं...एक तरफ़ हम पाते हैं कि विश्व समुदाय के दिन ब दिन बढ़ते दबाव और ओबामा के कथन तथा भारत के दिए सुबूतों ने पकिस्तान को मजबूर कर दिया सच्चाई कुबूल करने के लिए। ये हमारी लोकतान्त्रिक जीत है...क्योंकि ऐसे माहौल में जंग या कोई भी ऐसा कदम हमारे लिए सही नहीं होता।
निठारी मामले ने रूह कंप थी थी, उसके बाद सीबीअई की नाकामी से एक तरह से उम्मीद टूट गई थी, लगा ही नहीं था इन कभी उन मृत बच्चों को इन्साफ भी मिलेगा। इतना जघन्य काम करने के बावजूद अगर मुजरिम छूट जाते तो न्यायिक व्यवस्था से विश्वास ही उठ जाता...justice delayed is justice denied.

और ये तीसरा कारन तो मुझे सबसे ज्यादा खुश कर रहा है...आख़िर श्री राम सेने ने बंगलोर में अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया है...अब ये पिंक चड्डी का असर था या फ़िर एक और चुनावी हथकंडा ये मालूम नहीं। उन्होंने अपने बयां में कहा है की उन्हीं डर है की बाकी असामाजिक तत्व लोगो को पीटेंगे और राम सेने का नाम बदनाम होगा। पर वो बाकी जगहों पर अपने अजेंडा को फोलो करेंगे...बंगलोर में मुतालिक और उनकी मोरल पोलिसिंग का जोर शोर सेना विरोध हो रहा था...और सब शांतिपूर्ण तरीके सेना, कहीं मानव श्रृंखला बना कर, तो कहीं उन्हें वैलेंटाइन डे पर ग्रीटिंग वार्ड भेज कर...और पिंक चड्डी के बारे में तो कहना ही क्या।

मैं इसे अपनी और अपने जैसी हजारों और लड़कियों की जीत के रूप में देखती हूँ...किसी को भी ये अधिकार नहीं की हमें बताये की हमारी संकृति क्या है और वो भी बलपूर्वक।

मैं एक ऐसी लड़की हूँ जिसे पता है की मेरी जड़ें कहाँ हैं...अपनी संस्कृति का सम्मान करना हम बखूबी जानते हैं, पर इसके लिए कोई और आके हमारे अधिकारों का हनन नहीं कर सकता है।

तो आज बहुत बहुत दिनों बाद मैं सुबह सुबह अखबार देख कर अपने देश में रहने के लिए गौरवान्वित महसूस करती हूँ। इस दिन को इतना खूबसूरत बनाने के लिए बहुतों ने कार्य किया है...उन सबका हार्दिक धन्यवाद।

12 February, 2009

बागी हुयी लड़की...

आज भी पुरानी डायरी के पन्ने ही हैं, बस इतना अन्तर है ये मेरे नहीं है...न मुझे मालूम है की ये किसकी लिखी कविता है...

तोड़कर रिश्ते पुरानी व्यस्त राहों से
चल रही बचकर जमाने की निगाहों से
जिंदगी है आजकल भागी हुयी लड़की...

छोड़कर अपनी पुरानी रूढियों के घर
आस्था, अनुशाषणों के बांधकर बिस्तर
फ़िर बढ़ा नाखून लंबे खोल कर निज केश
आ गई जो ख़ुद बगावत की नदी के देश
जिंदगी है आजकल बागी हुयी लड़की...

आज है जिस ठांव उसका नाम है जंगल
रह गए जिसके तिमिर में दस्युओं के दल
क्रूर भूखे भेड़ियों के चीखते स्वर से
चोर डाकू और लुटेरों के बढे डर से
जिंदगी है रात भर जागी हुयी लड़की...

एक दिन पूछा अचानक जबकि मैंने नाम
बहुत धीरे से बताया जिंदगी ने "शाम"
कर लिए हैं दांत तब से मौत ने पैने
और तब से नाम उस का रख दिया मैंने
वक्त की बन्दूक से दागी हुयी लड़की...

ये कविता बहुत बचपन में पढ़ी थी...और जाने इसमें कैसा आकर्षण है...कई बार पढ़ती थी...कुछ अपनी सी लगती थी ये लड़की, ये जिंदगी...ये बागी शब्द, शायद उस उम्र का असर हो। पर अब भी ये कविता अच्छी लगती है...सोचा आपसे भी बाँट लूँ, शायद आपमें से किन्ही को इसके लेखक का नाम पता हो.

परेशानियाँ

कल कालोनी में बाईक चला रही थी...कुछ खास नहीं शाम की खरीददारी वही, सब्जी दूध वगैरह...लौटते हुए अचानक से ध्यान गया की हल्का कोहरा उतर रहा है पेडों पर से। बिल्कुल से दिल्ली की याद आ गई...ऐसे ही तो हलके हलके कोहरा उतरता था...gurgaon की सड़कों पर, कुछ यही फरवरी का वक्त था...और हमें कोई हाल में पसंद आने लगा था। एक सेकंड के लिए तो भूल ही गई की गाड़ी पर हूँ और किसी को ठोक भी सकती हूँ...वैसे १५-२० की स्पीड पर ठोक भी दूंगी तो ज्यादा कुछ नहीं बिगडेगा :) गाड़ी वापस की और सडकों पर यूँ ही निरुद्देश्य दौड़ाने लगी।

मुझे कोहरा बड़ा अच्छा लगता है, वो भी साल के इस वक्त जब हलकी ठंढ हो और हवाएं चल रही हों, सड़कों पर सूखे पत्तों का ढेर लगा हो...और स्ट्रीट लैंप अपनी पीली रौशनी से भिगो रहे हों...उसपर अभी हाल में पूर्णिमा थी तो चाँद शाम को बड़ा खूबसूरत लग रहा था...वही आधे से थोड़ा बड़ा...थोड़ा नारंगी पीला रंग का, पेड़ों के पीछे लुका छिपी खेलता हुआ। हमने सोचा घर जाने के पहले एक दो चक्कर लगा लेते हैं, थोडी देर पार्क में बैठेंगे फ़िर घर जायेंगे...सोच में पहला ही राउंड मारा था की लगा की कोई पीछे हैं बाईक पर, हमने अपनी स्पीड और कम कर ली...की भैय्या जाओ आगे, हमें तो कोई शौक नहीं है तेज़ चलाने का अभी...फ़िर अचानक से ध्यान आया की हम जूस खरीदना भूल गए हैं...और कई बार भूख लगने पर वही आखिरी सहारा होता है...

दुकान की और बढे तो फ़िर से लगा वही गाड़ी पीछे है...हम रुके...जूस ख़रीदा और वापस...सोचा पार्क में बैठेंगे...पर वही बाईक फ़िर से पीछे...मरियल सा कोई लड़का था, एक झापड़ मार देती तो पानी नहीं मांगता...पर लगा खामखा के पंगा लेने का क्या फायदा...दिल में जितनी गालियाँ आती थी सब दे डाली...और खुन्नस में घर आई। उस गधे ने मेरी शाम ख़राब कर दी थी ...मूड उखड गया। दिल्ली में इसी टेंशन के करण कभी गाड़ी नहीं ली थी, वहां पर ऐसा बहुत होता है कि लड़कियों के आगे पीछे लड़के रेस लगा रहे हैं। बंगलोर इस मामले में सेफ है यही सोच कर हाल में ही खरीदी है...पर ऐसे लड़कों का क्या करें...जाने कौन सा भूसा भरा रहता है इनके दिमाग में।

क्या मिल जाता है किसी को परेशान कर के...उसपर मैं कोई बहुत तेज़ गाड़ी भी नहीं चलती हूँ कि रेस लगाने का मन करे...मुहल्ले में तो कभी ४० से ऊपर जाती ही नहीं, नॉर्मली ३० के आसपास ही रहती है। ऐसे कुछ बेवकूफों के कारन सारे लड़कों पर गुस्सा आने लगता है...इसी चक्कर में कल कुणाल से लड़ गई :( उसकी कोई गलती भी नहीं थी.

अब सोच रही हूँ कि फ़िर से दिखेगा तो क्या करुँगी?

11 February, 2009

तुम मुझसे इतने दिन गुस्सा कैसे रह सकती हो?

बहुत सालों बाद उसे फ़ोन किया...पूजा बोल रही हूँ...और फ़िर कुछ लम्हों की खामोशी, क्योंकि समझ नहीं आ रहा था कि इसके आगे अपना परिचय क्या दूँ। और ये कमबख्त मेरा नाम भी इतना कॉमन है कि एक बार में कोई भी कंफ्यूज कर जाता है कि कौन सी वाली पूजा...तब लगता है कि मेरा नाम कुछ टिम्बकटू टाईप होता तो कम से कम ये मुश्किल नहीं होती...नाम लेते ही झन्न से दिमाग की बत्ती जल जाती।

खैर...नाम के असाधारण होने की कमी अक्सर मेरी आवाज पूरी कर देती है...मुझे मालूम नहीं क्यों, पर अक्सर लोग मेरी आवाज नहीं भूलते...शायद इसलिए क्योंकि लगातार देर तक बिना नाम बताये एकालाप कम ही लोग करते होंगे :) और लगभग इतनी देर में मुझे पहचानना कोई मुश्किल बात नहीं है। मुझसे वो खैरियत पूछने वाली २ मिनट की बातें होती ही नहीं हैं...जब तक आधा घंटा बतिया न लूँ, मन ही नहीं भरता...इसलिए मेरे फ़ोन से बात करने वालों कि संख्या बहुत कम है...खैर इस संख्या में एक नाम उसका भी था...जिससे घंटों बात करते पता ही नहीं चलता था।

वो मेरा सबसे अच्छा दोस्त हुआ करता था एक ज़माने में...फ़िर कुछ गलतफहमियां आ गई बीच में, और ये दीवार ऐसी खड़ी हुयी कि हममें बातचीत बिल्कुल बंद हो गई...वो कहीं और पढने चला गया, मैं अपने कॉलेज में बिजी हो गई...जिंदगी चलती रही, साल दर साल गुजरते रहे। आख़िर वो दिन भी आ गया जब हमेशा के लिए पटना छोड़ कर दिल्ली आना था। पापा का ट्रान्सफर हो गया था इसलिए ये मालूम था कि अब कभी लौट कर आना शायद सम्भव न हो।

उस वक्त गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थीं, मुझे मालूम था कि वो भी घर आया होगा. बहुत दिन सोचा उसे फ़ोन करूँ या न करूँ, कई बार ख़ुद को बहलाने की कोशिश भी की कि उसका नम्बर खो गया है...पर उसके फ़ोन नम्बर को कभी लिख के कहाँ रखा था, वो तो ऐसे याद था जैसे उसका नाम...आँख बंद कर के फ़ोन पर उँगलियाँ चला दूँ तो उसके घर लग जायेगा ऐसी आदत थी.
बोरिंग रोड पर अभी भी दोनों तरफ़ के गुलमोहर और अमलतास थे...जाने कितनी बातें रोज याद आ रही थी, जैसे जैसे जाने का दिन करीब आ रहा था...फ़िर लगा कि फ़ोन कर ही लेना चाहिए...खा थोड़े न जायेगा...यही होगा कि एक बार और फ़ोन पटक देगा...मुझे तुमसे बात नहीं करनी...तुम मेरी क्या लगती हो जो तुमसे बात करूँ...मैं इसके लिए तैयार थी.
फ़ोन लगाया...उस तरफ़ उसका वही खिलखिलाता हुआ चेहरा घूम गया मेरी नज़र में...मैंने बस एक लाइन कही...मैं आज हमेशा के लिए शहर से जा रही हूँ, तुम्हें परेशां करने का मन नहीं था, पर बिना बताये जाने का मन नहीं किया. वैसे तो आई प्रोमिस कि तुम्हें कभी मेल नहीं करुँगी...पर अपनी ईमेल आईडी दोगे? और उसने बड़ी सहजता से अपनी आईडी दे दी. दिल्ली में कई बार सोचा मगर कभी मेल नहीं किया उसको.
दिल इस बात को बर्दाश्त ही नहीं कर पाता था कि अगर मैंने मेल किया और उसने जवाब में झगडा किया तो...सोचती थी कि जाने लोग किसी से ताउम्र जैसे नाराज रह पाते हैं. फ़िर एक दिन उसका नम्बर ढूँढा...और कॉल किया.
उस वक्त थोडी देर बातें हुयी...ऑफिस में हम दोनों बिजी थे...फ़िर रात को फ़ोन आया उसका...शायद तीन चार घंटे बात हुयी होगी हम दोनों की...मैं तो खाना खाना भूल गई...पता नहीं कितने किस्से...कितनी बातें...जब बहुत देर हो गई तो लगा कि अब सोना चाहिए, कल ऑफिस भी तो जाना है.
उस दिन फ़ोन रखने के पहले उसने पूछा..."पूजा एक बात बताओ, तुम जब मेरा ईमेल आईडी ली थी तो कभी मेल क्यों नहीं की? तुमको पता है हम रोज इंतज़ार करते थे...कि आज मेल आएगा...इतने दिन कैसे गुस्सा रह पायी हमसे?"
मेरे पास कोई जवाब नहीं था...आज भी नहीं है...जाने लोग अपनों से कैसे खफा हो जाते हैं...और अक्सर साल गुजर जाते हैं...बस एक पहल के इंतज़ार में...साल साल के जाने कितने दिन, कितने लम्हे.
जाने कोई कैसे खफा हो के रह पाता है किसी से ताउम्र?

10 February, 2009

साहस और पिंक चड्डी

परीक्षा में सवाल आया..."साहस किसे कहते हैं?"
छात्र ने पूरा पेपर खाली छोड़ दिया...आखिरी पन्ने पर लिखा
"इसे कहते हैं साहस

हमारा तो मन किया कि हम भी साहसी हो जाएँ और एक ब्लॉग पोस्ट ब्लैंक कर दें...अगर लोगो ने इस (दु:)साहस की बधाई दी तो सिद्ध हो जायेगा कि उपरोक्त उदहारण सही है...या सत्य घटना है। पर फ़िर आख़िर में हिम्मत नहीं हुयी...या यूँ कहिये कि ये लगा कि अगर कमेन्ट पन्ना भी ऐसा ही कुछ खाली खाली आया तो? वैसे भी आजकल ब्लॉगजगत में रीशेशन की मार पड़ी हुयी है, लगता है सबने लिखना पढ़ना छोड़कर काम में दिल लगा लिया है, बस हम जैसे निठल्ले रोज रोज पोस्ट डाले जा रहे हैं।

अगले हफ्ते से वॉयलिन क्लास ज्वाइन कर रही हूँ। बहुत दिन से सीखने का मन था पर किसी ना किसी कारण हो ही नहीं पाता था, कभी घर के पास कोई स्कूल ही नहीं मिला...कभी तेअचेर हमारे घर के पास आने को तैयार नहीं। वॉयलिन हमेशा से बड़े अचम्भे की चीज रही है मेरे लिए...तो अच्छा लग रहा है कि चलो एक नाम कटा लिस्ट से।

आजकल विषयों की कमी हो गई है...और वैलेंटाइन के पहले लोगो ने इतना हल्ला मचाया कि सारा रोमांस काफूर हो गया...बरहाल मैं तो पिंक चड्डी भेजने वाली हूँ राम सेने के ऑफिस और १४थ को पब भी जाउंगी। आपमें से भी किसी को चड्डी भेजनी है तो लिंक पर क्लिक करें।

मेरे ख्याल से saahas इसे कहते हैं...चुप चाप बैठे रहने के बजाई कुछ करना...कुछ भी।

09 February, 2009

बिदारी तेरी जय हो

कहीं कोई कुछ ग़लत करता है तो हम सब मूसल ले के दौड़ पड़ते हैं उसका सर फोड़ने के लिए...पर कोई अच्छा करे तो एक शब्द नहीं कहते उसकी तारीफ़ में...ग़लत बात, बहुत ग़लत बात।

तो आज की ये पोस्ट बंगलोर के पुलिस कमिश्नर शंकर बिदारी के लिए...sir, i salute you। जब हर कोई पोलिटिकली करेक्ट होने के लिए भूल जाता है कि सही आचरण क्या है...अपने वोट बैंक पॉलिटिक्स और फूट डालने की राजनीति करने वाले लोग, किसी भी सही ग़लत उपाय के माध्यम से नाम हासिल करते लोग...ऐसे में चाहे पल भर के लिए ही सही किसी को तो याद आया कि भारत का एक संविधान भी है और इसने हमारे अधिकार दिए हैं जिनकी रक्षा करना पुलिस का काम है।

बिदारी ने प्रेस मीट में कहा "the constitution has guaranteed `the right to every individual to observe their cultural norms, speak their language and practice their religion subject to the condition that such observance will not violate any provisions of the law of the land।" मैं अनुवाद इसलिए नहीं कर रही कि किसी चूक से कहीं अर्थ का अनर्थ न हो जाए। ऐसी बातें बहुत दिन बाद सुनने को मिली हैं...हमारे नेता तो भूल ही गए हैं कि उनके व्यवहार के लिए कोई आचार संहिता है, कोई संविधान है।

मैं बिदारी कि कोई प्रशंशक नहीं हूँ, कई बार मेरे मतभेद भी रहे हैं उनके उठाये क़दमों से, पर इस बार मैं उनकी तहे दिल से प्रशंशा करती हूँ...for once, somebody is doing their job...and doing it the way it should be done। एक स्वस्थ समाज में अपने निर्णय लेने कि आजादी बहुत जरूरी है...इससे आपसी सद्भाव और मिल जुल कर रहने की भावना को बल मिलता है। tolerance बहुत जरूरी है...खास तौर पर तेज़ी से बदलते समाज में. अगर हम सिर्फ़ अपना कर्तव्य ठीक से करें तो हम इस समाज को एक बेहतर जगह बनाने की सबसे जरूरी कोशिश कर रहे हैं।

अधिकार के साथ साथ कर्तव्य भी आते हैं, rights and duties go together hand in hand.
अगले शनिवार प्यार को मानाने का दिन है...इस आजादी में थोड़ा प्यार हमारे देश के लिए भी...आख़िर हम स्वतंत्र हैं, निर्भय है, और सबसे जरूरी...जागरूक हैं.

जाने कहाँ ये पंक्तियाँ पढ़ी थी मन पर बड़ा गहरे असर करती हैं.
तन समर्पित मन समर्पित और ये जीवन समर्पित...चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ.

08 February, 2009

८० किमी/घंटा से भागता चाँद...आपने देखा है?

आपने कभी ८०km प्रतिघंटा की रफ़्तार से चाँद को भागते देखा है?
मैंने देखा है...पर उसके लिए आपको पूरी कहानी सुननी पड़ेगी...वैसे ज्यादा लम्बी नहीं है :) तो किस्सा यूँ शुरू होता है...

अब रात भर अगर जाग के गप्पें करेंगे तो भूख तो लगेगी न? ११ बजे पिज्जा खा चुके थे हम...और वो पच चुका था, घर में चिप्स, बिस्कुट, मैगी, मिक्सचर जैसी जितनी चीज़ें थी, सब खा चुके थे...और भूख थी कि शांत होने का नाम नहीं लेती...तो ऐसे में बेचारा मजबूर क्या करेगा...बंगलोर में कुछ भी रात भर खुला नहीं रहता। कुछ देर तो हम बैठ कर दिल्ली के गुणगान करते रहे...convergys के पराठों के बारे में सोच कर पेट तो भरेगा नहीं न। तो हम दुखी आत्मा लीला पैलेस में फ़ोन किए(घर के सबसे पास में वही था)...कि भइया खाने को कुछ मिलेगा...उनका रेस्तौरांत खुला था...हम खुसी खुशी तैयार हो गए। हाँ जी रात के तीन बज रहे हैं तो क्या...फाइव स्टार में जाना है तैयार तो होएँगे ही।

अब निकलने की बारी आई तो जनाब को वक्त सूझा...रात के तीन बजे तेरे लिए जाना सेफ होगा कि नहीं, मैं जा के ले आता हूँ। और मैं रात के तीन बजे घर में अकेली तो खूब सेफ रहूंगी न...मैं नहीं रुक रही घर में अकेले। खूब झगडे के बाद डिसाइड हुआ कि भूखे मरो...नहीं ले के जायेंगे लीला।

हमारे लिए भूखे रहना प्रॉब्लम नहीं था...प्रॉब्लम थी कि हम तैयार हो गए थे, और एक लड़की जब तैयार हो जाती है और उसे घूमने जाने नहीं मिलता तो उसे बहुत गुस्सा आता है...तो जाहिर है हमें भी आया...तो हमने फरमान सुनाया कि नहीं लीला गए तो क्या हुआ...बाईक से एक राउंड लगाऊँगी चलो...

अब मैं आप लोगो को बताना भूल गई थी कि मैंने kinetic flyte खरीदी, एप्पल ग्रीन कलर में, और इतने दिन में कभी खाली सड़क पर चलने का मौका नहीं मिला था...और न ही उसके १२५ सीसी इंजन को टेस्ट करने का। तो हम घर से निकले...
मैं अपनी नई flyte पर और कुणाल पल्सर १५० सीसी पर, वैसे तो बात बस २५ सीसी की थी :) मैंने बहुत अरसे बाद इतनी खाली सड़कें देखी थी...और फ्लाईट का पिक उप इतना कमाल का था कि बयां नहीं कर सकती...स्टार्ट होते ही यह जा वह जा वाली बात हो गई...कुणाल जाने कितनी दूर रह गया था।

८० की स्पीड पर लगभग १० साल बाद कुछ चलाया था...लगा हवा से बातें कर रही हूँ। बंगलोर का हल्का ठंढ वाला मौसम...सड़क के दोनों ओर बड़े घने पेड़ और ऊपर चाँद...भागता हुआ, आश्चर्य कि ८५ पर भी चाँद मेरे से आगे ही भाग रहा था, टहनियों के ऊपर से तेज़ी में जैसे हम दोनों के अलावा कहीं कुछ है ही नहीं बस स्पीडोमीटर पर हौले हौले बढती सुई। शायद गाड़ी चलाते हुए चाँद को बहुत कम लोगो ने देखा हो...मैं लड़की हूँ शायद इसलिए....या शायद कवि हूँ इसलिए...पर यकीं मानिए वो चाँद मेरी जिंदगी का सबसे खूबसूरत चाँद था। और मैंने उसे हरा नहीं सकी...इतना खूबसूरत नारंगी पीलापन लिए हुए उसका रंग...आधे से थोड़ा बड़ा...मुझे तो कोई खाने की मिठाई लग रही थी(जाहिर सी बात है भूख में घर से निकली थी न)।

अच्छा इसलिए भी लगा कि बहुत दिन बाद एक लम्हे के लिए जिंदगी को जिया था...यूँ लगा हम बेहोश पड़े थे और अभी अभी होश में आए हैं. बहुत दिनों बाद लगा कि बिना डरे जीना क्या होता है...thrill नाम की भी कोई चीज़ होती है मैं बिल्कुल भूल गई थी. फ़िर से लगा कि रगों में खून बह नहीं रहा, दौड़ रहा है.

कुछ देर बाद गाड़ी धीमी की...तब तक जनाब भी पहुँच गए थे :) बाप रे क्या मस्त पिक अप है इसका यार और कित्ते पे गाड़ी चला रही थी तू? मैंने कहा ८५ पर...उसका कहना था, गाड़ी की औकात से ज्यादा स्पीड में चला रही थी मैं. खैर मैंने उसे बहुत चिढाया कि एक लड़की से हार गया...वो भी स्कूटी से छि छि :D
मैंने उससे पूछा कि तूने चाँद देखा...कितना खूबसूरत लगता है भागते हुए...और उसने कहाँ कि नहीं, वो गाड़ी चलाते हुए सड़क देखता है. :) तो मैंने सोचा आप लोगो को भी बता दूँ...आपने भी शायद नहीं देखा हो चाँद कभी.
पर यकीं मानिए...८० की स्पीड पर भागता हुआ चाँद जितना खूबसूरत लगता है...खिड़की में अलसाया हुआ चाँद कभी लग ही नहीं सकता, या झील में नहाता हुआ भी नहीं।

आप में से किसी को try करना है तो कीजिये ...फ़िर हम बातें करेंगे :)
PS: गाड़ी की फोटो जल्दी ही लगाउंगी :)

06 February, 2009

लव मैरेज करनी है? बंगलोर आ जाईये

जी हाँ! ये है राम सेने का धमाकेदार ऑफर...जो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक दिन के लिए है...जी हाँ, १४ फरवरी यानि वैलेंटाइन डे के लिएअगर आप प्रेम विवाह करना चाहते हैं, और आपके रास्ते में समाज रोड़ा अटका रहा है, परिवार वाले राजी नहीं हो रहे...तो आपके लिए ये स्पेशल ऑफर...१४ तारीख को अपने पसंदीदा जोडीदार को ले कर बंगलोर आईये...करना कुछ नहीं है, बस साथ घूमना हैहाँ अगर आप चाहते हैं की आप ये ऑफर किसी भी तरह मिस करें तो पब में बैठें, राम सेने की सबसे पसंदीदा जगह है...अरे आपने टीवी पर देखा तो होगा।


अब सुनिए ऑफर के बारे में विस्तृत जानकारी, श्री राम सेने ने घोषणा की है की उनके दस्ते १४ तारीख को बंगलोर me घूमेंगे और जो भी जोडियाँ उन्हें मिलेंगी उनकी शादी करा देंगे। उनके साथ में एक पंडित रहेगा और यही नहीं वो शादी को रजिस्ट्री भी करवाएंगे.


अपनी मर्जी से शादी करने में कितने झंझट है ये वही जान सकता जो इन लफड़ों में पड़ा हो या जिनके दोस्त इस इश्क के दरिया में उतर गए हों...अजी हुजूर अगर आप कायदे से रजिस्ट्री करके शादी करना चाहते हैं तो भूल जाइए क्योंकि पहले तो आप दोनों के नाम की लिस्ट टंग जायेगी कोर्ट में वो भी एक दो दिन नहीं, पूरे एक महीने...खुदा न खस्ता इस बीच अगर घर में ख़बर पहुँची तो बस लड़की तो सीधे शहर से ही एक्सपोर्ट ho जायेगी...फ़िर करते रहिये किससे शादी करते हैं। अगर आर्य समाज में शादी करनी है तो भी लंबा चौडा चक्कर लगता है...खूब सारे पैसे भी खिलाने पड़ते हैं. इसके बाद बहुत सारा भाषण सुनना पड़ता है. तब जाके शादी होती है.


और राम सेने वाले आपकी मुफ्त में शादी करा रहे हैं, भगवान उनका भला करे...उन्हें दुनिया के इश्क करने वालों की दुआएं लगेंगी...मैं तो सोच रही हूँ उनपर एक कविता भी लिख दूँ(इससे ज्यादा और मैं कर भी क्या सकती हूँ). उनका ये क्रांतिकारी अभियान उन्हें इश्क के इतिहास में अमर कर देगा...ये तो संत वैलेंटाइन से भी महान आत्मा हैं.

ये ऑफर लड़कियों के लिए खास तौर से डिजाईन किया गया है...श्री राम सेने से बड़ा हमारा शुभ चिन्तक आज धरती पर कोई नहीं है. लड़कियों सुनो...अगर तुम्हारे बोय्फ्रेंड्स शादी के लिए आनाकानी कर रहे हैं सीधा इलाज है, किसी भी बहने उनके साथ इस दिन पब चली जाओ...तुम्हारी शादी होने को कोई नहीं रोक सकता...न तो लड़का न उसका बाप :)

यही नहीं इनके पास दूसरा ऑफर भी है...राखी ऑफर...इससे पता चलता है की वो हम लड़कियों की कितनी फ़िक्र करते हैं...मान लो आपको कोई मनचला तंग करता है, ऑफिस या कॉलेज में कोई आप पर ज्यादा ही ध्यान देता है, और आपके साफ़ साफ़ कहने के बाद भी आपका पीछा नहीं छोड़ रहा है। आप इस नमूने को लेकर पब चले जाइए. राम सेने के रक्षक आयेंगे और आप आराम से उन्हें राखी बाँध देना. समस्या से हमेशा के लिए छुट्टी. ये राखी या मंगलसूत्र वाला ऑफर सिद्ध करता है कि भारत में अभी भी लड़कियां आजाद हैं और अपनी मर्जी से चुनाव कर सकती हैं.


देखिये मौका छूट न जाए...आज ही अपनी टिकेट बुक कराइये...जल्दी कीजिये जी, और देखिये अब तो हवाई जहाज की टिकेट भी सस्ती हो गई है...तो आप इंतज़ार किस चीज़ का कर रहे हैं? बंगलोर में एयर शो के कारण होटल जल्दी ही फुल हो जायेंगे...पर आप फ़िक्र मत कीजिये चाहे उसी शाम रिटर्न फ्लाईट से वापस जाना पड़े आइये जरूर.


राम सेने जिंदाबाद...हमारी स्वतंत्रता जिंदाबाद

हमारा रक्षक कैसा हो...राम सेने जैसा हो

आज के लिए इतना ही...बाकी तारीफ़ बाद में करेंगे :)


तो आप बंगलोर रहे हैं ?

05 February, 2009

गीत का वसंत


सिर्फ़ शाम के होने भर से कैसे सब कुछ बदला बदला सा लगने लगता है...ठंढी हवा गालों को दुलराने लगती है...और उसी हलकी सी हवा में पेड़ों पर पत्ते झूमने लगते हैं...पगडण्डी जैसे बाहें पसार देती है, गिरते हुए पत्तों को आलिंगन में लेने के लिए।

सूखे पत्तों का कालीन बिछ जाता है, जैसे वापस धरती के गोद में जाने के सुकून से...चाँद कालीन पर रेशमी डोरियों से कशीदाकारी करता है...छन कर आती चांदनी थिरकती रहती है हवा के झोंके के साथ ताल में।

ऐसी किसी रात को जब सड़क पर थोडी चांदनी हो, और थोडी स्ट्रीट लाईट की पीली रौशनी...टीले के नीचे किसी सीढ़ी पर बैठ ईंट के टुकड़े से तुम्हारा नाम लिखने का मन करता है। इत्मीनान से किसी पुरानी याद को जीने का मन करता है...पूरी बारीकियों के साथ, कपडों के रंग से लेकर घड़ी की सुइयां तक देखना चाहती हूँ फ़िर से। चाँद की वो कौन सी रात थी...शायद चौदहवी...पूर्णिमा नहीं थी वो मुझे याद है।


और ऐसी एक रात में एक गीत जन्म लेता है...जो शायद कहीं रूह से निकलता है, ये गीत होठों पर नहीं होता...जैसे मैं एक पूरा का पूरा गीत बन जाती हूँ। धड़कनें थिरकने लगती हैं, पैर ताल देने लगते हैं उसपर...कुछ पल, जैसे जिंदगी से चुरा लेती हूँ मैं और बांस के झुरमुट में झूमने लगती हूँ, बरगद में झूला डाल देती हूँ


ऐसी ही एक लड़की लोकगीतों में गायी जाती है...जाने क्या है उन बोलों में कि सुनकर लगता है...वसंत आ गया है.

04 February, 2009

दोपहर के पलाश



उदास दुपहरें
ठिठके खड़े हुए से पेड़

हौले हौले गिरते पत्ते

जाने क्यों यादों जैसे लगते हैं

जैसे कोई ठौर न हो

यूँ चलती हुयी हवाएं

बिना राग के चहचहाते पंछी

सड़कों पर चुप चाप

मेरे साथ चलती परछाई

कहीं दूर से आता हुआ

गाड़ियों का शोर

कुछ ठहरा नहीं है...

रीत गया है

इस बेजान दोपहर में

धड़कनें गा रही हैं विदाई

धूप चिता की गर्मी सी लग रही है

झुलसाती, तड़पाती...और बेबस

फाग के मौसम में

इस शहर में पलाश नहीं दिखे

शायद मैं बहुत दूर आ गयी हूँ

यहाँ तक वसंत नहीं आता...

और मैंने तुमसे फूल मांग लिए थे

होली का रंग बनाने के लिए

लगता है तुम बहुत दूर चले गए हो

सुनो, फूल ना भी मिले तो

तुम लौट आना...

तुमसे ही मेरा वसंत है

03 February, 2009

यूँ ही

वो कौन सा सच होता है जो सामने होते हुए भी नहीं होता?

जैसे तुम हो...मगर तुमसे बात नहीं कर सकती, टोक भी नहीं सकती...सामने से गुजर जाओ और कुछ कह भी नहीं सकती...मेरे शहर में आओ मगर तुमसे मिलने की ख्वाहिश नहीं कर सकती।

तुम्हारा शहर किसी हादसे से गुजर जाए और मैं तुम्हारी खैरियत के बारे में नहीं जान सकती...तुम्हें सोच नहीं सकती, तुम्हें भूल नहीं सकती...

तुम्हारी राहों पर चल नहीं सकती, अपनी राहों पर तुम्हारा इंतज़ार नहीं कर सकती...चौराहों पर पूछ नहीं सकती कि तुमने कौन से राह ली है...अंदाजन चलती जाती हूँ।

वो रिश्ते भी तो होते हैं न जो बस एक तरफ़ के होते हैं, तुम्हारी जिंदगी में मेरी कोई जगह नहीं होने से मेरी जिंदगी में तुम्हारी जगह मैं किसी और को तो नहीं दे सकती न...

क्या पुल जला देने से पुल के पार वालो का होना ख़त्म हो जाता है...नहीं न?

ठीक है गुनाहों कि माफ़ी नहीं होती...सज़ा तो होती है...मेरी सज़ा ही मुक़र्रर कर दो...या उसके लिए भी क़यामत का इंतज़ार करना होगा?

02 February, 2009

ख़त

एक ख़त लिखा

जिसमें वो सारी बातें लिखी

जो तुमसे कहना चाहती थी

उस मुलाकात के दरम्यान अधूरी रही कुछ बातें

कुछ अपने दिल के गहरे राज़

कुछ अतीत के किस्से

कुछ भविष्य के ख्वाब

पर मुझे तुम्हारे नाम के अलावा कुछ नहीं पता

इंतज़ार कर रही हूँ

वक़्त के डाकिये का

उसके पास तो सभी का पता रहता है

उससे पूछ कर तुम्हारा ख़त डाल दूँगी

तुमने तो मेरा नाम नहीं पूछा था

पर एक मुलाकात के रिश्ते भर को

किसी अजनबी का ख़त पढोगे?

30 January, 2009

बेतरतीब ख्याल

मुझे अँधेरा पेंट करना है, रौशनी तो अब तक कितने लोगो ने पेंट की है, कितने मौसमों की तरह...सूर्यास्त और चाँद रातों की तरह...

तुम ये क्यों नहीं कहती की मुझे खुशबू पेंट करनी है?

मैं क्यों कहूं और तुम मुझे क्यूँ बता रहे हो?

और तुम शोर पेंट क्यों नहीं करती?

जब मैं कह रही हूँ की मुझे क्या पेंट करना है तो तुम ये बाकी नाम गिनने की कोशिश क्यों कर रहे हो? तुम मेरी तरफ़ हो या अंधेरे की तरफ़...

मैं पेंटिंग हूँ, मुझे किसी की तरफ़ होने की क्या जरूरत है।

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क्या लेखक का कुछ भी अपना नहीं होता? इतना अपना की उसे किसी के साथ बांटने की इच्छा न हो ? जब तक ख्यालों को शब्द नहीं मिले हैं वह लेखक के हैं। शब्द क्या हैं? एक समाज से मान्य अर्थ की पुष्टि के यंत्र ...शब्दों से परे जो सोच है वही सत्य है। होना क्या है...existence?

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वो कौन से लोग होते hain जो माचिस की डिब्बियों पर साइन करते हैं, या १० रुपये के नोट पर अपना नाम और नम्बर छोड़ देते हैं।

मैं भी किसी पत्थर पर तुम्हारा नाम लिखना चाहती थी, बताओ न अगर मैंने लिखा होता तो क्या तुम पढ़ते? और अगर तुम पढ़ते तो क्या तुम्हें मालूम होता कि मैंने लिखा है?

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कल रात ऐसे ही कागज पर कलम घिस रही थी...बहुत दिन बाद कलम पकड़ी थी, अच्छा लग रहा था लिखना, हालाँकि लिखा हुआ खास पसंद नहीं आया. ऐसे कि बेतरतीब ख्यालों के टुकड़े हैं. कभी कभी यूँ ही ख्याल समेटना अच्छा लगता है.
PS: आज वेबदुनिया पर एक आर्टिकल आई है मेरे बारे में...आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं

29 January, 2009

एक झगडा रोजाना...

"मैं बाईक तुमसे अच्छा चलाती हूँ"

"जानता हूँ"

"तो मुझे ही चलाने दो न, मैं नहीं बैठूंगी तुम्हारे पीछे...तुम्हें क्या पीछे बैठने में शर्म आती है"

"हाँ आती है, मैं किसी लड़की के पीछे नहीं बैठ सकता"

"और ये जो लड़कियों की बाईक चलते हो, उससे तुम्हारी शान नहीं घटती...कोई भी देख कर कहेगा की मेरी ही गाड़ी में मुझे भगाए ले जा रहे हो...भला ६ फुट का होते हुए ये पिद्दी सी गाड़ी क्यों चलाते हो...तुमपर बिल्कुल सूट नहीं करता।"

"तुम्हारे साथ पीछे बैठूं, मेरा दिमाग ख़राब हुआ है क्या...आख़िर एक्सपेरिएंस भी कोई चीज़ होती है, सिर्फ़ जानने से क्या होता है, कितने दिन हुए हैं तुम्हें अभी सड़क पर उतरे हुए, एक बिल्ली रस्ते में आ जाए तो ऐसे ब्रेक मरती हो की भगवान् बचाए"

"वाह वाह तुम्हें भगवन बचाए और बेचारी बिल्ली को...उसको तो भगवान बचने नहीं आएगा न उस बेचारी के लिए तो मुझे ही ब्रेक मारने पड़ेंगे। पता है बिल्ली को मरना ब्रह्महत्या के इतना बड़ा पाप है...घोर कुम्भीपाक नरक मिलता है उससे, और तो और सोने की बिल्ली बनवा कर दान करनी पड़ती है, वो भी बिल्ली के वजन जितनी"

"तुम्हें ये बातें कहाँ से सूझती हैं, दिमाग के अन्दर डायलोग फैक्ट्री फिट करा रखी है...बातें सुनूँ तुम्हारी की सड़क पर ध्यान दूँ...फ़िर पटक दूँगा तो बोलोगी सबको"

"वाह वाह उल्टा चोर कोतवाल को डांटे, एक तो गिराओगे और फ़िर हल्ला करोगे की किसी को बोलना नहीं...मेरे जैसी बेवकूफ लड़की मिल गई है न, अपनी नई नई गर्ल्फ़्रेन्ड को बाईक से गिरा दे, ऐसे लड़के के साथ कौन घूमेगी बताओ। तू बैठ एक दिन पीछे, मैं तुझे गिरूंगी...हद होती है, कभी मुझे चलने ही नहीं देता...अगर हर बार तू ही चलाएगा तो मैं सीखूंगी कैसे...डरपोक कहीं का"

"कुछ दिन रुक जा...इलेक्शन आ रहे हैं, कोई न कोई पार्टी चक्का जाम कराएगी ही , उस दिन पूरी सड़क खली रहेगी...तू आराम से चला लेना तब"

"हाँ हाँ तू तो चाहता ही यही है ऐसा कुछ हो और मेरी गाड़ी का कचूमर बन जाए...न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी...पर ये मत भूल मेरा ड्राइविंग लाइसेंस मुझे तेरी बाईक चलने की पेर्मिस्सिओं देता है...देखना एक दिन फुर्र्र हो जाउंगी, तेरी बाईक उठा के...फ़िर ढूंढते रहना"

"मैं भला क्यों ढूँढने लगा...तू और बाईक दोनों आफत से एक साथ छुटकारा...वैसे बता के भागना वरना मैं सोचूंगा ट्रैफिक वाले उठा कर ले गए।"

"हवा पियो...एक दिन मैं तुम्हें पक्का गिरा दूंगी....देख लेना"

(dialog लिखने की practice कर रही हूँ...स्क्रिप्ट के लिए...यहाँ छापने का मन किया...डाल दिया...आपको गरियाने का मन कर रहा है :) गरिया लीजिये)

कभी कभी हम कुछ चीज़ों को बड़ी सीरियसली लेने लगते हैं, ऐसे में उसे तोड़ने के लिए कुछ उट पटांग तो करना ही पड़ता है...इसलिए ये पोस्ट

सवालों के दरमियाँ

I believe freedom is my right to make a few mistakes of my own and learn from them।


मंगलौर में जो हुआ, शर्मनाक है...अख़बारों ने चीख चीख कर कहा ये तालिबान का राज है वगैरह वगैरह...और इतने हो हंगामे के बाद कुछ गिरफ्तारियां हुयी हैं।
हम कहने को तो आजाद हवा में साँस लेते हैं, मगर क्या ये सच में आजादी है? जरा सा भी लीक से अलग हट कर चलिए तो दिखेगा कि सारी दुनिया विरोध में खड़ी है हर कोशिश की जायेगी आपको रास्ते पर लाने की, खास तौर से अगर आप एक महिला हैं तो।

एक लड़की पर हज़ार बंदिशें पहले तो उसके परिवार के तरफ़ से लगती हैं, उसके बाद खड़ा हो जाता है समाज और इन सब बंधनों को ठुकरा के अगर कोई अपने हिसाब से जीना चाहता है तो ये स्वयंसिद्ध ठेकेदार हैं जो जिम्मेदारी उठा लेते हैं। नैतिकता और सभ्यता के नाम पर गुंडागर्दी होती है सरेआम...और ऐसे माहौल में हम कुछ महीनो में वोट देने वाले हैं।


आज सुबह पेपर में ख़बर आई कि एक बच्चे कि बलि दी जाने वाली थी पर ऍन मौके पर वहां से गुजरते कुछ लोगो ने आवाजें सुनी और उसे बचा लिया गया...और बलि भी क्यों, गड़ा हुआ खजाना पाने के लिए! कभी कभी तो लगता है जाने हम किस सदी में जी रहे हैं. आज भी कई पुरानी मान्यताएं हैं जिनका कोई आधार नहीं है, सिर्फ़ इसलिए जीवित है कि सवाल उठाने की जहमत कोई नहीं करता.
मुझे आज एक आर्टिकल बड़ी पसंद आई...उसमें सिर्फ़ सवाल पूछे गए थे...सरकार से, पुलिस से, और उस संगठन से...जानती हूँ इन सवालों का जवाब कभी नहीं आएगा फ़िर भी देख कर सुकून मिलता है कि कोई सवाल तो कर रहा है। हमारे लिए जरूरी है कि जो जैसा होता है उसे वैसे ही स्वीकारें नहीं, सवाल हमारी असहमति का पहला कदम है.


पर हम बच्चो से तक इसलिए चिढ जाते हैं कि वो सवाल बहुत करते हैं...क्यों कैसे किसलिए कब तक ... RTI एक्ट एक ऐसे ही सवाल करने वाले लोगों को राहत देता है। कुछ सवाल बाकियों से और एक हमारा ख़ुद से...

हम इस बदलाव के लिए क्या कर रहे हैं?

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