14 December, 2011

जिंदगी. बेरहम. जिंदगी.

तुम अपना प्यार सम्हालो बाबा...मुझसे  नहीं होगा...ऐसे तो मर जाउंगी...न खाया जाता है न पिया जाता है, कैसी कैसी तो तलब उठती है...कभी सिगरेट की तलब जागती है तो लगता है बड़के भैय्या जो ताक में नुका के रखे हैं उससे एक ठो निकाल के जला लें...तो कभी लगता है परबतिया के घर में जो ताड़ी उतर के आता है वही चढ़ा जाएँ. तुमरा प्यार एकदम्मे मेरा दिमाग ख़राब कर देगा...तुम्हारे शब्दों में कहें तो तुम्हारा प्यार मुझ अच्छी खासी लड़की को दीवानी बना डालेगा.

मत मिला करो अब मुझसे, फ़ोन भी मत किया करो और झूठ मत पूछा करो कि कैसी हूँ...अगली बार कह दूँगी 'मर रही हूँ जहाँ हो सब छोड़ कर आओ और मुझे बांहों में भर लो' तब क्या करोगे? आ पाओगे सब कुछ छोड़ कर बस एक बार मुझे बांहों में भरने के खातिर...और जो मान लो आ भी गए तो वापस कैसे जाओगे. शहर की गाड़ी तो दिन में एक्के बार आती है इधर गाँव में, रात बेरात परदेसी को कौन रुकने देगा अपने घर में.

नहीं करना मुझे तुमसे प्यार...ऐसे दिन भर सूली पर टंगे टंगे मर जाउंगी मैं...अभी पैर वापस खींचती हूँ...ये तुमने क्या कर दिया है मुझे...मुझे ऐसे जीना नहीं आता. मेरी सारी समझदारी, सारी होशियारी रखी रह जाती है. तुम कौन से देश में ये कैसा सम्मोहन रचते हो...होगे तुम बहुत बड़े जादूगर, मैं एक छोटे से गाँव की थोड़ी पढ़ी लिखी लड़की हूँ बाबा मुझे बहुत दुनिया की समझ नहीं है. मुझे बस इतना समझ आता है कि जब प्यार हो तो तुम्हें मेरे पास होना चाहिए.

ये कैसे जंगल में आग लगा कर छोड़ गए हो...वो देखो कैसे वनचंपा धू धू करके जल रही है, सुलगते चन्दन की चिता सी गंध तुम्हें विचलित नहीं करती? तुम ऐसे कैसे मुझे छोड़ जाते हो...तुम्हारा दिल कैसा पत्थर है कि नहीं पसीजता. कैसे जी लेते हो मेरे बगैर.

आज गाय के सानी में धतुरा था, मैंने देखा नहीं..कोई दिन धनिया की जगह धतूरे की चटनी पीस के खा लूंगी... किसी दिन बिच्छू चलता रहेगा देह पर और मैं उसके डंक को महसूस नहीं कर पाऊँगी कि तुम्हारे बिना ऐसे ही तो जल रही हूँ कि लगता है ऊँगली के पोर पोर से आग निकल रही हो...बीड़ी फूंकते हुए, कलेजा धूंकते हुए ऐसे ही जान दे दूँगी कि तुम्हें पता भी चल पायेगा!

मैं मर जाउंगी ओ रे बाबा! तुम्हें क्या बताऊँ...जाने दो मुझे, मुक्त करो...ये तिलिस्म में किसी और को बाँध लेना रे शहरी बाबू...बड़े निर्दयी हो तुम...मेरा जी जला के तुम्हारा मन नहीं भरता. अगली बार से मेरे लिए पलाश के फूल मत लाना...मेरा पूरा साल गुज़र जाता है फिर पलाश के इंतज़ार में. जो किसी साल तुम नहीं आये तो क्या करुँगी.

चले जाओ रे! तुम्हारे लाये पलाश सुखा के साड़ी रंगी थी...देखो पिछले मेले में वही पहने हुए तस्वीर खिंचाई थी...मेरे पास तुम्हारी यही एक चीज़ है. ये तस्वीर लो और चले जाओ. कभी वापस मत आना. अब बर्दाश्त नहीं होता मुझसे.









मत पूछो कि मुझे क्या चाहिए...तुम मेरा नाम लो बस उसी लम्हे...उसी लम्हे मर जाना चाहती हूँ. मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ...कसम से...मुझे और कुछ नहीं चाहिए...मैं मर जाना चाहती हूँ. बस. 

6 comments:

  1. जीना सीखना है प्यार के लिये कि प्यार सीखना है जीने के लिये। निर्णय करना है हम सबको, जीना रहा तो प्यार करना भी आ जायेगा, प्यार करने वाला भी आ जायेगा।

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  2. प्यार की इंतेहा………प्यार क्या से क्या बना देता है और प्यार मे प्यार ही जीना सिखा देता है।

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  3. ओह! बहुत सुन्दर.
    प्रवीण जी की बात अच्छी लगी.
    भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा,पूजा जी.

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  4. कसम से... कातिल पोस्ट है ! :)

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