07 August, 2012

क्राकोव डायरीज-५-मृत्यु के अँधेरे एकांत से

पिछले काफी दिनों से कुछ लिखने की कोशिश कर रही हूँ...मगर कुछ तसवीरें ज़हन में इतने गहरे बैठ गयी हैं कि उन्हें निकालना नामुमकिन लग रहा है. उपाय लेकिन कोई है नहीं...सिवाए इसके कि लिखा जाए. मेरी डायरी के पन्ने बहुत तेज़ी से भरते जा रहे हैं...मैं किसी भी हाल में अकेले नहीं रहना चाहती. इस पोस्ट को लिखने के पहले शुक्रिया उन सभी दोस्तों का मेरी कहानियों को सुनने के लिए कि अगर उनसे बात न की होती तो जाने और कैसी मानसिक स्थिति में रहती.
---
क्राकोव में गर्मियां चल रही थीं...तापमान कोई ३० डिग्री के आसपास था. खिली हुयी धूप और नीला आसमान और कुछ बेहद अच्छे लोग थे. वहाँ एक साल्ट माईन है जो जमीन से लगभग तीन सौ मीटर नीचे है और वहाँ १२ डिग्री का तापमान रहता है इसलिए हिदायत दी जाती है कि वहाँ जाने के लिए गर्म कपड़े जरूर रखें. मैं सुबह साल्ट माईन जाने के लिए चली थी इसलिए गर्म जैकेट थी साथ में. टूर ऑफिस पर गयी तो पता चला कि साल्ट माईन का टूर साढ़े चार बजे है जबकि औस्वित्ज़ का टूर साढ़े बारह बजे है जिसमें छः घंटे लगते हैं. टिकट १०० ज्लोटी की थी. 

मुझे ठीक ठीक अंदाज़ नहीं था कि औस्वित्ज़ क्राकोव से कितनी दूरी पर है...बस की यात्रा डेढ़ घंटे की थी जिसमें हमें एक डॉक्यूमेंट्री दिखाई गयी जिसमें मुख्यतः इस बात का वर्णन था कि औस्वित्ज़ से रिहा हुए लोगों को डॉक्टर्स ने जब इक्जामिन किया तो उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति क्या थी. इसके अलावा कुछ ऐसी फुटेज भी थी जो औस्वित्ज़ में शूट की गयी थी जर्मन ऑफिसर्स द्वारा. द्वितीय विश्व युद्ध में औस्व्तिज़ सबसे बड़ा कांसेंत्रेशन कैम्प था. 'फाइनल सोलुशन टू द जुविश प्रॉब्लम' के तहत ५ मिलियन ज्यूस (यहूदी) यहाँ मारे गए थे. 

जैसे जैसे बस क्राकोव से औस्वित्ज़ की ओर बढ़ती जा रही थी आसमान गहरे काले बादलों से घिरता जा रहा था...जैसे कि अँधेरा हमारा पीछा कर रहा हो. औस्वित्ज़ पहुँच कर जब मैं बस से उतरी तो मैंने अपना जैकेट अंदर रख दिया था क्योंकि मेरे हिसाब से बाहर मौसम गर्म था...बस से उतरते ही बेहद सर्द हवा के थपेड़े महसूस हुए...मैंने तुरंत जा के अपनी जैकेट पहनी. धूप जा चुकी थी और आसमान पर काले बादल छा गए थे. औस्वित्ज़ म्यूजियम में जाने के लिए गाइड अनिवार्य है...हर गाइड के पास एक माइक होता है और उसे सुनने के लिए हमें हेडफोन दिए जाते हैं. 


औस्वित्ज़ की शुरुआत एक पोलिश राजनैतिक अपराधियों के लिए श्रम शिविर की तरह हुयी थी. काम्प्लेक्स के पहले वो लोहे का दरवाज़ा होता है जिसकी आर्च पर जर्मन में लिखा हुआ है 'Arbeit mach frei' इसका अनुवाद होता है 'काम तुम्हें आज़ाद करेगा' यहाँ आज़ादी का मतलब मृत्यु है. शिविर अलग अलग ब्लोक्स में बंटा हुआ है और जहाँ तक नज़र जाती है कंटीली बाड़ है जिनमें पहले बिजली दौड़ती थी. 

पहले ब्लाक में ग्राउंड फ्लोर पर बाथरूम हैं जिनमें कुछ तसवीरें बनी हुयी हैं जो कैम्प में कैद लोगों ने बनायी थीं. एक लंबा गलियारा है जिसके दोनों तरफ तसवीरें लगी हुयी हैं. बायीं तरफ महिलाओं की और दायीं तरफ पुरुषों की...हर तस्वीर में उनकी जन्म तिथि और कितने अंतराल तक वे शिविर में रहे अंकित है. अधिकतर कैदी छः महीने के अंदर मर जाते थे. मैंने आज तक बहुत तसवीरें, पेंटिंग्स देखी हैं मगर मैंने आजतक वैसी जीवंत आँखें कभी नहीं देखीं. यकीन ही नहीं होता था कि ये मर चुके लोग हैं...एक एक तस्वीर जैसे आपकी रूह में झांकती हुयी प्रतीत होती है...जैसे उस गलियारे के सारे लोग मरने के बावजूद अपनी आखिरी निशानी उस तस्वीर में आ कर रहने लगे हैं. गुजरते हुए लगता था उनकी आँखें पीछा कर रही हैं. उनमें से कुछ तसवीरें ऐसी भी थीं जहाँ मुस्कराहट का एक कतरा मिलता था...कैदियों की आँखों में, होठों पर...अनगिन साल पहले मरे हुए लोगों की तस्वीरों को सीने से लगा कर फूट फूट कर रोने का मन करता था. 

पहले तल्ले को जाती हुयी सीढ़ियाँ घिसी हुयी थीं...सोच कर आत्मा सिहरती थी कि इन्ही सीढ़ियों पर कितनी बार लोग कितनी पीड़ा में गुज़रे होंगे...वे क्या सोचते होंगे सुबह शाम यहाँ से काम को जाते और आते हुए. पहले तल्ले पर पहुँचने के पहले हमारी गाइड ने अनुरोध किया कि इस तल पर तसवीरें न लें. औस्वित्ज़ के बारे में मैंने जितना, पढ़ा, सुना और डॉक्यूमेंट्री देखी है कि मुझे तैयार होना चाहिए था...मगर सामने लगभग सौ फीट लंबे उस ऊंचे से शीशे के पीछे लोगों के बाल थे...उन्हें देखते ही जैसे फिजिकल धक्का लगा...जैसे किसी ने वाकई कोई खंजर उतार दिया हो सीने में...मुझे हल्का चक्कर आ गया और उलटी आने लगी...मैंने खम्बे का सहारा लिया...मृत लोगों के अवशेषों को देखना किसी सदमे जैसा था...वो जगह इतनी डिस्टर्बिंग थी कि जान दे देने का मन कर रहा था. हमारी गाइड ने अपना माइक बंद किया और पास आ कर मेरी पीठ सहलाई...पूछा कि मैं ठीक हूँ. मैं ठीक नहीं थी...मैं बहुत रोना चाहती थी...मैं किसी का हाथ पकड़ना चाहती थी...मगर खुद को संयत करने की कोशिश की. गाइड ने हमें बताया कि ये एक बेहद छोटा हिस्सा है...जिन लोगों को गैस चेम्बर्स में मारा जाता था उनके बाल उतार लिए जाते थे और जर्मनी भेजे जाते थे. वहाँ इन बालों से कपड़े बनाए जाते थे. वहाँ उस कपड़े से बना एक कोट और एक दरी मौजूद थी. 

मुझे नहीं मालूम युद्ध और उसकी मजबूरियां क्या होती हैं मगर ऐसा क्या होता होगा कि कोई मनुष्य मृत लोगों के बालों से बने कपड़े को पहनने को राजी हो जाता होगा. अगले कमरे में जूतों का संग्रह था...दायीं और पुरुषों और बायीं ओर महिलाओं के जूते थे. हमारी गाइड हमें बताती जा रही थी कि ये सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है उन चीज़ों का जो औस्वित्ज़ से बरामद हुए थे. आगे के कमरों में बक्से थे...जिनपर लोगों के नाम, उनके रहने का स्थान और कई बार कुछ धार्मिक चिन्ह भी बने हुए थे. एक कमरे में चश्मे के फ्रेम...जूते साफ़ करने के ब्रश और क्रीम...और आगे खाना पकाने के बर्तन थे. लोग चुप चाप सर झुकाए हुए इन चीज़ों को देखते चल रहे थे. बच्चों के दूध के डिब्बे, उनके बिब और बाकी सामान. टेबल पर जर्मन गार्ड द्वारा बनाये गए मृत लोगों की लिस्ट्स भी थी कि एक दिन में कितने लोग पहुंचे. 


जुविश लोगों को ये बोल कर यहाँ लाया गया था कि उन्हें यहाँ काम करना होगा और जर्मन उनके काम के लिए उन्हें पैसे भी देंगे. ऐसा कोई भी नहीं सोच सकता था कि जर्मन उन्हें सिर्फ मार देना चाहते हैं. ऊपर के फ्लोर पर उनकी वस्तुएं देखने के बाद हम बेसमेंट की ओर बढ़े. बेस्मेंट्स इन शिविर के जेलों का कार्य करते थे...अपराधियों को सजाएं यहाँ दी जाती थीं. नीचे की ओर जाती सीढ़ियों में एक मृत्युगंध बसी हुयी थी जो जैसे इतने सालों में भी डाइल्यूट नहीं हुयी है...उतनी ही सान्द्र जैसे अभी भी नीचे चीखते और धीरे धीरे मरते लोग मौजूद है. बेसमेंट में वैसे कमरे थे जिनमें लोगों को भूखा मारा जाता था. स्टारवेशन सेल्स...छोटे इन कमरों में कोई खिड़की नहीं थी और एक बार यहाँ किसी कैदी को बंद किया जाता था तो फिर कमरा उसकी मौत के बाद ही खुलता था. बेहद छोटे और सीलन से भरे इन कमरों में न हवा आती थी, न धूप न रौशनी.  

बेसमेंट में ही पहली बार जाय्क्लोन बी के एक्सपेरिमेंट भी हुए थे. बेसमेंट में पहली बार जाय्क्लोन बी गैस से कैदियों को मारा गया था...सही मात्रा का अनुमान करने में बहुत वक्त लगा था...शुरु के एक्सपेरिमेंट में लोगों को मरने में अक्सर बीस दिन तक लग जाते थे. (तथ्य मेरी याददाश्त पर है...इन्टरनेट पर अवधि २० घंटे बतायी गयी है). हायड्रोजेन साइनाइड के असर से लंग्स फूल जाते थे और इंसान सांस नहीं ले पाता था.

इनके साथ थे स्टैंडिंग सेल्स. लगभग डेढ़ मीटर बाय डेढ़ मीटर के ईटों के बने कमरे. फोन बूथ की तरह छोटे और बंद...उनमें प्रवेश करने के लिए लगभग दो फुट बाय दो फुट की का एक दरवाजा होता था नीचे की ओर. कैदी को इसमें बैठ कर घुसना होता था और फिर कमरे में खड़े होना होता था. ऐसे छोटे कमरे में अक्सर चार कैदी एक साथ बंद किये जाते थे. बेहद घुटन भरे इन ताबूतनुमा कमरों में कैदी जल्द ही मर जाते थे. दिन भर हाड़तोड़ मेहनत और रात को स्टैंडिंग सेल्स में खड़े रहना...अँधेरे में...बिना हवा के. एक तो बेसमेंट एरिया होने के कारण वैसे भी हवा का आवागमन नहीं रहता था उसपर बेहद संकरे गलियारों और कमरों से भरी जगह थी. अमानवीयता की हद बनाती इन सेल्स को देख कर वाकई मृत्यु ज्यादा आसान प्रतीत होती थी. वहाँ खड़े होकर सोच रही थी कि एक रेस से अगर नफरत है तो उसे गैस चेम्बर भेज कर मार देना फिर भी समझ आता है मगर क्रूरता के ऐसे कमरे बनाना...ऐसा किस मनुष्य के अंदर ख्याल आया होगा...क्यूँ आया होगा. उन सारे गलियारों में मौत आज भी दबे पांव घूमती दिखती है. मन के अंदर ऐसा भय तह लगाता जाता है कि उससे निकलने की कोई उम्मीद बाकी नहीं रहती. 

दीवार जहाँ कैदियों को गोली मारी जाती थी 
औस्वित्ज़ में अलग अलग ब्लोक्स हैं...इसमें से एक ब्लोक है जहाँ पर जजमेंट होती थी...पोलिश लोग जो अलग अलग अपराध के लिए पकड़े जाते थे उनपर मुकदमा चलता था और अधिकतर केस में सजा एक ही होती थी...मौत. दीवार का एक हिस्सा है जिसकी ओर मुंह करके कैदी हो खड़ा होना होता था ताकि उसके सर में पीछे गोली मारी जाए. इसके आलावा लोगों को फाँसी देने के हुक भी वहीं मौजूद हैं. 

ब्लोक नंबर २१ इनका मेडिकल ब्लोक था जिसके यहाँ के कैदी स्टॉप टू एक्स्टर्मीनेशन कहते थे.बीमार कैदी जो यहाँ लाये जाते थे, वापस स्वस्थ होकर कभी अपने बैरक में नहीं लौटते थे बल्कि सीधे इन्सिनेरेटर में जाते थे. इन्सिनेरेटर मृत शरीर को जलाने के लिए गैस चेंबर में मौजूद होता था. यहाँ पर अनेक मेडिकल एक्सपेरिमेंट भी हुए. जर्मन डॉक्टर बेहद क्रूर और खतरनाक मेडिकल एक्सपेरिमेंट करते थे. इनमें से कुछ थे पेशेंट्स में गैंग्रीन  डाल देना...बच्चों की आँखों में केमिकल डाल कर देखना कि आँखों का रंग बदला जा सकता है कि नहीं...औरतों के यूट्रस में केमिकल डाल कर उन्हें सील करना. 

औस्वित्ज़ में एक गैस चेंबर भी था. गाइड ने इसके बारे में हमें बाहर ही जानकारी दे दी ताकि अंदर किसी को कोई सवाल न पूछना पड़े. वो एक छोटी सी ईमारत थी, एक तल्ले की जिसमें एक चिमनी दिख रही थी. अंदर गहरी काली दीवारें थीं और वही गंध...मौत की...दहशत की...सन्नाटा कैसे चीखता है ऐसी जगहों पर पता चलता है. वहाँ कोई कुछ नहीं कह रहा था मगर आवाज़ में कई साल पहले की चीखें मौजूद थीं...आवाजें कहीं नहीं जातीं...लोग कहीं नहीं जाते...वहीं ठहरे रहते हैं. गैस चेंबर में एक इन्सिनेरेटर भी था. मरे हुए लोगों को उसी में जलाया जाता था. 

मैंने बहुत पढ़ा था नाजी अत्याचारों के बारे में, ज्यूस की सिलसिलेवार हत्या के बारे में, होलोकॉस्ट और कोंसेंट्रेशन कैम्प के बारे में मगर कोई भी जानकारी उस भयावह अनुभव के लिए तैयार नहीं कर सकती थी. आखिर ऐसा क्या होता है कि इतने सारे लोग एक साथ अमानवीय बर्ताव करने लगते हैं. औस्वित्ज़ के उन ब्लोक्स में मौजूद खिड़की से दिखते एक टुकड़ा आसमान और दूर तक जाती कंटीली बाड़ों को देखते लोग क्या सोचते होंगे...वहाँ चलते हुए हर उम्मीद से भरोसा उठ जाता है...किसी धर्म में विश्वास नहीं रहता. जिंदगी...लोग...सूरज की रौशनी...जैसे जिंदगी से सब कुछ चला जाता है. साधारण सी दिखती इन लाल ईंट की इन इमारतों में कितनी रूहें कैद हैं. 

मैंने खुद को बेहद बेहद तनहा, असहाय और नाउम्मीद महसूस किया...जैसे जिंदगी में खुशी अब कभी नहीं लौटेगी. बारिशें शुरू हो गयीं थी. वहाँ से थोड़ी दूर पर बिर्केनाऊ था जहाँ पर मुख्य एक्स्टर्मीनेशन शिविर और गैस चेंबर थे. बस के सारे यात्री वापस आ के बैठ गए. कहीं कोई कुछ बात नहीं कर रहा था...सब चुप थे...उदास...अपने में अकेले...मौत की परछाई बादलों सी सियाह थी. 

23 July, 2012

वक्त कम है...मुहब्बत ज्यादा

'कवितायें पढ़ने की मुझे फुर्सत नहीं मिल रही'
'और मुझे?'
'तुम्हें पढ़ने के लिए तो एक लम्हा काफी होगा'
'तो?'
'तो, क्या?'
'कब आ रही हो मुझसे मिलने?'
--
लड़की हाथ में उम्र की छोटी सी रेखा को ऊँगली से ट्रेस करती हुयी सोचती...कमबख्त जिंदगी इतनी छोटी क्यूँ है...रोज थोड़ी थोड़ी खींचती उम्र की रेखा को...सोचती शायद कुछ दिन...कुछ लम्हे और बढ़ जाएँ. कि जैसे किसी से बिछड़ते हुए उनका हाथ छूटे तो उसे तुरंत कोट की गर्म जेब में रख दिया जाए...उन हाथों की गर्मी फिर एकाकीपन के पूरे रास्ते साथ रहती है...कभी कभी तो पूरी जिंदगी भी. 
---
जब वो बहुत छोटी सी थी...उसके नन्हे से हाथ की रेखाएं उभरनीं शुरू भी नहीं हुयी थीं कि एक बंजारे जिप्सी ने कह दिया था कि आपकी बच्ची बहुत कम साल जियेगी. घर में उस दिन जो कोहराम मचा उसके अलावा भी माँ बाप ने वाकई उसे इस तरह पाला था जैसे जाने कौन सा दिन आखिरी हो. उस पर दुःख की हलकी सी परछाई भी नहीं पड़ने दी थी...परीकथाओं की राजकुमारी जैसी पली बढ़ी थी वो. उसने तो क्लास में भी कॉज इफेक्ट नहीं पढ़ा था...न्यूटन के तीनो नियम उसे प्रैक्टिकली समझ नहीं आते थे. 
---
उसे किसी से प्यार हो जाना था ये तो उस ओरेकल में नहीं दिखा था...लड़की को बस ये मालूम था कि उसकी  जिंदगी बहुत छोटी सी है...मगर किसी दिन क्लासिकल म्यूजिक सुनते हुए उसे लगता था कि वो किसी रौशनी जैसी चीज़ से पूरी भर गयी है और चाइनीज लैंटर्नस् की तरह हवा में फ्लोट करते हुए किसी अनजान देश की ओर निकल जायेगी. एक दिन कोलेज ट्रिप पर गयी हुयी थी जब उसने पहली बार उस कवि की कवितायें सुनीं. वो एक लैंग्वेज क्लब था जहाँ पिछले कई सालों से लोग मिलते थे और अपने अपने प्रान्त की कहानियां और कवितायें सुनाते थे...अंग्रेजी का ये क्लब उनके ट्रिप का हाईलाईट था. मंच पर हलकी रौशनी थी...कवि की रचनायें उसकी मातृभाषा में थीं...वो पहले मूल कविता पढ़ता और फिर उनके अनुवाद समझाता जाता. उसकी अंग्रेजी बहुत अच्छी नहीं थी...पर शायद अच्छी कवितायें किसी भाषा की मोहताज़ नहीं होतीं...उनका संसार व्यापक होता है. 
---
उन्हें समझ नहीं आता कि वे एक दूसरे की भाषा सीख रहे थे या एक दूसरे को...अनगिन चिट्ठियां आतीं...वे एक दूसरे को अपने भाषा का सबसे खूबसूरत काव्य पढ़ने को देते...लोक संगीत की सीडीज बर्न करके भेजते...फिल्मों के लिए सब टाइटल्स लिखते...फ़ाइल बनाते और भेजते. कविता, संगीत, फिल्में...इसके अलावा नीला आसमान तो एक ही था. लड़की को तब तक मालूम नहीं था कि प्यार आम इंसानों के जीवन में भी बेतरह उलझनें पैदा कर देता है...फिर उसके पास तो वक्त भी कम था...वो कैसे जान पाती कि उसका कवि अब उसकी टूटी हिंदी की कच्ची कवितायें ठीक करके उसे वापस क्यूँ नहीं भेजता...क्यूँ उसके अनगिन खतों के चंद जवाब भी नहीं आते...क्यूँ इन्तेज़ार की चौदह चाँद रातें उसके नाम लिख दी गयी हैं...उसे समझ नहीं आता था कि प्यार सबके लिए अलग अलग रंग लेकर आता है. तकलीफ भी पहली बार हुयी थी...पहले तो उसे लगा कि उस बंजारे की भविष्यवाणी सच होने वाली है...वो वाकई मरने वाली है...फिर धीरे धीरे दिन बीते तो उसे लगा कि तकलीफ में होने से जिंदगी लंबी लगती है. चंद दिनों में ही उसे लगा कि उसने एक लंबी और भरपूर जिंदगी जी है. 
---
एक छोटी सी जिंदगी में अफ़सोस के लिए जगह नहीं होती. उसे भारत जाना था...बस एक बार उस मिट्टी को छूने...उस हवा में सांस लेने...उस आसमान के नीचे एक लंबी ख्वाबों भरी नींद के लिए. उसकी हिंदी बहुत अच्छी हो गयी थी और उसके शहर में हिंदुस्तान से बहुत टूरिस्ट आते थे. उसने लोगों को हिंदी में टूर कराने का एक छोटा सा ग्रुप बनाया. शुरुआत के दिन से उसका एक भी दिन खाली नहीं जाता...हमेशा बहुत से लोग हो जाते हैं. टूर शुरू करने के पहले वो सबसे हाथ मिलाती है...कभी गले लगती है...और मुस्कुराते हुए कहानी सुनाती है...एक छोटी सी जिंदगी की...इस बड़े से शहर में.

यूरोप की बेतरह खूबसूरत इमारतों के बारे में बताते हुए उसकी नीली आँखों में कभी कभी कोई आवारा सफ़ेद बादल चुभ जाता था...फिर बिन मौसम बरसातों को उसके स्कार्फ का रेशमी बाँध थाम लेता था...कल तनहा डेन्यूब नदी के किनारे बैठ कर तीसरी कसम का गाना सुना रही थी लोगों को...दुनिया बनाने वाले...कहानी के बीच में पूछती है...अनजान लोगों से...हैव यू एवर बीन इन लव...डज इट एवर फेड अवे?
---
बारिश में इन्द्रधनुष के रंग ही तो बरसते हैं...वरना तो सब फीका ही रहता धरती पर...वैसे ही...प्यार जिंदगी में घुलता है और खुशबू के रंग से पेंट करता है...फिर आँखों में मुस्कराहट की सफ़ेद रौशनी चमकती है...पहले प्यार सी मासूम...पहले प्यार सी सदाबहार...और पहले प्यार सी पहली. 

19 July, 2012

हरकारे ओ हरकारे!

I miss you.
---
जैसे किसी ने कभी मेरा नाम नहीं पुकारा हो...जैसे मेरा कोई नाम हो ही नहीं...मैं सिर्फ एक संख्या हूँ...बाइनरी डिजिट्स से बनी ऐस्काई कोडिंग में रची कोई कविता...तुमने कौन सी कुंजी से जान लिया मेरे नाम का उच्चारण...तुम वो पहले व्यक्ति थे जिसने मेरा नाम पुकारा था.

हम एक मौन प्रजाति के जीव थे...कोई भी बोलना नहीं जानता था...आँखें उठाना नहीं जानता था...हम एक दूसरे को देखते तो थे पर किसी के चेहरे पहचान नहीं सकते थे...ऐसे में तुम जाने कैसे मेरी आँखों को बाँध सके थे...वो पूरा एक मिनट था जब तुमने मेरी ओर देखा था...उतनी देर में गार्डों ने २० लोगों की रोल-कॉल कम्प्लीट कर ली थी.

हमें खास जेनेटिक प्रयोगशालाओं में बनाया गया था...हमारा जीवन चक्र नियमित होता था और इस चक्र को अनियमित करने वाले जितने भी कारक थे उनका समय समय पर उन्मूलन किया जाता रहता था. नियत समय पर जीने और मरने वाले हम लोग खेत में लगे अरबी या खरीफ की फसल जैसे ही तो थे.
---
ये बहुत बुरी बात है कि इतने पर भी प्रेम जैसी कोई चीज़ मेरे अंदर बची रह गयी है. कि जैसे किसी जर्मन कवि ने कहा था कि अब इस भाषा में कभी भी कविताएं नहीं रची जा सकेंगी. उन्होंने फिर आजीवन कुछ नहीं लिखा.  मेरी हालत ऐसी है जैसे कि अंदर कहीं आग लगी हुयी है और मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रही हूँ. मैं जानती हूँ कि मेरे लिए लिखना जरूरी है...मगर इस वक्त...इस वक्त...मैं दिल्ली में होना चाहती हूँ.
---
I miss you.
---
हालाँकि मैं जानती हूँ कि मैं जिस तुम के पीछे भागती हूँ वो दरअसल मेरी खुद को ढूँढने की कोशिश है. लोग आइनों की तरह होते हैं...उनमें आपका खुद का अक्स दिखता है. तलाश एक ऐसे आईने कि है जिसमें अक्स धुंधला न दिखे. बस.
---
आह...जरा सी जो कच्ची फाँक मिल जाती तुम्हारी आवाज़ की तो क्या बात होती!                                                                      

17 July, 2012

क्राकोव डायरीज-४-अतीत के सियाह पन्नों से

इतिहास की किताबें हमें 'होलोकास्ट' के बारे में कुछ नहीं बताती हैं. शायद बचपन इस लायक होता भी  नहीं है कि इतिहास की इस क्रूरतम घटना की विभीषिका को समझ सके. मैंने होलोकास्ट के बारे में पहली बार सिलसिलेवार ढंग से २००५ में पढ़ा. इन्टरनेट के इस्तेमाल के वो शुरूआती दिन थे.
---
होलोकास्ट...फाइनल सोल्यूशन टू द जुविश प्रॉब्लम...शोआह...ये कुछ टर्म हैं जो नाजी जर्मन लोगों के द्वारा लाखों यहूदियों के सिस्तेमटिक सामूहिक हत्या को कहा गया है. हिटलर के हिसाब से यहूदी एक निम्न रेस थे और बहुत तरीके ढूँढने के बाद आखिरकार निर्णय लिया गया कि संसार को उनसे छुटकारा दिलाने का एक ही तरीका है...उनकी सामूहिक हत्या.
---
यहूदी मुख्यतः व्यापारी वर्ग होते थे. १६वीं शताब्दी में पोलिश राजा काज्हिमिर महान ने उन्हें पोलैंड में बसने के लिए बुलाया था और व्यापार के लिए अवसर प्रदान किये थे. कज्हिमिर धर्मों की एकता में विश्वास रखता था. उस समय से पोलैंड में बहुत से यहूदी बस गए थे. 
---
द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मनी ने पोलैंड पर कब्ज़ा कर लिया था. जर्मन फौज...जिसे SS कहते थे ने सिलसिलेवार ढंग से यहूदियों को पहले शहर से बाहर निकाला. क्राकोव शहर से बाहर एक शहर था कजिमिर...जो कि राजा के नाम पर बसा था. यहाँ पर घेट्टो बनाये गए और क्राकोव से सारे यहूदियों को अमानवीय परिस्थिति में रहने को भेज दिया गया. एक कमरे के घर में लगभग २५ लोग रहते थे. कजिमिर से रेल लाइन गुज़रती थी...यहाँ से यहूदियों को दूसरे कोंसन्त्रेशन कैम्प, जैसे कि औस्वित्ज़ भेजने में आसानी होती. 

Memorial at Kazimierz
कजिमिर तक जाने वाली जुविश वाक में तीन घंटे लगते हैं. क्राकोव के मेन मार्केट स्क्वायर से चलते हुए हम कजिमिर पहुँचते हैं. यहाँ पर लोगों की याद में ट्राम स्टेशन के पास मेमोरियल बनाया गया है. जिन यहूदियों को कोंसेंत्रेशन कैम्प भेजा गया उन्हें लगता था कि वे वापस लौट कर आयेंगे इसलिए उन्होंने अपना कीमती सामान जैसे कि सोना और अन्य बहुमूल्य आभूषण फर्नीचर में छुपा दिए. जब घेट्टो से फर्नीचर निकाला गया तो बहुत सारा मेटल निकला...इस मेटल को पिघला कर कुर्सियां बना दीं गयीं और स्क्वायर पर मेमोरियल के रूप में ये कुर्सियां हैं. मेमोरियल ठहरे हुए लोगों का...सफ़र में होने का प्रतीक है. 

काजिमिर आने और यहाँ से कांसेंत्रेशन कैम्प में जाने वाले लोगों को ये नहीं मालूम था कि वहाँ से कोई लौट कर नहीं आएगा. उस स्क्वायर पर खड़े होकर महसूस होता है कि उनमें से कोई भी कहीं नहीं गया है. मरने के बाद भी सारे लोग वापस लौट कर आ गए हैं. उनकी आत्माएं अभी भी वहीं भटकती हैं...कि उनका कुछ सामान यहाँ है जो उन्हें बहुत कीमती लगता है. ये वाकई ठहरे हुए लोगों का स्क्वायर है...जहाँ से कोई कहीं नहीं जाता. 

Ghetto wall
कजिमिर घेट्टो की दीवारों का आर्किटेक्चर उस समय की कब्रगाहों के जैसा था...ये सेमिसर्किल वाली दीवारें लोगों को इस बात का अहसास दिलाने के लिए थीं कि ये तुम्हारी कब्र है...यहाँ से तुम मर कर ही निकलोगे. घेट्टो की दीवार के दो हिस्से अभी भी मौजूद हैं. उनमें से एक ये हिस्सा है. घेट्टो के बची हुयी इमारतों में अब भी लोग रहते हैं. मैं सोच कर थरथरा जाती हूँ कि लोग कैसे उन इमारतों में रह पाते हैं जिनसे इतना क्रूर अतीत जुड़ा हुआ है.

लोगों को घेट्टो में कैद करना फाइनल सोल्यूशन का पहला हिस्सा था...जिसमें यहूदियों को आम नागरिकों से अलग हटा कर रख दिया गया था. वे बाकी पूरी दुनिया से कट गए थे. घेट्टो के बीच गुजरने वाली ट्रेन से अक्सर बाकी पोलिश लोग उनकी मदद के लिए खाना या कभी कभार अखबार फ़ेंक देते थे. एक बार इसी तरह एक ट्रेन से एक पोलिश व्यक्ति ने खाना फेंका तो जर्मन फ़ौज ने देख लिया. उसी वक्त ट्रेन रुकवा कर ट्रेन में सफ़र करने वाले सारे यात्रियों को उसी स्क्वायर पर गोली मार दी गयी. यहूदियों की मदद करने पर न केवल उस व्यक्ति बल्कि उसके पूरे परिवार को उसी समय शूट कर दिया जाता था. 

बहादुरी...किसे कहते हैं? एक फौजी...सैनिक की बहादुरी समझ में आती है...उसे अपनी जान का भय नहीं रहता क्यूंकि वह सोच कर जाता है कि एक न एक दिन मौत आनी ही है...मगर युद्ध में ऐसे कई नायक होते हैं जिनकी गाथाएं मालूम नहीं होती. ना केवल अपनी जान का खतरा, बल्कि अपने पूरे परिवार के मर जाने का खतरा होने के बावजूद अनगिनत पोलिश नागरिकों ने यहूदियों की कई तरह से भाग जाने में मदद की. कई बार ऐसे मौके आते थे कि यहूदी जमीन के नीचे बने नालों से होकर विस्तुला नदी तक पहुँच जाते थे...जहाँ अन्य पोलिश नागरिक उन्हें स्मगल करके दूसरे शहरों और देशों तक पहुंचा देते थे. 

Schindler's Museum
जिन लोगों ने यहूदियों की रक्षा की...कई बार अपनी जान का जोखिम लेते हुए भी, इनमें से एक नाम सबसे ऊपर आता है...ओस्कर शिंडलर का. शिंडलर एक जर्मन था और अपनी फैक्ट्री में उसने यहूदियों को काम पर रखा था...उसने लगभग ११०० यहूदियों की जान बचाई और ये यहूदी आज भी अपने आप को शिंडलर्स ज्यूस कहते हैं. शिंडलर एक विवादित कैरेक्टर है, कई कहानियां कहती हैं कि उसे पहले यहूदियों को सिर्फ इसलिए काम पर रखा क्यूंकि वे मुफ्त में काम करते थे...मगर धीरे धीरे जब उसने देखा कि घेट्टो में किस तरह यहूदियों का क़त्ल हो रहा है तो उसने जी जान से अपनी फैक्ट्री में काम करने वाले यहूदियों की रक्षा की. ओस्कर शिन्दलर की फैक्ट्री का पूरा हिस्सा एक म्यूजियम में तब्दील कर दिया गया है जिसमें द्वितीय विश्व युद्द में होने वाली घटनाओं का ब्यौरा है. ये म्यूजियम देखने में तीन घंटे लगते हैं और मैं अभी तक यहाँ जा नहीं पायी हूँ. 

टूर पर चलते हुए अवसाद इतना गाढ़ा होता है कि कई बार लगता है डूब के उबरने के कोई आसार नहीं हैं. घेट्टो में रहने वाले लोगों की लाचारी...उनकी तकलीफें...हत्या...चीखें...सब कुछ हवा में ठहरा हुआ है. कहते हैं कि आवाजें कहीं नहीं जातीं. मन को थोड़ी शांति म्यूजियम के बाहर यहूदियों की किताब...तालमुड की लिखी एक कहावत से मिलता है...Whoever saves one life, saves the world entire'...जिसने एक जान भी बचाई है उसने पूरी दुनिया की रक्षा की है. तीन घंटे का ये टूर...यहूदी शब्द पर खत्म होता है...शालोम...अर्थात शान्ति...इसे शुरुआत और आखिर में इस्तेमाल करते हैं. 
---
लिखने का वक्त नहीं मिल पा रहा और मानसिक स्थिति भी खराब रह रही है...उसपर यहाँ बहुत बारिशें हो रही हैं. धूप में रहने पर अधिकतर मन प्रसन्न महसूस करता है...बारिशें कुछ दिन तो अच्छी लगती हैं मगर ज्यादा दिन होने पर, खास तौर पर ऐसे किसी अनुभव से गुजरने के बाद अवसाद को ही जन्म देती हैं. बुरे सपनों के कारण नींद एकदम नहीं आती...रात जागते बीतती है और डर इतना लगता है कि अकेले दिन में भी होटल के कमरे में दिल की धड़कन बढ़ी रहती है. 

कल मैं औस्वित्ज़ गयी थी जो कि सबसे बड़ा कांसेंत्रेशन कैम्प था. तीन मिलियन लोग इस कैम्प में मारे गए जिनमें से ९० प्रतिशत यहूदी थे...और ये ऑफिसियल आंकड़े हैं. असल में क्या हुआ था उसकी सही सही मालूमात नहीं है. जब से वापस लौटी हूँ सदमे में हूँ...समझ नहीं आ रहा क्या सोच के खुद को समझाऊं...वो तसवीरें मन से कैसे इरेज करूं. लिख कर शान्ति मिलेगी ऐसा सोच कर पोस्ट लिखने बैठी...पर अब लगता है कि बंद कमरे के इस होटल में और रही तो जान चली जायेगी. इसलिए बाहर टहलने जा रही हूँ. बाहर अनगिन बारिशें हो रही हैं. ठंढ बेतहाशा बढ़ गयी है. शायद शाम को लिख सकूंगी वापस लौट कर...या फिर कल सुबह. 

दुआएँ कीजिये...इस देश के लिए...आत्माओं की शांति के लिए...
और फिर थोड़ी सी उम्मीद बचे तो मेरे लिए भी थोड़ी दुआएँ मांग लीजिए...

16 July, 2012

क्राकोव डायरीज-३-बारिशों का छाता ताने

यूँ तो इस कासिदाने दिल के पास, जाने किस किस के लिए पैगाम हैं
जो लिखे जाने थे औरों के नाम, मेरे वो खत भी तुम्हारे नाम हैं
-जान आलिया
डायरी में लिखा हुआ...
12th July, 12:26 local time Krakow
किले के पीछे विस्तुला नदी बहती है. मैं नदी किनारे बैठ कर हवा खा रही हूँ. लोगों के आने जाने की आवाजें हैं. नदी की लहरों का शोर. घूमने को कई सारे म्यूजियम हैं, देखने को कई सारी जगहें...ऐसे में बिना कुछ किये बैठे रहने में वैसा ही भाव है जैसे गर्मी की छुट्टी का होमवर्क नहीं करने में था. M lovin it :)
---
वे धूप की खुशबू में भीगे दिन थे...गुनगुनाते हुए. 
मेरे फोन में 3G आ गया था तो शहर घूमना थोड़ा आसान हो गया. मुझे वैसे भी रास्ते अच्छे से याद रहते हैं. क्राकोव में मैं जहाँ ठहरी हूँ वो 'ओल्ड टाउन' का हिस्सा है. सारे किले, पुराने चर्च, म्यूजियम आसपास ही हैं और पैदल घूमा जा सकता है. १२ की सुबह आराम से तैयार होकर घूमने निकली तो सोचा ये था कि यहाँ का जो मुख्य किला है...वावेल कैसल उसके अंदर के म्यूजियम घूमूंगी. आज दूसरा रास्ता लिया था कैसल जाने के लिए. इस रास्ते के एक तरफ पार्क था और दूसरे तरफ बिल्डिंग्स. यूरोप का आर्किटेक्चर लगभग एक जैसा ही है...स्लोपिंग छत वाले घर और बालकनी...खिड़कियों के बाहर फूलों वाले गमले जिनमें अक्सर लाल फूल खिले रहते हैं. 

इस दूसरे रास्ते पर चलते हुए किले के नीचे पहुँच गयी...नदी के किनारे. यहाँ ड्रैगन की गुफा का बाहरी दरवाजा है...जहाँ एक ड्रैगन बना हुआ है जिसके मुंह से आग निकलती है. नदी के लिए क्रूज भी यहीं से मिलते हैं. क्राकोव में बहुत सारा स्टूडेंट पोपुलेशन है इसलिए यहाँ धूप में पढ़ते हुए लोग दिख जाते हैं...नदी किनारे, पेड़ के नीचे पढ़ते लिखते लोग देख कर लगता है कि जिंदगी इसी का नाम है. कोई बारह बज रहे थे और माहौल इतना अच्छा था कि कहीं जाने का मन ही नहीं कर रहा था. शहर में आये हुए ये तीसरा दिन था. कुछ खास देखा नहीं था अभी...कैसल में भी म्यूजियम हैं, राजाओं की कब्रें हैं और इसके अलावा टाउन स्क्वायर जिसका मूल नाम रैनेक ग्लोव्नी होता है में भी एक बड़ा सा म्यूजियम है जिसे क्लोथ हॉल म्यूजियम कहते हैं. इसके अलावा ३ बजे मेन स्क्वायर से जुविश क्वाटर के लिए टूर शुरू होता है...उसे देखने का भी दिल था.

घोर गिल्ट महसूस करने के बावजूद मैं वहाँ कुछ देर ठहरी रही...ठंढ के दिन में धूप...उसपर इतनी खूबसूरती...सारा गिल्ट महसूस करने के बावजूद कहीं जाने का दिल नहीं कर रहा था. सोच ये रही थी कि यहाँ बैठ कर पोस्टकार्ड लिखने में कितना मज़ा आएगा...किले की बुर्ज पर बने कमरेनुमा वाच टॉवर को देखा तो बिलकुल पुराने जमाने के लाल-डिब्बे जैसा दिखा. कुछ देर वहीं धूप खाने के बाद ऊपर किले पर पहुंची और पोस्टकार्ड ख़रीदा...फिर खाने का इन्तेज़ार करते हुए पोस्ट कार्ड पर पता और मेसेज लिखा. फिर कार्ड को असली वाली पोस्टबोक्स में गिराया. यहाँ के स्टैम्प्स बहुत अच्छे लगते हैं मुझे.

टाउनहाल की नींवें
आज की कहानी है नीवों की...पार्ट वन में आपने यहाँ की नींव के बारे में सुना...अब बारी थी उन्हें असल में जा कर देखने की. क्लोथ हॉल म्यूजियम एक बड़ी सी इमारत है. जब मैंने सोचा कि आज म्यूजियम देखना है तो मुझे लगा कि ईमारत में जाना है...सीढ़ियाँ नीचे की ओर जाते हुए देख कर भी मुझे नहीं लगा था कि म्यूजियम दरअसल ऊपर की इमारत नहीं...वाकई टाउन स्क्वायर की गिरी हुयी इमारत की नींवों में है. म्यूजियम के एंट्रेंस में एक विडीयो चल रहा था...मुझे लगा कि कोई दीवार है...जिसपर प्रोजेक्शन है...मगर तकनीक इतनी आगे बढ़ गयी है...वो असल में हवा में थ्री डी प्रोजेक्शन था...कोई दीवार नहीं थी. 


१५०० AD: मेन टावर, क्राकोव टाउनहाल
क्राकोव का टाउनहाल १२वीं शताब्दी से उसी जगह पर है. म्यूजियम में बहुत सालों पुरानी बनी नींवें थीं...थ्री डी टेक्निक और प्रोजेक्शन से हर सदी के साथ कैसे नींव की रूपरेखा बदली ये भी दिखता था. १६ वीं शताब्दी में जहाँ आज का टाउनहाल है वहाँ पर एक बहुत बड़ा बाजार हुआ करता था फिर एक भीषण आग में सब जल कर भस्म हो गया. आर्कियोलॉजिकल सर्वे में उस समय का काफी कुछ सामान मिला है. पुराने जमाने में लुहार, स्वर्णकार किस तरह काम करते थे इसे मोडेल्स और छोटी फिल्मों के माध्यम से दिखाया गया है. यहाँ कई सारे स्कूल के बच्चे भी आये हुए थे जिनके साथ टीचर और गाइड भी थीं. नीवें पूरे टाउन स्क्वायर के नीचे नीचे हैं...और म्यूजियम भी इन्ही नींवों के बीच बना हुआ है...यानी कि पूरा अंडरग्राउंड है. सबसे अधिक आश्चर्य हुआ जब एक जगह पानी की परछाइयाँ देखीं. मुझे लगा कि फिर से कोई इन्तेरैक्तिव वीडियो है...पानी में पैर भी देखे...बहुत देर बाद जाकर अहसास हुआ कि नींव की सुरंगनुमा गलियारों में चलते हुए मैं मेन स्क्वायर के बड़े से झरने के ठीक नीचे खड़ी हूँ...और जो पानी है वो उसी फाउंटेन का है...और जो पैर नज़र आ रहे हैं वो असल में ऊपर पानी में खेलते बच्चों के हैं...किसी वीडियो फिल्म के नहीं. म्यूजियम इतना बड़ा है कि अगर लोग कम हों तो कई बार डर लग जाए कि कहीं खो न जायें.
---
उस शाम से हर शाम बारिशें हो रही हैं...मैं सोचती हूँ अच्छा हुआ कि धूप में कुछ देर बैठने का मन था तो बैठ लिए...कल का दिन कैसी बारिशें लिखा के लाता है कोई नहीं जानता. इधर बारिशें होती हैं तो मैं जींस मोड़ कर...फ्लोटर्स पहन कर फोन-वोन होटल के कमरे पर छोड़ कर  निकल जाती हूँ. भीगता हुआ शहर भीगती लड़की की तरह ही खूबसूरत दिखता है. पुरानी पत्थर की बनी इमारतें...और सड़कें. बारिश में लगभग हर कोई भागता हुआ दिखता है...एक मैं ही हूँ जो इस शहर की कहानियां सुनने को भटकती रहती हूँ. रंग बिरंगे छाते तन गए हैं हर तरफ और शोर्ट्स में घूमने वाली लड़कियां जींस और जैकेट में बंध गयी हैं.

हर शहर में पहली बारिश की खुशबू एक ही होती है फिर इस शहर में क्या खास है...फुहारों में वायलिन की आवाज़ भी आती है...यहाँ की बारिश में संगीत घुला होता है. मैं यहाँ कभी हेडफोन लगा कर नहीं घूमती कि यहाँ के हर चौराहे पर कोई न कोई संगीत का टुकड़ा ठहरा होता है...कभी वायलिन, कभी गिटार तो कभी ओपेरा गाती लड़की तो कभी बांसुरी की तान छेड़ता कोई बूढा...यहाँ कितना संगीत है...और कितनी ही उदासी. यहाँ की हवाएं ऐसे ठहरती हैं जैसे गले में सिसकी अटकी हो.

पूछना बादलों से मेरा पता...
मैं बारिशों में यहाँ की दुकानें देखती हूँ...सबके लिए कुछ न कुछ लेकर जाउंगी इस शहर से...दोस्तों के लिए पोस्टकार्ड छांटती हूँ...सबसे अलग, सबसे अच्छे...सबसे रंग भरे...क्या भेज दूं यहाँ से...इस शहर से मुझे प्यार हो गया है...यहाँ से लोगों से...गलियों से...पुरानी, रंग उड़ी इमारतों से...किले के नीचे चुप  बहती विस्तुला से...ड्रेगंस...स्ट्रीट आर्टिस्ट्स...बारिश...हवा...पानी...सबसे. बहुत सी बारिशों में बैठ कर पोस्टकार्ड लिखती हूँ...किले की खिड़की से बारिश बाहर बुलाती है...मैं पोस्टकार्ड पर फूँक मार रही हूँ...इंक पेन से लिखा है...यहाँ और देश की बारिश में धुल न जाए.

कितना अच्छा लग रहा है...इतने अच्छे और खूबसूरत देश में...बारिशों को देखते हुए...बहुत से अच्छे प्यारे दोस्तों को लिखना...कि जैसे जितनी मैं यहाँ हूँ...उतनी ही भारत में भी. कि जैसे दुनिया वाकई इतनी छोटी है कि आँखों में बस जाए. कि प्यार वाकई इतना है कि पूरे आसमानों में बिखेर दो...कि तुम्हारे शहर में बारिशें हो तो समझना, मैंने दुआएँ भेजी हैं.

बस...दूर देश से आज इतना ही.

Mood Channel: Edit Piaf- Bal dans ma rue

11 July, 2012

क्राकोव डायरीज-२-गायब हुए देश की कहानियां

बहुत समय पहले की बात है...एक युवक था...आदर्शों में डूबा हुआ...दुनिया को बदलने के ख्वाब देखता हुआ...वो एक कवि था...पोलैंड एक मुश्किल दौर से गुज़र रहा था उस वक्त...युवक के परिवार में भी कोई शख्स नहीं बचा था...उसने चर्च की ओर रुख किया पादरी बना. फिर चर्च के एक एक पायदान चढ़ते हुए वैटिकन...और फिर...एक मिनट रूकती है...अलीशिया की आँखों में खुशी नाच उठी है...जैसे वो कोई उसका अपना था...अपने दिल पर हाथ रख कर कहती है...इस छोटे से पोलैंड से उठ कर गया वो लड़का...वो कवि...वो आइडियल लड़का...'पोप' बनता है...यू नो...पोप जॉन पौल २...वो पोलैंड से था...हमारा अपना पोप. उस वक्त पोलैंड में कम्युनिस्ट रूल था...वे लोगों को एक बराबर मानते थे इसलिए धर्म के खिलाफ थे. जॉन पौल ने पोलैंड आने का प्रोग्राम बनाया. कम्युनिस्ट अथोरिटी को ये पसंद नहीं आया और वे तैयार थे कि खून खराबा होगा और कोई क्रांति होगी तो वे कितनी भी हद तक जाकर उसे शांत करेंगे. लोगों में इस बात की उत्सुकता थी कि जब कम्युनिस्ट जेनेरल जरुज्लेसकी और पोप मिलेंगे तो कैसे मिलेंगे...क्या पोप उनसे हाथ मिलायेंगे...पोप ने कमाल का उपाय निकाला...उन्होंने जेनरल को अपने प्लेन में अंदर बुलाया...और आज तक कोई नहीं जानता कि अंदर क्या हुआ था...जब बाहर आये तो दोनों हाथ हिला रहे थे पब्लिक की ओर. अलीशिया बताती है कि लोग जेनरल  जरुज्लेसकी से सबसे ज्यादा नफरत करते हैं...अब वो कोई १०० साल की उमर का आदमी होगा मगर अब भी उसके घर के आगे खड़े होकर गालियाँ देते हैं और पत्थर फेंकते हैं...उसके हिसाब से अब उसे उसके हाल पर छोड़ देना चाहिए...लेकिन...नफरत इतनी आसानी से खत्म नहीं होती. एक गहरी सांस! उफ़.

पोलिश लोग पोप से बहुत प्यार करते थे और एक गर्व की भावना से भरे हुए थे...उनके 'मास' में आने के लिए सारे लोगों में उत्सव जैसा उत्साह था...कम्युनिस्ट सरकार ने लोगों को पोप से मिलने से रोकने के लिए अनेक उपाय किये...मास के दिन सारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट बंद था...लोगों को ऑफिस में बहुत ज्यादा काम दे दिया गया और ऐसे अनेक तरीके कि लोग अपने घर से बाहर जा ही न पाएं. लेकिन लोगों ने मास अटेंड करने के लिए ४० किलोमीटर तक से पैदल आ गए थे. पोप को पोलिश रिवोलूशन में एक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है. मास के बाद जब पोप अपने घर में आराम करने आये तो उनके साथ पूरा जनसमूह उमड़ पड़ा...तो वो अपने क्वार्टर से बाहर खिड़की पर खड़े हो गए और लोगों से बात करते रहे. उस पूरी रात लोग उनकी खिड़की के नीचे खड़े रहे...कोई गीत गा रहा था...कहीं कविता सुनाई जा रही थी...कहीं प्रार्थनाएं हो रही थीं...कहीं हँसी मजाक हो रहा था...और इस सारे वक्त सारे लोग रुके रहे और पोप अपनी बालकनी नुमा खिड़की पर उनके साथ पूरी रात बातें करते रहे. उस दिन के बाद से नियम हो गया कि पोप जब भी पोलैंड आते अपनी खिड़की पर जरूर आते और लोग उनसे मिलने वहीं खिड़की के नीचे खड़े रहते. उनके रेसिडेंशियल क्वाटर का एरिया हमेशा पोप से जुड़ी जगह हो गयी...जब पोप का देहांत हुआ तो पूरे दो हफ्ते तक वो सड़क...जो कि क्राकोव की एक बेहद बीजी सड़क है...दो हफ्ते तक वो सड़क फूलों और मोमबत्तियों से जाम रही. ये थी कहानी उस पोलिश पोप की जिससे पोलिश बहुत प्यार करते हैं...जो कवि था...और जिसने क्रांति की उम्मीद लोगों के दिलों में जलाए रखी. 

दूसरी कहानी है...क्राकोव की...कहानी के बहुत सारे वर्शन हैं...तो हम आपको अलीशिया का वर्शन सुनाते हैं...बहुत साल पहले की बात है क्राकोव में एक राजा रहता था...लेकिन उसका एक पड़ोसी था जो उसको बिलकुल पसंद नहीं था...होता है...हम अक्सर अपने पड़ोसियों को पसंद नहीं करते...वावेल पहाड़ी पर, विस्तुला नदी के किनारे एक गुफा में ड्रैगन रहता था...और ड्रैगन वर्जिन लड़कियों को ही खाता था...हर कुछ दिन में वर्जिन लड़कियां उठा ले जाता था...अब यू नो...राजा को भी वर्जिन लड़कियां पसंद थीं और जैसा कि होता है...वर्जिन लड़कियां हमेशा संख्या में कम होती हैं...तो राजा को ड्रैगन से कॉम्पिटिशन पसंद नहीं था...इसलिए उसने मुनादी कराई कि जो भी योद्धा ड्रैगन को मार देगा उसे बहुत सारा राज्य और एक खूबसूरत राजकुमारी मिलेगी. बहुत से योद्धा ड्रैगन की गुफा में गए...पर कोई भी वापस नहीं लौटा. आखिर राजा ने मुनादी कराई कि कोई आम इंसान भी ड्रैगन को मार देगा तो उसको भी वही इनाम मिलेगा. एक मोची के यहाँ एक छोटा सा लड़का काम करता था...स्कूबा...उसने कहा वो ड्रैगन को मार देगा तो सब लोग उसपर बहुत हँसे...मगर छोटे, बहादुर स्कूबा ने हार नहीं मानी...उसने एक मेमने के अंदर बहुत सारा सल्फर भर दिया और उसे ड्रैगन की गुफा के सामने बाँध दिया...ड्रैगन बाहर आया और मेमने को खा गया. अब ड्रैगन के पेट में सल्फर के कारण जलन होने लगी(अब उन दिनों में ईनो तो था नहीं कि ६ मिनट में गैस से छुटकारा दिला दे ;) ;)  ) तो ड्रैगन विस्तुला नदी में कूद गया और खूब सारा पानी पीने लगा...वो कितना भी पानी पीता जलन कम ही नहीं होती...आखिर वो पानी पीते गया पीते गया और बुम्म्म्म्म्म्म्म से फट गया. सब लोग खुश...स्कूबा की शादी राजकुमारी से हो गयी और वो लोग खुशी खुशी रहने लगे. 

ये तो हुआ परसों का बकाया उधार...

कल मेरे पास कोई प्रोग्राम नहीं था...मुझे वावेल कैसल घूमना था और शाम को ३ बजे एक पैदल टूर होता है जुविश क्वार्टर का वो देखना था...आधा दिन मेरा फोन में चला गया. अभी भी मेरा फोन काम नहीं कर रहा...उससे काल्स नहीं हो रहे...बस इन्टरनेट काम कर रहा है. तो अभी मेरे पास एक फोन है इन्टरनेट के लिए और एक फोन है नोकिया का कॉल करने के लिए...नोकिया वाले सिम में पैसे खतम हैं...तो मैं सिर्फ फोन अटेंड कर सकती हूँ...अगर कोई फोन करे तो.

मेरा दिन यहाँ ७ बजे शुरू होता है...८ बजे कुणाल के ऑफिस के टैक्सी आती है...उसके बाद का टाइम में थोड़ा बिखरा सामान समेटने और नहा के तैयार होने में जाता है. फिर लिखने में कोई घंटा डेढ़ घंटा लगता है...ग्यारह के आसपास मैं तैयार हो जाती हूँ. कल मुझे फ्री वाल्किंग टूर वाले दिखे नहीं...उनके साथ घूमने में मज़ा आता है...वो कहानियां सुनाते चलते हैं इसलिए मैं उनके साथ ही जुविश क्वार्टर देखना चाहती हूँ. 

टावर के ऊपर की खिड़की में 
कल फोन में नया नंबर लिया और सोचे कि क्या करें तो सबसे पहले जाके मार्केट में जो इकलौता टावर बचा है उसपर चढ़ने का टिकट कटा लिए. खतरनाक घुमावदार ऊँची नीची सीढ़ियाँ चढ़ते हुए टावर की आधी ऊँचाई पर खड़ी सोच रही थी कि मैं हर बार ऐसा क्यूँ करती हूँ...टावर देखते ही चढ़ने का मन क्यूँ करता है. मुझे क्लौस्ट्रोफोबिया है...बंद जगहों से डर लगता है...ऊँची जगहों से डर लगता है और ये टावर बंद भी है और ऊँचा भी है...माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पहले व्यक्ति से पूछा गया कि आप माउंट एवेरेस्ट पर क्यूँ चढ़े तो उसका कहना था...क्यूंकि वो है...बिकॉज इट इज देयर...कुछ वैसा ही मेरा हाल है. तो टावर था तो चढ़ गयी :) अच्छा लगा...वहाँ से नज़ारा अच्छा था शहर का...फोटो वोटो खींच के नीचे उतरे. फिर फोन के चक्कर में पड़े...कोई ढाई टाइप बज गया. भूख के मारे चक्कर आने लगे. 

फिर सारे रेस्टोरेंट का मेनू पढ़ते पढ़ते एक जगह पास्ता विथ पेस्तो सौस दिखा...वो वेजेटेरियन होगा ये सोच कर खुश हो गए...और खाने बैठ गए. टाउनहाल की नीवों पर बने इस स्क्वायर पर रेस्टोरेंट्स हैं...चारों तरफ...कुछ दूर में विस्तुला नदी बहती है...लोग सड़कों पर खड़े कोई वायलिन, गिटार, अकोर्दियान बजाते रहते हैं...हवा में मिलीजुली आवाजों की खुशबू थी. आइस टी पी रही थी और सोच रही थी...किसी की याद में नहीं...पूरी की पूरी खुद के साथ. मैं किसी और के साथ होना नहीं चाहती थी...मैं किसी अतीत में खोयी नहीं थी...वर्तमान के साथ किसी और लम्हे का एको नहीं था...ऐसा कोई दिन कभी नहीं आया था...कभी नहीं आएगा...मुझे खुद के साथ होना अच्छा लगा. मुझे कहीं जाने की जल्दी नहीं थी...मैं इत्मीनान से आइस टी पीते हुए सामने के स्क्वायर पर आते जाते लोगों को, उनके कपड़ों को, उनकी मुस्कुराहटों को देख रही थी...धूप थोड़ी तिरछी पड़ने लगी थी...हवा में हलकी सी खुनक थी...मौसम ठंढा था और धूप से गर्म होती चीज़ें थी...सब उतना खूबसूरत था जितना हो सकता था. मैं मुस्कुरा रही थी. मैं वाकई बहुत बहुत साल बाद अपने आज में...उस प्रेजेंट मोमेंट में पूरी तरह से थी...खुश थी. 

पास्ता बहुत अच्छा था...खाना खा के मैंने जुविश क्वार्टर देखना मुल्तवी किया...वाकिंग टूर वाले लोग दिख भी नहीं रहे थे...सोचा टहलते हुए किला देख आती हूँ या नदी किनारे बैठती हूँ जा कर. मुझे लगता है मैं धीरे धीरे वापस से वही लड़की होने लगी हूँ जिससे मैं बहुत प्यार करती थी...अपनी गलतियों और अपनी बेवकूफियों को थोड़ा सा दिल बड़ा करके माफ कर देना चाहती हूँ.

The Monument. 1975-1986. A monument to show
the two great men that invented socialism to be set
in a country in which socialism had become a reality.
Creation of statues of Karl Marx and Friedrich Engels.
(From the exhibition- Stories from a vanished country)

सामने एक एक्जीबिशन दिखा...स्टोरीज फ्रॉम अ वैनिशड कंट्री...गायब हुए देश की कहानियां...तो मैं एक्जीबिशन देखने चली गयी. GDR- जर्मन डेमोक्रटिक रिपब्लिक जो कि बर्लिन की दीवार के पूर्वी हिस्से में था...एक आदर्श कम्युनस्ट देश की तरह स्थापित किया जा रहा था...जहाँ सारे लोग बराबर थे. इस प्रदर्शनी में कई सारी तसवीरें थीं जो उस खोये हुए देश की कहानियां सुनाती थीं...जीडीआर में खुद को एक्सप्रेस करने की आजादी नहीं थी...सारे लोग यूनिफार्म पहनते थे और एक जैसे ब्लाक्नुमा घरों में रहते थे. तस्वीरों और उनके शीर्षक एक अजीब तिलिस्मी दुनिया रच रहे थे मेरे इर्द गिर्द...आधी दूर जाते जाते लगने लगा कि मैं उन तस्वीरों में ही कहीं हूँ...जीडीआर में लोग जब एक लाइन लगी देखते थे तो उसमें लग जाते थे...बिना ये जाने कि किस चीज़ की लाइन लगी है...अगर वस्तु उनके काम कि नहीं है तो वे उसे उस चीज़ से बदल सकते थे जो उन्हें चाहिए होती थी. काला-सफ़ेद तिलिस्म...उचटे हुए लोग...हर तस्वीर से एक अजीब उदासी रिसती हुयी...ऐसा लग रहा था जैसे मेरा चेहरा उनमें घुलता जा रहा है...हर रिफ्लेक्शन के साथ मैं थोड़ी थोड़ी खोती जा रही हूँ...जीडीआर में लोगों के चेहरे नहीं होते थे...इंडिविजुअल कुछ नहीं...कोई अलग आइडेंटिटी नहीं...आप बस भीड़ का हिस्सा हो...आपका अपना कुछ खास नहीं. मनुफैकचर्ड लोग...खदानों, कारखानों में काम करते लोग...कामगार...बेहद अच्छे खिलाड़ी...लेकिन आइना देखो तो कुछ नज़र नहीं आता. एक्जीबिशन देखना एक अजीब अनुभव था...कुछ इतना डिस्टर्बिंग और रियलिटी से काट देने वाला कि मैं बाहर आई तो अचानक से इतनी सारी रौशनी और हँसते मुस्कुराते लोग देख कर अचंभित हो गयी...मुझे लग रहा था जिंदगी में रंग होते ही नहीं हैं...और हॉल से बाहर भी ग्रे रंग की ही दुनिया होगी...लोग मिलिट्री यूनिफार्म में होंगे. तस्वीरों और शब्दों में कितनी जान होती है ये कल महसूस हुआ. 
विस्तुला नदी किनारे
पेड़ की छाँव में बैठ कर किताब पढ़ना...

फिर कुछ खास नहीं...टहलते हुए किले के पास चली गयी...देखा कि लोग घास में आराम से लेट कर किताब पढ़ रहे हैं या गप्पें मार रहे हैं...थोड़ा बहुत और भटकी...फेसबुक पर कुछ फोटो अपडेट की और बस...वापस आ गयी. दिन के आखिर में आखिरी ख्याल ये आया...कि मैं बहुत अच्छी हूँ...और मैं खुद से बहुत प्यार करती हूँ...और सबसे खूबसूरत लम्हा वो होता है जिसे हम जी रहे होते हैं. ईश्वर की शुक्रगुजार हूँ इस जीवन के लिए...इन रास्तों और इस सफ़र के लिए और अपने दोस्तों और अपने परिवार के लिए...और सबसे ज्यादा कुणाल के लिए. 

चीयर्स!

10 July, 2012

क्राकोव डायरीज-१-अलीशिया के नाम

क्राकोव...पोलैंड.
9:34 am

कल मेरा क्राकोव में पहला दिन था...मैं अधिकतर ट्रैवेल डायरीज नहीं लिखती...पर पुराने अनुभव को देखते हुए पाती हूँ कि अगर न लिखूँ तो बहुत सी चीज़ें भूल जाउंगी. इसलिए इस बार जो चीज़ें मुझे सबसे अच्छी लगीं उनको यहाँ सहेज कर रख रही हूँ.

पिछले कुछ दिनों में मैं बैंगलोर से मुंबई...वहाँ से दुबई...वहाँ से म्यूनिक और आखिरकार क्राकोव पहुंची हूँ. पोलैंड आने का प्लान दो बार कैंसिल होकर ये तीसरी बार फाइनल हुआ है. इस बीच एयरपोर्ट पर घंटों का इन्तेज़ार था...म्यूनिक में हमारा वीसा लग गया था तो हम एयरपोर्ट के बाहर इंतज़ार कर रहे थे. वहाँ एक छोटा सा मेला लगा हुआ था...लाजवाब किस्म की अल्कोहल पीते हुए और जादू के कारनामे देखते हुए वक्त कैसा कटा मालूम ही नहीं चला. म्यूनिक की शाम मेरी अब तक की देखी हुयी शामों में सबसे खूबसूरत थी. वहाँ सूरज की रौशनी कम ही नहीं हुयी...पूरा चमकता हुआ गहरा नारंगी सूरज डूब गया...पूरे आसमान को गहरा नारंगी करते हुए.


हम क्राकोव रात के बारह बजे पहुंचे. अधिकतर मैं किसी देश जाती हूँ तो वहाँ के बारे में अच्छे से पढ़ कर जाती हूँ...पर पोलैंड का प्रोग्राम इतनी बार कैंसिल हुआ कि यकीं ही नहीं था कि आयेंगे भी...तो बिना कुछ पढ़े आ गयी. सुबह मुझे पीने का पानी और सिम कार्ड खरीदना था तो होटल से निकल कर मार्केट स्क्वायर की ओर चल पड़ी. मार्केट स्क्वायर के बीच में एक फाउंटेन है...मैं फोटो खींच रही थी तो देखा कि एक ग्रुप है जिसमें एक बोर्ड उठाए एक लड़की लोगों को जगह के बारे में बता रही थी...बोर्ड पर लिखा था 'Freewalkingtour Join Us'. मैं अधिकतर गाइड नहीं लेती हूँ...खुद घूमने में अच्छा लगता है...पर वहाँ जो लड़की खड़ी थी उसके बात करने का ढंग निराला था. मैं ग्रुप के साथ हो ली. 

हमारी टूर गाइड का नाम अलीशिया था...जिंदगी से भरी हुयी...पोलैंड के बारे में गर्व और प्यार से बात करती हुयी...इतिहास की कहानियों को वाकई कहानी की तरह सुनाती...उसने हमें पोलैंड का इतिहास बताया...राजाओं के किस्से बताये...नाज़ी जर्मन के अत्याचार बताए और ये सब थोड़ी सी मुस्कराहट के साथ कि बोझिल न हो...इतिहास मुझे सबसे बोरिंग सब्जेक्ट लगा था...कि इतिहास में क्यूँ रूचि होगी...मगर इतिहास ऐसे पढ़ाना चाहिए. पोलैंड पर और पोलिश लोगों पर कितने अत्याचार हुए...उन्हें सुनाने के दो तरीके हो सकते थे...एक तो फ़िल्मी देवदास टाइप रोना धोना...कि हमारी दुखभरी गाथा...एक था थोड़ा हँसी मजाक करते हुए...अपनी जिंदगी से जोड़ते हुए किस्से बुनना...अलीशिया ने वही किया. हँसते हुए उसने सारी कहानियां सुनायीं. उनमें से कुछ मेरी सबसे पसंदीदा मैं आपसे शेयर कर रही हूँ. ये मैंने जो सुना उस याद पर लिखा गया है...तो गलत हो सकता है...पोलिटिकली गलत हो सकता है वैसे में कृपया बता दें ताकि मैं बदलाव कर सकूं.

अलीशिया के हिसाब से...पोलिश लोग बहुत शिकायत करते हैं...ये अच्छा नहीं है...ये खराब है...खोट निकालते रहते हैं...लेकिन जैसे ही वो चीज़ उनसे छीनने की कोशिश करो...वो उसके लिए जान लगा देंगे...फिर वही चीज़ उनको जान से प्यारी हो जायेगी. ऐसा यहाँ की हर इमारत के बारे में किस्सा है.

क्राकोव के मार्केट स्क्वायर में एक टावर है...पहले यहाँ एक पूरी इमारत थी...यहाँ का टाउनहाल, मुख्य ईमारत के साथ लगे कुछ छोटी इमारतें भी थीं. नाज़ी छोटी इमारतों को गिरा कर एक आडियल टाउनहाल बनाना चाहते थे मगर पूरी इमारत कुछ ऐसी गुंथी हुयी थी कि बराबर की बिल्डिंग्स गिराने के क्रम में पूरा टाउनहाल गिर गया और अब बस एक टावर बचा है...और बचे हैं टाउनहाल की नींव. बिल्डिंग की नींव में लोगों के मनोरंजन का इन्तेजाम था. एक तरफ थे यातनागृह...टॉर्चर चेम्बर्स...एक्सिक्युशन चेम्बर्स और एक तरफ थे बार जहाँ यूरोप की सबसे अच्छी बियर मिलती थी...इन दोनों चेम्बर्स के बीच एक खिड़की खुलती थी...ताकि आप अपना बियर एन्जॉय करते हुए लोगों को मरते हुए देख सकें...ये लिखते हुए मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं. ये खिड़की यहाँ की सबसे प्रसिद्ध खिड़की थी.

जब नाज़ियों ने पोलैंड पर कब्ज़ा कर लिया तो हिटलर नहीं चाहता था कि पोलिश लोग पढ़ें...वो सिर्फ सस्ते कामगारों की तरह उनका इस्तेमाल करना चाहता था. उसने एक बार पोलैंड के सारे अच्छे साइंटिस्ट और प्रोफेसर्स को बुलवाया कि एक कोन्फेरेंस है जहाँ उन्हें जर्मन कल्चर के बारे में बताया जाएगा...फिर उसने उन सबको कंसन्ट्रेशन कैम्पस में भेज दिया. पूरा यूरोप सन्न रह गया क्यूंकि उस समय वैज्ञानिकों को संत के जैसा दर्जा दिया जाता था...वे हर जंग और हर सरहद से ऊपर होते थे...कोई भी देश या व्यक्ति उन्हें नुक्सान पहुंचाने के बारे में सोचता भी नहीं था. यूरोप के लोगों ने हिटलर पर बहुत दबाव डाला तो आखिर छः महीने बाद जिन साइंटिस्ट्स के जुविश(यहूदी) रूट्स नहीं थे, उन्हें छोड़ दिया गया. मगर छः महीने कैम्पस में अमानवीय तरीके से रहने के कारण अधिकतर साइंटिस्ट्स मर गए, कुछ में आगे काम करने की ताकत नहीं बची. जो साइंटिस्ट्स बचे थे और जिनमें आगे काम कारने की इच्छा थी...उन्होंने काम बरक़रार रखा...लेकिन उस वक्त यूनिवर्सिटीज नहीं थीं...कोलेज बंद कर दिए गए थे. फिर लोगों ने उपाय निकाला...सीक्रेट ग्रुप्स का...लोगों में पढ़ने और पढाने की कैसी अदम्य लालसा थी...जान का जोखिम था लेकिन लोग मिलते थे...किसी को किसी का नाम पता नहीं होता...न छात्र का न टीचर का...न जगह फिक्स होती थी...जगह बदल बदल कर, लोग बदल बदल कर लोग पढ़ते रहे. इस तरह पोलैंड में अनेक सीक्रेट सोसाइटीज बनीं पढ़ने के लिए.

अगर आपका पोलैंड जाने का मन है और घूमना है...तो ऐसे वाकिंग टूर जरूर कीजिये...इससे आपको यहाँ के लोग, उनके सपने, आज़ादी का मतलब और मकसद...कला का जीवन में महत्व पता चलता है...और सबसे ज्यादा कि हम जिंदगी को कितना टेकेन-फॉर-ग्रांटेड लेते हैं...जिंदगी सिर्फ किसी के प्यार में डूब कर सपने देखने से कहीं ज्यादा बड़ी है और ये दुनिया हम जितनी जानते हैं उससे कहीं ज्यादा विस्तृत...खूबसूरत और सहेजने लायक है...अलीशिया...मेरी ये पोस्ट तुम्हारे लिए...मैं जानती हूँ तुम इसे समझ नहीं पाओगी...लेकिन ये मेरा तुम्हारे जन्मदिन का तोहफा...हैप्पी बर्थडे लड़की.

और दो कहानियां बहुत मजेदार हैं...यहाँ के किले...वावेल कैसल की और पोप जान पौल की...वो अगली बार बताती हूँ. कहानियां बहुत सी हैं...मगर सारी सुनाने लगी तो आज की कहानी नहीं सुन पाउंगी...११ बजे एक और टूर है जिसे सुनने जाना है...तो बाकी कहानी लौट कर लिखती हूँ. 


यहाँ शामें कोई ९ बजे होती हैं...रात दस बजे तक रौशनी ही रहती है...मार्केट स्क्वायर में मेला सा लगा रहता है...लोग बियर पीते...घूमते फिरते रहते हैं. मैं भी घूमने निकलती हूँ :) बाकी कहानी फिर कभी...

06 July, 2012

एक ओक भर सांस...


उसकी आवाज़ नीम नींद के किसी गलियारे में भटकती है...आधे भिड़े हुए दरवाज़े खटखटाती है...रौशनी की बुझती हुयी लकीर से उलझती है...मुझे छू कर पहचानती है...उस आवाज़ ने मेरी आँखें नहीं देखीं हैं.

आवाज़ है कि काँधे पर खुशबू बांधती है...लंबी पतली उँगलियों से मेरी गिरहें खोलती है...उसकी आवाज़ है कि गाँव की कच्ची याद कोई...टीसते ज़ख्म खोलती है और सिलती है...धान की बालियों सी तीखी काट है उस की.

एक दिन पुराना पूर्णिमा का चाँद है कि जैसे घिस गया है सिक्का कोई एक तरफ से...वो खनखनाता है मेरी खिलखिलाहटों में...बिखेरता है जैसे कबूतरों को चुगाती है दाना कोई लड़की...मेरी कलाइयां थाम लीं थीं उसने आज.

कतरा है आवाज़ का मैं रोज जमा करती हूँ गुल्लक में थोड़ा थोड़ा...जिस दिन पूरा हो जाएगा उसके होठों का मानचित्र मैं ऊँगली बढ़ा कर पोंछ दूँगी खून का नन्हा सा कतरा जो उभर आया है...सिसकियाँ रोकते रोकते.

वो जिस्म है भी कि रूह है कोई कि जो बात करती है मुझसे कि कैसे छू कर देखते हैं आवाज़ को...कि ऐसा भी हुआ है कि वो कहता जाता है जाने क्या कुछ...पर मैं सुनती हूँ सिर्फ साँसों की नदी का बहना... कल... कल... कल...कल. वो कभी मुझसे सच में नहीं मिलेगा?

वो कैसे देखेगा मेरी नब्ज़...उसके छूते ही तो बढ़ जाती हैं न सांसें...धड़कन...मैं ख्वाब में भी उसकी आवाज़ को ढूंढती चलती हूँ...वो कहता है जरा कलाई दिखाओ तो...यहाँ...ठीक यहाँ ब्लेड मारना और पानी में डुबा देना कलाइयां...मैं तुम्हें मौत और जिंदगी के बीच मिलूँगा कहीं.

अधिकतर ऐसा होता है कि जिंदगी में लोग होते हैं और उसके साथ जुड़ी आवाज़ होती है...यहाँ आवाज़ है...पर उससे जुड़ा वो कैसा है मुझे मालूम नहीं.

मेरा गला सूखता है...होठों पर जीभ फिराती हूँ तो लगता है उसके होठों को छू लिया है...बिजली का करंट लगता है. उसके होठों का स्वाद बीड़ी जैसा है...बीड़ी धूंकनी होती है...सिगरेट की तरह नफासत नहीं है उसमें. मैं एक बार देखना चाहती हूँ कि जब वो मेरा नाम लेता है तो उसके होठ किस तरह हिलते हैं...क्या वैसे ही  जैसे मैं हमेशा सोचती आई हूँ?

केमिस्ट्री के नियम समझा नहीं सकते कि मुझमें और उसमें कौन सा बौंड है...फिजिक्स पीछे हट जाता है कि ये कौन सा एनर्जी कन्वर्शन है कि उसकी आवाज़ सुनती हूँ तो खाए पिये बगैर भी दिन गुज़र जाता है. 

दुनिया को जिस क्लीन सोर्स ऑफ एनर्जी की जरूरत है न...वो हम सबके अंदर है...एनर्जी ऑफ केओस...एनर्जी ऑफ मैडनेस...एनर्जी ऑफ इश्क.

मैं उससे पूछती हूँ...कि तुम्हारा नाम कुछ खास है कि मुझे लगता है...पूछती हूँ...नुक्ते का फर्क...ग़ और ग में...वो समझाता है गिलास वाला ग नहीं...ग़ालिब वाला ग. मैं हँसती हूँ...अच्छा...गधा वाला ग नहीं...हम दोनों की आवाज़ घुलती जा रही है एक दूसरे में. जैसे हम दोनों घुलते जा रहे हैं...एक दूसरे में. उसके नाम से मैं सुनने लगी हूँ...मेरे नाम से वो बुलाने लगा है...

कंठमणि ...ओह! हिंदी के कुछ शब्द कितने सुन्दर हैं...अडैम्स एप्पल में वो बात कहाँ...सारी मुसीबत की जड़ यही है न...अपने हाथों से उसका गला दबा के मार दूं...फिर इस आवाज़ के पीछे नहीं भागूंगी.

रति की तरह विलाप करती हूँ...आह अनंग...तुम्हारी आवाज़ मुझे बाँहों में नहीं भर सकती है...नीम अँधेरे में आँखों को ढके हुए करवट बदलती हूँ...मेरे उसके बीच सिर्फ सांसों की नदी बहती है...एक ओक भर सांस उठा कर उसके हिस्से का दिन जी लेती हूँ...एक पाल भर नाव बढ़ा कर उसकी हिस्से की प्यास.

आह...अनंग! आह अनंग! 

--
Mood Channel: Lana Del Rey - Video Games

01 July, 2012

आसमां की रेत-घड़ी


Meet me in July...
कभी एक कहानी लिखने बैठी थी जिसमें मॉनसून था...लड़का था एक...टपकती छतों के नीचे खड़े होकर कुल्हड़ में चाय पीती लड़की थी...भीगे दुपट्टे से छूटा रंग था...कागज़ की नावें थीं...बोतल में बंद चिट्ठियां...अब बस शीर्षक रह गया है...बाकी पूरी कहानी धुल गयी.
#तुम्हारे लिए
---
Of delays and more...
क्या कुछ नहीं आता लौट कर...मॉनसून भी तो हर साल आता है...बस एक साल देर से आया थोड़ा...उसी साल मेरे जन्मदिन पर तुम मेरे शहर में नहीं थे. तो बारिशें भी तुम्हारे साथ लेट दाखिल हुयीं थी जिंदगी में. करीने से लगे क्रोटन के पौधे पानी में भीगते हुए उदास हो गए थे...महीने भर से तुम्हारे इंतज़ार में मेरा दुपट्टा भी कुछ कुछ फीका होने लगा था. तुमने तो वादा किया था न...मेरे जन्मदिन पर आओगे...मैंने तो याद भी दिलाया था तुम्हें...तुम भूल गए...तुम व्यस्त थे. वैसे एक बात बताऊँ...हम जिनसे प्यार करते हैं न...उनके लिए वक्त हमेशा होता है हमारे पास. 
#बिसरते हुए
---
Yes. I miss you. 
यूँ तो सब कुछ बदल गया है. मेरी जिंदगी में कायदे से तुम्हारी यादों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. मैं टाईमपास थी न तुम्हारे लिए. फुर्सत होती, माहौल होता, मूड होता तो तुम्हारी जिंदगी में मेरी जगह होती...गलती मेरी कहाँ थी...प्यार ऐसे ही होता है. तुम्हारी याद लेकिन बेहद बदतमीज है...ऑफिस टाइम में आने के पहले दरवाजा नहीं खटखटाती...फोन के पहले मेसेज करके पूछती नहीं कि फुर्सत है? तुम्हारी यादें मुझपर इतना हक जताती हैं जितना तुमने भी कभी नहीं जताया. फ़िल्टर कॉफी...कोल्ड कॉफी...कॉफी विद आइसक्रीम...सब कुछ तो है.
बस. तुम्हारे बिना कुल्हड़ वाली चाय में सोंधापन नहीं लगता. 
#दोराहे   
---
Some goodbyes are forever.
ट्रेन के सफ़र में मिले थे हम. मालूम था कि इसके बाद फिर कभी नहीं मिलना होगा. तीन दिन के सफ़र में चार मौसम आये थे. ठंढ, गर्मी, बारिश और पतझड़. हरे खेत थे. जलते पलाश के जंगल. पागल होती नदियाँ. बाँहों में भरता तूफ़ान. हमने एक दूसरे के साथ उतने दिनों में ही एक जीवन भर के सपने देख लिए. एक सफ़र में रजनीगन्धा के पौधे रोपे गए...उनमें फूल खिले और वे फिर जमींदोज भी हो गए. 
सालों बाद फिर कहीं मिले भी तो क्या एक दूसरे को पहचान पाते हम?
#कसक 
---

It still hurts.तुमसे प्यार करते हुए जिरहबख्तर नहीं पहना था. तुम जिस्म में कहीं भी चोट दे सकते थे. लेकिन तुमने दिल को चुना. तुम मेरा सर कलम कर सकते थे. तुमने नहीं किया. तुम्हें मालूम है मैं अब तुम्हारा नाम नहीं लेती...बहुत तकलीफ होती है. बेहद. तुम सही कहते थे. तुम नहीं जानते प्यार क्या होता है. तुम्हें समझने के कोशिश में मैं प्यार भूल गयी. आज की डेट में मुझे नहीं मालूम प्यार क्या होता है.
#कुछ भी नहीं 
---

मैं बस एक पुरसुकून नींद सोना चाहती हूँ...तुम अंदाजा नहीं लगा सकते मैं कितनी थकी हुयी हूँ...मैं कितनी सदियों से प्यास हूँ...तुम कितने जन्मों से रेगिस्तान.

19 June, 2012

बारिशों का मौसम इज विस्की...सॉरी...रिस्की...उफ़!


सोचो मत...सोचो मत...अपने आप को भुलावा देती हुयी लड़की ग्लास में आइस क्यूब्स डालती जा रही है...नयी विस्की आई है घर में...जॉनी वाकर डबल ब्लैक...ओह...एकदम गहरे सियाह चारकोल के धुएँ की खुशबू विस्की के हर सिप में घुली हुयी है...डबल ब्लैक.

तुम्हारी याद...यूँ भी कातिलाना होती है...उसपर खतरनाक मौसम...डबल ब्लैक. मतलब अब जान ले ही लो! लाईट चली गयी थी...सोचने लगी कि कौन सा कैंडिल जलाऊं कि तुम्हारी याद को एम्पलीफाय ना करे...वनीला जलाने को सोचती हूँ...लम्हा भी नहीं गुज़रता है कि याद आता है तुम्हारे साथ एक धूप की खुशबू वाले कैफे में बैठी हूँ और कपकेक्स हैं सामने, घुलता हुआ वानिला का स्वाद और तुम्हारी मुस्कराहट दोनों क्रोसफेड हो रहे हैं...मैं घबरा के मोमबत्ती बुझाती हूँ.

ना...वाइल्ड रोज तो हरगिज़ नहीं जलाऊँगी आज...मौसम भी बारिशों का है...वो याद है तुम्हें जब ट्रेक पर थोड़ा सा ऑफ रूट रास्ता लिया था हमने कि गुलाबों की खुशबू से एकदम मन बहका हुआ जा रहा था...और फिर एकदम घने जंगलों के बीच थोड़ी सी खुली जगह थी जहाँ अनगिन जंगली गुलाब खिले हुए और एक छोटा सा झरना भी बह रहा था.तुम्हारा पैर फिसला था और तुम पानी में जा गिरे थे...फिर तो तुमने जबरदस्ती मुझे भी पानी में खींच लिया था...वो तो अच्छा हुआ कि मैंने एक सेट सूखे हुए कपड़े प्लास्टिक रैप करके रखे थे वरना गीले कपड़ों में ही बाकी ट्रेकिंग करनी पड़ती. ना ना करते हुए भी याद आ रहा है...पत्थरों पर लेटे हुए चेहरे पर हलकी बारिश की बूंदों को महसूस करते हुए गुलाबों की उस गंध में बौराना...फिर मेरे दाँत बजने लगे थे तो तुमने हथेलियाँ रगड़ कर मेरे चेहरे को हाथों में भर लिया था...गर्म हथेलियों की गंध कैसी होती है...डबल ब्लैक?

कॉफी...ओह नो...मैंने सोचा भी कैसे! वो दिन याद है तुम्हें...हवा में बारिश की गंध थी...आसमान में दक्षिण की ओर से गहरे काले बादल छा रहे थे...आधा घंटा लगा था फ़िल्टर कॉफी को रेडी होने में...मैंने फ्लास्क में कॉफी भरी, कुछ बिस्कुट, चोकलेट, चिप्स बैगपैक में डाले और बस हम निकल पड़े...बारिश का पीछा करने...हाइवे पर गाड़ी उड़ाते हुए चल रहे थे कि जैसे वाकई तूफ़ान से गले लगने जा रहे थे हम. फिर शहर से कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर वाइनरी थी...दोनों ओर अंगूर की बेल की खेती थी...हवा में एक मादक गंध उतरने लगी थी. फिर आसमान टूट कर बरसा...हमने गाड़ी अलग पार्क की...थोड़ी ही देर में जैसे बाढ़ सी आ गयी...सड़क किनारे नदी बहने लगी थी...कॉफी जल्दी जल्दी पीनी पड़ी थी कि डाइल्यूट न हो जाए...और तुम...ओह मेरे तुम...एक हाथ से मेरी कॉफी के ऊपर छाता तानते, एक हाथेली मेरे सर के ऊपर रखते...ओह मेरे तुम...थ्रिल...कुछ हम दोनों की फितरत में है...घुली हुयी...दोनों पागल...डबल ब्लैक?

मैं घर में नोर्मल कैंडिल्स क्यूँ नहीं रख सकती...परेशान होती हूँ...फिर बाहर से रौशनी के कुछ कतरे घर में चले आते हैं और कुछ आँखें भी अभ्यस्त हो जाती हैं अँधेरे की...मोबाइल पर एक इन्स्ट्रुमेन्टल संगीत का टुकड़ा है...वायलिन कमरे में बिखरती है और मैं धीरे धीरे एक कसा हुआ तार होती जाती हूँ...कमान पर खिंची हुयी प्रत्यंचा...सोचती हूँ धनुष की टंकार में भी तो संगीत होता है. शंखनाद में कैसी आर्त पुकार...घंटी में कैसा सुरीला अनुग्रह. संगीत बाहर से ज्यादा मन के तारों में बजता है...अच्छे वक्त पर हाथ से गिरा ग्लास भी शोर नहीं करता...एकदम सही बीट्स देता है...गिने हुए अंतराल पर.

आज तो सिगार पीने का मूड हो आया है...गहरा धुआं...काला...खुद में खींचता हुआ...हलकी लाल रौशनी में जलते बुझते होठों की परछाई पड़ती है फ्रेंच विंडोज के धुले हुए शीशे में...डबल ब्लैक. 

18 June, 2012

समय की नदी में अनंत के लिए खो जाना

ईश्क हमेशा बचा के रखता है
अपना आखिरी दांव
---

लो, लहरों ने अपने पाँव समेट लिए!
अब किनारे की रेत में लिख सकते हो तुम
अपनी प्रेमिका के लिए असंख्य कविताएं
---

आखिरी सांस में ही खुलता है रहस्य
कि किससे किया था ताउम्र प्यार
दिल के तहखाने का पासवर्ड होती है
आखिरी हिचकी
---

कभी गुलमोहरों के मौसम में मेरे शहर आना.
---

कोई नहीं कर सकता है डिकोड
कि इस बेरहम दुनिया में
एक छोटी सी जिंदगी का
पूरा प्यार किसके नाम आया था
---

तुम्हारी कहानियां पढ़ कर
सोचती थी
कहाँ मिल जाती हैं
ऐसी औरतें तुम्हें
अब समझती हूँ
वैसी होती नहीं है कोई भी औरत
तुम्हारा प्यार बना देता है उन्हें वैसा

ये उनके आंसुओं का इत्र है
जो तुम्हारे शब्दों को छूने से उँगलियों में रह जाता है
---

Chasing the rains on my bike on a road on fire with crazy gulmohars in bloom.
---

Some things are bound to be lost in the flowing river of time unless preserved in poetry.
---

चेक कितनी खूबसूरत चीज़ हुआ करती है न...एकदम कंट्रास्टिंग...हलके रंग के ऊपर डार्क रंग की लकीरें...जैसे लाईट लेमन कलर जिंदगी पर एप्पल ग्रीन के चेक्स...जैसे वोदका विथ ऑरेंज जूस...जैसे हॉट चोकलेट विद विस्की...जैसे सीरियस आँखों वाले चेहरे पर मुस्कान...

जैसे मुझे प्यार तुमसे...जैसे गर्मियों की छत पर बारिश के बाद की उमस...जैसे...जैसे...जैसे कुछ भी नहीं...कि कुछ भी किसी की भी तरह नहीं होता...जैसे कोई भी तुम्हारी तरह नहीं होता...
---

याद की मफलर में बुना तुम्हारा नाम.
---

लिखने को एकदम कुछ नहीं होना...फिर भी शब्दों का ऐसा बवंडर कि शांत होने का नाम न ले और नींद आँखों से कोसों दूर भागी रहे.
---

ये कुछ पुराने बिखरे हुए ड्राफ्ट हैं...इनमें कोई तारतम्य नहीं है...बस ऐसे ही यहाँ वहाँ पड़े थे...आज इनको छाप देने का मन किया कि मेरा भी कुछ नया देखने का मन कर रहा था...बहुत सारे ड्राफ्ट्स हो गए हैं...सोच रही हूँ थोड़ी फुर्सत निकालकर पहले पुराना माल क्लियर करूं फिर कुछ नया लिखूँ. जिंदगी में थोड़ा सा आर्डर चाहिए होता है...हमेशा केओस(Chaos) अच्छा नहीं होता शायद...मैं इसी बिखराव में जीने की आदी हूँ फिर भी. मैं केओस से ही रचती हूँ...मेरे मन के अंदर हमेशा कोई तूफ़ान उठा रहता है...जाने कैसे तो लोग होते होंगे जिन्हें मालूम होता होगा कि जिंदगी से क्या चाहिए.

पिछले कुछ दिन बड़ी उथल-पुथल वाले रहे...बहुत परेशान, उदास और तनहा रही...टूट बिखरने के दिन थे...मगर खुदा हम इश्क के बन्दों पर वाकई मेहरबान रहता है. मैं गिर रही थी तो उसने फरिश्ते भेज दिए...उन्होंने ने अपने नरम पंख सी हथेलियाँ खोलीं और मुझे थाम लिया...वरना बेहद चोट लगती...शायद कभी न उबर पाने जितनी. दोस्त से बात कर रही थी तो उसने भी यही कहा कि सच में लकी हो तुम...शायद बहुत से लोग मुझे वाकई दुआओं में रखते हैं.

आज कुछ खास नहीं. बस शुक्रिया जिंदगी. शुकिया ऐ खुदा उन सारे लोगों के लिए जो मुझसे इतना इतना सारा प्यार करते हैं.

La vie, je t'aime. 

16 June, 2012

बुरे लड़के से प्यार करते हुए सोचती है अच्छी लड़की...

कहाँ थे तुम अब तक?
कि गाली सी लगती है
जब मुझे कहते हो 'अच्छी लड़की'
कि सारा दोष तुम्हारा है

तुमने मुझे उस उम्र में
क्यूँ दिए गुलाब के फूल
जबकि तुम्हें पढ़ानी थीं मुझे
अवतार संधु पाश की कविताएं

तुमने क्यूँ नहीं बताया
कि बना जा सकता है
धधकता हुआ ज्वालामुखी
मैं बना रही होती थी जली हुयी रोटियां

जब तुम जाते थे क्लास से भाग कर
दोस्त के यहाँ वन डे मैच देखने
मैं सीखती थी फ्रेम लगा कर काढ़ना
तुम्हारे नाम के पहले अक्षर का बूटा

जब तुम हो रहे थे बागी
मैं सीख रही थी सर झुका कर चलना
जोर से नहीं हँसना और
बड़ों को जवाब नहीं देना

तुम्हें सिखाना चाहिए था मुझे
कोलेज की ऊँची दीवार फांदना
दिखानी थीं मुझे वायलेंट फिल्में
पिलानी थी दरबान से मांगी हुयी बीड़ी

तुम्हें चूमना था मुझे अँधेरे गलियारों में
और मुझे मारना था तुम्हें थप्पड़
हमें करना था प्यार
खुले आसमान के नीचे

तुम्हें लेकर चलना था मुझे
इन्किलाबी जलसों में
हमें एक दूसरे के हाथों पर बांधनी थी
विरोध की काली पट्टी

मुझे भी होना था मुंहजोर
मुझे भी बनना था आवारा
मुझे भी कहना था समाज से कि
ठोकरों पर रखती हूँ तुम्हें

तुम्हारी गलती है लड़के
तुम अकेले हो गए...बुरे
जबकि हम उस उम्र में मिले थे
कि हमें साथ साथ बिगड़ना चाहिए था

11 June, 2012

The pen-ultimate birthday


जन्मदिन...यानि एक दिन की बादशाहत. उस दिन सब कुछ आपकी मर्जी का...जो भी मांगो सब पूरा हो जाए. अभी तक के सारे जन्मदिन ऐसे ही रहे हैं. राजकुमारी जैसे. इस बार वाला कुछ अलग था. रिअलिटी चेक. मेरी कुक को मैंने इस महीने फाइनली टाटा कह दिया कि उसका खाना चंद रोज़ और खाते तो जान देने की नौबत आ जाती और कामवाली इंदिरा के भाई की शादी थी तो वो चार की छुट्टी पर गयी थी. मुझे यूँ तो घर का सारा ही काम करना नापसंद है पर इसमें भी बर्तन धोने से ज्यादा बुरा मुझे कुछ नहीं लगता. तो मेरे इस लाजावाब बर्थडे की शुरुआत हुयी एक चम्मच विम लिक्विड से. कभी न कभी तो नींद से जागना ही था :) :) तो सुबह सुबह बर्तन वर्तन धो कर खाना वाना बना कर थक हार कर बैठ गए. बर्थडे मेरी बला से...थोड़ी देर सो लेते हैं. फिर एक कड़क कॉफी बना कर पी...आपको पता है कि कॉफी में सुपरपावर होती है? नहीं पता? फिर तो आपको ये भी नहीं पता होगा कि मैं सुपरगर्ल हूँ! वैसे तो अधिकतर लड़कियां सुपरगर्ल होती हैं पर मोस्टली उनको ये बात पता नहीं होती हैं. उन्हें कोई इडियट बचपन में पढ़ा जाता है कि नारी अबला होती है तो बस वो अबला होने की कोशिश में हमेशा सुपरमैन का इंतज़ार करती रह जाती है उसे मालूम ही नहीं होता कि उसकी खुद की सुपरपॉवर बहुत सारी हैं.

मैं अधिकतर जन्मदिन के पहले वाले हफ्ते बहुत ही धीर गंभीर सोचने वाले मूड में चली जाती हूँ पर ये हफ्ता तो जैसे कब आया कब गया मालूम ही नहीं चला. पिछले हफ्ते मैं एक भी शाम अकेले नहीं रही...और कुछ बेहतरीन लोगों से मिली और दोस्तों के साथ बेहद मस्ती काटी. एक फुल दिन शौपिंग भी मारी. दिमाग का पैरलल ट्रैक चलता रहा. इस बीच एक दोस्त के लिए 'माय ब्लूबेरी नाइट्स' की डीवीडी बर्न कर रही थी तो उसका एक सीन सामने आया...इत्तिफ़ाक इसे ही कहते हैं...मैं भी कुछ ऐसा ही सोच रही थी. एलिज़ाबेथ चिट्ठी में लिखती है...

Dear Jeremy,
In the last few days I have been learning how to not trust people and I am glad I failed.
Sometimes we depend on other people as a mirror to define us and tell us who we are and each reflection makes me like myself a little more.
Elizabeth

मुझे गलतियाँ कर के सीखने की आदत है...कोई कितना भी समझा ले कि उधर तकलीफ है...उधर मत जाओ मगर जब तक खुद चोट नहीं लगेगी दिल मानता ही नहीं है. मुझे 'बुरे लोग' का कांसेप्ट समझ नहीं आता...कोई भी सबके लिए बुरा नहीं होता. मेरी जिंदगी में बहुत कम लोग हैं...मैं अपनेआप को लेकर बहुत fiercely protective हूँ. चूँकि मैं जैसी हूँ वैसी सबके सामने हूँ...तो वल्नरेबल भी हूँ बहुत हद तक. आप किसी को कैसे जानते हैं? मुझे लगता है कि तब जानते हैं जब आप उसकी कमजोरियां जानते हों...उसका डर जानते हों...उसके मन के अँधेरे जानते हों...और इसके बावजूद उससे प्यार करते हों. जो मेरे दोस्त हैं वो इसी तरह जानते हैं मुझे...और जिन्हें मैं अपना दोस्त मानती हूँ, मैं इसी तरह जानती हूँ उन्हें. कभी कभार मुझसे लोगों को पहचानने में गलती भी हो जाती है. मुझे कोई कितना भी समझा ले कि बेटा दुनिया बहुत बुरी है...मुझे नहीं समझ आता...हालाँकि इसके अपने खतरे हैं, अपनी तकलीफें हैं...मगर दुनिया वैसी है जैसे हम खुद हैं.

मैंने अपने फेसबुक का अकाउंट पिछले महीने डिजेबल किया था और तबसे शांति थी बहुत. हाँ, दोस्तों की याद आती थी तो कभी रात दो बजे के बाद लोगिन होकर उनकी तसवीरें देख लेती थी. फेसबुक मेरे लिए मेजर टाइमवेस्ट है. क्या है कि मुझे बीच का रास्ता अपनाना तो आता नहीं है. दिन में लिखने का काम लैपटॉप पर ही करती हूँ तो ऐसे में अगर एक टैब में फेसबुक खुला है तो कहीं ध्यान से कुछ कर नहीं सकती...सारे वक्त ध्यान बंटा रहता है. फिर मेरे जो क्लोज फ्रेंड्स हैं वो अधिकतर फेसबुक पर सक्रिय नहीं रहते. वर्चुअल की अपनी सीमाएं हैं...मैं फेसबुक, फोन और चैट के बावजूद कहीं 0 और 1 की बाइनरी दुनिया में खोती जा रही थी. इसका हासिल कुछ नहीं था...टोटल जीरो. उसपर हर समय कुछ अपडेट करने की बेवकूफी. महीने भर से काफी शांति थी और वक्त का बहुत अच्छा इस्तेमाल किया. कुछ बेहतरीन फिल्में देखीं...कुछ दोस्तों के साथ बहुत सा वक्त बिताया.

कल मेरे सारे अपनों ने फोन किया...कोई भी मेरा बर्थडे नहीं भूला...इस बार मैंने किसी को याद भी नहीं दिलाया था कि मेरा बर्थडे है...जो कि अक्सर करती हूँ कि मेरे कुछ दोस्त इतने भुलक्कड हैं कि मेरी खुद की ड्यूटी है उनको एक दो दिन पहले याद दिलाना...वरना वो झगड़ा भी करते हैं. घर से फोन आये...फिर दो बजे अनुपम का मेसेज आया. दिन में सारे दोस्तों के फोन आये...सारे...कोई भी नहीं भूला. इतना अच्छा लगा कि बता नहीं सकते हैं. फेसबुक ओर नो फेसबुक...मेरी लाइफ में अभी भी इतने सारे अच्छे दोस्त हैं कि ध्यान से मेरा बर्थडे याद रखते हैं. सबका बहुत बहुत बहुत सारा थैंक यू है.

कल कुणाल ने नयी पेन खरीदी मेरे लिए...अच्छी सी...वाइन कलर की...और पर्पल इंक भी दिलाया. घर से भी सब लोगों ने कॉल करके खूब सारा आशीर्वाद दिया...देवर ननदों ने पूछा कि क्या गिफ्ट चाहिए...भाई ने कहा कि गिफ्ट थोड़ा देर से पहुंचेगा...कुरियर हो गया है...कितना तो प्यार करते हैं सब मुझसे.

इस जन्मदिन में खुद को थोड़ा और समझते हुए जाना...मैं अपनेआप से और जिंदगी से बहुत प्यार करती हूँ. मेरे कुछ बेहद अच्छे दोस्त हैं जो मुझसे बहुत प्यार करते हैं और कि मैं कभी हार नहीं मानती.

I am at a cliff...about to take a jump...and in my heart of hearts, I know....
I'll Fly!

Happy Birthday Mon Amour! You are 29 and rocking!

08 June, 2012

मेरी कन्फ्यूजिंग डायरी

लिखने के अपने अपने कारण होते हैं. मैं देखती हूँ कि मुझे लिखने के लिए दो चीज़ों की जरूरत होती है...थोड़ी सी उदासी और थोड़ा सा अकेलापन. जब मैं बहुत खुश होती हूँ तब लिख नहीं पाती, लिखना नहीं चाहती...तब उस भागती, दौड़ती खुशी के साथ खेलना चाहती हूँ...धूप भरे दिन होते हैं तो छत पर बैठ कर धूप सेकना चाहती हूँ. खुशी एक आल कंज्यूमिंग भाव होता है जो किसी और के लिए जगह नहीं छोड़ता. खुशी हर टूटी हुयी जगह तलाश लेती है और सीलेंट की तरह उसे भर देती है. चाहे दिल की दरारें हों या टूटे हुए रिश्ते. खुश हूँ तो वाकई इतनी कि अपना खून माफ कर दूं...उस समय मुझे कोई चोट पहुंचा ही नहीं सकता. खुश होना एक सुरक्षाकवच की तरह है जिससे गुज़र कर कुछ नहीं जा सकता.

कभी कभी ये देख कर बहुत सुकून होता था कि डायरी के पन्ने कोरे हैं...डायरी के पन्ने एकदम कोरे सिर्फ खुश होने के वक्त होते हैं...खुशियों को दर्ज नहीं किया जा सकता. उन्हें सिर्फ जिया जा सकता है. हाँ इसका साइड इफेक्ट ये है कि कोई भी मेरी डायरी पढ़ेगा तो उसे लगेगा कि मैं जिंदगी में कभी खुश थी ही नहीं जबकि ये सच नहीं होता. पर ये सच उसे बताये कौन? उदासी का भी एक थ्रेशोल्ड होता है...जब हल्का हल्का दर्द होता रहे तो लिखा जा सकता है. दर्द का लेवल जैसे जैसे बढ़ता जाता है लिखने की छटपटाहट वैसे वैसे बढ़ती जाती है. लिखना दर्द को एक लेवल नीचे ले आता है...जैसे मान लो मर जाने की हद तक होने वाला दर्द एक से दस के पॉइंटर स्केल पर १० स्टैंड करता है तो लिखने से दर्द का लेवल खिसक कर ९ हो जाता है और मैं किसी पहाड़ से कूद कर जान देने के बारे में लिख लेती हूँ और चैन आ जाता है.

खुशी के कोई सेट पैरामीटर नहीं हैं मगर उदासी के सारे बंधे हुए ट्रिगर हैं...मालूम है कि उदासी किस कारण आती है. इसमें एक इम्पोर्टेंट फैक्टर तो बैंगलोर का मौसम होता है. देश में सबसे ज्यादा आत्महत्याएं बैंगलोर में होती हैं. ऑफ कोर्स हम इस शहर के अचानक से फ़ैल जाने के कारण जो एलियनेशन हो रहा है उसको नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते...लोग बिखरते जा रहे हैं. हमारे छोटे शहरों जैसा कोई भी आपका हमेशा हाल चाल पूछने नहीं आएगा तो जिंदगी खाली होती जा रही है...इसमें रिश्तों की जगह नहीं बची है. बैंगलोर में सोफ्टवेयर जनता की एक जैसी ही लाइफ है(सॉरी फॉर generalization). अपने क्यूबिकल में दिन भर और देर रात तक काम और वीकेंड में दोस्तों के साथ पबिंग या मॉल में शोपिंग या फिल्में. साल में एक या दो बार छुट्टी में घर जाना. बैंगलोर इतना दूर है कि यहाँ कोई मिलने भी नहीं आता. उसपर यहाँ का मौसम...बैंगलोर में हर कुछ दिन में बारिश होती रहती है...आसमान में अक्सर बादल रहते हैं. शोर्ट टर्म में तो ये ठीक है पर लंबे अंतराल तक अगर धूप न निकले तो डिप्रेशन हो सकता है. सूरज की रौशनी और गर्मी therapeutic होती है न सिर्फ तन के लिए बल्कि मन को भी खुशी से भर देती है.

इस साल की शुरुआत में दिल्ली गयी थी...बहुत दिन बाद अपने दोस्तों से मिली थी. वो अहसास इतना रिचार्ज कर देने वाला था कि कई दिन सिर्फ उन लम्हों को याद करके खुश रही. मगर यादें स्थायी नहीं होती हैं...धीरे धीरे स्पर्श भी बिसरने लगता है और फिर एक वक्त तो यकीन नहीं आता कि जिंदगी में वाकई ऐसे लम्हे आये भी थे. मैं जब दोस्तों के साथ होती हूँ तब भी मैं नहीं लिखती...दोस्त यानि ऐसे लोग जो मुझे पसंद हैं...मेरे दोस्त. जिनके साथ मैं घंटों बात कर सकती हूँ. पहले एक्स्त्रोवेर्ट थी तो मेरा अक्सर बड़ा सा सर्किल रहता था मगर अब बहुत कम लोग पसंद आते हैं जिनके साथ मैं वक्त बिताना चाहूँ. मुझे लगता है वक्त मुझे बहुत खडूस बना दे रहा है. अब मुझे बड़े से गैंग में घूमना फिरना उतना अच्छा नहीं लगता जितना किसी के साथ अकेले सड़क पर टहलना या कॉफी पीते हुए बातें करना. बातें बातें उफ़ बातें...जाने कितनी बातें भरी हुयी हैं मेरे अंदर जो खत्म ही नहीं होतीं. बैंगलोर में एक ये चीज़ सारे शहरों से अच्छी है...किसी यूरोप के शहर जैसी...यहाँ के कैफे...शांत, खुली जगह पर बने हुए...जहाँ अच्छे मौसम में आप घंटों बैठ सकते हैं.

लिखने के लिए थोड़ा सा अकेलापन चाहिए. जब मैं दोस्तों से मिलती रहती हूँ तो मेरा लिखने का मन नहीं करता...फिर मैं वापस आ कर सारी बातों के बारे में सोचते हुए इत्मीनान से सो जाना पसंद करती हूँ. अक्सर या तो सुबह के किसी पहर लिखती हूँ...२ बजे की भोर से लेकर १२ तक के समय में या फिर चार बजे के आसपास दोपहर में. इस समय कोई नहीं होता...सब शांत होता है. ये हफ्ता मेरा ऐसा गुज़रा है कि पिछले कई सालों से न गुज़रा हो...एक भी शाम मेरी तनहा नहीं रही है. और कितनी तो बातें...और कितने तो अच्छे लोग...कितने कितने अच्छे लोग. मुझे इधर अपने खुद के लिए वक्त नहीं मिल पाया इतनी व्यस्त रही. एकदम फास्ट फॉरवर्ड में जिंदगी.

इधर कुक की जगह मैं खुद खाना बना रही हूँ...तो वो भी एक अच्छा अनुभव लग रहा है. बहुत दिन बाद खाना बनाना शौक़ से है...मुझे नोर्मली घर का कोई भी काम करना अच्छा नहीं लगता...न खाना बनाना, न कपड़े धोना, न घर की साफ़ सफाई करना...पर कभी कभार करना पड़ता है तो ठीक है. मुझे सिर्फ तीन चार चीज़ें करने में मन लगता है...पढ़ना...लिखना...गप्पें मारना, फिल्में देखना और घूमना. बस. इसके अलावा हम किसी काम के नहीं हैं :)

फिलहाल न उदासी है न अकेलापन...तो लिखने का मूड नहीं है...उफ़...नहीं लिखना सोच सोच के इतना लिख गयी! :) :)

03 June, 2012

चूल्हे के धुएँ सी सोंधी औरतें और धुएँ के पार का बहुत कुछ


छः गोल डब्बों वाला मसालदान होती हैं 
आधी रात को नहाने वाली औरतें

उँगलियों की पोर में बसी होती है
कत्थई दालचीनी की खुशबू 

पीठ पर फिसलती रहती है
पसीने की छुआछुई खेलती बूँदें 

कलाइयों में दाग पड़ते हैं
आंच में लहकी कांच की चूड़ियों से 

वे रचती हैं हर रोज़ थोड़ी थोड़ी
डब्बों और शीशियों की भूलभुलैया 

उनके फिंगरप्रिंट रोटियों में पकते हैं
लकीरों में बची रह जाती है थोड़ी परथन 

खिड़की में नियत वक्त पर फ्रेम रहती हैं
रोज के सोप ओपेरा की तरह

किचन हर रोज़ चढ़ता है उनपर परत दर परत
रंग, गंध, चाकू के निशान, जले के दाग जैसा 

नहाने के पहले रगड़ती हैं उँगलियों पर नीम्बू
चेहरे पर लगाती हैं मलाई और शहद 

जब बदन को घिस रहा होता है लैवेंडर लूफॉ 
याद करती हैं किसी भूले आफ्टरशेव की खुशबू 

आधी रात को नहाने वाली औरतें में बची रहती है 
१६ की उम्र में बारिश में भीगने वाली लड़की

Related posts

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...