होली आने ही वाली है, सब तरह माहौल होलिया रहा है...हँसी ठट्ठा हो रहा है, छेड़ छाड़ जारी है लोग नए नए रंगों की पोस्ट लिख रहे हैं तो कुछ पुराना माल भी ठेल रहे हैं...क्यों न हो होली ऐसे ही तो सदाबहार होती है।
हमारे यहाँ त्योहारों का बटवारा था, आधे ननिहाल में आधे ददिहाल में...शायद किसी समय शान्ति कायम करने के लिए ये अलिखित नियम बन गया होगा सो इसका आरम्भ हमें याद नहीं। हम हर साल होली मनाने अपने गाँव जाते थे...देवघर से। मेरा गाँव सुल्तानगंज के पास है, देवघर से गाँव की दूरी लगभग १०० किलोमीटर है। हमारे पास उस वक्त शान की सवारी राजदूत हुआ करता था जिसकी टंकी पर हम शान से विराजमान रहते थे और छोटा भाई माँ की गोद में ज्यादातर समय सोया ही रहता था।
देवघर से सुल्तानगंज का रास्ता मुझे अपनी जिंदगी के सारे रास्तों में सबसे खूबसूरत लगता है...इनारावरण से पलाश का जंगल शुरू होता था जो कई किलोमीटर तक साथ चलता था...सड़क के दोनों और दहकते हुए पलाश बहुत ही खूबसूरत लगते थे। पलाश से मेरा fascination उसी बचपन का है...रस्ते में एक सड़क जगह रुकते थे और सड़क किनारे बनी दुकानों में चाय वगैरह पीते थे मम्मी पापा, और मुझे मिलता था चिनियाबदम या मोटे मोटे बिस्कुट जो मुझे बहुत पसंद होते थे.
रास्ते में हनमना डैम आता था, और हम हमेशा वहां एक दो घंटे का आराम लेते थे, वहां एक बड़ा सा गेस्टहाउस होता था.
झींगुर और भौरों की आवाजें मुझे बड़ी अच्छी लगती थी...वहीँ पर पहली बार किसी घर में संगमरमर का फर्श और पिलर देखे थे...महलों के अलावा, इसलिए मुझे वो जगह बड़ी अद्भुत और रहस्यमयी लगती थी. वहां बहुत खूबसूरत गार्डन था, और वहां कैक्टस में भी फूल खिले होते थे.
रास्ते में जलेबिया मोड़ आता था, एक पहाड़ी जिसे सुईया पहाड़ कहते थे उसके बड़े घुमावदार रास्ते थे फिर कटोरिया आता था, उसके थोड़े देर बाद बेलहर जहाँ कमाल की रसमलाई मिलती थी पलाश के पत्तों के दोनों में. मुझे आज भी पलाश के पत्ते देख कर रसमलाई याद आती है.
हमारे तरफ होली के एक दिन पहले धुरखेल होता है, यानि धूल, मिटटी, गोबर, कीचड़ सब चलता है तो हम कोशिश करते थे की धुरखेल वाले दिन नहीं निकलें पर होली भी अक्सर दो दिन मनाई जाती है, तो अक्सर कहीं न कहीं धुरखेल में फंस ही जाते थे. बड़ी मुश्किल से पापा उन्हें मनाते थे की भाई जाने दो, बहुत दूर जाना है बच्चे हैं साथ में...तो ऐसे में बस रंग लगा कर छोड़ देते थे लोग.
मोटर साइकिल चलने का चस्का उसी उम्र से लगा, पापा के साथ हैंडिल पकड़े पकड़े कई बार लगता था की मैं ही चला रही हूँ, पापा तो बस ऐसे ही हाथ रखे हैं. फिर जब भाई थोडा बड़ा हो गया तो वो आगे बैठने लगा और मैं बीच में सैंडविच हो जाती थी, और रास्ता भी बस एक और का दिखता था. तब बार बार लगता था की बेकार बड़े हो गए...और फिर ये लगता था कि जल्दी से बहुत बड़े हो जायेंगे तो हम भी मोटर साइकिल चलाएंगे.
सबसे अच्छा लगता था कि गाँव पहुँचते ही शिवाले के पास दादी खड़ी होती थी इंतज़ार में...ये फ़ोन के बहुत पहले का जमाना था, बस दादी को पता होता था कि होली है तो हम लोग आयेंगे, वो एक हफ्ते से रोज शिवाले वाले रास्ते पर इंतज़ार करती थी. वहां से हम लोग पैदल ही दौड़ते हुए गाँव के बाकी बच्चो के साथ घर जाते थे. मेरा घर गाँव के आखिरी छोर पर है, घर पहुँचते पहुँचते सारे गाँव के बच्चे शामिल हो जाते थे और इतना हल्ला होता था कि सुनकर ही घर पर सबको पता चल जाता था कि हम लोग आ गए हैं.
फिर फटाफट निम्बू का शरबत मिलता था पीने को कुएं पर ले जा कर दीदी लोग हाथ पैर धुलवाती थी, थकान तो क्या दूर होनी थी उस उम्र में थकान भी कोई चीज़ होती है जानते ही नहीं थे, कुएं पर मज़ा बड़ा आता था. और फिर गरमा गरम दाल भात कोई सब्जी और चोखा मिलता था. आहा वो स्वाद!
इस तरह हम देवघर से गाँव पहुँच जाते थे...फिर गाँव में करते क्या थे ये किसी और दिन बताउंगी. :)
गांव पर संस्मरण। अद्भुत।
ReplyDeleteसशक्त लेखन। ब्लॉगिंग की परिपूर्णता के लिये मैं सुझाव दूंगा कि चित्रों की भी स्प्रिंकलिंग हो पोस्टों में।
ReplyDeleteजोहार
ReplyDeleteअपने बचपन की यादे ताज़ा करवा दी , पर फर्क ये था की मैं ,नाना - नानी और मौसी जी होते थे (मौसी जी मुझसे केवल तीन साल बड़ी हैं ).रास्ते भर मैं और वो लड़ते हुए जाते थे की आगे कौन बैठेगा .
हमें भी बड़ा आनंद आया बचपन की मीठी यादें. थकान तो पापा को होती होगी. इतना लम्बा रास्ता! आभार.
ReplyDeleteबहुत लाजवाब शैळी मे लिखा गया संस्मरण. लगता ही नही कि ब्लाग पढ रहे हैं बल्कि लगता है कि आपके साथ साथ यादों मे बह रहे हैं. बहुत सशक्त लेखन . शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत मीठी यादे बांटीं है बढ़िया रोचक लिखा
ReplyDeleteसुंदर संस्मरण, सुंदर आलेख। आपकी लेखन शैली मुझे बहुत अच्छी लगती है। पढ़ रहें है यह तो लगता ही नहीं, लगता आप ख़ुद हमसे बातें कर रही हैं। हमको भी अपना बचपन याद आगया।
ReplyDeleteबहुत ही बढिया लिखा। मै तो १९७३ मे पहुंच गई थी ।अपने पिताजी के साथ राजदूत पर आगे टंकी पर बैठ कर(मोटर-साईकिल चलाना मैने भी वहीं सीखा था) तब,अपने खेत पर भुट्टे,गन्ने,गेहूँ और आम खाने के लिए जाती थी मै।
ReplyDeleteझकास लिखी हो .....एक दम चकाचक .हमें तो नन्ही पूजा दिख भी गयी ...अपने पापा की अंगुली थामे ...गोड ब्लेस यू !
ReplyDeleteबचपन की भूली बिसरी यादें ......वाकई अच्छा लगा पढ़कर
ReplyDeleteआपके बचपन की यादें गुजिंया सी मीठी लगी। अगली पोस्ट पापड़ सी नमकीन लगनी चाहिए। तभी होली का पूरा आनंद आऐगा जी।
ReplyDeleteजिलेबिया मोड़ त हमरौ बड याद आवैत ऐछ...
ReplyDeleteराजदूत की सवारी, शान की सवारी!गजनट है जी। शानदार! ज्ञानजी की बात पर ध्यान दिया जाये!
ReplyDelete... प्रसंशनीय संस्मरण व अभिव्यक्ति!!!
ReplyDeleteबड़े होकर प्रशांत भई ने मोटर साइकल चालयी देख लो.. टाँग टूट गयी है.. इस से तो अच्छे बच्चे ही थे हाथ पकड़ कर चलाने का आभास तो होता था..
ReplyDeleteमस्त लिखा है पूजा...हम भी पहले बचपन में त्यौहार मानाने नानी के गाँव जाया करते थे!अन तो गाँव ही छूट गया लगता है!
ReplyDeletepooja ji
ReplyDeletesorry for late arrival , i was on tour.
aapne ye lekh likhkar , mujhe apne bachpan ki yaad dila di ..
bahut badhai..
main bhi kuch likha hai , jarur padhiyenga pls : www.poemsofvijay.blogspot.com
बहुत बढ़िया ....
ReplyDeleteतुममें एक सफल किस्सागो की साडी खूबियाँ मौजूद हैं. ब्लोगिंग के साथ साथ कुछ बड़ा लिखने की कोशिश करो. गंभीरता से सफल रहोगी. तुम्हारी ब्लोगिंग तुम्हें एक ऐसा बड़ा पाठक वर्ग उपलब्ध कराएगा जिन्हें तुम्हारी ऐसी किसी कृति का उत्सुकता
ReplyDeleteसे इंतजार रहेगा. ब्लोगरों की एक खूबी तुम्हें बहुत रास आएगी . इनमें आलोचना के कीड़े कम ही पाए जाते हैं. मेरी शुभकामना तुम्हारे साथ है.
वरुण