
आज हम एक लुप्तप्राय प्रजाति की बात करेंगे...यह प्रजाति है दूधवाला और भैंस, न न भैंस लुप्त नहीं हो रही है वो तो लालू यादव जी की कृपा से दूधो नहाओ पूतो फलो की तरह दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रही है। मैं तो बस इनके आंखों से ओझल होने की बात कह रही हूँ। और ये ख्याल मुझे कल इंडियन क्रिकेट टीम को शेर बचाओ आन्दोलन देख कर आया...भाई क्या जमाना आ गया है, एक टाइम होता था लोग शेर को देख कर बचाओ बचाओ करते थे...और एक आज का दिन हैकी शेर के पंजों के निशान देख कर दिल बहलाना पड़ता है।
उफ़ ये बड़ी खराबी बनती जा रही है मेरी...आजकल दिन रात बसंती हवा की तरह मनमौजी हुयी जा रही हूँ, बात कर रही थी भैंस की और आ गई शेर तक...अब भला इन का आपस में क्या सम्बन्ध।
कहानी पर लौटते हैं...मैं पढ़ी लिखी(कितना और कैसे आप तो जानते ही हैं) और बड़ी हुयी बिहार और झारखण्ड में(यार ये नेता कुछ से कुछ खुराफात करते रहते हैं, सोचो तो हमें कितनी मुश्किल होती है बचपन की यादें भी दो राज्यों में बातिन हुयी...उफ़, पर इनकी कहानी फ़िर कभी)। हमारे यहाँ एक स्थायी चरित्र होता था दूधवाले का, जो यदा कदा अपनी भैंस(या गाय) के साथ पाया जाता था। इस दूधवाले के किस्से कितनी भी नीरस गप्पों को रंगीन बना देते थे।
मुझे मालूम नहीं बाकी देश का क्या हाल है, पर हमारे यहाँ इनसे हमेशा पाला पड़ता रहता था। दूधवाला मानव की एक ऐसी प्रजाति है जिसके सारे लक्षण पूरे राज्य में एक जैसे थे...जैसा कि मैंने पहले कहा है देश का मुझे मालूम नहीं। किस्स्गोई में तो ये प्रजाति प्रेमचंद को किसी भी दिन किसी शास्त्रार्थ में धूल चटा सकती थी...या ये कहना बेहतर होगा की छठी का दूध याद दिला सकती थी।देवघर में मेरे यहाँ एक दूधवाला आता था...बुच्चन, बड़ी बड़ी मूंछें और रंग में तो अपनी भैंस के साथ खरा कोम्पीटिशन कर सकता था...काला भुच्च, दूध के बर्तन में दूध ढारता था तो गजब का कंट्रास्ट उत्पन्न होता था। बुच्चन कभी भी नागा कर जाता था, और हम दोनों भाई बहन खुश कि आज दूध पीने से बचे और बुच्चन के बहाने...भाई वाह। साइकिल पंचर होने से लेकर, बीवी के बाल्टी न धोने के कारण हमारा दूध नागा हो सकता था। फ़िर उसके गाँव में तीज त्यौहार होते थे जिसमें उसकी मेहरारू सब दूध बेच देती थी और फ़िर हम बच्चे खुश। बच्चन सिर्फ़ इतवार को नागा नहीं कर सकता था, जितने साल रामायण और फ़िर महाभारत चलती थी, बुच्चन भले टाइम से आधा घंटा पहले आ जाए पर एक मिनट भी देर से नहीं आ सकता था। और ऐसा कई बार हुआ है कि बुच्चन बिना दूध के आ गया हो और मम्मी उसकी कभी कुछ नहीं बोलती थी, कि टीवी देखने आया है bechara। सारे समय उसके हाथ जुड़े ही रहते थे।
माँ कभी कभी बाद में कहती थी, बुच्चन खाली भगवन के सामने हाथ जोड़ लेते हो और फ़िर दूध में वही पानी...बुच्चन दोनों कान पकड़ कर जीभ निकाल कर, आँखें बंद कर ऐसी मुद्रा बनता कि हम हँसते हँसते लोट पोट हो जाते...उसके बहने भी पेटेंट बहाने थे, मैंने फ़िर कभी कहीं भी नहीं सुने।
- दीदी आज भैन्स्वा पोखरवा में जा के बैठ गई थी...बहुत्ते देर बैठे रही, हमार बचवा अभी छोट है, ओकरा निकला नहीं वहां से, पानी में रही ना...इसीलिए दूध पतला होई गवा। माई के किरिया दीदी हम पानी नहीं मिलाए हैं. और मम्मी डांट देती उसे, झूठे का माई का किरिया मत खाओ.
- बरसा पानी में दूध दुहे न दीदी, इसी लिए दूध पतला होई गवा...हमरे तरफ बहुत्ते पानी पड़ रहा है। बच्चन का गाँव वैसे तो हमारे शहर से कोई दो तीन किलोमीटर दूर था, पर वहां का मौसम जो बुच्चन बताता था उसके हिसाब से चेरापूंजी से कुछ ही कम बारिश होती थी वहां)
- मेहरारू कुछ दर देले दीदी, हमरा नहीं मालूम कि दूध ऐसे पतला कैसे होई गवा। आज ओकर भाई सब आइल हैं, सब दूध उधरे दे देइल. हम का करीं दीदी ऊ बद्दी बदमास हैखन.
हम पटना आए तो बहुत जोर का नकली दूध का हल्ला उठा हुआ था यूरिया का दूध मिल रहा है मार्केट में ऐसी खबरें रोज सुनते थे, कुछ दिन तक तो घर में दूध आना बंद रहा, पर बिना दूध के कब तक रहे. तो बड़ा खोजबीन के एक दूधवाला तय किया गया. वह रोज शाम को हमारे घर भैंस लेकर आता था और दूध देता था.
हमारे घर में फ्री का नल का पानी वह पूरी दिलदारी से भैंस पर उडेलता था...भैंस को भी हमारा घर सुलभ शौचालय की याद दिलाता था जाने क्या...रोज गोबर कर देती थी, उसपर रोज दूधवाला उसे नहलाता...बहुत जल्दी हमारे घर के आगे का खूबसूरत लॉन खटाल जैसा महकने लगा उसपर मच्छर भी देश कि जनसँख्या के सामान बिना रोक टोक के बढ़ने लगे।
फिर दूधवाले का टाइम बदल दिया गया और उसे सख्त हिदायत दी गयी कि भैंस को नहला के लाया करे, उसके बाद दूधवाला चाहे नहाये या नहीं, भैंस एकदम चकाचक रहती थी. मैंने अपनी जिंदगी में फिर उसकी भैंस से ज्यादा साफ़ सुथरी भैंस नहीं देखी.
लेकिन दूधवाले ने हमारे नल के पानी का इस्तेमाल करना नहीं छोड़ा...ये और बात थी कि अब वो पानी भैंस के ऊपर न बहा के दूध की बाल्टी में डाल देता था। वह हमें दूध देने के पहले पानी न मिला दे, इसलिए हम बिल्डिंग के लोग पहरा देते थे...इसी बहाने हमें खेलने और गपियाने का एक आध घंटा और मिल जाता था.
जिसने इस महात्म्य को देखा है वही जानता है, भैंस और दूधवाले की महिमा अपरम्पार है :)
कहानियों का अम्बार है, भैंस का कालापन बरक़रार है...बस इतना इस बार है :)
बाकी फिर कभी.